रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)/भूमिका/३. अपभ्रंश-रचना
अपभ्रंश-रचना
सन् १९२८ ई० (सं० १६८५ वि० ) में जब महामहोपाध्याय परित गौरीशंकर हीराचन्द श्रोभा कई ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा 'पृथ्वीराज रासो' को सर्वथा अनैतिहासिक सिद्ध करते हुए पृथ्वीराज चौहान तृतीय के दरबार में चन्द वरदायी के अस्तित्व तक पर सन्देह प्रकट कर चुके थे उसके ग्रा वर्ष बाद सन् १९६६ ई० में सुनिराज जिनविजय जी ने सन् १२३३ ई० ( सं० १२६० वि० ) अर्थात् सन् १९६२ ई० में पृथ्वीराज को मृत्यु के ४१ वर्ष बाद रचित संस्कृत-प्रबन्धों में आये हुए उनसे सम्बन्धित चार अपभ्रंश छन्दों की शोध तो की ही परन्तु साथ ही उनमें से तीन नागरी प्रचा रिशी सभा द्वारा प्रकाशित रासो में भी हूँढ़ निकाले । " तुलना सहित उक्त छन्द इस प्रकार हैं :-
( १ ) मूल
बार पहुवीसु जु पई कइंबासह मुक्कओ,
उर तिरि खडहडिउ धीर कक्वंतरि चुक्कउ ।
वोअ करि सन्धीउ संमइ सूमेसरनंदण ।,
एहु सु गडि दाहिम खाइ खुद्द सहभरिवणु ।
फुड छडि न जाइ इहु लुब्भिल वारइ पलकउ खल गुलह,
नं जाणउ' चन्द बलद्दिउ किं न वि छुट्टइ इह फलह ।।
- पृष्ठ ८६, पद्यांक (२७५)
१. हिंदी साहित्य, पृ० ८२ २. सिद्धान्त और अध्ययन, भाग २, पृ० ८५; ३. साहित्य जिज्ञासा, पृ० १२७ ; ४. पृथ्वीराज रासो का निर्माण काल; कोषोत्सव स्मारक संग्रह, सं० १९८५ वि०;
५. पुरातन प्रबन्ध संग्रह, भूमिका, पृष्ठ ८-१० सं० १९९२ वि०; रूपान्तर
एक दान पहुनी नरेस कैमासह मुक्यौ ।
उर उप्पर थरहरथौ वीर कंतर चुक्यौ ।।
बियौ बान संधान हन्यौ सोमेसर नंदन ।
गाढौ कारे निग्रहौ षनिब गडयौ संभरि धन ।।
थल छोरि न जाइ आभागरौ गाड्यौ गुन गहि अग्गरौ ।
इम जपै चंद वरद्दिया कहा निघट्टे इय प्रलौ ।।
--रासो, पुत्र १४९६, पद्म २३६
( २ ) मूल
अगहुम गहि दाहिमओ रिपुराय वयं करु,
कूडु मन्नु मम ठवओ एहु जम्बुर ( प ? ) निलि जग्गरू ।
सह नामा सिक्खवड जइ सिविखविड बुझाई,
जपइ चंदबलिद्दु मज्झा परमक्खर सुझइ ।
पहु पहुबिराय समधिनी सधैँभरि सउण्इ सम्भरिसि,
कईबास विश्वास विसविणु मच्छिविवद्धश्रो मरिसि ।।
--पृष्ठ वही, पद्यांक (२७६)
रूपान्तर
अगह मगह दाहिमौ देव रिपु राइ पयंकर ।
कूर सन्त जिन करो मिले जंबू वै जंगर ।
मो सहनामा सुनौ एह परमारथ सुज्झै ।
अष्षै चंद बिरद्द बियौ कोई एह न बुज्झै ।।
प्रथिराज सुगवि संभरि धनी इह संभति संभारि रिस ।
कैमास बलिष्ठ बसीठ विन म्लेच्छ बंत्र बंध्यौ मरिस ।।
--रासो, पृष्ठ २१८२, पद्म ४७६
( ३ ) मूल
त्रिरिह लक्ष तुषार सबल पपरीश्रइ जसु हय,
