विवेकानंद ग्रंथावली:ज्ञान-योग/१८ कर्म-वेदांत

विवेकानंद ग्रंथावली : ज्ञान-योग
स्वामी विवेकानंद, अनुवादक जगन्मोहन वर्मा

वाराणसी: नागरी प्रचारिणी सभा, पृष्ठ ३० से – ५९ तक

 

कर्म्म-योग।
(दूसरा भाग)
(लंदन १२ नवंबर १८९६)

मैं आपको छांदोग्य उपनिषद् की एक कथा सुनाता हूँ जिससे आपको जान पड़ेगा कि एक लड़के में ज्ञान का आविर्भाव कैसे हुआ। कथा की बनावट अत्यंत भोंडी है, पर हमें यह जान पड़ेगा कि इसमें एक सिद्धांत भरा हुआ है। एक छोटे लड़के ने अपनी माता से कहा―‘मैं वेदाध्ययन करने जाता हूँ; मुझे मेरे पिता का नाम और गोत्र बतला दो।’ उसकी माता विवाहिता न थी और भारतवर्ष में ऐसी स्त्री की संतान जो विवाहिता नहीं है, व्रात्य समझी जाती है। समाज के लोग उसे अधि-

कारी नहीं समझते और उसने वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है।
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निदान बेचारी माता ने कहा―‘पुत्र,मैं तेरे गोत्र को नहीं जानती। मैं यौवनावस्था में दासी कर्म करती थी और मैंने बहुतों के यहाँ काम किया। मैं यह नहीं जानती कि तेरा कौन पिता है; मेरा नाम जबला है और तेरा नाम सत्यकाम।” छोटा बालक आचार्य्य के पास गया और उपनयन करने के लिये प्रार्थना की। आचार्य्य ने उसके पिता और गोत्र का नाम पूछा। लड़के ने वही सब जो अपनी माता से सुना था, ज्यों का त्यों कह सुनाया। आचार्य्य ने सुनकर कहा―‘ब्राह्मण को छोड़ इतना खरा सत्य कोई कह ही नहीं सकता। तू ब्राह्मण है और मैं तुझे वेदारंभ कराऊँगा। तू सत्य कहने में रुका नहीं।’ उसने बालक को अपने आश्रम में ले लिया और उसे अध्ययन कराने लगा।

अब आगे प्राचीन काल की प्रचलित शिक्षा की अद्भुत प्रणाली आती है। आचार्य्य सत्यकाम को चार सौ दुवली और निर्बल गौएँ चराने को देकर जंगल में भेजता है। वहाँ जाकर वह कुछ काल तक रहा। आचार्य्य ने उससे कहा था कि उस समय आना जब गौत्रों की संख्या एक सहस्त्र हो जाय। कई वर्ष बीतने पर सत्यकाम ने एक दिन गोष्ठी के एक बड़े वृषभ के शब्द को सुना। उसने उससे कहा―“अब हमारी संख्या एक सहस्त्र को पहुँच गई; हमें आचार्य के पास ले चलो। मैं तुमको ब्रह्म-ज्ञान की कुछ शिक्षा दूँँगा।” सत्यकाम ने कहा― ‘बहुत अच्छा महाराज, शिक्षा दीजिए।’ वृषभ बोला―‘ब्रह्म का

एक भाग पूर्व है, एक पश्चिम, एक दक्षिण और एक उत्तर।
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चारों दिशाएँ ब्रह्म का एक एक पाद हैं। अग्नि भो तुझे ब्रह्म ज्ञान की शिक्षा देगा।’ उस समय अग्नि एक बड़ी प्रतीक थी। प्रत्येक ब्रह्मचारी अग्नि की परिचर्य्या किया करताथा और उसमें आहुतियाँ देता था। इस प्रकार दूसरे दिन सत्यकाम गुरु के घर चला। मार्ग में जहाँ सायंकाल हुआ, वह अग्निहोत्र करने लगा। अग्नि के पास बैठा ही था कि अग्नि उससे बोला―‘सत्य- काम’। सत्यकाम ने कहा―‘भगवन् , क्या कहते हैं?’ संभव है कि आपको इससे प्राचीन नियम की धर्म-पुस्तक की उस कथा का स्मरण आ जाय कि सेमुअल ने कैसे अलौकिक शब्द सुना था। अग्नि ने कहा―‘सत्यकाम’ मैं तुम्हें ब्रह्म का कुछ उपदेश देने आया हूँ। यह पृथ्वी ब्रह्म का एक पाद है, आकाश दूसरा पाद, अंतरिक्ष तीसरा पाद और समुद्र चौथा पाद है।’ फिर अग्नि ने कहा―‘एक पक्षी भी तुम्हें कुछ शिक्षा देगा।’ सत्य- काम आगे चला और जब बह सायंकाल का अग्निहोत्र कर चुका तो एक हंस उसके पास आया और बोला―‘मैं तुझे ब्रह्म- शिक्षा दूँँगा। अग्नि ब्रह्म का एक पाद है, सूर्य्य दूसरा, चंद्रमा तीसरा और विद्युत् चौथा पाद है। अब मद्गु नामक एक पक्षी तुझे ब्रह्म का और उपदेश करेगा।’ दूसरे दिन सायंकाल सत्य- काम के पास मद्गु पक्षी आया और कहने लगा―‘सत्यकाम, मैं तुझे ब्रह्म का उपदेश करूँगा। ब्रह्म का एक पाद घ्राण है, दूसरा चक्षु, तीसरा श्रोत्र और चौथा मन है।’ अब उस

बालक ने आचार्य्य-कुल में आकर आचार्य्य को अभिवादन
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किया। ज्यों ही आचार्य्य ने अपने अंतेवासी को देखा, उसने किया। आचार्य ने कहा―‘सत्यकाम, तेरा मुख ब्रह्मविद् के समान चमकता है। तुझे किसने शिक्षा दी है? सत्यकाम ने कहा―‘मुझे अमानुष (देवता) ने शिक्षा दी है। पर मैं चाहता हूँ कि आप भी मुझे शिक्षा दीजिए। क्योंकि मैंने आपके सदृश आचार्य्यो से सुना है कि आचार्य्य से पठित विद्या ही फलवती होती है’। फिर तो आचार्य्य ने उसे उसी ज्ञान का उपदेश किया जो उसे देवताओं ने सिखलाया था; और कुछ भी उठा न रखा।

अब यदि उन वाक्यों से कि जिनकी शिक्षा वृषभ, अग्नि, और पक्षियों ने दी, रूपक के अंश को अलग कर दीजिए तो इस बात का स्पष्ट पता चलता है कि उस समय विचार की क्या प्रवृत्ति थी और वह प्रवृत्ति किस ओर जा रही थी। इसमें जिस ऊँचे विचार का बीज पाया जाता है, वह यह है कि सारी बातें हमारे भीतर से ही सुनाई पड़ती हैं। हम ज्यों ज्यों इस सत्य को समझेंगे, हमें जान पड़ेगा कि शब्द उसके भीतर ही से था और ब्रह्मचारी ने समझा कि वह सदा सत्य ही को सुना करता था, पर उसका उचित समाधान न कर सका था। वह समझता था कि शब्द बाहर से आ रहा है, पर वह शब्द सदा उसके भीतर से था। दूसरी बात जो इससे हमें जान पड़ती है, यह है कि ब्रह्मज्ञान वास्तविक वा व्याव- हारिक होना चाहिए। संसार सदा धर्म की व्यावहारिक

