विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग/२५ याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी

विवेकानंद ग्रंथावली : ज्ञान-योग
स्वामी विवेकानंद, अनुवादक जगन्मोहन वर्मा

वाराणसी: नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ १९३ से – २०२ तक

 
(२५) याज्ञवल्क्य और मैत्रेयी।

हम लोग कहा करते हैं कि “बुरा दिन वही है, जिस दिन भगवत् के नाम का कीर्तन न हो; बदली का दिन बुरा दिन नहीं है।” याज्ञवल्क्य नाम के एक महर्षि थे। आप जानते हैं कि भारतवर्ष के शास्त्रों में विधि है कि सब लोगों को वृद्धा- वस्था में संसार को त्याग देना चाहिए। अतः याज्ञवल्क्य ने अपनी पत्नी से कहा कि “प्रिये, यह लो मेरी सारी धन-संपत्ति, मैं जाता हूँ।” उसने पूछा कि―“महाराज, यदि सारी पृथ्वी धन-पूर्ण हो तो क्या इससे मैं अमर हो जाऊँगी?" याज्ञवल्क्य ने कहा―‘नहीं, यह बातें तो होने की नहीं। हाँ इससे तुम धनी हो जायोगी,पर धन से अमरता न होगी।’ उसने कहा कि “तो फिर उन्हें लेकर मैं क्या करूँगी जब मैं उनसे अमरन होऊँगी? यदि आपको कोई उपाय ज्ञात हो तो बतलाइए।” याज्ञवल्क्य ने उत्तर दिया कि―“तू मुझे सदा प्रिय थी और इस प्रश्न के पूछने से और भी अधिक प्रिय है। आ और बैठ। मैं तुझे बतलाता हूँ, सुन और उस पर ध्यान दे।” उसने कहा―“कोई पत्नी पति के लिये पति से प्रेम नहीं करती, वह आत्मा ही के लिये पति से प्रेम करती है। पत्नी के लिये कोई पत्नी से प्रेम नहीं करता, केवल आत्मा के लिये ही वह उससे प्रेम करता है। पुत्र से कोई पुत्र के लिये प्रेम नहीं करता, आत्मा के लिये ही लोग पुत्र से प्रेम करते हैं। धन की कामना से धन प्रिय नहीं होता, केवल आत्मा की कामना ही से धन प्रिय होता है। ब्राह्मण से कोई ब्राह्मण के लिये प्रेम नहीं करता, केवल आत्मा के लिये ही लोग ब्राह्मण से प्रेम करते हैं। क्षत्रिय से कोई क्षत्रिय के विचार से प्रेम नहीं करता, आत्मा ही के विचार से क्षत्रिय से लोग प्रेम करते हैं। संसार से कोई संसार के लिये प्रेम नहीं करता, आत्मा ही के लिये लोग संसार से प्रेम किया करते हैं। इसी प्रकार देवताओं से कोई देवता के लिये प्रेम नहीं करता, केवल आत्मा के लिये ही देवता लोगों को प्रिय होते हैं। कोई किसी से उसके लिये प्रेम नहीं करता, केवल आत्मा ही के लिये वह उसे प्रिय होता है। अतः आत्मा का श्रवण, मनन और निदध्यासन करना चाहिए। हे मैत्रेयी! जब आत्मा का श्रवण, मनन और निदध्यासन किया जाता है, तभी इन सबका ज्ञान हो जाता है।” इससे क्या तात्पर्य निकलता है? हमारे सामने एक अद्भुत विज्ञान आता है। बात यह है कि नीची दशा में सब प्रेम स्वार्थ से होते हैं। कारण यह है कि मैं अपने से प्रेम करता हूँ, इसी लिये मैं दूसरों से प्रेम करता हूँ। पर यह हो नहीं सकता। आजकल भी दार्शनिक हैं जो यह समझते हैं कि आत्मा ही संसार में मुख्य कर्मशक्ति है। यह ठीक तो है, पर मिथ्या भी है। यह आत्मा तो उस सच्ची आत्मा की छाया मात्र है जो इससे परे है। यह