चउदसय मयमत दंति भज्जति महासय ।
वीसलक्ख पायक्क सफर फारक्क धणुदर ,
धगुदर, अरू बलु यान सङ्घ कु जाण्इ तांह पर ।
छत्तीसलक्ष नराहिव विहिविनडिओ हो किम भयउ,
जइचन्द न जागर जल्हुकइ गयउ कि मूल कि घरि गयउ ।।
--पृष्ठपद्यांक (२७८)
रूपान्तर
असिय तथ्य तोषार सजउ पष्वर सायद्दल ।
सहस हस्ति चवसहि गरुत्अ गज्जत महाबल ।।
पंच कोटि पाइक सुफर पारक्क धनुद्धर ।
जुध जुधान वर वीर तो न बंधन सहन भर ।।
छत्तीस सहस रन नाइबौ विही निम्मान ऐसो कियौ ।
जै चंद राइ कवि चंद्र कहि उदधि बुड्डि कै घर लियौ ।।
— रासो, पृष्ठ २५०२, पद्य २१६.
(४) मूल
जइतचंदु चक्कवइ देव तुह दुसह पयाण्उ,
धरणि घसवि उद्धसर पडइ रावह भंगायओ ।
सेमु मणिहिं संकिपर मुक्कु हारखरि सिरि खंडोंओ,
तुट्टओ सो हरधबलु भूलि जसु चिय तणि मंडियों ।
उच्छलीउ रेणु जसरिंग गय सुकवि व (ज) ल्हु सच्चउ चबइ,
वग्ग इंदु बिंदु भुयजुअलि सहस नत्रण किया परि मिलइ ।।
८८९ पद्यांक ( २७६ )
अपभ्रंश के इन छन्दों के आधार पर मुनिराज ने लिखा, ४ पद्यों में से तीन पद्य यद्यपि विकृत रूप में लेकिन शब्दश: उसमें हमें मिल गए इससे यह प्रमाणित होता है कि चंद कवि निश्चितता एक ऐतिहासिक पुरुष था और वह दिल्लीश्वर हिंदुसम्राट् पृथ्वीराज का समकालीन और उसका सम्मानित एवं राजकवि था । उसीने पृथ्वीराज के कीर्तिकलाप का वर्णन करने के लिए देश्य प्राकृत भाषा में एक काव्य की रचना की थी जो पृथ्वीराज रासो के नाम से प्रसिद्ध हुई । .... इसमें कोई शक नहीं कि पृथ्वी- राज रासो नाम का जो महाकाव्य वर्तमान उपलब्ध है उसका बहुत बड़ा भाग पीछे से बना हुआ है । उसका यह बनावटी हिस्सा इतना अधिक और विस्तृत है, और इसमें मूल रचना का अंश इतना ग्रल्प है और वह भी इतनी विकृत दशा में है, कि साधारण विद्वानों को तो उसके बारे में किसी प्रकार की कल्पना करना भी कठिन है !....मालूम पड़ता है कि चंदकवि की मूल कृति बहुत ही लोकप्रिय हुई और इसीलिए ज्यों ज्यों समय बीतता गया त्यों त्यों उसने पीछे से चारण और भाट लोग अनेकानेक नये नये पद्म बनाकर मिलाते गये और उसका कलेवर बढ़ाते गए । कण्ठानुकण्ठ उसका प्रचार होते रहने के कारण मूल पद्यों की भाषा में भी बहुत कुछ परिवर्तन होता गया । इसका परिणाम यह हुआ कि आज हमें चंद की उस मूल रचना का अस्तित्व ही विलुप्त सा हो गया मालूम दे रहा हैं ।"
उपर्युक्त अपभ्रंश छन्दों में से अन्तिम दो जो 'पुरातन प्रबन्ध संग्रह' के ‘जयचंद प्रबन्ध' से उद्धृत किए गये हैं, चंद द्वारा नहीं रचे गए हैं वरन् उसके 'गुन बावरी' पुत्र जल्दु कइ (जल्ह कवि ) प्रणीत हैं जो 'चंद छंद सायर तिरन' 'जिहाज गुन साज कवि' था तथा जिसके लिए 'पुस्तक अल्हन हथ्थ है चलि गज्जन नूप काज'४ का उल्लेख है ।