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उत्पत्तियों की खोज में है; और इन कथाओं से हमें अनुमान होता है कि यह कैसे दिनों दिन व्यावहारिक हो रहा था। उन सारे पदार्थों में सत्य ही निकलता हुआ दिखलाया गया है जिनके साथ ब्रह्मचारी का संपर्क था। अग्नि जिसकी उपा- सना वह करता, ब्रह्म था; पृथ्वी ब्रह्म का अंश थी और इसी प्रकार औरों को भी समझ लीजिए।

दूसरी कथा उपकोशल कामलायन की है। वह सत्यकाम का अंतेवासी था। वह उसके पास वेदाध्ययन के लिये गया था और उसके यहाँ कुछ काल रहा था। सत्यकाम एक बार यात्रा करने गया। ब्रह्मचारी बड़ा ही दुखी हुआ। उसकी आचारणी ने आकर उससे कहा कि उपकोशल, तुम खाते क्यों नहीं? बालक ने कहा―मुझे बड़ा खेद है; मैं न खाऊँगा। फिर उस अग्नि से जिसकी वह परिचर्य्या कर रहा था, यह शब्द निकला कि ‘यह आत्मा ब्रह्म है, आकाश ब्रह्म है और आनंद ब्रह्म है। ब्रह्म को जानो’। बालक ने उत्तर दिया कि मैं यह तो जानता हूँ कि आत्मा ब्रह्म है; पर आकाश ब्रह्म है और आनंद ब्रह्म है, यह मैं नहीं जानता हूँ। तब अग्नि ने उसे समझाया कि आकाश और आनंद एक ही पदार्थ अर्थात् चिदाकाश के बोधक हैं जो हमारे अंतःकरण में है। एवं उसने उसे यह शिक्षा दी कि ब्रह्म ही आत्मा है और ब्रह्म ही अंतःकरणगत आकाश है। अग्नि ने कहा कि पृथ्वी, अन्न, अग्नि और आकाश जिनकी हम उपासना

करते हैं, ब्रह्म के रूप हैं। वह पुरुष जो आदित्य में है, वह मैं हूँ।
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जो उसे जानता है और उसका ध्यान करता है, वह निष्पाप हो जाता है, दीर्घायु होता है और सुखी होता है। वह जो सब दिशाओं में, चंद्रमा, नक्षत्र और जल में रहता है, वह मैं ही हूँ। वह जो इस आत्मा में, आकाश में, अंतरिक्ष में और विद्युत् में रहता है, वह मैं हूँ। यहाँ पर भी हमें वही व्यावहारिक धर्म का भाव देख पड़ता है। इस कथा में उन्हीं पदार्थों का जिन्हें वे पूजते थे, जैसे अग्नि, सूर्य्य, चंद्र इत्यादि और शब्द का जिसे वे सुना करते थे, उल्लेख हुआ है। उन्हीं के द्वारा उच्च भावों का स्पष्टीकरण कराया गया है और उन्हीं से वे प्राप्त हुए हैं, यह दिखलाया गया है। वेदांत का यही सच्चा कर्म-कांड है। इससे संसार का नाश नहीं होता अपितु उसका स्पष्टीकरण होता है। यह पुरुष को मिटाता नहीं अपितु उसके अर्थ को समझा देता है। यह व्यक्तता को नष्ट नहीं करता किंतु उसे बोधगम्य कर देता है और वास्तविक व्यक्तता क्या है, इसे दिखला देता है। यह यह नहीं दरसाता कि संसार असार है और है ही नहीं, अपितु यह कहता है कि ‘इस संसार को जानो कि यह क्या है, जिसमें यह तुम्हें हानि न पहुँचावे।’ उस वाणी ने सत्यकाम से यह नहीं कहा कि अग्नि जिसकी वह पूजा कर रहा था वा सूर्य्य, चंद्र, विद्युत् आदि मिथ्या थे; अपितु उसने यह कहा कि वही आत्मा जो सूर्य्य, चंद्र, विद्युत्, अग्नि, पृथ्वी में है, उसमें है; और सब की दशा सत्यकाम की आँखों के सामने

मानो फिर गई। वही अग्नि जो भौतिक अग्नि थी, जिसमें वह
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आहुतियाँ दिया करता था, फिर तो कुछ और हो गया और ब्रह्मरूप हो गया। पृथ्वी का रूप बदल गया, आत्मा का रूप बदल गया, सूर्य्य, चंद्र, तारे और विद्युत् सबके रूप बदल गए और देवस्वरूप बन गए। उनका वास्तविक स्वरूप प्रकट हो गया। वेदांत का उद्देश है सबमें ब्रह्म को देखना, सबको उनके वास्तविक स्वरूप में देखना, ऐसा न देखना जैसे कि वे दिखाई पड़ते हैं।

फिर उपनिषद् में एक और उपदेश है। वह यह है कि ‘वह जो आँखों में होकर चमकता है, ब्रह्म है।’ वही सौम्य है* वही दिव्य है; वही सारे लोकों में प्रकाशमान है। भाष्यकार कहते हैं कि यहाँ आँख की ज्योति से अभिप्राय उस अद्भुत तेज से है जो शुद्ध पुरुष को उपलब्ध होता है। यह कहा जाता है कि जब मनुष्य शुद्ध वा पापरहित हो जाता है तो उसकी आँख में एक ज्योति चमकने लगती है और वह ज्योति उस आत्मा की है जो भीतर और बाहर सर्वत्र व्याप्त है। यह वही ज्योति है जो ग्रहों, तारों और सूय्यों में चमकती है।

अब मैं आपके सामने उपनिषद् के अन्य सिद्धांतों का वर्णन करता हूँ जो जन्म-मरणादि के संबंध में हैं। संभव है कि यह आपको रोचक प्रतीत हो। श्वेतकेतु पंचाल के राजा के पास गया और राजा ने उससे पूछा―‘क्या तुम यह जानते हो कि लोग मर कर कहाँ जाते हैं? क्या तुम जानते हो कि वे कैसे


* य एषोऽक्षिणी पुरुषो दृश्यते एष आत्मा हो वाच एतदष्टतमयमेतदब्रह्म इति―छा० ८ । ७ । ४
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लौटते हैं? क्या तुम यह जानते हो कि यह लोक मर क्यों नहीं जाता है?’ बालक ने उत्तर दिया कि मैं नहीं जानता हूँ। फिर वह अपने पिता के पास गया और उससे वही प्रश्न किए। पिता ने कहा, मैं भी नहीं जानता; और दोनों राजा के पास गए। राजा ने कहा कि अब तक यह विद्या ब्राह्मणों को ज्ञात नहीं थी। राजा लोग ही इसे जानते थे, इसीसे वे जगत् के शासक थे। वह राजा के पास कुछ काल तक रह गया और अंत को राजा ने कहा―‘अच्छा मैं तुम्हें बताता हूँ। हे गौतम, दूसरा लोक अग्नि है, आदित्य समिधा है, राशियाँ धूम हैं, दिन ज्वाला है और चंद्रमा अंगारा है। इस अग्नि में देवता लोग श्रद्धा की आहुति देते हैं और उससे सोम राजा उत्पन्न होता है।’ इसी प्रकार वह कहता जाता है―‘तुम्हें उस भौतिक अग्नि में आहुति देने की आवश्यकता नहीं। सारा संसार वही अग्नि है। यह आहुति नित्य पड़ती रहती है, पूजा नित्य होती रहती है। देवता, गंधर्व सब पूजा करते रहते हैं। मनुष्य का यह शरीर अग्नि का सबसे बड़ा प्रतीक है। यहाँ पर भी हमें वही बात देख पड़ती है। आदर्श व्यावहारिक होता जा रहा है, सब में ब्रह्म ही देखा जाता है। इन सब कथाओं में जो सिद्धांत भरा है, वह यह है कि कल्पित प्रतीक अच्छे भले ही हों, वे उपकारी भी हों, पर फिर भी हमारे कल्पित प्रतीकों से कहीं अच्छे प्राकृतिक प्रतीक हैं। आप एक मूर्ति बना सकते हैं और उसके

