विदेशी विद्वान्/२―हर्बर्ट स्पेन्सर
यह संसार प्रकृति और पुरुष का लीला-स्थल है। बिना इन दोनों का संयोग हुए संसार क्या कुछ भी नहीं बन सकता। संसार में दृष्टादृष्ट जो कुछ है प्रकृति का खेल है; पर उस खेल का दिखानेवाला पुरुष है। प्रकृति का दूसरा नाम पदार्थ है और पुरुष का दूसरा नाम शक्ति। जितने पदार्थ हैं सबमें कोई न कोई शक्ति विद्यमान है। पानी से भाफ, भाफ से मेघ और मेघो से फिर पानी। रुई से सूत, सूत से कपड़े और कपड़ो से फिर रुई। बीज से वृक्ष, वृक्ष से फूल, फूल से फल और फल से फिर बीज। इसी तरह संसार में उलट-फेर लगा रहता है और प्रत्येक पदार्थ में व्याप्त रहनेवाली शक्ति-विशेष इमका कारण है। जब से सृष्टि हुई तब से प्रकृति-पुरुष का झंझट जो शुरू हुआ तो अब तक बराबर चला जा रहा है। यदि प्रकृति निर्बल और पुरुष प्रबल हो जाता है तो उसे विद्वान् लोग उत्क्रान्ति कहते हैं और इसकी विपरीत घटना को अप- क्रान्ति। संसार में जितने व्यापार हैं सबका कारण इस उत्क्रान्ति और अपक्रान्ति ही के आघात-विधात हैं। जिन नियमों―जिन सिद्धान्तों―के अनुसार यह सब होता है उनकी विवेचना करनेवालों का नाम तत्त्वदर्शी है। ऐसे तत्त्व- दर्शियों के शिरोमणि हर्वर्ट स्पेन्सर का संक्षिप्त चरित सुनिए। इँगलेड के डर्बी नामक शहर में २७ एप्रिल १८२० को स्पेन्सर का जन्म हुआ। उसका पिता वहाँ एक मदरसे में अध्यापक था और चचा पादरी था। ख़र्च अधिक था। स्कूल की नौकरी से जो आमदनी होती थी उससे काम न चलता था। इससे स्पेन्सर का पिता लड़कों के घर जाकर पढ़ाया करता था। इसमे अधिक मिहनत पड़ती थी, जिसका फल यह हुआ कि वह बीमार हो गया और मदरसे से उसे इस्तेफ़ा दे देना पड़ा। जब उसकी तबीयत कुछ अच्छी हुई तब उसने कलाबत्तू की डोरियॉ तैयार करने का एक कारख़ाना खोला। उसमे उसे नुक़सान हुआ। जिसने जन्म भर अध्ययन और अध्यापन किया उससे इस तरह के काम भला कैसे हो सकते थे? अन्त में कारख़ाना बन्द करना पड़ा। तब स्पेन्सर के पिता ने अपना एक मदरसा अलग खोल लिया। इसमे उसे कामयाबी हुई और घर का ख़र्च अच्छी तरह चलने लगा।
हर्बर्ट स्पेन्सर लड़कपन में बहुत कमज़ोर था। सात-आठ वर्ष की उम्र तक उसने कुछ भी नहीं पढ़ा-लिखा। उसकी कमज़ोरी देखकर उसका पिता भी कुछ न कहता था। उसने अपने लड़के पर पढ़ने लिखने के लिए कभी दबाव नहीं डाला। हर्बर्ट की छोटी ही उम्र में विज्ञान का चसका लग गया था। वह दूर-दूर तक घूमने निकल जाया करता था और तरह-तरह के कीड़े-मकोड़े और पौधे लाकर घर पर जमा करता था। इसी को उसकी विज्ञान-शिक्षा का प्रारम्भ समझिए। पिता इन बातों से अप्रसन्न न होता था। वह उलटा पुत्र को उत्साहित करता था। उसका कहना था कि जो बात तुम्हें अच्छी लगे वही करो। इसी से स्पेन्सर कीट-पतङ्गों के रूपान्तर और पौधो में होनेवाले फेरफार देखने ही में कई वर्ष तक लगा रहा।