मुनिराज की शोध का उल्लेख करते हुए बाबू श्यामसुन्दर दास ने लिखा'अब प्रश्न यह उठता है कि कौन किसका रूपान्तर है । क्या आधुनिक रासो का अपभ्रंश में अनुवाद हुआ था अथवा असली रासो अपभ्रंश में रचा गया था, पीछे से उसका अनुवाद प्रचलित भाषा में हुआ और अनेक लेखकों तथा कवियों की कृपा से उसका रूप और का और हो गया तथा क्षेपकों की भरमार हो गई । यदि पूर्ण रासो अपभ्रंश में मिल जाता तो यह जटिल प्रश्न सहज ही में हल हो जाता । राजपुताने के विद्वानों तथा जैन संग्रहालयों को इस ओर दत्त चित्त होना चाहिए ।'
बाबू साहब की यह शंका कि कौन किसका रूपान्तर है अधिकसंगत नहीं । अनेक विद्वान् इस तथ्य से सहमत हैं कि पूर्ववर्ती भाषाधों की कृतियों के रूपान्तर परवर्ती भाषाओं में हुए हैं परन्तु परवती भाषाओं की कृतियाँ पूर्ववत भाषाओं में रूपान्तरित नहीं की गई हैं । ग्रस्तु यह निश्चित है। की पृथ्वीराजरासों का मूल प्रणयन अपभ्रंश में हुआ था परन्तु यहाँ पर यह भी स्मरण रखना होगा कि वह उत्तर कालीन अपभ्रंश थी जिस पर तत्कालीन कथ्य देश भाषा को छाप थी। डॉ० सुनीति कुमार चटर्जी ने भी अपभ्रंश छन्दों की शोध होने पर लिखा-- 'निर्विवाद निष्कर्ष यह है कि
१- दहति पुत्र कविचंद कै । सुंदर रूप सुजान । इक जल्लह गुन बावरौ । गुन समंद सति मान । ८४, स०६७ ;
२- छंद ८३, स० ६७ ;
३- बही;
४-छंद ८५, स० ६७ ;
५- पृथ्वीराज रासो, ना० प्र० प०, वर्ष ४५,अंक ४,माघ सं०१९९७ वि०, १० ३४६-५२ :
६-डॉ० शोष चन्द्र बागची ; मूल पृथ्वीराजरासो की रचना एक प्रकार का थी न कि कोई आधुनिक भारतीय साया और एक नवीन भाषा के प्रारम्भ की अपेक्षा रासो भाषा साहित्य की परम्परा की देन है प्रकाशित रासो व्यापक अर्थ में (राजस्थानी ) हिंदो की पुरानी रचना है और कभी सुलभ होने पर उसका मूल अपभ्रंश रूप हिंदी और अंश मात्राओं के सन्धि- युग की रचना सिद्ध होगा अस्तु उसे उत्तर कालीन अपभ्रंश अथवा प्राचीन हिंदी का महाकाव्य कहने में कोई आपत्ति नहीं दीखती | राजपूताने के विद्वानों तथा जैन-संग्रहालयों के संरक्षकों के दत्तचित्त होकर खोज करने पर भी अभी तक रचित मूल रासो का संवान नहीं मिला है परन्तु डॉ० दशरथ शर्मा और मीनाराम रंगा द्वारा रासो के बीकानेरी संस्करण के 'यज्ञ विध्वंस, सम्पौ ६' के निम्न छन्द जो सभा बाले प्रकाशित रासो के बालुका राइ सम्यौ ४८ के छन्द २२-६५ के अन्तर्गत किंचित् पाठान्तर वाले रूप हैं, उनका