"पृष्ठ:इंशा अल्लाह खान - रानी केतकी की कहानी.pdf/५": अवतरणों में अंतर
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वही |
वही झूलनेवालो लाल जोड़ा पहने हुए, जिसको सब रानी केतकी कहती थीं, उसके भी जी में उसकी चाह ने घर किया। पर कहने-सुनने को बहुत सी नाँह-नूह की और कहा—“इस लग चलने को भला क्या कहते हैं! हक न थक, जो तुम झट से टहक पड़े। यह न जाना, यहाँ रंडियाँ अपने मूल रही है। अजी तुम जो इस रूप के साथ इस रव बेधड़क चले आए हो, ठंडे-ठंडे चले जाओ।” तब कुँवर ने मसोस के मलोला खाके कहा—“इतनी रुखाइयाँ न कीजिए। मैं सारे दिन का थका हुआ एक पेड़ की छाँह में झोस का बचाव करके पड़ रहूँगा। बड़े तड़के धुँधलके में उठकर जिधर को मुँह पड़ेगा चला जाऊँगा। कुछ किसी का लेता देता नहीं। एक हिरनी के पोछे सब लोगों को छोड़-छाड़कर घोड़ा फेंका था। कोई |