स्पेन्सर ने किसी मदरसे में शिक्षा नहीं पाई। घर ही पर स्पेन्सर के पिता और चचा ने उसे शिक्षा दी। हाँ, कुछ दिन के लिए वह एक मदरसे में ज़रूर गया था। वहाँ उसके क्लास में १२ लड़के थे। वहाँ पाठ सुनाने का समय आने पर हर्बर्ट वेचारे को एकदम सब लडकों के नीचे जाना पड़ता था। पर गणित इत्यादि वैज्ञानिक शिक्षा का समय आते ही वह सबसे ऊपर पहुँच जाता था। प्रायः प्रति दिन ऐसा ही होता था। स्पेन्सर का पिता अच्छा विद्वान् था और चचा भी इससे वे दोनों जब मिलते थे तब किसी न किसी गम्भीर शान्त्र विषय की चर्चा ज़रूर करते थे। उनकी बातें स्पेन्सर ध्यान से सुनता था और उनसे बहुत फायदा उठाता था। पुत्र की प्रवृत्ति वैज्ञानिक विषयो की ओर देखकर पिता ने उसे और भी अधिक उत्तेजना दी और अपनी सारी विद्या-बुद्धि खर्च करके पुत्र के हृदय पर शास्त्र के मोटे-मोटे सिद्धान्त खचित कर दिये। इससे यह न समझना चाहिए कि स्पेन्सर को पुस्तकावलोकन से प्रेम न था। प्रेम था और बहुत था। परन्तु विशेष करके वह शास्त्रीय विषयों ही की पुस्तकें देखा करता था। स्पेन्सर को पहले पहल सैंडफ़र्ड ऐंड मर्टन (Sandford and Merton) नाम की किताब पढ़ाई गई। उसे स्पेन्सरने बड़े चाव से पढ़ा। कुछ दिन में उसे पढ़ने का इतना शौक बढ़ा कि दिन- दिन रात-रात भर उसके हाथ से किताब न छूटती थी। उसकी माँ न चाहती थी कि वह इतनी मिहनत करे, क्योकि वह बहुत कमज़ोर था। इससे रात को वह अक्सर स्पेन्सर के कमरे में सोने के पहले यह देखने जाया करती थी कि कही वह पढ़ तो नहीं रहा। उसे आती देख स्पेन्सर मोमबत्तीं को गुल करके चुपचाप लेट रहता था, जिसमे उसकी माँ समझे कि वह सो रहा है। पर उसके चले जाने पर वह फिर पढ़ना शुरू कर देता था।
कोई ११ वर्ष की उम्र में स्पेन्सर की कमज़ोरी जाती रही। वह सबल हो गया। वह पढ़ता भी था और धूमता- फिरता भी था। इससे उसके दिमाग़ पर अधिक बोझ नहीं पड़ा और इसी से उसके शरीर में बल भी आ गया। स्पेन्सर बड़ा निडर और साहसी था। एक दफ़े वह अपने चचा के घर से अकेला अपने घर पैदल चला आया। पहले दिन वह ४८ मील चला, दूसरे दिन ४७ मील! बिना सबूत के स्पेन्सर किसी की बात न मानता था। चाहे जो हो, जब तक वह उसकी बात की सचाई की सबूत की कसौटी पर न कस लेता था, या ख़ुद तजरिबे से उसकी सचाई को न जान लेता था, तब तक कभी उस पर विश्वास न करता था। यह विलक्षणता उसमे लड़कपन ही से थी। यह आदत उसकी मरने तक नहीं छुटी। इसी के प्रभाव से उसने पूर्व-तत्त्व-ज्ञानियों के सिद्धान्तो को चुपचाप न मानकर सबकी परीक्षा की और उनके खण्डनीय अंश का कठोरता पूर्वक खण्डन किया।
सोलह-सत्रह वर्ष की उम्र तक स्पेन्सर को घर पर ही शिक्षा मिलती रही। इतने दिनों में उसने गणित-शान्न, यन्त्र- शास्त्र, चित्र-विद्या आदि में अच्छा अभ्यास कर लिया। स्पेन्सर को संस्कृत की समकक्ष लैटिन और ग्रीक आदि पुरानी भाषाओं से बिलकुल प्रेम न था और विश्वविद्यालय में इनको पढ़े बिना काम नहीं चल सकता। इससे वह किसी कालेज में भरती नहीं हुआ। अब मुशकिल यह हुई कि कालेज की शिक्षा पाये बिना नौकरी कैसे मिल सकेगी। उस समय रेलवे ही का महकमा ऐसा था जहाँ विश्वविद्यालय की