मिथ्या और तुच्छ इसलिये जान पड़ता है कि यह स्वल्प है। अनंत प्रेम आत्मा का, जो विश्व है, इस कारण तुच्छ और मिथ्या जान पड़ता है कि एक छोटे अंश के द्वारा उपलब्ध होता है। यहाँ तक कि जब पत्नी पति के साथ प्रेम करती है, तब चाहे वह इसे जाने वा न जाने, वह पति से आत्मा के लिये प्रेम करती है। यह स्वार्थ इसलिये है कि यह संसार में व्यक्त होता है, पर यह स्वार्थ सचमुच उस स्वार्थ का एक तुच्छ अंश है। जब कोई प्रेम करता है, तब वह उसी आत्मा के द्वारा करता है। यह आत्मा जानने योग्य है। भेद क्या है? जो आत्मा का प्रेम बिना यह जाने करता है कि वह क्या है, उसी का प्रेम स्वार्थ है। जो यह जानकर कि आत्मा क्या है उससे प्रेम करता है, वही मुक्त है; वही ऋषि है। “उसीको ब्राह्मण त्याग देता है जो ब्राह्मण को आत्मा से पृथक् देखता है। उसीको क्षत्रिय त्याग देता है जो क्षत्रिय को आत्मा से पृथक् देखता है। संसार उसे त्याग देता है जो संसार को आत्मा से अलग देखता है। जो सबको आत्मा से पृथक् जानता है, उसके लिये सब चले जाते हैं। यह ब्राह्मण, यह क्षत्रिय, यह संसार, ये देवता जो कुछ हैं, सब कुछ वही आत्मा ही हैं।” इसी प्रकार उसने यह बतलाया कि प्रेम से उसका अभिप्राय क्या है। जब हम किसी वस्तु को विशेषता देते हैं, हम उसे आत्मा से पृथक् मानते हैं। मान लीजिए कि मैं किसी स्त्री से प्रेम करना चाहता हूँ। ज्यों ही उस स्त्री को विशेषता दी गई, वह आत्मा से अलग की गई। मेरा प्रेम शाश्वत न रहा और उसका अंत दुःख होगा। ज्यों ही मैं देखता हूँ कि वह स्त्री आत्मा है, मेरा वह प्रेम पक्का हो जाता है और दुःख नहीं होता। यही दशा सबकी है। ज्यों ही आपको विश्व की किसी वस्तु से राग होता है, आप उसे विश्व से अलग करते हैं, आत्मा से अलग करते हैं; फिर वेदना उत्पन्न होती है। प्रत्येक वस्तु का जिसके साथ हम उसे आत्मी से अलग जानकर प्रेम करेंगे, परिणाम दुःख और शोक होगा। यदि हम प्रत्येक में उसे आत्मा मानते हुए भोग करें तो दुःख वा वेदना न होगी। यही पूर्ण आनंद है। इस आदर्श पर पहुँचें कैसे? याज्ञवल्क्य आगे चलकर हमें यह बतलाते हैं कि हमें वह दशा कैसे प्राप्त हो सकती है। विश्व तो अनंत है। हम कैसे प्रत्येक वस्तु को लेकर उसको बिना आत्मा के जाने हुए आत्मा समझें? ‘जैसे दुंदुभी से जब तक हम दूर हैं, हम शब्द को ग्रहण नहीं कर सकते; पर ज्यों ही हम दुंदुभी के पास पहुँचते हैं और उस पर थाप देते हैं, शब्द हमारे वश में हो जाता है। जब शंख बजता रहता है, हमें ध्वनि पर अधिकार नहीं रहता। जब हम शंख के पास जाते हैं और उसे हाथ में लेते हैं, तभी उसका बजाना हमारे वश में होता है। बीन बजाने में जब हम बीन के पास पहुँचते हैं और उसे उठाकर बजाते हैं, तभी उससे शब्द होता है। जैसे कोई गीली लकड़ी जला रहा है। उससे वर्ण वर्ण के धूएँ और चिनगारियाँ निकलती हैं। इसी प्रकार उस महाभूत से ज्ञान निकलते हैं। सब उसीसे निकले हैं। मानो सारे ज्ञान उसकी साँस के समान निकले हैं। इसी प्रकार सारे जल की गति

