विदेशी विद्वान्/४―डाक्टर जी॰ थीबो, पी-एच॰ डी॰, सी॰ आई॰ ई॰

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४―डाक्टर जी॰ थीबो, पी-एच॰ डी॰, सी॰ आई॰ ई॰

डाकृर थीबो का नाम अनेक पाठकों ने सुना होगा। प्रयाग के प्रसिद्ध म्योर-कालेज के आप प्रधान अध्यापक थे। २४ अप्रेल १९०६ से आपने पेनशन ले ली। ५५ वर्ष की उम्र हो जाने से अपने मुलाजिमों को गवर्नमेट ज़बरदस्ती पेन- शन दे देती है। इसी नियम का बर्ताव थीबो साहब के भी साथ हुआ। यदि गवर्नमेट उन्हें पेनशन न देती तो वे अभी बहुत समय तक म्योर-कालेज की अध्यक्षता कर सकते। क्योंकि वे अभी तक ख़ूब हृष्ट-पुष्ट और नीरोग हैं और उनकी मानसिक शक्तियों में किसी प्रकार का प्रत्यवाय नहीं आया।

डाक्टर थीबो की जन्म-भूमि जर्मनी है। पहले इस देश में कीलहार्न, बूलर, हार्नली, स्टीन आदि कितने ही जर्मन विद्वान् शिक्षा-विभाग मे थे। ये सब विद्वान् संस्कृतज्ञ थे। इसलिए उन्होंने संस्कृत-भाषा की ख़ूब सेवा की, नई-नई पुस्तकें लिखीं और नई-नई बातों का पता लगाया। पर धीरे-धीरे वे सब जहा के तहाँ हो गये। थीबो साहब अन्तिम जर्मन हैं। सो उन्हें भी पेनशन हो गई। अब अँगरेज़ों को भी संस्कृत का शौक हुया है। इसलिए गवर्नमेंट जर्मन विद्वानों [ ३५ ]को हिन्दुस्तान भेजने की कोई ज़रूरत नहीं समझती। अब तो, सुनते हैं, कालेजों में अँगरेज़ ही संस्कृत पढ़ावेगे। हिन्दु- स्तानियों से सिर्फ़ छोटा-मोटा काम लिया जायगा। संस्कृत पढ़ाने का काम तो शायद एक न एक दिन अँगरेज़-पण्डितों के हाथ में चला ही जायगा। पर अध्यापकी के साथ-साथ यदि पुरोहिती के काम का भी चार्ज यही लोग ले लें तो बड़ी दिल्लगी हो।

डाक्टर थीबो के पूर्वज प्रसिद्ध पुरुष थे। वे अच्छे- अच्छे उहदों पर थे। विद्वत्ता भी उनमें कम न थी। उनके प्रायः सभी गुणों ने थीबो साहब का आश्रय लिया है। संस्कृत का शौक़ आपको लड़कपन ही से है। हीडलबर्ग और बर्लिन के विश्वविद्यालयों में अध्ययन करके थीबो साहब लन्दन गये। वहाँ तीन-चार वर्ष वे मैक्समूलर साहब के साथ रहे। उनकी सङ्गति से थीबो साहब की संस्कृत विद्या ख़ूब विशद हो गई। १८७५ ईसवी में अँगरेज़ी सरकार ने उन्हे अँगरेज़ी और संस्कृत पढ़ाने के लिए अध्यापक नियत किया। वे बनारस- कालेज को भेजे गये। उनके पहले इस पद पर बड़े-बड़े विद्वान् रह चुके थे। पर तनख़्वाह कम होने के कारण कोई इस जगह पर बहुत दिन तक नहीं ठहरा।

डाक्टर थीबो का नाम पहले पहल शुल्व-सूत्रों पर एक लेख लिखने के कारण हुआ। इस लेख मे डाक्टर साहब ने दिखलाया कि वैदिक समय में ज्यामिति-शास्त्र का थोड़ा-बहुत [ ३६ ]ज्ञान इस देश के पण्डितों को ज़रूर था। क्योंकि यज्ञ में वेदी और हवनकुण्ड आदि बनाने के जो नियम वैदिक साहित्य में पाये जाते हैं वे इसी शास्त्र के अनुसार हैं। डाक्टर थीबो को गणित-शास्त्र से भी प्रेम है। उन्होने ज्योतिष पर जो निबन्ध लिखे हैं उनसे इस बात का प्रमाण मिलता है। जब वे काशी से प्रयाग बदल आये और म्योर-कालेज में अँगरेज़ी भाषा तथा दर्शन-शास्त्र के अध्यापक नियत हुए तब उन्होने अपने गणित-शास्त्र के ज्ञान को और भी उन्नत किया। अवकाश पाने पर वे गणित-शास्त्र का अभ्यास करते थे और यदि कोई बात समझ में न आती थी तो गणित-शास्त्र के अध्यापक बाबू रामनाथ चैटर्जी से पूछ लेते थे। अपनी जाति या अपने पद का उन्हे ज़रा भी घमण्ड न था और न अब है। अपने से कम महत्त्व के पदवाले हिन्दुस्तानियों से कोई बात पूछने में उन्हे कभी पसोपेश नहीं हुआ।