द्वारा ईश्वर की पूजा करते हैं और वह अच्छा भी हो सकता
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है; पर उससे कहीं अच्छा, कहीं श्रेष्ठ प्रतीक वर्तमान है और वह मनुष्य का शरीर है।

स्मरण रखिए कि वेद के दो भाग हैं―कर्मकांड और ज्ञान- कांड। समय बीतने पर कर्मकांड इतना बढ़ गया था और जटिल हो गया था कि उसका सुलझाना असाध्य हो गया था। और हमें जान पड़ता है कि उपनिषद् में कर्मकांड लगभग दूर किए गए हैं, पर धीरे धीरे उन्हें समझाकर। हम देखते हैं कि प्राचीन काल में अग्निहोत्र और यज्ञादि किए जाते थे। फिर दार्शनिक लोग आए और उन लोगों ने अज्ञानी लोगों के हाथ से प्रतीको को छीनने के स्थान में वा उनका खंडन करने के स्थान में, जैसे कि दुर्भाग्यवश आजकल के संशोधक प्रायः किया करते हैं, उन्हें और प्रतीक दे दिए। उन लोगों ने कहा―लो यह अग्नि का प्रतीक है। क्या ही अच्छा है। पर यह पृथ्वी दुसरा प्रतीक है। यह कैसा भव्य और महान् प्रतीक है। यह एक छोटा मंदिर है, पर देखो तो यह सारा विश्व कैसा अच्छा मंदिर है। मनुष्य जहाँ चाहे, उपा- सना कर सकता है। मनुष्य नाना प्रकार की आकृतियाँ बनाते हैं; पर देखो यह कैसी अद्भुत वेदी है―जीता जागता मनुष्य का पिंड; और इस वेदी पर पूजा करना किसी जड़ वेदी पर पूजा करने से कितना श्रेष्ठ और उत्तम है।

अब हम एक अद्भुत सिद्धांत के मत पर पहुँचते हैं। मैं इसे स्वयं नहीं समझता हूँ। मैं आपके सामने उसे पढ़े देता हूँ। आप समझ सकें तो समझिए। “जब मनुष्य मरता है तब यदि वह तप से शुद्ध है और ज्ञान को प्राप्त कर चुका है, वह प्रकाश को प्राप्त होता है। प्रकाश से दिन को, दिन से शुक्ल पक्ष को, शुक्ल पक्ष से उत्तरायण को, उत्तरायण से संवत्सर को, संवत्सर से आदित्य को, आदित्य से चंद्रमा को, चंद्रमा से विद्युत् को और तब वह विद्युत् लोक को पहुँचता है। तब उसे दिव्य पुरुष मिलता है और वह उसे ब्रह्मलोक को पहुँँचाता है।” इसे देवयान कहते हैं। जब ऋषि और ज्ञानी लोग मरते हैं, तब वे इसी मार्ग से होकर जाते हैं और लौटकर नहीं आते। इस पक्ष और वर्ष का अभिप्राय क्या है, यह किसी की समझ में नहीं आता। सब अपनी अपनी सी कहते हैं। सूर्य्य, चंद्र- लोकादि में जाने और विद्युत् लोक पहुँचकर वहाँ उस दिव्य पुरुष के मिलने का और क्या आशय है, यह किसी के ध्यान में नहीं आता। हिंदुओं में एक यह विश्वास है कि चंद्र- लोक में पितर रहते हैं; और हम यह भी देखते हैं कि चंद्रलोक से जीवन आता है। जिन लोगों को ज्ञान प्राप्त नहीं हुआ है पर जो अपने जीवन में शुभ कर्मों का अनुष्ठान कर चुके हैं, वे मरने पर पहले धूम को प्राप्त होते हैं, फिर रात्रि को, फिर कृष्णपक्ष को, फिर दक्षिणायन को, फिर वे पितर लोक में जाते, हैं, फिर आकाश में, फिर चंद्रमा में पहुँचते हैं। वहाँ वे देव- ताओं के अन्न बनते हैं और पुनः देवयोनि को प्राप्त होकर उनके पुण्य कर्मों का जब तक क्षय नहीं होता, सुख भोगते हैं। जब पुण्य फल का क्षय हो जाता है तब वे उसी मार्ग से पृथ्वी पर लौट आते हैं। वे पहले आकाश, फिर वायु, फिर धूप, फिर कुहरा, तब बादल होते हैं और वहाँ से मेघ की बूँँद बन- कर पृथ्वी पर गिरते हैं। यहाँ वे अन्न होते हैं और उनको मनुष्य खाता है; और अंत को वे उसकी संतान के रूप में जन्म लेते हैं। जिनके कर्म बहुत ही अच्छे होते हैं, वे अच्छे कुल में जन्म लेते हैं; जिनके कर्म अच्छे नहीं होते वे नीच योनि में पशु आदि के शरीर धारण करते हैं। पशु लगातार इस लोक में आते जाते रहते हैं। यही कारण है कि पृथ्वी न तो भर जाती है और न खाली ही रहती है।

इससे हम अनेक विचार निकाल सकते हैं; और अंत को संभव है कि हम आगे चलकर इसे अच्छी तरह समझने योग्य हों कि इन सब बातों का आशय क्या है। अंतिम अंश यह कि कैसे लोग स्वर्ग से लौटते हैं, संभवतः पहले अंश से अधिक स्पष्ट है। पर इन सब का तात्पर्य्य यह जान पड़ता कि बिना ब्रह्म को जाने हुए कहीं शाश्वत सुख नहीं है। जिन लोगों को ब्रह्मज्ञान नहीं हुआ है और जो इस लोक में फल की कामना से शुभ कर्म संचय कर चुके हैं, वे जब मरते हैं तब इन मार्गों से होकर जाते हैं और अंत को स्वर्ग में पहुँचते हैं। वहाँ जैसे इस लोक में होता है, देवयोनि में जन्म लेते हैं और जब तक पुण्य कर्म का भोग रहता है, जीते हैं। इससे वेदांत का यह मौलिक सिद्धांत निकलता है कि सब जिनमें नाम-रूप की उपाधि है, क्षणिक हैं। यह पृथ्वी क्षणिक है, इसमें नाम- रूप की उपाधि है। इसी प्रकार स्वर्ग भी क्षणिक होगा क्योंकि उसमें भी नाम-रूप की उपाधि लगी है। यह बात कि स्वर्ग नित्य है, परस्पर विरुद्ध है; क्योंकि जिनमें नामरूप है, वे काल ही में उपजते, काल ही में रहते और काल ही में नष्ट हो जाते हैं। यह वेदांत का निश्चित ध्रुव सिद्धांत है। और यही कारण है कि स्वर्ग की कामना का त्याग किया जाता है।