अपभ्रंश में रूपान्तर सिद्ध करता है कि उपलब्ध रासो की भाषा तथा अपभ्रंश में बहुत ही थोड़ा अन्तर है यहाँ तक कि उनकी कई पंक्कियाँ सर्वथा समान हैं :- - बीकानेरी संस्करण रूपान्तर छन्द पद्धडी परा कलि अछपथ कमउज राउ | तत सील रत घर धर्म चाउ || वर अछ भूमि हम राय अलग्ग | पंग राजसू जग || सुद्धिय पुरान बलि बंस वीर | भुवयोलु लिखित दिख्ये सहीर || छिति छत्रबंध राजन समान | जितिया सवल हथबल प्रधान || पुछ समंत परधान तब्व | हम करहि जग्गुजिहि लहाह कव्व ॥ दीय मंत्री सुजांन । कलजुग नहीं अरजुन समांनु || उत्तरु त पद्धटि कलिहि अच्छ पह कणउज राउ | सत सील रत घरि घम्मि चाउ || बरि ऋच्छ भूमि हय राय अग पहविद्य पंग राज अ-जग्ग ॥ सोहिवि पुराण वलि वंस वीरु | भूगोलि लिखिन देक्लिा सुहीरु || लिइ छत्तबंध रामा समाण | हृयवलप्पांण || पहाण तव्य | लभइ कव्व || मंतित्र सुजाणु । कलिजुगई राहि अज्जुरा तमाणु सयल जिसउ पुच्छियउ सुमंत करहुँ जग्ग जिह उत्तर त दिशा १. बृहत कथा कोष, हरिवेणाचार्य, सम्पादक डॉ० आदिनाथ नेमिनाथ उपाध्ये, सिंधी जैन ग्रन्थमाला, संख्या १७, सन १६४३ ३०. रिव्यू. १० १३: ________________
( १२६) करि धर्म देव देवर अनेक | देहु देव || पंग जीव । षोड़सा दान दिन मो सीख सानि प्रभु कलि अथि नहीं राजा सुत्रीय || हंकि पंग राइ मंत्रिय समान । लहु लोभ अब बुल्यो नियान || गाथा के के न गए महि महु दिल्ली ढिल्लाय दीह होहाय । विहरंतु जासु किन्ती तो गया नहि गया हुति ॥ पद्धड़ी करि धम्म देव देउल अगेन । सोलसा दारा दिखि देहु दे || महु सिक्ख मरिण पहु पंग जीव ! कतिहि व्यत्थि राहि राम्रा सुगीव || हकि पंग-राव संति समाणु । लहु लोहेा तु बोल्लिउ खिखासु ॥ गाहा के के ए गय महि-मज्झि दिल्ली दिल्ला बिउ दीह होहाहु । विहरs जाहं तु किति ते यया विाहि गया हवन्ति ॥ पद्धटिया पहु पंग राइ राजस् जरग । आरंभ अंग कीनौ सुरग्य || पहु पंग राय राजसुत्र जग्ग । यारंभ अंग कीयड सरग | जित्तिश्रा राइ सब सिंघवार । राय सव्व मेलिया कंठ जिमि सुतिहार || जुम्गिनिपुरेस सुनि भयौं वेद । वह न माल म हि भेद || सुकले दूत तब तिह समत्थ । तत्य ॥ जित्ति मेलिय कंठि जिमि मुक्तिग्रहारि ॥ जोइणिपुरेस सुशि हुन खे । श्रावण साल कि हिश्र भेन || मोकल्लिका दूर तहिं समत्थ । उत्तरित्र तारा यवारि सिंघवारि । तत्थ || ताहि । उतरे आवि दरवार बुल्यौ न वयन प्रिथीराज सकल्यौ सिंघे गुरजन निव्याहि । उच्चरिय गरुव गोविन्दराज | कलि मध्य जाग को करे याज ! सतिजुग्ग कहहि बलिराज कीन । तिहि किति काज त्रिलोकदीन ॥ त्रेता तु किन्ह खुनंद कुब्बेर कोपि बरख्यो धन धर्मपूत द्वापर बोल्लिउ रा ता वयण पुहविराह । संकेल्लियस गुरुयो बाइ || उच्चरित्र गुरुश्र गोविन्दरज । कलि मज्मि जग्ग को करइ बज्ज || सतबुधि कहइ बलिराय कीय तेा किति काज तिलो तेअड् तु कीय रघुनंद दोय || राइ | राइ | सुभाइ ॥ कुबेर कोइ वरतियउ सभाइ ॥ सुनाइ । वणि धम्मपुत दावरि मुखाइ । तिहि पछ बीर थरु थरि सहाई ॥ कलि मभिजग्गु को करण जोग । farat बहु विधि ह लोग || तहि पक्खि वीर अरिसहाइ ॥ कलिमभि जग्गको करण जोन । बिगरहिं बहु वह इस लोन || ________________
दलदव्य गव्य तुम बोलहुत बोल देवनि तुम्ह जातु नहीं चत्रिय हैंव कोइ निब्बीर पुहमि कबहुँ न होइ ॥ हम जंगलहं वास कालिदिकूल । जांनहि न राज जैचन्द जांनहि तु एक जुग्गनि समान || ( १२७ ) अमन । दल-द्रव्य-गव्येण । अप्पमाणु । वोल्लहु तु बोल्तु देवहं समाए । तुम्ह जाराहु राशि खतिन कोइ । शिवीर पहत्रि का सा होइ ॥ मूल ॥ जंगलह वासि जायराइ ए रज कालिन्दि-कूल । जयचंद-मूल | पुरेस । जायइ तु इक्कु जोइशि-पुरेसु । सुरइंदु स पृथ्वी नरेस || सुसिहँ हवि गरे । तिहु कार साहि वंधिया जैश । तिरिय वार साहि वंविच जेण | भंजिया भूप भडि भीमरोण | भंजिउ भूत्र भड भीमसेण ॥ संभरि सुदेस सोमेस पुत्त | सयंभरि-देस सोमेस-पुत्तु । वृत्त ॥ दाणवतिल्व श्ररिश्र धुत्तु ॥ दानवतिरूप यवतार तिहि कंध सीस किमि जाय होइ । पृथिमि नहीय चहुथान कोई || दिक्aहिं सब तिहिं संररूप । मांनहि न जग्ग मनि ग्रान भूप ॥ आदर मंद उठि गो वसि । गामिनी सभा बुधि जनउ वि || फिर चलिग सब्ब करावज्जगंक | भए मलिन कमल जिमि सकलि संभ। तहि संधि सीसु किमि जग्गु होइ || मुहबिहेण किमु चहुत्राण कोइ ॥ दिक्खहिं सव्व सिंघ-रूव । मय्यहि ग जगि मणि चरण भूत्र ॥ श्रादरहु मंद उठि गउ बिसि । गामीणसभहे बुहजर विद्व ॥ फिर चलिय सव्च करण्उज-मज्झि ॥ हुआ मलिष्कमल जिस सयलसंस्झिा , परन्तु इन विद्वानों का यह निष्कर्ष कि रासो के उपलब्ध विविध संस्करणों की भाषा पश्चिमी हिंदी नहीं जैसा श्री बीम्स, डॉ० ग्रियर्सन प्रभृति विद्वत् वर्ग का कथन है वरन् प्राचीन राजस्थानी है, वांछित प्रमाणों के अभाव में निराधार ही ठहरता है । रासो के बृहत्तम संस्करण को छोड़कर उसके अन्य संस्करण भी देखने में नहीं आये परन्तु इन अन्य संस्करणों पर प्रकाश डालने वाले पंडितों ने यह स्वीकार किया हैं कि उनकी सम्पूर्ण सामग्री सभा वाले संस्करण में उपस्थित है। इस परिस्थिति में उपस्थित 'पृथ्वीराज रासो' की भाषा परीक्षा उसे पश्चिमी हिंदी के समकक्ष रखती १. दि ओरिजनल पृथ्वीराजरासो ऐन अपभ्रंश वर्क, राजस्थान