समुद्र में है, सारे स्पर्श का केंद्र त्वचा है, सारे गंध का नासिका,
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सारे स्वादु का जिह्वा, सारे रूपों का चक्षु, सारे शब्दों का आधार कान, सारे विचारों का आधार मन, सारे विचारों का हृदय, सारे कर्मों का हाथ है। जैसे नमक को एक कंकड़ी यदि समुद्र में डाल दी जाय तो वह मिल जाती है, हम उसे फिर निकाल नहीं सकते, इसी प्रकार हे मैत्रेयी,वह आत्मा नित्य अनंत है; उसमें सब ज्ञान है। उसीसे सारा विश्व निकलता और फिर उसीमें समा जाता है। उसमें मृत्यु वा मरण का कोई ज्ञान नहीं रह जाता। हमें यह विचार होता है कि हम उससे चिनगारी की भाँति निकले हैं और जब तुमको उसका ज्ञान हो जाता है तब तुम उसमें जाकर एकीभूत हो जाते हो। हम विश्वात्मा हैं।”

मैत्रेयी इससे भयभीत हो गई, जैसे सर्वत्र लोग डर जाया करते हैं। वह कहने लगी―“महाराज, आपने तो मुभो भ्रम में डाल दिया। आपने यह कहकर मुझे डरा दिया कि फिर कोई देवता न रहेंगे, सारी व्यक्तिता जाती रहेगी; न कोई देखने वा पहचानने को रहेगा, न प्रेम करने को और न घृणा करने को। तो फिर हमारी क्या दशा होगी?” “मैत्रेयी! मैं तुम्हें भ्रम में नहीं डालना चाहता। तुम इस बात को छोड़ दो। तुम भले ही डरो; पर दो कहाँ हैं कि कोई किसी को देखे या सुने, किसी का स्वागत करे, किसी को जाने? पर अब सब आत्मा हो गया, तब कौन किसे देखे, कौन किसकी सुने, कौन किसका स्वागत करे, कौन किसको जाने।’ इसी एक विकार

को शोपनहार ने ले लिया है और उसके दर्शन में इसी के साथ
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गूँँज रहे हैं। किसके द्वारा हम विश्व को जानें? किससे उसे जानें? जाननेवाले को जानें कैसे? क्योंकि उसीसे और उसी के द्वारा हम सबको जानते हैं। किससे हम उसे जानें? कुछ कारण तो है ही नहीं। वही वह करण है। उसी करण का जानना सदा आवश्यक है।

यहाँ तक तो यही बात है कि सब अनंत आत्मा हैं। वही वास्तविक व्यक्तिता है जिसमें न कोई अंश है न भाग; यह तुच्छ भाव अत्यंत हेय है, भ्रमपूर्ण है। पर प्रत्येक रूप की चिनगारी में वही अनंतात्मा चमक रहा है। सब उसी आत्मा के विग्रह स्वरूप हैं। उसे पावें तो कैसे पावें? पहले यह आप बतलाइए। याज्ञवल्क्य कहते हैं―“पहले आत्मा को श्रवण करना चाहिए।” इस प्रकार उन्होंने कहा; फिर उन्होंने युक्तिवाद दिया और अंत को यह सिद्धांत स्थिर किया कि उसे जानें कैसे जिससे सारा ज्ञान हो सकता है। फिर अंत को उसका निदध्यासन करते हैं। फिर वह सूक्ष्म और स्थूल जगत् को लेते हैं और दिख- लाते हैं कि कैसे वे एक चक्र पर घूम रहे हैं और कैसे सुंदर जान पड़ते हैं। पृथ्वी कैसी आनंदमय और कैसी सबकी उप- कारिणी है; और सब प्राणी पृथ्वी के लिये कैसे उपकारी हैं। वह स्वयं प्रकाश आत्मा है, कोई उसके लिये उपकारी नहीं हो सकता। जो आनंद है वह निकृष्ट क्यों न हो, उसीका आभास है। जो अच्छा है, सब उसका आभास है,

