"पृष्ठ:हिंदी साहित्य का इतिहास-रामचंद्र शुक्ल.pdf/१०२": अवतरणों में अंतर

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{{block center|<poem><small>है कोई गुरुज्ञानी जगत महँ उलटि बेद बूझै।
{{block center|<poem><small>है कोई गुरुज्ञानी जगत महँ उलटि बेद बूझै।
पानी महँ पावक बरै, अंधहि आँखिन्ह सूझै॥
पानी महँ पावक बरै, अंधहि आँखिन्ह सूझै॥
गाय तो नाहर को धरि खायो, हरिना खायो चीता।</small></poem>}}<br>अथवा––<br>{{c|<small>नैया बिच नदिया डुबति जाय।</small>}}
गाय तो नाहर को धरि खायो, हरिना खायो चीता।</small></poem>}}
अथवा––<br>{{c|<small>नैया बिच नदिया डुबति जाय।</small>}}
अनेक प्रकार के रूपकों और अन्योक्तियों द्वारा ही इन्होंने ज्ञान की बाते कही हैं, जो नई न होने पर भी वाग्वैचित्र्य के कारण अपढ़ लोगों को चकित किया करती थीं। अनूठी अन्योक्तियों द्वारा ईश्वर-प्रेम की व्यंजना सूफियों में बहुत प्रचलित थी। जिस प्रकार कुछ वैष्णवों में 'माधुर्य' भाव से उपासना प्रचलित हुई थी उसी प्रकार सूफियो में भी ब्रह्म को सर्वव्यापी, प्रियतम या माशूक मानकर हृदय के उद्‌गार प्रदर्शित करने की प्रथा थी। इसको कबीरदास ने ग्रहण किया। कबीर की वाणी में स्थान स्थान पर भावात्मक रहस्यवाद की जो झलक मिलती है वह सूफियों के सत्संग का प्रसाद है। कहीं इन्होंने ब्रह्म को खसम या पति मानकर अन्योक्ति बाँधी है और कहीं स्वामी या मालिक, जैसे––<br>{{c|<small>मुझको क्या तू ढूँढै बंदे मैं तो तेरे पास में।</small>}}
अनेक प्रकार के रूपकों और अन्योक्तियों द्वारा ही इन्होंने ज्ञान की बाते कही हैं, जो नई न होने पर भी वाग्वैचित्र्य के कारण अपढ़ लोगों को चकित किया करती थीं। अनूठी अन्योक्तियों द्वारा ईश्वर-प्रेम की व्यंजना सूफियों में बहुत प्रचलित थी। जिस प्रकार कुछ वैष्णवों में 'माधुर्य' भाव से उपासना प्रचलित हुई थी उसी प्रकार सूफियो में भी ब्रह्म को सर्वव्यापी, प्रियतम या माशूक मानकर हृदय के उद्‌गार प्रदर्शित करने की प्रथा थी। इसको कबीरदास ने ग्रहण किया। कबीर की वाणी में स्थान स्थान पर भावात्मक रहस्यवाद की जो झलक मिलती है वह सूफियों के सत्संग का प्रसाद है। कहीं इन्होंने ब्रह्म को खसम या पति मानकर अन्योक्ति बाँधी है और कहीं स्वामी या मालिक, जैसे––<br>{{c|<small>मुझको क्या तू ढूँढै बंदे मैं तो तेरे पास में।</small>}}
अथवा––
अथवा––