भारती, भाग १, अंक १, अप्रैल सन् १९४६ ई०, पु०६३ -१०३; २. वही, ५० १३; है न कि राजस्थानी के । यहाँ पर जहाँ यह कहा गया कि रासो राजस्थानी या डिंगल भाषा की कृति नहीं यहाँ पर वह पश्चिमी हिंदी या भाषा में सूर, सेनापति, रसखान, आदि की कृतियों के समान भी नहीं वरन् वह ऐसी व्रज भाषा की कृति है जिसपर प्रादेशिक डिंगल की स्वाभाविक छाप है, इसीलिये राजस्थान में उसे पिंगल-रचना कहे जाने की प्राचीन अनुश्रुति है । पं नरोत्तम स्वामी ने रातो को पिंगल रचना कहते हुए उपर्युक्त लेखक द्वय से रासो का व्याकरण निर्माण कर इस भ्रम का निराकरण करने का आग्रह किया था ।' जिसके उत्तर में उन्होंने लिखा- "रासो के लघु रूपान्तरों की भाषा अधिकाधिक अपभ्रंश के निकट पहुँचने लगी । कई स्थल तो ऐसे हैं कि सामान्य परिवर्तन करते ही भाषा अपभ्रंश में परिवर्तित हो जाती है, कान्तिसागर जी ने जो प्रति हूँढ़ निकाली है उसकी भाषा मुनि जी के मतानुसार अपभ्रंश हैं। हम तो वास्तव में इस डिंगल और पिंगल के झगड़े को व्यर्थ समझते हैं। परवती रूपान्तरों में भाषा एक नहीं खिचड़ी है जैसा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने ( दृहद् रूपान्तर के लिये ) लिखा है, 'इसकी भाषा बिलकुल बेठिकाने हैं। उसमें व्याकरण आदि की कोई व्यवस्था नहीं । कहीं कहीं तो भाषा आधुनिक साँचे में ढली दिखाई पड़ती है । क्रियायें नये रूपों में मिलती हैं पर साथ ही कहीं भाषा अपने असली प्राचीन साहित्यिक रूप में पाई जाती है जिसमें प्राकृत और अपभ्रंश शब्दों के साथ साथ शब्दों के रूप और विभक्तियों के चिन्ह पुराने ढंग के हैं ।' डॉ० धीरेन्द्र वर्मा ने भी इस विषय में अपनी कोई निश्चयात्मक सम्मति नहीं दी है। वास्तविक वस्तु तो मूल ग्रंथ है और उसके विपय में सभी अधिकारी विद्वान इस परिणाम पर पहुँचने लगे हैं कि इसकी भाषा अपभ्रंश है। मरु, टक्क और भादानक ये तीनों मरुदेश के अंतर्गत या सर्वथा पार्श्ववर्ती थे जहाँ की मूल भाषा अपभ्रंश थी। इन प्रदेशों की देशी भाषा में रचित राजस्थान के सम्राट और सामन्तों की गौरवमयी गाथा को हम चाहे अपश की कृति मानें चाहे प्राचीन राजस्थान की देश्य भाषा की, इसमें वास्तविक भेद ही है ।" २
१. पृथ्वीराज रासो की भाषा, राजस्थान भारती, भाग १, अंक २-३, जुलाई-अक्टूबर सन् १९४६ ई०, पृ० ५१-३;