और जब वह आभास छाया होती है, तो उसे बुरा कहते हैं।
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कोई दो देवता हैं ही नहीं। जब वही कम व्यक्त होता है, तब उसोको अंधकार या बुराई कहते हैं; और जब अधिक व्यक्त होता है तब वही प्रकाश कहलाता है। यही बात है। वह भले और बुरे में केवल मात्रा के भेद से है, कम व्यक्त वा अधिक व्यक्त के भेद से। हमारे ही जीवन का उदाहरण लीजिए। हम अपने बचपन में कितनी ही चीजों को देखते हैं जो हमें अच्छी लगती हैं, पर वास्तव में वे बुरी होती हैं। कितनी ही चीजें बुरी जान पड़ती हैं जो सचमुच भली होती हैं। पर यह भाव बदलता कैसे है? कैसे विचार उन्नत होता जाता है? जिसे हम एक समय बहुत अच्छा समझते हैं, वहीं पीछे वैसा अच्छा नहीं रह जाता। अतः भलाई और बुराई विश्वास की बात हुई, और वे कहीं हैं नहीं। भेद केवल मात्रा का है। सब उसी आत्मा की अभिव्यक्ति है। वह सब रूपों में अभिव्यक्त हो रहा है। जब अभिव्यक्ति बहुत स्थूल होती है, तब हम उसे बुरा कहते हैं और जब सूक्ष्म होती है, तब हम उसे अच्छा कहते हैं। जब सारी बुराई जाती रहती है, तब वही सर्वोत्तम होता है। अतः विश्व में जो कुछ है, सबका पहले निदध्यासन करना चाहिए। उसी अवस्था में वे सब हमें अच्छे देख पड़ेगे क्योंकि वे सर्वोत्कृष्ट है। यहाँ बुरा भी है और भला भी, पर सब सर्वोत्कृष्ट सत् ही हैं। वह न बुरा है न भला, वह सर्वोत्कृष्ट है। सर्वोत्कृष्ट एक ही हो सकता है, भले बुरे तो अनेक हो

सकते हैं। भले बुरे में मात्रा का अंतर होगा, पर सर्वोत्कृष्ट
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कोई एक ही होगा। जब उसी सर्वोत्कृष्ट पर सूक्ष्म आवरण रहता है, तब हम उसे भिन्न भिन्न प्रकार का भला कहते हैं और जब आवरण स्थूल होता है, तब वही बुरा कहलाता है। भले और बुरे विश्वास के भिन्न भिन्न रूप हैं। वे भिन्न भिन्न प्रकार के द्वैत विचार से उत्पन्न हुए हैं और नाना प्रकार के भाव और शब्द लोगों के हृदय में जम गए हैं। वे स्त्री पुरुष को कष्ट दे रहे हैं और वहाँ आततायियों की भाँति डेरा डाले हुए हैं। वे हमें बाघ बना देते हैं। सारी घृणा जो हम दूसरों के प्रति करते हैं, वह इसी भले और बुरे के विचार से जो बचपन से हमारे मन में गड़े हैं, उत्पन्न होती है। मनुष्य के संबंध में हमारा विचार नितांत मिथ्या हो जाता है; हम इस सुंदर पृथ्वी को नरक बनाए हुए हैं। पर ज्यों ही हममें से भले बुरे के विचार जाते रहते हैं, वह फिर स्वर्ग हो जाती है।

पृथ्वी सब प्राणियों के लिये मीठी है और सब प्राणी पृथ्वी के लिये मीठे हैं। वे परस्पर एक दूसरे के सहायक हैं। और सारी मिठास आत्मा है―वही स्वयंप्रकाश अमृत जो पृथ्वी के भीतर है। यह मिठास किसकी है? बिना उसके मिठास हो कैसे सकती है? वही एक मिठास नाना रूपों में प्रकट हो रही है। जहाँ कहीं किसी मनुष्य में कुछ प्रेम, कुछ मिठास है, चाहे वह महात्मा हो वा पापात्मा, देवता हो वा हिंसक, चाहे वह शारी- रिक हो, मानसिक हो वा आध्यात्मिक, सब वही है। शारीरिक

