"विकिस्रोत:आज का पाठ/२७ अक्टूबर": अवतरणों में अंतर

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-->'''[[हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण २ बेनी प्रवीन|हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण २ बेनी प्रवीन]]''' [[लेखक:रामचंद्र शुक्ल|रामचंद्र शुक्ल]] द्वारा रचित [[हिन्दी साहित्य का इतिहास]] का एक अंश है जिसके दूसरे संस्करण का प्रकाशन काशी के '''नागरी प्रचारिणी सभा''' द्वारा १९४१ ई॰ में किया गया था।
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"ये लखनऊ के वाजपेयी थे और लखनऊ के बादशाह गाजीउद्दीन हैदर के दीवान राजा दयाकृष्ण कायस्थ के पुत्र नवल कृष्ण उर्फ ललनजी के आश्रय में रहते थे जिनकी आज्ञा से सं० १८७४ मे इन्होंने ‘नवस-तरंग' नामक ग्रंथ बनाया है, इसके पहले 'श्रृंगार-भूषण' नामक एक ग्रंथ ये बना चुके थे। ये कुछ दिन के लिये महाराज नाना राव के पास बिठूर भी गए थे और उनके नाम पर "नानाराव प्रकाश” नामक अलंकार का एक बड़ा ग्रंथ कविप्रिया के ढंग पर लिखा था। खेद है इनका कोई ग्रंथ अब तक प्रकाशित न हुआ । इनके फुटकल कवित्त इधर उधर बहुत कुछ संगृहीत और उद्धृत मिलते है ।..."([[हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण २ बेनी प्रवीन|'''पूरा पढ़ें''']])
"इनका कुछ वृत्त ज्ञात नहीं। इन्होंने संवत् १८०३ के लगभग "रसिक रसाल" नामक एक बहुत अच्छा रीतिग्रंथ बनाया। ग्रंथ में इन्होंने अपने को हरिवल्लभ का पुत्र कहा है। शिवसिंह ने इन्हें गोकुलवासी कहा है। इनका एक सवैया देखिए-
<br>गावैं वधू मधुरै सुर गीतन, प्रीतम सँग न बाहिर आई।
<br>छाई कुमार नई छिति में छवि, मानो बिछाई नई दरियाई॥
<br>ऊँचे अटा चढ़ि देखि चहूँ दिलि बोली यों बाल गरो भरि आई।
<br>कैसी करौं हहरैं हियरा, हरि आए नहीं उलहीं हरियाई॥..."([[हिंदी साहित्य का इतिहास/रीतिकाल प्रकरण २ बेनी प्रवीन|'''पूरा पढ़ें''']])
<noinclude>[[श्रेणी:आज का पाठ अक्टूबर]]</noinclude>