२. पृथ्वीराज रासो की भाषा, राजस्थान भारती, भाग १, अंक ४, जनवरी सन् १९४७ ई०, पृ० ४९-५१ ; मुनि कान्तिसागर की अपभ्रंश वाली रासोप्रति उनके अतिरिक्त और किसी ने नहीं देखी तथा ऐसी कोई प्रति उनके पास हैं भी यह तक सन्देहास्पद है । अस्तु उसे यहाँ विचारार्थ प्रस्तुत करना असंगत ही है । मुनिराज जिनविजय जी द्वारा शोधित 'पुरातन प्रबंध संग्रह' के 'पृथ्वीराज प्रबंध' और 'जयचंद प्रबंध' से उल्लिखित छप्पय छन्दों की भाषा निश्चय ही अपभ्रंश है और वे कथा विशेष से पूर्वापर सम्बन्ध की स्पष्ट घोषणा करते हुए मूल प्रबन्ध काव्य से उद्धरण के साक्षी हैं। इन छन्दों मात्र के आधार पर डिंगल और ब्रज भाषा में विकसित होने वाले क्रमशः गुर्जरी और शौरसेनी अपभ्रंश का निर्णय करने लगना साहस मात्र ही कहा जायगा । बो सभा वाले प्रकाशित रासो के अधिकांश गाहा या गाथा छन्द प्राकृताभास अपभ्रंश अथवा अपभ्रंशाभास देश्य भाषा में हैं ।
कुछ छन्द देखिये :
पय सकरी तुमतौ । एकतौ कनक राय भोयंसी ।।
कर कंसी गुज्जरीय । रब्बरिय नैव जीवंति ।।४३,
सत्त खनै आवासं । महिलानं मद्द सद्द नूपुरया ।।
सतफल बज्जून पयसा । पब्चरिय नैव चालंति ।। ४४,
रब्बरियं रस मंदं । क्यूँ पुज्जति साथ अभियेन ।।
उकति जुकत्तिय ग्रंथ । नत्थि कत्थ कवि कत्थिय तेन ।। ४५,
याते बसंत मासे । कोकिल झंकार अब वन करियं ।।
बर बब्बूर विरवंय । कपोतयं नैव कलयंति ।। ४६
सहसं किरन सुभाउ । उगि आदित्य गमय अंधरं ।।
अयं उमा न सारो । भोडलयं नैव झलकति ।। ४७
कज्जल महि कस्तूरी । रानी रेहेंत नयन श्रृंगार ।।
कां मसि घसि कुंभारी । किं नयने नैव अंजंति ।। ४८,
ईस सीस समानं । सुर सुरी सलिल तिष्ट नित्यान ।।
पुनि गलती पूजारा । गडुवा नैव ढालति ।। ४९, स०१;
तप तंदिल मे रहियं । अंग तपताइ उप्परं होई ।।
जानिज्जै कसु लाल । घटनो अंग एकयौ सरिसौ ।। ३७९,
मुच्छी उच्चस बंकी । बाल चंद सुभ्भियं नभ्भ ।।
गज गुर घन नीसानं । रीसानं पंग षल याई ।। ४११,स०२५;
सम विस हर बिस तं । श्रप्पं होई विनय बसि बाले ॥
पट नवरत दुस सद्ध । गारुड़ बिना मंत्र सामरियं ॥१०४, स०४६ः
पिय ने दिलवंती । अबली यति गुज नेन दिद्वाया ।।
परसान सद्द हीनं । भिन्नं कि माधुरी माघ ।। ११६५, २०६१;
( और कुछ गाया छन्द पिंगल में भी हैं ) परन्तु इनकी भाषा मात्र के आवार पर रासो की भाषा का फैसला करना अनुचित है । जैसे कोई 'रामचरितमानस' के श्लोकों की परीक्षा करके यह कह दे कि मानस की भाषा संस्कृत हैं वैसा ही निराधार वर्तमान रासो के नाथा छन्दों की भाषा पर आधारित निर्णय भी होगा । इस प्रसंग में इतना और ध्यान में रखना होगा कि प्रबंध की दृष्टि से राखी के गाथा छन्द महत्व नहीं रखते क्योंकि उन सबको हटा देने से कथा के क्रम में अस्तव्यस्तता नहीं होती । परन्तु यही बात उसके दूहा और कवित्त नामधारी छप्पय छन्दों के बारे में नहीं कही जा सकती: इन छन्दों से ही उसका प्रबन्धत्व है परन्तु इनकी भाषा अपभ्रंश नहीं वरन् पिंगल है ।