सुख वही है, मानसिक सुख वही है,, आध्यात्मिक सुख वही
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है। बिना उसके और दूसरा हो कैसे सकता है? यह मिठास उसके अतिरिक्त कहाँ है? यह याज्ञवल्क्य का कथन है। जब तुम उस दशा को प्राप्त होते हो और सबको उसी दृष्टि से देखते हो, जब तुम्हें, मद्यप को जो पानंद मद्य में मिलता है, उसमें भी उसीकी मिठास दिखाई पड़े, तब जानो कि तुम्हें सत्य मिल गया। तभी तुम यह जानोगे कि आनंद क्या है, शांति किसे कहते हैं, प्रेम किसका नाम है। जब तुम में यह व्यर्थ का भेद भाव बना है, यह बच्चों का सा तुच्छ पक्षपात बना है, सब प्रकार के ही दुःख होंगे। पर वह अमर, वह तेजस्वी जो पृथ्वी के भीतर है, यह उसी की मिठास है और वही शरीर में है। यह शरीर मानों पृथ्वी है और शरीर के सारे बल, शरीर के सारे सुख- भोग वही हैं। आँखें देखती हैं, त्वचा स्पर्श करती है; यह सब विषय हैं क्या? वही स्वयंप्रकाश है जो शरीर में है; वही आत्मा है। यह संसार जो सबको इतना मीठा है और सब प्राणी संसार को मीठे हैं, क्या है? वही स्वयंप्रकाश तो है। इस लोक में आनंद ही निर्विकार है। हममें भी वही आनंद है। वही ब्रह्म है। “यह वायु सबको इतनी मीठी है और सब प्राणी इसे इतने मीठे हैं, पर वह जो वायु में स्वयं- प्रकाश और अविनाशी सत्ता है, वही इस शरीर में भी है। वह अपने को सब प्राणियों के जीवन के रूप में व्यक्त कर रहा है। सूर्य्य सब प्राणियों का मधु है और सब प्राणी सूर्य्य के

मधु हैं। जो स्वयंप्रकाश पुरुष सूर्य्य में है, उसकी तुच्छ किरण
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हममें भी है। सिवाय उसके आभास के और हो क्या सकता है। वह शरीर में है; यह उसकी ज्योति है, जिससे हम प्रकाश को देखते हैं। चंद्रमा सबका मधु है; सब प्राणी चंद्रमा के मधु हैं, पर वह स्वयंप्रकाश अविनाशी जो उस पुरुष की आत्मा है, वह मनं रूप से व्यक्त हो रहा है। विद्युत् सवको मधु है, सब विद्युत् के मधु हैं। पर वह स्वयंप्रकाश और अविनाशी विद्युत् की भी आत्मा है। वही हम में है; ब्रह्म है। मनुष्य पशुओं का मधु है और पशु मनुष्य के मधु हैं। पर जो मनुष्य की आत्मा है, वही पशु की आत्मा है। यही आत्मा सब प्राणियों का राजा है।” ये विचार मनुष्य के बड़े काम के हैं; ये निद- ध्यासन के लिये ध्यान करने के लिये हैं। उदाहरण के लिये मान लीजिए कि हम पृथ्वी पर निदध्यासन करते हैं। पृथ्वी पर विचार कीजिए और साथ ही इसे भी जानिए कि हम वह हैं जो पृथ्वी में है; दोनों एक ही हैं। शरीर को पृथ्वी समझिए और आत्मा को वह आत्मा जानिए जो उसमें है। वायु को वह आत्मा जानिए जो वायु में है और वही मुझमें है। सब एक ही हैं, केवल भिन्न भिन्न रूप में व्यक्त हो रहे हैं।


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