सरटीफ़िकेट दरकार न होती थी। इस कारण स्पेन्सर ने रेलवे का काम सीखना शुरू किया और १७ वर्ष की उम्र में वह यञ्जिनियर हो गया। आठ वर्ष तक वह इस काम को करता रहा। पर विद्या का उसे ऐसा व्यसन था कि इसके आगे रेलवे का काम उसे अच्छा न लगा। उसे छोड़कर वह अलग हो गया। नौकरी की हालत में एक यञ्जिनियरी की सामयिक पुस्तक में वह लेख भी लिखता रहा था। इससे लिखने में उसे अच्छा अभ्यास हो गया। १८४२ ईसवी में उसने नान-कनफ़ारमिस्ट ( NonConformist) नामक पुस्तक में “राजा का वास्तविक अधिकार” नाम की लेख- मालिका शुरू की। वह पीछे से पुस्तकाकार प्रकाशित हुई। इसके बाद स्पेन्सर “यकनोमिस्ट” (Economist) नामक एक सामयिक पुस्तक का सहकारी सम्पादक हो गया और कोई ५ वर्ष तक बना रहा। सम्पादकता करना और लेख लिखना ही अब उसका एक मात्र व्यवसाय हुआ। इसमें उसने बहुत तरक्क़ी की। कुछ दिनों में वह लन्दन चला आया और वहीं स्थिर होकर रहने लगा। यहाँ पर उसने “व्यस्ट मिनिस्टर रिन्यू” (Westminister Review) में लेख लिखने शुरू किये। इससे उसका बड़ा नाम हुआ। लिखने का अभ्यास बढ़ता गया। धीरे-धीरे उसकी लेखन-शक्ति बहुत ही प्रबल हो उठी। ३० वर्ष की उम्र में उसने “सोशल स्टेटिक्स” (Social Statics) नाम की किताब लिखी। उसमें सामाजिक और राजनैतिक विषयों का उसने बहुत ही योग्यतापूर्ण विचार किया। उसकी विचार-श्रृँखला और तर्कनाप्रणाली को देखकर बड़े-बड़े विद्वानो ने दाँतों के नीचे उँगली दबाई। वह जितना ही निर्भय था उतना ही सत्यप्रिय भी था। उस समय तक इन विषयों पर विद्वानों ने जो कुछ लिखा था उसका जितना अंश स्पेन्सर ने प्रामादिक समझा सबका बड़ी ही तीव्रता से खण्डन किया। प्रायः सबसे प्रतिकूलता, सबकी समालोचना, सबका खण्डन उसने किया। किसी को आपने नहीं छोड़ा। पर इस पुस्तक का आदर जैसा होना चाहिए था नहीं हुआ।
स्पेन्सर की बुद्धि का झुकाव विशेष करके सृष्टि-रचना और अध्यात्म-विद्या की तरफ़ था। यह प्रवृत्ति प्रतिदिन बढ़ती ही गई और प्रतिदिन वह इन विषयों में अधिकाधिक निमग्न रहने लगा। वह धीरे-धीरे उत्क्रान्तिवादी हो गया। उत्क्रान्ति के १६ सिद्धान्त उसने निकाले। संसार के सारे दृष्टादृष्ट व्यापार इन्हीं नियमों के अनुसार होते हैं। इस बात को सप्रमाण सिद्ध करने के लिए उसने अपरिमित श्रम किया। १८४६-४७ में उसने एक नया यन्त्र बनाकर उसका “पेटेन्ट” भी प्राप्त किया। पर उससे उसे विशेष लाभ न हुआ। शायद अपनी अर्थकृच्छता दूर करने ही के लिए उसने ऐसा किया। तथापि उसने अपनी निर्धनता की कुछ भी परवा न की। उसके कारण वह कभी दुःखित नहीं हुआ। अपना काम वह बरा- बर करता गया। जिन-जिन सिद्धान्तो का पता उसे लगता गया उन-उनको वह बड़ी योग्यता, आस्था और निर्लोभता के साथ प्रकट करता गया। यह सृष्टि क्या ईश्वर ने पैदा की है, या पदार्थों में ही कोई ऐसी शक्ति है जिसके कारण वे आप ही आप उत्पन्न हो गये हैं? जन्म क्या है, पुनर्जन्म क्या है, मरण क्या है, धर्म्म क्या है, पाप-पुण्य क्या है, सुख-दुःख