हम संहिता में देख चुके हैं कि उनमें स्वर्ग नित्य माना गया था; और उसीसे मिलता जुलता विचार मुसलमानों और ईसाइयों में भी प्रचलित है। मुसलमानों ने उसे और स्थूल बना लिया है। उनका कथन है कि स्वर्ग में बाग है और उसके किनारे नहरें बहती हैं। अरब की मरुभूमि में पानी नहीं मिलता। वहाँ उसका बड़ा मूल्य है; इसी लिये मुसलमान यह समझते हैं कि स्वर्ग वही है जिसमें बहुत पानी हो। मेरा तो जन्म ऐसे देश का है जहाँ वर्ष में ६ महीने पानी हो बरसा करता है। मैं तो उसे स्वर्ग समझूँगा जहाँ सूखी भूमि हो; और यही अँग्रेजों को भी अभीष्ट होगा। संहिता का स्वर्ग शाश्वत है। वहाँ मृत आत्माएँ सुंदर शरीर धारण करके अपने पितरों के साथ सदा सुख से रहती हैं। वहाँ उनके माता-पिता, लड़के-वाले, इष्ट-मित्र मिलते हैं और जैसे यहाँ जीवन निर्वाह करते हैं, वैसे वहाँ भी वे अपने दिन बिताते हैं। केवल सुख कुछ विशेष होता है। यहाँ के सारे बाधा-विघ्न जो सुख-संपादन में पड़ा करते हैं, वहाँ नहीं रहते और केवल अच्छापन और सुख रह जाता है। पर मनुष्य उसे कैसा ही सुखमय क्यों न समझता हो, सत्य और वस्तु है और सुख और है। ऐसे भी उदाहरण मिले हैं जहाँ सत्य जब तक अपनी उच्च दशा को नहीं पहुँचता है, सुखकर नहीं होता। मनुष्य का स्वभाव बहुत ही प्राचीनत्व- अनुरागी होता है। वह कुछ करता है और उसे करके उसी में पड़ा रहता है और उसका निकलना कठिन हो जाता है। उसके मन में नए विचारों के लिये जगह नहीं है क्योंकि उनके आने से उसे कष्ट होता है।

उपनिषदों में देख पड़ता है कि उन नए विचारों से निकलने के लिये कितनी दौड़धूप की गई है। यह कहा गया है कि वह स्वर्ग जिसमें मनुष्य अपने पितरों के साथ रहता है, चिरस्थायी नहीं हो सकता; क्योंकि यह देखा जाता है कि जिनके नाम-रूप है, वे सब नाशमान हैं। यदि स्वर्ग के रूप हैं तो उनका कभी न कभी नाश अवश्य होगा। वे करोड़ों वर्ष क्यों न बने रहें, पर एक समय आवेगा जब उनका नाश होना ध्रुव है। इस विचार के साथ ही यह भी विचार उदय हुआ कि जीवात्मा को पृथ्वी पर अवश्य लौटना पड़ता है। स्वर्ग वह स्थान है जहाँ लोग अपने पुण्यकर्मों के फल-भोग के लिये जाते हैं और भोग करके इसी पृथ्वी पर लौट आते हैं। यह बात इससे स्पष्ट प्रतीत होती है कि उस समय में भी मनुष्यों में परिणामवाद वा हेतुवाद का उदय हो गया था। आगे चलकर यह देख पड़ता है कि उसी हेतुवाद को हमारे दार्शनिक कैसे दर्शन और तर्क की भाषा में लाए हैं। पर यहाँ वही बात बच्चों की बोलचाल की भाँति दिखाई पड़ती है। यदि आप मुझसे यह प्रश्न करें कि क्या यह उस समय व्यावहारिक था, तो मैं तो यही कहूँगा कि वह पहले व्यावहारिक था और वही पीछे दर्शन के रूप में आया है। आप देख सकते हैं कि पहले लोगों ने इन बातों को देखा है और साक्षात् किया है, फिर उन्हें लिखा है। प्राचीन विचारशीलों से इस लोक ने कहा है, चिड़ियों ने कहा है, पशुओं ने कहा है, सूर्य्य चंद्रादि ने कहा है। धीरे धीरे उन्हें वस्तुओं का ज्ञान हुआ है और वे प्रकृति के भीतर घुसे हैं। यह ज्ञान उन्हें न विचार करने से प्राप्त हुआ है न तर्क के बल से मिला है; न उन्होंने, जैसे आजकल लोग औरों की अनुभूत बातों को लेकर बड़ी बड़ी पुस्तकें लिखा करते हैं, वैसा ही किया है। और जैसे मैं आज उनके ग्रंथ को लेकर उस पर व्याख्यान दे रहा हूँ, व्याख्यान भी नहीं दिया है। किंतु यह ज्ञान यह सत्य उन लोगों ने शांतिपूर्वक अन्वेषण और परीक्षा करके प्राप्त किया है। इसकी मुख्य प्रणाली व्यवहार ही था और यही सदा रहेगा। धर्म सदा व्यवहार का ही विषय रहता है। वह न तो कभी विश्वास का विषय था और न हो सकता है। पहले कर्म होता है, पीछे ज्ञान। यह भाव कि जीवात्मा लौट आता है, यहाँ विद्यमान है। जो लोग कर्मफल की आकांक्षा से शुभ कर्म करते हैं, उन्हें उसका फल अवश्य मिल जाता है, पर वह सदा के लिये नहीं होता। यहाँ पर भी हमें परिणामवाद वा हेतुवाद बड़े ही सुंदर रूप में दिखाई पड़ता है और कार्य्य-कारण में अनुरूपता देख पड़ती है। जैसा कारण है, वैसा ही कार्य्य होगा। यदि कारण परिमित है तो उसका कार्य्य भी परिमित ही होगा। शाश्वत कारण से ही शाश्वत कार्य्य होगा। पर स्मरण रहे कि यह सारे कारण जैसे शुभ कर्म करना इत्यादि, परिमित कारण हैं और इनसे शाश्वत कार्य्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती।

