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नानामक पुस्तक में मिलते हैं। अंदाल एक स्थल पर कहती है-“अब मैं पूर्ण यौवन को प्राप्त हूँ और स्वामी कृष्ण के अतिरिक्त और किसी को अपना पति नहीं बना सकती ।" इस भाव की उपासना यदि कुछ दिन चले तो उसमें गुह्य और रहस्य की प्रवृत्ति हो ही जायगी । रहस्यवादी सूफियों का उल्लेख ऊपर हो चुका है जिनकी उपासना भी ‘माधुर्य भाव' की थी । मुसलमानी जमाने में इन मूफियों की प्रभाव देश की भक्ति-भावना के स्वरूप पर बहुत कुछ-पड़ा । माधुर्यं भाव को प्रोत्साहन मिला। माधुर्व्य भाव की जो उपासना चलआरा रही थी उसमें सूफियों के प्रभाव सेआरीभ्यॆतर मिलन’, ‘मूछ’, ‘उन्माआअादि की भी रहस्यमयी योजना हुई । मीराबाई और चैतन्य महाप्रभु दोनों पर सूफियों का प्रभाव पाया जाता है।
<noinclude><pagequality level="1" user="रोहित साव27" />{{rh||कृष्णभक्ति-शाखा|१५९}}</noinclude>नानामक पुस्तक में मिलते हैं। अंदाल एक स्थल पर कहती है-“अब मैं पूर्ण यौवन को प्राप्त हूँ और स्वामी कृष्ण के अतिरिक्त और किसी को अपना पति नहीं बना सकती ।" इस भाव की उपासना यदि कुछ दिन चले तो उसमें गुह्य और रहस्य की प्रवृत्ति हो ही जायगी । रहस्यवादी सूफियों का उल्लेख ऊपर हो चुका है जिनकी उपासना भी ‘माधुर्य भाव' की थी । मुसलमानी जमाने में इन मूफियों की प्रभाव देश की भक्ति-भावना के स्वरूप पर बहुत कुछ-पड़ा । माधुर्यं भाव को प्रोत्साहन मिला। माधुर्व्य भाव की जो उपासना चलआरा रही थी उसमें सूफियों के प्रभाव सेआरीभ्यॆतर मिलन’, ‘मूछ’, ‘उन्माआअादि की भी रहस्यमयी योजना हुई । मीराबाई और चैतन्य महाप्रभु दोनों पर सूफियों का प्रभाव पाया जाता है।


सूरदासजी- सूरदासजीजी का वृत्त "चौरासी वैष्णवों की वार्ता" में केवल इतना ज्ञात होता है कि वे पहले गऊघाट (अगिरे और मथुरा के बीच ) पर एक साधु या स्वामी के स्वरूप, में रहा करते थे और शिष्य किया करते थे । गोवर्द्धन पर श्रीनाथजी का मंदिर बन जाने के पीछे एक बार जब वल्लभाचार्य्य जी गऊघाट पर उतरे तब सूरदास उनके दर्शन को आए और उन्हें अपना बनाया एक पद गाकर सुनाया । प्राचार्यजी ने उन्हें अपना शिष्य किया और भागवत की कथाओं को गाने योग्य पदों में करने का आदेश दिया । उनको सच्ची भक्ति और पद-रचना की निपुणता देख वल्लभाचार्यजी ने उन्हें अपने श्रीनाथजी के मंदिर की कीर्तन सेवा सौंपी। इस मंदिर को पूरनमल खत्री ने गोवर्द्धन पर्वत पर संवत् १५७६ में पूरा बनवाकर खड़ा किया था । मंदिर पूरा होने के ११ वर्ष पीछे अर्थात् संवत् १५८७ में वल्लभाचार्यजी की मृत्यु हुई ।
सूरदासजी- सूरदासजीजी का वृत्त "चौरासी वैष्णवों की वार्ता" में केवल इतना ज्ञात होता है कि वे पहले गऊघाट (अगिरे और मथुरा के बीच ) पर एक साधु या स्वामी के स्वरूप, में रहा करते थे और शिष्य किया करते थे । गोवर्द्धन पर श्रीनाथजी का मंदिर बन जाने के पीछे एक बार जब वल्लभाचार्य्य जी गऊघाट पर उतरे तब सूरदास उनके दर्शन को आए और उन्हें अपना बनाया एक पद गाकर सुनाया । प्राचार्यजी ने उन्हें अपना शिष्य किया और भागवत की कथाओं को गाने योग्य पदों में करने का आदेश दिया । उनको सच्ची भक्ति और पद-रचना की निपुणता देख वल्लभाचार्यजी ने उन्हें अपने श्रीनाथजी के मंदिर की कीर्तन सेवा सौंपी। इस मंदिर को पूरनमल खत्री ने गोवर्द्धन पर्वत पर संवत् १५७६ में पूरा बनवाकर खड़ा किया था । मंदिर पूरा होने के ११ वर्ष पीछे अर्थात् संवत् १५८७ में वल्लभाचार्यजी की मृत्यु हुई ।
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"औरहु पद गाए तब श्रीमहाप्रभुजी अपने मन में विचार जो श्रीनाथजी के यहाँ और तो सब सेवा को मंडान भयो है, पर कीर्तन को मंडान नहीं कियो है; तातें अब सूरदास को दीजिए ।”
"औरहु पद गाए तब श्रीमहाप्रभुजी अपने मन में विचार जो श्रीनाथजी के यहाँ और तो सब सेवा को मंडान भयो है, पर कीर्तन को मंडान नहीं कियो है; तातें अब सूरदास को दीजिए ।”


अतः संवत् १५८० के आस-पास सूरदासजी वल्लभाचार्य के शिष्य हुए होंगे और शिष्य होने के कुछ ही पीछे उन्हे कीर्तन सेवा मिली होगी ।तब से वे
अतः संवत् १५८० के आस-पास सूरदासजी वल्लभाचार्य के शिष्य हुए होंगे और शिष्य होने के कुछ ही पीछे उन्हे कीर्तन सेवा मिली होगी ।तब से वे<noinclude>
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