क्या है? संसार में जितनी घटनायें होती हैं, किन नियमो के अनुसार होती हैं? दिन-रात वह इन्हीं बातों के विचार और मनन में सलग्न रहता था। इन विषयो के मनन का अभ्यास उसने यहाँ तक बढ़ाया कि संसार में कोई भी ऐसा शास्त्रीय विषय शेष न रहा जो उसके मानसिक विचारों की कसौटी पर न कसा गया हो। सब विषयों का उसने विचार कर डाला। उसकी बुद्धि नये-नये सिद्धान्तों के निका- लने की एक विलक्षण यन्त्र बन बैठी। कोई ५० वर्ष तक उसने यह काम किया और अपने नये-नये सिद्धान्तो के द्वारा सारे संसार को चकित और स्तम्भित कर दिया।
प्रसिद्ध विद्वान् डारविन, स्पेन्सर का समकालीन था। १८५१ के लगभग उसने “आरिजिन आफ़ स्पिशीज़” (Origin of Species) अर्थात् “प्राणियों की उत्पत्ति” नाम की पुस्तक लिखी। उसमे उत्क्रान्ति, किंवा परिणतिवाद, के आधार पर उसने प्राणियों की उत्पत्ति सिद्ध की। परन्तु इस उपपत्ति के अनेक सिद्धान्त स्पेन्सर ने पहले ही से निश्चित कर लिये थे। इस बात को डारविन ने साफ़-साफ़ स्वीकार किया है।
डारविन की पूर्वोक्त पुस्तक के निकलने के कोई चार वर्ष बाद स्पेन्सर की “मानसशास्त्र के मूलतत्त्व” (Principles of Psychology) नामक पुस्तक निकली। उसको लिखने में स्पेन्सर ने इतनो मिहनत की कि सिर्फ़ १८ महीने में वह पुस्तक उसने तैयार कर दी। इस कारण उसकी नीरोगता में बाधा आ गई। तबीयत उसकी बहुत ही कमज़ोर हो गई और कोई दो-ढाई वर्ष तक वह कोई नई किताब नहीं लिख सका। हाँ, दिल बहलाने के लिए सामयिक पुस्तकों में वह कभी-कभी लेख लिखता रहा। इस बीच में स्पेन्सर का यश दूर-दूर तक फैल गया। “मानसशास्त्र के मूलतत्त्व” लिखने से उसका बड़ा नाम हुआ। वह अब एक विचक्षण दार्शनिक गिना जाने लगा। इस पुस्तक ने तत्त्वज्ञान के प्रवाह को एक बिल- कुल ही नये रास्ते में ले जाकर डाल दिया।
किसी नये लेखक या नये विद्वान् के गुणों की क़दर होने में बहुधा बहुत दिन लगते हैं। हर्बर्ट स्पेन्सर ने यद्यपि ऐसी अच्छी- अच्छी किताबें लिखी; परन्तु उनकी बहुत ही कम क़दर हुई। स्पेन्सर की पहली किताब “सोशल स्टैटिक्स” को किसी प्रकाशक या पुस्तक-विक्रेता ने लेना और छपाकर प्रकाशित करना मँज़ूर न किया। तब स्पेन्सर ने उसकी ७५० कापियाँ ख़ूद ही छपवाई। उनमें से कुछ तो उसने मुफ़्त बाँट दी और बाक़ी किताबों के बिकने में कोई चौदह-पन्द्रह वर्ष लगे! यही दशा “मानसशास्त्र के मूलतत्त्व” की हुई। उसे भी छपाना किसी ने स्वीकार न किया। अन्त मे स्पेन्सर ही ने उसे भी प्रकाशित किया। उसे भी विकने में दस-बारह वर्ष लगे। इन किताबों को उसने किताब बेचनेवालों को कमीशन पर बेचने के लिए दे दिया था। स्पेन्सर को ये किताबें लिखने से धन-सम्बन्धी लाभ तो कुछ हुआ नहीं, हानि ख़ूब हुई। उसने जान लिया कि इस तरह की किताबो की क़दर नहीं है। हाँ, यदि वह उपन्यास लिखता तो उसे ख़ातिरख़्वाह आमदनी होती। जब इँगलेड में इस तरह की किताबों का इतना अनादर हुआ तब यदि हिन्दुस्तान में इनके कोई न पूछे तो आश्चर्य ही क्या है?