अब हम प्रश्न को दूसरी ओर पहुँचते हैं। जैसे कोई शाश्वत वर्ग नहीं हो सकता, उसी आधार पर कोई नित्य का नरक भी नहीं हो सकता। मान लीजिए, मैं बड़ा ही दुष्ट मनुष्य हूँ और मैंने सारे जीवन में पाप किया। फिर भी यहाँ का मेरा सारा जीनन शाश्वत जीवन के सामने कुछ नहीं है। अब यदि कहीं शाश्वत नरक है तो इसका अभिप्राय यह है कि परिमित कारण का अपरिमित कार्य्य है; और यह हो नहीं सकता है। यदि मैं जन्म भर शुभ कर्म करता रहूँ तो भी मुझे सदा के लिये खर्ग नहीं मिल सकता। ऐसा न मानना हमारी भूल है। पर एक तीसरा मार्ग है जो उन लोगों से संबंध रखता है जिन्होंने सत्य का साक्षात् किया है, जिन्होंने उसे जान लिया है। यही एक मार्ग माया से छूटने का है; अर्थात् सत्य का साक्षात् करना; और उपनिषद् बतलाती है कि सत्य के साक्षात् का क्या अभिप्राय है। उसका अभिप्राय है कि न पाप है, न पुण्य, न भला, न बुरा। सब आत्मा पर आते जाते रहते हैं। आत्मा सब में है। इसका अर्थ है विश्व का निषेध करना, इससे आँखें मूँँद लेना; और भगवान् को स्वर्ग नरक दोनों में समान देखना। अभी मैं आपको यह वचन सुना चुका हूँ कि पृथ्वी, आकाश सब ब्रह्म ही के प्रतीक, सब ब्रह्म ही हैं। उसे देखना चाहिए, साक्षात् करना चाहिए। केवल कहने और सोचने से ही काम नहीं चलेगा। हम तर्क द्वारा अनुमान कर सकते हैं कि आत्मा जब साक्षात् कर लिया जाता है और सब ब्रह्ममय हो जाता है, तब फिर इसकी चिंता क्या कि कोई स्वर्ग में जाय वा नरक में जाय। कहीं जाय, कहीं जनमे, स्वर्ग में हो वा पृथ्वी में, आत्मा के लिये यह सब निरर्थक है; क्योंकि उसके लिये सब स्थान समान हैं; सब भगवान् का मंदिर हैं; उसके लिये सब पवित्र स्थान हैं। ईश्वर, स्वर्ग, नरक सब जगह समान रूप से उसे दिखाई पड़ता है। उसके लिये न कहीं स्वर्ग है न कहीं नरक; सर्वत्र ब्रह्म ही ब्रह्म रह जाता है, वही सर्वत्र दिखाई पड़ता है।

वेदांत के अनुसार जब कोई इस प्रकार साक्षात् कर लेता है, तब वह मुक्त हो जाता है। ऐसा ही मनुष्य संसार में रहने योग्य है; और लोग इस योग्य नहीं हैं। वह मनुष्य जिसे बुराई ही दिखाई पड़ती है, भला संसार में रह ही कैसे सकता है। उसका जीवन तो आप दुःख का बोझ हो रहा है। जिसे भय दिखाई पड़ता है, उसका जीवन आप दुःखमय है। जिसे मृत्यु दिखाई पड़ती है, उसका भी जन्म तो दुःख ही दुःख से भरा है। वही मनुष्य इस संसार में रह सकता है जो यह कह सकता हो कि मैं इस जीवन का सुख भोग रहा हूँ, मैं इस जीवन में सुखी हूँ; जो सत्य को देखता है और सब में जिसे सत्य ही दिखाई पड़ता है। क्रमशः मैं आप से यह भी कह सकता हूँ कि वेदों में नरक का भाव कहीं है ही नहीं। नरक पुराणों में आता है और बहुत पीछे। सबसे निकृष्ट दंड वेदों में पृथ्वी पर लौट आना और यहाँ आकर पुनः अवसर प्राप्त करना है। दंड और फल के विचार बहुत ही स्थूल हैं। वे उस मानव या पौरुषेय ईश्वर के ही अनुकूल हो सकते हैं जो वैसे ही एक से प्रसन्न और दूसरे से क्रुद्ध हुआ करता है जैसे हम हुआ करते हैं। दंड और फल तभी माना जा सकता है जब ऐसे ईश्वर की सत्ता स्वीकार की जाय। अपौरुषेयता का यह भाव समझ में आना बहुत ही कठिन है। मनुष्य सदा पुरुष में ही आसक्त रहते हैं। यहाँ तक कि वे लोग भी जो बड़े विचारशील समझे जाते हैं, अपौरुषेयता के भाव का नाम सुनते ही काँप उठते हैं। आप यह बतलाइए कि इन दोनों में कौन उत्कृष्ट विचार है―जीवित ईश्वर वा मृत ईश्वर? अर्थात् वह ईश्वर जिसे न कोई देखता है न जानता है; वा वह ईश्वर जो ज्ञात है?

अपौरुषेय ईश्वर जीवित ईश्वर है, वह सार है। पुरुष- विध वा पौरुषेय और अपुरुष-विध वा अपौरुषेय में अंतर यही है कि पुरुष-विध केवल मनुष्य है और अपौरुषेय का भाव यह है कि वही देवता, मनुष्य, पशु आदि सब है; और वह भी वही है जिसे हम देख नहीं सकते। कारण यह है कि उसमें अपौरुषेयता भी आ जाती है, उसमें विश्व के सारे पदार्थ और उनके अतिरिक्त अनंत पदार्थ आ जाते हैं। जैसे एक ही अग्नि संसार में प्रविष्ट होकर भिन्न भिन्न रूपों में विभक्त हो रहा है और फिर भी अशेष बना रहता है, कुछ इसी प्रकार अपौरुषेय भी है।

हम जीवित ईश्वर की उपासना करना चाहते हैं। मैंने अपने जन्म भर ईश्वर को छोड़ किसी को देखा ही नहीं। कुरसी को देखने में आप पहले ब्रह्म को देखते हैं और फिर उसी के द्वारा आपको कुरसी दिखाई पड़ती है। वह सर्वत्र यही कह रहा है कि मैं ही हूँ। ज्यों ही आप 'अहमस्मि' में इसे समझते हैं, आपको सत्ता का ज्ञान होता है। भला जब हम उसे अपने हृदय में और सबमें नहीं देख सकते तब हम ईश्वर को कहाँ ढूँढ़ने जायँ? “तू ही पुरुष, तू ही स्त्री, तू ही लड़का, तू ही लड़की है; तू ही बुड्डा बनकर लकड़ी टेक रहा है, तू ही युवा बनकर अपने पराक्रम से अकड़ता फिरता है। तू ही अद्भुत जीवित ब्रह्म है, तू ही सारे विश्व में सत्य है।” यह बहुतों को उस परंपरागत ईश्वर का भयानक प्रति- बंदी जान पड़ता है जो कहीं परदे की आड़ में बैठा है, जिसे कोई देखता नहीं। पुजारी लोग हमें विश्वास दिलाते हैं कि यदि हम उनके अनुगामी बनें, उनकी शिक्षा मानें, उनके बतलाए मार्ग पर चलें तो वे हमें परवानगी दे देंगे और हम ईश्वर का मुँह देख सकगे। यह सब स्वर्ग की कहानियाँ क्या है? केवल पुरोहितों की अनर्गल बातों के रूपांतर मात्र हो तो हैं।