मूल रासो की अपभ्रंश कृति कभी सामने आने पर उस अपभ्रंश के प्रकार पर विचार करना अधिक समीचीन होगा । पृथ्वीराज के काल में अर्थात् बारहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में संस्कृत और प्राकृत की भाँति अपभ्रंश भी क्लासिकल ( सम्पुष्ट ) हो गई थी' तथा उसमें और ग्राम्य ( या देश्य ) भाषा में भेद हो गया था ' अस्तु उक्त काल में वह बोलचाल की भाषा न थी । काशी और कन्नौज के गाहड़वालों की भाँति अजमेर के चौहान शासक बाहर से नहीं आये थे वरन् उक्त प्रदेश के पुराने निवासी थे इसीसे वे साधारण जनता की भाषा की उपेक्षा नहीं करते थे, उनके यहाँ जिस प्रकार संस्कृत रचनायें समादत थीं, उसी प्रकार अपभ्रंश और देश्य भाषाओं की कृतियों को भी प्रोत्साहन मिलता था ।
यदि डिंगल और पिंगल का भेद विद्वत् जन न करें, जो राजस्थान की बारहवीं शताब्दी से बाद की रचनाओं के उपयुक्त विभाजन के लिए बहुत समुचित ढंग से किया गया है, तब ना० प्र० स० द्वारा प्रकाशित रातो की भाषा को उत्तर कालीन अपभ्रंश की मूल रचना का कुछ विकृत
१. डॉ० गणेश वासुदेव तगारे, हिस्टारिकल ग्रैमर या अपभ्रंश, भूमिका, पृ० ४;
२. श्राचार्य हेमचन्द्र, काव्यानुशासनम् ८-६ ;
३. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, हिंदी साहित्य का आदि काल, पृ० २५-३३; रूप कहना पड़ेगा जिसमें 'वैठिकाने की भावा' होते हुए भी उसका अधिकांश ब्रज-भाषा व्याकरण पर आश्रित है और जिस पर युगीन प्रादेशिक राजस्थानी का प्रभाव अन्य भाषागत विशेषताओं की अपेक्षा अधिक है। रासो के आदि'समय'में लिखा है-- 'जो पढव तत्त रातो सु गुर, कुमति मति नहिं दरसाइय" अर्थात् जो श्रेष्ठ गुरु से रासो पढ़ता हैं वह दुर्मति का प्रदर्शन नहीं करता । इस युग में रासो वांछित सद्गुरु वही है जो प्राचीन व्रज, डिंगल और गुजराती भाषायें तथा उनके साहित्य, संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषायें तथा उनके साहित्य, तुलनात्मक भाषा-विज्ञान, राजस्थान की प्रादेशिक परम्परायें, इतिहास, काव्य-शास्त्र, प्राचीन कथा-सूत्र, काव्य-रूढ़ियाँ, महाभारत, पुराण और नीति-ग्रन्थों से कम से कम भलीभाँति परिचित है । वही राजस्थान के इस गौरवपूर्ण काव्य को समझने तथा प्रक्षेपों को दूर करने का वास्तविक अधिकारी है। आज हमें ऐसी प्रतिभा वाले अनेक सद्गुरुत्रों की नितान्त आवश्यकता जो इस महाकाव्य का उद्धार करें ।