यद्यपि स्पेन्सर की आर्थिक अवस्था अच्छी नहीं रही तथापि वद्य अपनी निर्धनता के कारण विचलित नहीं हुआ। उसे आडम्बर बिलकुल पसन्द न था। इससे उसका ख़र्च भी कम था। जो कुछ उसे मिलता था उसी से वह सन्तुष्ट रहता था। यद्यपि अपनी पूर्वोक्त दोनों पुस्तके छपाने में उसका बहुत सा रुपया बरबाद हो गया तथापि उसने किसी से आर्थिक सहायता नहीं ली। कुछ उदार लोगों ने उसकी सहायता करना भी चाहा; पर उसने कृतज्ञतापूर्वक उसे लेने से इनकार कर दिया। पुस्तक प्रकाशन में स्पेन्सर की कोई १५,००० रुपये की हानि हुई। यह सुनकर अमेरिका के कुछ उदार लोगों ने उसे २२,५०० रुपये भेजे। परन्तु उसने यह रुपया भी लेना नहीं स्वीकार किया।
हर्बर्ट स्पेन्सर की सबसे प्रसिद्ध पुस्तक “सिस्टम आफ़ सेन्थैटिक फ़िलासफ़ी” (A System of Synthetic Philo- sophy ) अर्थात् संयोगात्मक-तत्त्वज्ञान-पद्धति है। १८६० ईसवी में उसे स्पेन्सर ने लिखना शुरू किया। बीच में उसे धन-सम्बन्धी और शरीर-सम्बन्धी यद्यपि अनेक विघ्न उपस्थित हुए तथापि ३६ वर्ष तक अविश्रान्त परिश्रम करके उसे उसने समाप्त ही करके छोड़ा। इस पुस्तक में उसने अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन बड़ी ही योग्यता से किया है। संसार में जो कुछ दृश्य अथवा अदृश्य है सबकी उपपत्ति उसने अपने उत्क्रान्ति मत के आधार पर सिद्ध कर दिखाई। इस प्रचण्ड पुस्तक को उसने पाँच भागों में विभक्त किया और दस जिल्दों में प्रकाशित कराया। उनका विवरण इस तरह है― १ फ़र्स्ट प्रिंसिपल्स ( First Principles ) अर्थात् प्राथमिक सिद्धान्त १ जिल्द।
२ प्रिसिपल्स आफ़ बायोलजी (Principles of Biology) जीवनशास्त्र के मूलतत्त्व २ जिल्द।
३ प्रिंसिपल्स आफ़ साइकालजी ( Principles of Psychology ) मानसशास्त्र के मूलतत्त्व २ जिल्द।
४ प्रिंसिपल्स आफ़ सोशियालजी ( Principles of Sociology) समाजशास्त्र के मूलतत्त्व ३ जिल्द।
५ प्रिसिपल्स आफ़ एथिक्स ( Principles of Ethics ) नीतिशास्त्र के मूलतत्त्व २ जिल्द।
स्पेन्सर के इस ग्रन्थ ने उसे इस नश्वर संसार में अमर कर दिया। उसका नाम देश-देशान्तर में विदित हो गया। वह वर्तमान युग के तत्त्वज्ञानियों का राजा माना जाने लगा। इस पुस्तक के प्रथम भाग के दो खण्ड हैं। एक का नाम अज्ञेय- मीमांसा (The Unknowable) और दूसरे का ज्ञेय-मीमांसा (The Knowable) है। हमारी प्रार्थना है कि जो सज्जन इस पुस्तक को पढ़ सकते हों वे एक बार अवश्य पढ़ें; और स्पेन्सर के प्रकृति-पुरुप आदि विषयक सिद्धान्तों का ज्ञान प्राप्त करें; और इस बात का भी विचार करें कि इस विषय में इस देश के तत्त्वतानियों और स्पेन्सर के सिद्धान्तों में क्या तारतम्य है।