इसमें संदेह नहीं कि अपौरुषेयता का भाव बड़ा ही घातक है। इससे पुरोहितों, गिरजों और मंदिरों में जो दूकानदारी है, वह रह नहीं जाती। भारतवर्ष में इस समय काल पड़ा है; पर इस समय भी वहाँ ऐसे मंदिर हैं जिनमें राजाओं की आय के मूल्य के गहने आदि भरे पड़े हैं। यदि पुजारी लोगों को इस अपौरुषेयता की शिक्षा दें तो उनका सारा व्यवसाय जाता रहे। पर फिर भी वहाँ हम लोग स्वार्थत्याग करके इसकी शिक्षा देते हैं और पुजारी का ध्यान नहीं करते। आप ब्रह्म हैं, मैं ब्रह्म हूँ। कौन किसको मानता है? कौन किसकी पूजा करता है? तुम ईश्वर के बड़े मंदिर हो। मैं तो किसी मंदिर, मूर्ति वा धर्मयुस्तक को त्यागकर तुम्हारी ही उपासना करूँगा। कितने ही लोगों के विचार इतने डाँवाडोल क्यों हो रहे हैं? वे मछली को भाँति हमारे हाथों से फिस- लना चाहते हैं। वे कहा करते हैं कि हम एक नहीं सुनते, कर्म करना जानते हैं। बहुत अच्छा। यह तो बतलानो, इधर-उधर पूजा करने से तुम्हारी पूजा करना अच्छा है या नहीं? मैं तुम्हें देखता, समझता और जानता हूँ कि तुम ईश्वर के अति- रिक्त कुछ हो ही नहीं। इससे बहुतों को भय भले ही लगे पर आप इसे धीरे धीरे समझेंगे। आपके भी जीता जागता ईश्वर है। फिर भी आप गिरजे बनाते, मंदिर बनाते और नाना भाँति की मिथ्या कल्पनाओं में विश्वास रखते हैं। वही अकेला ईश्वर पूजा करने के योग्य है जो मनुष्य की आत्मा है, मनुष्य के शरीर में है। इसमें संदेह नहीं कि सब प्राणी मंदिर हैं, पर मनुष्य सबसे बड़ा मंदिर है। वह मंदिरों का भी मंदिर है। यदि हम उसमें पूजा नहीं कर सकते तो कोई मंदिर किसी काम का नहीं हो सकता। जिस समय हम मनुष्य के शरीर- रूपी मंदिर में बैठे हुए ईश्वर को साक्षात् करते हैं, जब हम प्रत्येक मनुष्य के सामने भक्तिभाव से खड़े होते हैं और ईश्वर को उसमें देखते हैं, उस समय हमारे बंधन छूट जाते हैं। जो हमारे बंधन हैं, सब टूटकर गिर पड़ते हैं; वे रह ही नहीं जाते और हम मुक्त हो जाते हैं।

यही सारी उपासनानों से अधिक काम की उपासना है। इसे सिद्धांत बनाने सौर विचार गढ़ने से कोई काम नहीं है। फिर भी बहुतों को इससे डर लगता है। उनका कथन है कि यह ठीक नहीं है। वे अपने उन्हीं पुराने आदर्शों पर जिन्हें बाप-दादा से सुनते आए हैं, सिद्धांत पर सिद्धांत गढ़ते जाते हैं कि स्वर्ग में कहीं कोई ईश्वर है। उसने किसी से यह कहा था कि मैं ईश्वर हूँ। उस समय से केवल सिद्धांत ही सिद्धांत बच रहा है। उनके अनुसार यही विचार उपयुक्त हैं और हमारे विचार मिथ्या हैं। वेदांत का कथन है कि इसमें संदेह नहीं, सब अपना अपना मार्ग रक्खें, पर मार्ग ही तो अभीष्ट स्थान नहीं है। स्वर्ग के ईश्वर की पूजा और अन्य सारी बातें बुरी नहीं हैं। वे केवल सत्य के प्राप्त करने की सीढ़ियाँ हैं, सत्य नहीं हैं। सब अच्छी हैं, सब भली हैं और उनमें अनेक अद्भुत विचार भरे हैं। पर वेदांत उनसे पग पग पर यह कहता है कि भाई, जिसकी तुम पूजा करते हो वह तो अज्ञात है; मैं तो तुम्हारे ही रूप में पूजा करता हूँ। जिसकी पूजा तुम अज्ञात समझकर रहे हो, जिसे तुम संसार में इधर उधर ढूँढ़ते फिरते हो, वह सदा तुम्हारे साथ है। तुम उसीके द्वारा जीते हो। वह विश्व का नित्य साक्षी है। ‘वह जिसे सारे वेद पूजते हैं‘ यही नहीं जो शाश्वत् अहम् (मैं) में सदा रहता है, उसीकी सत्ता से विश्व की सत्ता है। वह विश्व का प्रकाश और जीवन है। यदि तुम में 'अहं' (मैं) न होता तो तुम सूर्य्य को देख ही न सकते; सब तुम्हारे लिये अंधकारमय होता। उसीके प्रकाश से तुम संसार को देखते हो।

एक प्रश्न प्रायः किया जाता है और वह यह है कि इससे बड़ी कठिनाई पड़ेगी। हम सब लोग यही समझने लग जायँगे कि मैं ईश्वर हूँ। जो कुछ मैं करता हूँ, अच्छा है; क्योंकि भला ईश्वर भी कहीं बुराई कर सकता है। पहले हम इस नासमझी से होनेवाले भय को मान लेते हैं; पर यह तो बतलाइए कि क्या आप सिद्ध कर सकते हैं कि इसके न होने पर वह भय न रह जायगा? लोग तो उस ईश्वर को पूजते आ रहे हैं जो उनसे अलग स्वर्ग में रहता है और उससे वे डरते भी बहुत हैं। वे भय से काँपते हुए उत्पन्न हुए हैं और जन्म भर ऐसे ही काँपते उन्हें बीतेगा। क्या इससे संसार की दशा कुछ अच्छी हो गई? उन लोगों में जो पुरुष विशेष ईश्वर की पूजा करते हैं और उन लोगों में जो सर्वदेशी अपौरुषेय ईश्वर की पूजा करते हैं, बतलाइए कि किनमें बड़े बड़े काम करनेवाले इस संसार में उत्पन्न हुए हैं। बड़े बड़े काम करनेवाले, बड़े बड़े साहसी, इसमें संदेह नहीं कि अपौरुषेय ईश्वर के पूजने- वालों ही में हुए हैं। भला भय से कहीं साहस की उन्नति हो सकती है? नीति आ सकती है? यह असंभव है। जहाँ एक दूसरे को देखता है या दूसरे को हानि पहुँँचाता है, वहाँ माया है। जब एक दूसरे को देखता नहीं, जब कोई दूसरे को हानि नहीं पहुँचाता, जब सब आत्मा ही हो गया, तब कौन किसे देखता है, कौन किसे जानता है? सब तो वही हैं। सब मैं ही हूँ। उसमें और मुझमें अंतर क्या? आत्मा तो शुद्ध हो गया। तभी हमें यह समझ में आवेगा कि प्रेम क्या है। प्रेम भय से नहीं हो सकता; इसका आधार तो स्वतंत्रता है। जब हम संसार को सचमुच प्यार करने लगेंगे, तभी हम यह समझेंगे कि सार्वदेशिक ‘भ्रातृत्व’ का अर्थ क्या है। इसके पहले हम उसे जान ही नहीं सकते।

अतः यह कहना ठीक नहीं है कि अपौरुषेयता के विचार से संसार में बड़ी बुराई फैलेगी। मानों अन्य प्रकार के विचारों से संसार में कभी बुराई फैलती ही नहीं; मानों उससे सांप्र- दायिक पक्षपात उत्पन्न होकर रक्त के प्रवाह से संसार को निम- जित नहीं करता और लोगों से एक दूसरे की वोटी बोटी नहीं कराता। ‘मेरा ईश्वर सबसे बड़ा ईश्वर है। इसका निबटेरा लड़- कर कर लो’। यही संसार में द्वैतवाद का निचोड़ है। दिन के प्रकाश में आओ, तंग गली से बाहर निकलो। कैसे अपरिमित आत्मा तंग गली में पड़ी पड़ी नष्ट होना चाहेगी? विश्व के आलोक में आओ। संसार में सभी आपके हैं। हाथ पसारो और प्रेम से मिलो। यदि तुममें इसके करने का कभी ज्ञान उत्पन्न हो तो बस समझ लो कि तुमने ईश्वर को जान लिया।