अँगरेज़ी और संस्कृत पढ़ाने के लिए बनारस-कालेज में जो अध्यापकी का पद था वह १८७७ ईसवी में तोड़ दिया गया। इस पद पर थीबो साहब सिर्फ़ दो वर्ष रहे। इसके बाद कुछ दिनों तक उन्होंने स्कूलो के इन्स्पेक्टर का काम किया। परन्तु शीघ्र ही वे बनारस-कालेज के अध्यक्ष, अर्थात् प्रिन्सिपल, कर दिये गये। १८८८ ईसवी तक आप इस पद पर रहे। संस्कृत की प्रथमा, मध्यमा और आचार्य्य-परीक्षायें उन्हों ने निकालीं। कुछ दिनों के लिए वे पञ्जाव [ ३७ ]के रजिस्टरार हो गये। पर फिर इसी प्रान्त को लौट आये और प्रयाग के म्योर-कालेज में अध्यापक हुए। तब से अन्त तक वे इसी कालेज में रहे। गफ़ साहब के पेनशन लेने पर ये म्योर-कालेज के अध्यक्ष हो गये।

थीबो साहब छोटे-छोटे कालेजों के ख़िलाफ़ हैं और थोड़ी उम्र में बड़ी-बड़ी परीक्षाओं को पास कर लेना भी आपको पसन्द नहीं। आपकी राय है कि अच्छे-अच्छे कालेजों में उपयुक्त उम्र के लड़कों को रखने ही से लाभ है। कच्ची उम्र में विद्या कच्ची रह जाती है और छोटे-छोटे कालेजों में पढ़ाई अच्छी नहीं होती।

अब आपको इलाहाबाद-विश्वविद्यालय के रजिस्टरार का पद मिला है। टेकूस्ट बुक कमिटी के मेम्बर भी आप पूर्ववत् बने रहेगे। इस कमिटी में शामिल रहकर थीबो साहब ने बहुत कुछ काम किया है। संस्कृत और हिन्दी की पुस्तकों के चुनाव में तो आपने जो काम किया है वह बहुत ही प्रशंस- नीय है। हिन्दी के प्रेमी शायद यह न जानते होगे कि थीबो साहब शुद्ध और परिमार्जित हिन्दी के कितने पक्षपाती हैं और जो लोग अफ़सरो की हाँ में हाँ मिलाकर हिन्दी को उर्दू बनाने की सिफ़ारिश करते हैं उनकी राय का उन्होंने कितना विरोध किया है। अभी बहुत दिन नहीं हुए, गवर्न- मेट ने हिन्दी-उर्दू की रीडरों के लिए इनाम की नोटिस दी थी। रीडरे जब बनकर तैयार हुई और एक विशेष कमिटी [ ३८ ]में पेश की गई तब थीबो साहब एक बहुत ही प्रसिद्ध और प्रभावशाली पुस्तक प्रकाशक की रीडरों के ख़िलाफ़ राय देने से ज़रा भी न हिचके। कारण यह था कि उनमे अनुचित बातें थी। आपकी न्यायशीलता का यह उत्तम उदाहरण है।

डाक्टर थीबो ने पञ्चसिद्धान्तिका और शङ्कर तथा रामा- नुज-भाष्य-युक्त वेदान्तसूत्रों का, निज सम्पादित, बहुत उत्तम संस्करण प्रकाशित किया है। वराहमिहर पर आपने टिप्प- णियाँ लिखी हैं और मीमांसा तथा ज्योतिष-वेदाङ्ग पर कितने ही निबन्ध लिखे हैं। अपनी मातृभाषा जर्मन में भी आपने बहुत से लेख लिखे हैं। जर्मन होकर भी आप अच्छी अँग- रंज़ी लिखते और बोलते हैं।

आपकी योग्यता से प्रसन्न होकर गवर्नमेट ने आपको सी॰ आई॰ ई॰ की पदवी से विभूषित किया है।*

[ जूलाई १९०६
 



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“स्टूडेन्ट-वर्ल्ड” से सङ्कलित