इस इतनी बड़ी पुस्तक के प्रकाशित करने में स्पेन्सर को अनेक कठिनाइयाँ हुई। किसी ने उसे छापना मँजूर न किया। छापे कोई क्यों? कोई ऐसी किताबों को पूँछे भी? निदान लाचार होकर स्पेन्सर ने इस पुस्तक के थोड़े- थोड़े अंश को त्रैमासिक पुस्तक के रूप में निकालना शुरू किया। परन्तु फिर भी ग्राहकों की कमी रही। उसे बरा- वर घाटा होता गया। जब वह इस पुस्तक की पहली तीन जिल्दे निकाल चुका तब हिसाब करने पर उसे मालूम हुआ कि कोई १५ वर्ष में उसे अठारह हज़ार रुपये का घाटा रहा! स्पेन्सर ही ऐसा था जो इतना घाटा उठा सका। अब उसने इरादा किया कि इस पुस्तक की अगली जिल्दों का प्रकाशित होना बन्द कर दिया जाय! परन्तु सौभाग्यवश बन्द करने का समय नहीं आया। जैसे-जैसे उसकी प्रसिद्धि होती गई वैसे ही वैसे उसकी किताबों की बिक्री भी बढ़ती गई। परन्तु जो घाटा स्पेन्सर ने उठाया था उसे पूरा होने मे २४ वर्ष लगे। इसके बाद उसे यथेच्छ आमदनी होने लगी और फिर कभी उसे अपनी आर्थिक अवस्था के सम्बन्ध में शिकायत करने का मौक़ा नहीं मिला। उसने अपनी किसी-किसी किताब के छपाने और प्रकाशित करने में, बिक्री से होनेवाली आम- दनी का कुछ भी ख़याल न करके, हज़ारो रुपये ख़र्च कर दिये। समाजशास्त्र-सम्बन्धी अकेली एक पुस्तके के छपाने में उसने कोई ४४ हज़ार रुपये वरवाद कर दिये। इस बहुत बड़ी रक़म के खर्च करने के विषय में उसने विनोद के तौर पर लिखा है कि यदि मेरी उम्र १०० वर्ष से भी अधिक हो तो भी मुझे इस रुपये के वसूल होने की कोई आशा नहीं।
हर्ट स्पेन्सर ने और भी कितनी ही उत्तमोत्तम पुस्तके लिखी हैं। उनमें से दो-चार के नाम हम नीचे देते हैं―
१ फ़ैक्ट्स् ऐंड कामेट्स् ( Facts and Comments ) यथार्थता और टीका।
२ एसेज़् ( Essays ) निबन्ध, ३ जिल्द।
३ वेरियस फ़ैगमेट्स ( Various Fragments ) बहुत सी फुटकर बातें।
४ दि स्टडी आफ़ सोशियालजी ( The Study of Sociology ) समाजशास्त्र का अध्ययन।
५ यजुकेशन ( Education ) शिक्षा।
इनके सिवा उसने और भी कितनी ही छोटी-बड़ी किताबे लिखी हैं।
स्पेन्सर की किताबों में “शिक्षा” बहुत ही उपयोगी किताब है। योरप, अमेरिका और एशिया सब कही इसकी वेहद कदर हुई है। कोई वीस-बाईस भाषाओ में इसका अनुवाद हुआ है। चीनी, जापानी, अरबी यहाँ तक कि संस्कृत तक में इसका रूपान्तर किया गया है। आज तक इसकी लाखों कापियाँ छपकर विक गई हैं। इसका हिन्दी अनुवाद प्रयाग के इंडियन प्रेस ने प्रकाशित किया है। यह पुस्तक सर्वमान्य है। शिक्षा के विषय में यह अद्वितीय है। विद्वानों की ऐसी ही राय है। इसमे शिक्षा की जैसी मीमांसा की गई है वैसी आज तक किसी ने नहीं की। शारीरिक, मानसिक और नैतिक सब प्रकार की शिक्षाओं की, बड़ी ही योग्यता से, इसमे मीमांसा हुई है। स्पेन्सर ने विज्ञान-विद्या ही को सबसे अधिक उपयोगी और सबसे अधिक मूल्यवान शिक्षा ठहराया है। परन्तु, अफ़सोस, हिन्दुस्तान में इसी शिक्षा की सबसे अधिक नाक़दरी है।