आप बुद्धदेव के उस उपदेश की बात का स्मरण कीजिए कि कैसे भगवान् बुद्धदेव ने प्रेम का भाव दक्षिण, उत्तर, पूर्व, पश्चिम, ऊपर, नीचे सब ओर पहुँचा दिया और सारा विश्व महान् और अनंत प्रेम से परिपूर्ण हो गया। जब आपमें वह भाव आ जायगा, तब आप सच्चे महापुरुष हो जायँगे। सारा विश्व एक ही पुरुष है। छोटी बातों को छोड़ दो। अपरिमित के लिये परि- मित को छोड़ो, अनंत सुख के लिये छोटे सुखों को तिलांजलि दे दो। यह सब आपका है। अपौरुषेय में पौरुषेय भरा है; अतः ईश्वर भी पुरुषविध और अपुरुषविध वा पौरुषेय और अपौरु- षेय दोनों साथ ही साथ है। और मनुष्य, अनंत और अपुरुष- विध मनुष्य, पुरुष के रूप में अपने को व्यक्त कर रहा है। हमने, जो अप्रमेय हैं, अपने को मानो छोटे अंशों के रूप में परिमित बना दिया है। वेदांत कहता है कि अनंतता हमारा सत्य स्वरूप है; यह मिटेगा नहीं, सदा बना रहेगा। पर हम अपने कर्म से अपने को परिमित बना रहे हैं, मानों वह हमारे गले की रस्सी है और हमें इस परिमितत्व की ओर खींच लाई है। उस रस्सी को तोड़ डालिए और बंधन-रहित हो जाइए। उसे अपने पैरों तले रौंद डालिए। मनुष्य के स्वभाव में नियम कुछ नहीं है, भवि- तव्यता कुछ नहीं है, भाग्य कुछ नहीं है। भला अनंतता में भी कहीं नियम होता है? मुक्ति ही इसका स्वभाव और सत्व है। मुक्त हो लो; फिर जितना मन में आवे, व्यक्ति-निर्देश रखो। तब आप उस नट के समान खेल करेंगे जो मैदान में आता है और भिखमंगे का खाँग भरता है। उसे उस भीख माँगनेवाले से मिलाइए जो गली गली भीख माँगता फिरता है। दोनों के रूप एक हैं, बोली भी संभव है एक हो, पर दोनों में भेद कितना बड़ा है। एक को उस रूप में आनंद आता है और दूसरा उसी रूप में दुःख भोगता है। और इस अंतर का कारण क्या है? यही कि एक मुक्त है और दूसरा बद्ध। नट जानता है कि उसका यह रूप सच्चा नहीं है; उसने उसे स्वाँग के लिये भरा है; और भिखारी यह समझता है कि उसका वास्तविक रूप वही है और वह चाहे वा न चाहे, उसे वह रूप रखना ही पड़ेगा। यही नियम कहलाता है। जब तक हमें अपने स्वरूप का बोध नहीं है, हम भिक्षुक बने हैं; प्रकृति की ठोकरों पर ठोकर खाते

हैं और बात बात में उसके दास बने रहते हैं। हम संसार में
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त्राहि मां त्राहि मां चिल्लाते हैं पर कहीं से हमें कुछ भी सहारा नहीं मिलता। हम कल्पित सत्वों के सामने रोते और गिड़- गिड़ाते हैं, पर वहाँ सुननेवाला कौन है। फिर भी हमारी यह आशा नहीं छूटती कि हमें सहायता मिलेगी; और इस प्रकार रोते रोते, चिल्लाते चिल्लाते और आशा करते करते एक जन्म बीतता है, दूसरा भी बीतता है; पर वह बात ज्यों की त्यों बनी रहती है।

मुक्त बनो; किसी से कुछ आशान करो। मुझे यह विश्वास है कि यदि आप अपने जीवन पर ध्यान देंगे तो आपको जान पड़ेगा कि आप सदा दूसरों से सहायता माँगते रहे हैं, पर वह कभी नहीं मिली है। जो सहायता मिली है, वह आपके भीतर से मिली है। आपको अपने कर्म का ही फल मिला; पर फिर भी आप दूसरों से सहायता पाने की आशा करते रहे हैं। बड़े आदमियों का दीवानखाना सदा लोगों से भरा रहता है। पर यदि आप ध्यान करके देखें तो सदा वही लोग नहीं मिलेंगे। आनेवाले सदा यह आशा करते रहते हैं कि उन्हें उनसे कुछ मिलेगा; पर वे कभी नहीं पाते हैं। इसी प्रकार हमारा जीवन आशा ही आशा में बीत जाता है; पर आशा पूरी नहीं होती। वेदांत कहता है कि आशा छोड़ो। आप आशा क्यों करते हैं? आपके पास सब कुछ है। यही नहीं, आप ही तो सब कुछ हैं। आप आशा किस बात की करते हैं? यदि कोई

राजा पागल हो जाय और अपने राज्य भर में राजा को ढूँढ़ता
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फिरे, तो उसे कभी राजा नहीं मिलेगा। कारण यह है कि राजा तो वह स्वयं है। वह अपने राज्य में गाँव गाँव फिरे, घर घर ढूँढ़े, चारों और रोता चिल्लाता फिरे, पर राजा उसे न मिलेगा। कारण यह है कि राजा तो वह आप ही है। यह अच्छा है कि आप हमें जान जायँ कि हम ईश्वर हैं और उसे व्यर्थ ढूँढ़ने की बात छोड़ दें। यह जानकर कि हम ईश्वर हैं, हमें सुख और शांति मिलेगी। यह सब पागलपन की बात त्यागो और विश्व में अपना नाट्य,जैसे रंगभूमि में नट अपने खेल करते हैं, करो।

सारा दृश्य बदल जाता है और यह संसार नित्य का बंदी- गृह न होकर रंगभूमि बन जाता है। स्पर्धा का लोक होने के स्थान में यही आनंद का लोक हो जाता है, जहाँ सदा वसंत ऋतु बनी है, फूल खिल रहे हैं और भ्रमर गुंजार कर रहे हैं। यही संसार जो पहले नरक था, अब स्वर्ग हो जाता है। बद्ध पुरुषों की दृष्टि में यह घोर दुःख का स्थान दिखाई पड़ता है, पर मुक्त पुरुष की आँखों में वही कुछ और ही देख पड़ता है। यह एक जीवन विश्व का जीवन देता है; स्वर्गादिलोक सब यही है। मनुष्य के आदर्श सब देवता यहाँ हैं। देवताओं ने मनुष्य को अपनी अनुहार पर नहीं रचा,अपितु मनुष्य ने देवताओं की रचना की। और यही आदर्श है, यही इंद्र है, यही वरुण है और विश्व के सारे देवता यहीं हैं। हम ही तो अपने क्षुद्र भ्रमों को बाहर लाए हुए थे, हम ही तो इन देवताओं के मूल हैं, हम ही