१८८२ ईसवी में स्पेन्सर ने अमेरिका का प्रवास किया। जहाँ-जहाँ वह प्रकट रूप से गया वहाँ-वहाँ उसका बड़ा आदर हुआ। राजकीय और नैतिक शास्त्रों के उत्कर्ष के लिए फ्रान्स में एक प्रसिद्ध विद्या-पीठ है। उसकी एक शाखा तत्त्वज्ञान से सम्बन्ध रखती है। उसमे विख्यात विद्वान् यमरसन की जगह पर कुछ काल तक वह निबन्धकार रहा। परन्तु वह बड़ा ही निस्पृह और स्वाधीनचेता था। योरप, और अमे- रिका के―विशेष करके इँगलेंड के―विश्वविद्यालयों ने उसे दर्शनशास्त्र की शिक्षा देने के लिए कितने ही ऊँचे-ऊँचे पद देने की इच्छा प्रकट की, परन्तु उसने कृतज्ञतापूर्वक उन्हें अस्वीकार कर दिया। स्वाधीन रहकर अपनी सारी उम्र उसने विद्या- व्यासङ्ग में खर्च कर दी और अपने अभूतपूर्व तत्त्वज्ञानपूर्ण ग्रन्थों से अपना नाम अमर करके संसार को अनन्त लाभ पहुँचाया।
स्पेन्सर की उम्र के पिछले पाँच-सात वर्ष अच्छे नहीं कटे। वह अकसर बीमार रहा करता था। कोई दसपन्द्रह वर्ष पहले से वह एकान्तवास करने लगा था। वह बहुत कम सिलता-जुलता था। अपने सांसारिक काम समाप्त करके वह मृत्यु की राह देखने लगा था। अन्त में वह आ गई और ८४ वर्ष की उम्र में, ८ दिसम्बर १९०३ को, वह उसे इस लोक से उठा ले गई। पर उसका अक्षय्य यश, पूर्ववत्, किबहुना उससे भी अधिक, प्रकाशित हो रहा है। उसे ले जाने या कम कर देने की किसी में शक्ति नहीं। स्पेन्सर ने लिख रक्खा था कि मरने पर मेरा मृत शरीर जलाया जाय, गाडा न जाय। ऐसा ही किया गया और उसका नश्वर पञ्च- भूतात्मक शरीर अग्नि के संस्कार से फिरपञ्चभूतों में जा मिला। शव-दाह की प्रथा जिन लोगों में नहीं है उन्हें स्पेन्सर के उदा- हरण पर विचार करना चाहिए। इस देश के निवासियों में श्यामजी कृष्ण वर्मा पहले सज्जन हैं जिन्होंने आक्सफ़र्ड विश्वविद्यालय से एम॰ ए॰ की पदवी पाई है। स्पेन्सर की श्मशान-क्रिया के समय वे वहाँ उपस्थित थे। थोड़ा सा सम- योचित भाषण करने के बाद उन्होंने १५ हज़ार रुपया ख़र्च फरक स्पेन्सर के नाम से एक छात्रवृत्ति नियत करने का निश्चय किया। इस निश्चय का वे पालन भी कर रहे हैं। इँगलेड के इस ब्रह्मर्षितुल्य वेदान्त वेत्ता का इस तरह भारतवर्ष के एक विद्वान् द्वारा आदर होना कुछ कौतूहलजनक अवश्य है। सच है, दर्शन-शास्त्र की महिमा यह बुड्ढा भारत अब भी ख़ूब जानता है। स्पेन्सर शान्तिभाव को बहुत पसन्द करता था। वह युद्ध के ख़िलाफ़ था। बोर-युद्ध का कारण उस समय के उपनिवेश-मन्त्री चेम्बरलेन साहब थे। उन पर, उनके इस अनुचित काम के कारण, स्पेन्सर ने अप्रसन्नता प्रकट की थी। उसके मरने के बाद उसकी जो एक चिट्ठी प्रकाशित हुई है उसमें उसने जापान को शिक्षा दी है कि यदि तुम अपना भला चाहते हो तो योरपवालों से दूर ही रहो और योरप की स्त्रियों से विवाह करके अपनी जातीयता को बरबाद न करो। नहीं तो तुम किसी दिन अपनी स्वाधीनता खो बैठोगे।
हर्बर्ट स्पेन्सर ने यद्यपि पाठशाला में शिक्षा नहीं पाई और यद्यपि वह संस्कृत की तरह की ग्रीक और लैटिन इत्यादि भाषाओ के ख़िलाफ़ था, यहाँ तक कि वह ग्रीक भाषा का एक शब्द तक नहीं जानता था, तथापि वह बहुत अच्छी अँग- रेज़ी लिखता था और अपने मन का भाव बड़ी ही योग्यता से प्रकट कर सकता था। उसकी तर्क-शक्ति अद्वितीय थी। जिस विषय का उसने प्रतिपादन किया है, जिस विषय में उसने बहस की है, उसे सिद्ध करने में उसने कोई बात नहीं छोड़ी। उसकी प्रतिपादन-शक्ति ऐसी बढ़ी-चढ़ी थी कि जो लोग उसकी राय के ख़िलाफ़ थे उनको भी उसकी तर्कना सुनकर उसके सामने सिर झुकाना पड़ता था। पर, खेद की बात है, उसकी क़दर उसी के देश, इँँगलेंड में, और देशो की अपेक्षा बहुत कम हुई। सच है, हीरे की क़्दर हीरे की खान में कम होती है। स्पेन्सर का मत है कि विज्ञान पढ़ने से मनुष्य अधार्मिक नहीं होता। विज्ञान से धर्मनिष्ठा अधिक बढ़ती है। जो लोग ऐसा नहीं समझते उन्होंने विज्ञान की महिमा को जाना ही नहीं। इस विषय पर उसने “शिक्षा” नाम की अपनी पुस्तक में बड़ी ही विज्ञता-पूर्ण बहस की है। उसने लिखा है कि ज़रा-ज़रा सी बातो पर बाद-विबाद करके व्यर्थ समय नष्ट करना और सृष्टि-रचना मे परमेश्वर ने जो अगाध चातुर्य दिखलाया है उस पर ज़रा भी विचार न करना बड़े ही आश्चर्य की बात है। परन्तु पीछे उसका मत कुछ और ही तरह का हो गया था। जिस स्पेन्सर ने सृष्टि-सम्बन्धिनी एक “अगम्य, अमर्य्याद, और सर्वव्यापक शक्ति” की महिमा गाई उसी ने “विश्वकर्मा, जगन्नायक और सर्वशक्तिमान ईश्वर” की अपने समाज-घटना-शास्त्र में कड़ी समालोचना की। यह शायद धर्म्मश्रद्धा में उसकी शक्ति का कारण हो। क्योंकि धर्म- विषयक बातों में श्रद्धा ही प्रधान है।
स्पेन्सर ने पचास-साठ वर्ष तक अविश्रान्त ग्रन्थ-रचना की। उसके ग्रन्थो को पढकर संसार के सुशिक्षित लोगों के विचारों में खूब फेर-फार हो रहे हैं। आशा है कि इस फेर- फार के कारण सांसारिक जनों का कल्याण होगा। स्पेन्सर का विद्याभ्यास दीर्घ, ज्ञान-भाण्डार अगाध और परिश्रम अप्रति- हत था। वह अत्यन्त कर्तव्यनिष्ठ, बढ़-निश्चय और निर्लोभी था। उसके समान तत्त्वज्ञानी योरस में बहुत कम हुए हैं। किसी-किसी का मत है कि तत्त्वज्ञानियों में अरिस्टाटल, बेकन और डारविन ही की उपमा उससे थोड़ी-बहुत दी जा सकती है। ईश्वर करे इस महादार्शनिक की पुस्तकों का अनु- वाद इस देश की भाषाओं में हो जाय जिससे इस बूढ़े वेदान्ती भारतवर्ष के निवासियों को भी उसके सिद्धान्त समझने में सुभीता हो।