तो सत्य हैं, हम ही पूजनीय देवता हैं। यही वेदांत का विचार
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है; यही कर्मण्यता है। जब हम मुक्त हो गए तो हमें इसकी आवश्यकता नहीं है कि घरबार छोड़ छाड़कर जंगल में भाग जायँ और वहाँ कंदराओं में पड़े पड़े मरें। जहाँ हम थे, हम वहीं रहें; इसमें कुछ धरा नहीं है। केवल हमें सारे पदार्थों के रहस्य जानने से काम है। बातें सब वही रहेंगी, पर उनका भाव नया हो जायगा। हमें संसार का अब तक ज्ञान नहीं है। स्वतंत्रता के कारण, स्वतंत्रता के द्वारा हम देखते हैं कि वह क्या है और उसके स्वरूप को समझते हैं। हमें तब यह सुझाई पड़ेगा कि जिसे नियम, भवितव्यता, वा भाग्य कहते हैं, वह हमारे स्वरूप के एक अणु मात्र पर था; यह तो एक अंश में था और शेष सदा निर्लेप और मुक्तिस्वरूप था। हमें इसका शान नहीं था। यही कारण था कि हम अपना मुँह शिकार के खरगोश की भाँति भूमि में छिपाकर अपने बचाने के निमित्त प्रयत्न करते रहे। भ्रम के कारण हम अपने स्वरूप को भूलने की चेष्टा कर रहे थे; पर हम ऐसा कर न सके। यह हमें सदा चैतन्य करता रहा और देवताओं वा ईश्वर वा बाहरी स्वतंत्रता की खोज में सारी दौड़धूप हमारे वास्तविक स्वरूप ही की खोज में थी। हमने वाणी को समझा नहीं। हमने सोचा कि वह अग्नि की, देवता की, सूर्य्य की, चाँद की वा तारों की थी; पर अंत को हमें यह जान पड़ा कि वह हमारे भीतर से आई थी। हमारे भी नित्य वाणी है। वह शाश्वत स्वतंत्रता के लिये पुकार

रही है। उसका राग नित्य है; उसके बाजे सदा बजते रहते हैं।
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आत्मा के संगीत का एक अंश पृथ्वीं बन गया। नियम कहो वा विश्व कहो, पर यह हमारा और सदा हमारा ही रहेगा। संक्षे- पतः वेदांत का आदर्श है―मनुष्य को जानना कि सचमुच वह है क्या। यही उसका संदेश है कि यदि आप अपने भाई मनुष्य की पूजा नहीं कर सकते जो व्यक्त ईश्वर है, तो आप कैसे उस ईश्वर को पूज सकेंगे जो अव्यक्त है?

क्या आपको स्मरण नहीं है कि इंजील में क्या कहा है? “यदि आप अपने पड़ोसी से प्रेम नहीं कर सकते जिसे आपने देखा है, तो आप ईश्वर से कैसे प्रेम कर सकते हैं जिसे आपने देखा ही नहीं।” यदि आप ईश्वर को मनुष्य के रूप में नहीं देख सकते तो आप बादलों में वा जड़ भौतिक पदार्थों की बनी हुई मूर्तियों में अथवा अपने मानसिक कल्पित ध्यान में ईश्वर को कैसे देख सकते हैं? मैं आपको उसी दिन से धर्मात्मा कहना आरंभ करूँगा जब आप प्रत्येक स्त्री पुरुष में ईश्वर को देखने लग जायँगे; और तभी इस वाक्य का अर्थ आपकी समझ में आ जायगा कि “यदि कोई तुम्हारे बाएँ गाल पर थप्पड़ मारे तो दाहिना भी उसके आगे कर दो।” जो कुछ तुम्हारे आगे आता है, वही नित्य आनंदघन ईश्वर है जो नाना रूपा में पिता, माता इष्टमित्र आदि के रूप में हमें दिखाई पड़ रहा है। वे सब हमारे ही आत्मा हैं जो हमारे साथ खेल रहे हैं।

जैसे जैसे हमारे मानवी संबंधी अर्थात् माता-पिता आदि
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देवरूप होते जाते हैं, वैसे वैसे हमारा ईश्वर के साथ संबंध घनिष्ट होता जाता है और हम उसे मातापिता, इष्टमित्रादि की दृष्टि से देख सकते हैं। ईश्वर को माता कहना उसे पिता कहने से कहीं श्रेष्ठ है; उसे मित्र कहना बहुत अच्छा है; पर उसे अपना प्रियतम कहना सर्वोत्तम है। सबसे उत्तम भाव तो वह है कि प्रेमी और प्रियतम में अभेद देख पड़े। आपको एक पुरानी फारसी की कहानी का स्मरण होगा कि प्रेमी अपने प्रियतम के द्वार पर आया और किवाड़ खोलने के लिये खट- खटाने लगा। भीतर से शब्द आया, कौन है? उसने उत्तर दिया कि ‘मैं हूँ’। किवाड़ न खुला। वह फिर खट- खटाने लगा। फिर भीतर से शब्द आया कि कौन है। उसने फिर कहा, मैं हूँ। पर फिर भी किवाड़ न खुला। वह तीसरी बार आया और किवाड़ खटखटाने लगा। भीतर से फिर वही शब्द आया कि कौन है? अब की बार उसने कहा ‘प्रीतम’ मैं तो तू ही हूँ’ और किवाड़ खुला। यही दशा हमारे ईश्वर के साथ संबंध की है। वह सब में है और सब वही है। सब स्त्री- पुरुष साक्षात् ईश्वर हैं, जीते-जागते ईश्वर। यह कौन कहता है कि ईश्वर अज्ञात है? कौन कहता है कि उसे ढूँढ़ना है? हमने तो ईश्वर को सदा से पा लिया है। हम उसमें सदा से रहते आ रहे हैं। चारों ओर वह सदा से ज्ञात है, सदा से उसी की पूजा हो रही है।

अब एक और बात है।वह यह कि पूजा की नाना विधियाँ
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मिथ्या नहीं हैं। यह बात स्मरण रखने योग्य है कि ईश्वर को पूजा की रीति, प्रतीकादि चाहे जितनी भोंडी और असभ्यो- चित क्यों न हो, मिथ्या नहीं है, भूल की बात नहीं है। वे सत्य से सत्य की ओर जाने के मार्ग हैं, नीचे से ऊँचे चढ़ने की सीढ़ियाँ हैं। अंधकार से प्रकाश में जाने की राहें हैं। कम भला ही बुरा है; कम शुद्ध ही अशुद्ध है। हमें इसका सदा ध्यान रखना चाहिए कि हम दूसरों को प्रेम की दृष्टि से देखें; यह जानते हुए उन्हें सहानुभूति की दृष्टि से देखें कि वे सब उसी मार्ग को जा रहे हैं जिससे हम जाते हैं और गए हैं। यदि आप मुक्त हैं तो आप इसे निश्चय समझें कि सब कभी न कभी मुक्त होंगे। यदि आप मुक्त हैं तो आप अशुद्ध कैसे हो सकते हैं? क्योंकि जो भीतर है वही बाहर है। हमें अशुद्धि तब तक न दिखाई पड़ेगी जब तक हमारे भीतर अशुद्धि न हो। वेदांत का यही कर्मकांड है। हम सबको अपने जीवन में इसके अनुष्ठान करने का प्रयत्न करना चाहिए। हमारा सारा जन्म इसी कर्म के लिये है। पर एक और बड़ी बात जो हमें इससे प्राप्त होती है, वह यह है कि हम तभी अशांति और असंतोष को छोड़ शांति और संतोषपूर्वक कर्म कर सकेंगे जब हम यह समझ लें कि हमारे भीतर सत्य है। यही हमारा स्वरूप है; हमें केवल इसको व्यक्त करना, सुस्पष्ट कर देना है।

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