रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)/परिशिष्ट/२. भौगोलिक प्रसंग

रेवातट (पृथ्वीराज-रासो)
चंद वरदाई, संपादक विपिन बिहारी त्रिवेदी

हिंदी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय, पृष्ठ ३९३ से – ४०४ तक

 

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२– भौगोलिक प्रसंग कनवज्ज (>कन्नौज ) - [सं० कान्यकुब्ज या कन्याकुब्ज > प्रा० कण्ण्उज अप० कनवजा > हि० कन्नौज ] प्राचीन भारत की राजनीति में अधिक भाग लेने वाले नगरों में कन्नौज भी एक है । यह उत्तर प्रदेश के जिले फरूखाबाद का एक साधारण नगर गंगा के दाहिने किनारे पर अक्षांश २७०५' उत्तर और देशांतर ७६० ५५' पूर्व में बसा हुआ है। "इसके वैभव का पराभव हुए बहुत समय बीता । इस समृद्धिशाली नगर के खंडहर और नगर के चारों ओर के घने जंगल पराधियों के सहायक और शरणागत हैं ।" [The East India Gazetteer. Walter Hamilton, (1823) Vol. I, p. 74] 1 कन्नौज ने गुप्त वंश के पतन और मुस्लिम उत्थान के मध्य काल में बड़े-बड़े साम्राज्यों की उथल-पुथल देखी है । वाल्मीकीय रामायण में 'कन्नौज' नाम की उत्पत्ति की कथा इस प्रकार है कि प्राचीन काल में राजा कुश ने विदर्भ ( आधुनिक बरार ) राज की कन्या का पाणिग्रहण किया जिससे उसके चार पुत्र कुशानाभ, कुशांभ, सूर्त- राज और वसु हुए। प्रत्येक पुत्र ने अपने नाम से एक नगर बसाया । कुशानाभ ने 'महोदय' ( जिसका कुशानाभ नाम भी संस्कृत साहित्य में मिलता है ) नगर बसाया । कुशानाभ और घृताचि से एक सौ सुन्दर पुत्रियों का जन्म हुन । एक दिन जब ये सब लड़कियाँ उन में खेल रही थीं तो 'वायु' ने उन पर मुग्ध होकर एक साथ सबसे विवाह कर लेने का प्रस्ताव किया । लड़कियों ने इस प्रस्ताव का तीव्र तिरस्कार किया जिससे क्रोधित होकर वायु ने श्राप द्वारा उन सबको कुवड़ा कर दिया । तभी से इस नगर का नाम कन्याकुब्ज या कान्यकुब्ज हो गया । ऐतिहासिक दृष्टि से भले इस कथा का मूल्य न हो पर कन्नौज की प्राचीनता अवश्य निश्चित हो जाती है । ________________

( १५६ ) कन्नौज के अन्य नाम जैसे महोदया, कुशस्थल, कुशिक आदि भी साहित्य में पाये जाते हैं । 'युवान च्वांग' का कथन है कि इस नगर का नाम कुसुमपुर (पुष्पों का नगर ) था परन्तु ऋषि ( the great tree-rishi ) के श्राप से बाद में कान्यकुब्ज हो गया । कान्यकुब्ज केवल नगर का नाम नहीं था वरन् नगर के चारों ओर के एक सीमित प्रदेश को भी कान्यकुब्ज कहते थे जैसे आजकल बम्बई और मद्रास कहलाते हैं। पुराणों और महाभारत में हम कन्नौज के राजवंशों का हाल पढ़ते हैं । युधिष्ठिर ने दुर्योधन से कुशस्थल (कन्नौज), वृकस्थल, माकन्दी, चारवट और पाँचवाँ कोई एक नगर माँगे थे। पालि साहित्य में हम पढ़ते हैं कि नायत्रिंश नामक स्वर्ग से भगवान् बुद्धदेव कन्नौज में ही उतरे थे और उपदेश दिया था । aata का ऐतिहासिक वर्णन फाहियान की यात्राओं में भी मिलता है। । । छठी शताब्दी में कन्नौज मौखरी राजायों की राजधानी था। ईशान- वर्मन और सर्ववर्मन के राज्यत्वकाल में कन्नौज राज्य का प्रभुत्व और प्रताप बढ़ा जिसके फलस्वरूप गुप्त राजानों से युद्ध हुए । अंत में कन्नौज मगध का स्थानापन्न हो राजनैतिक केन्द्र हो गया। मौखरियों के पश्चात् सातवीं शताब्दी में थानेश्वर के हर्ष ने कन्नौज का शासन-सूत्र अपने हाथ में ले लिया । हर्ष की मृत्यु होने पर पचास वर्ष तक कन्नौज अशान्ति और विद्रोह का व्यखाड़ा रहा । फिर प्रतिहार भोज प्रथम और महेन्द्रपाल प्रथम के शासनकाल में कन्नौज में शान्ति स्थापित हो उन्नति प्रारम्भ हुई, और इसका विस्तार सौराष्ट्र, मगर, राजपूताना, गोरखपुर, उज्जैन, करनाल और बुन्देलखण्ड तक हो गया । सन् २०१८ ई० में महमूद गजनवी के आक्रमण ने कन्नौज साम्राज्य को धक्का पहुँचाया, परन्तु गाहड़वाल राजाओं ने क्षति पूर्ति कर उसे पुन: समृद्धिशाली बना दिया । 'न्त में बारहवीं शताब्दी में सिहाबुद्दीन गोरी ने सन् १९६२ में चौहान साम्राज्य उखाड़कर' (Firishta Briggs - Vol. I, p. 277 ) – 'सन् १९६४ में कन्नौज साम्राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर डाला' [ ताज-उल-मासीर ; History of India. Elliot. - Vol. II. p. 297 हो गया और बड़े-बड़े साम्राज्यों के वैभव पराभव का साधारण नगर मात्र रह गया । | साम्राज्य तो ध्वंस साक्षी कन्नौज एक आल्हा ऊदल की बारहदरी, जयचंद के दुर्ग और संयोगिता के गंगातट पर महल के खण्डहर आज भी अपने युग की गाथानों की स्मृति के प्रतीक हैं । ________________

( १५७ ) (वि०वि० देखिये --- History of Kanauj, R. S. Tripathi. Preface and pp. 1--18.) । गजनी (< राजनी) -- अफगानिस्तान के बिजाई प्रदेश की राजधानी ग़ज़नी कंधार से कात जाने वाली पक्की सड़क पर ७२८० फीट की ऊँचाई पर राजनी नदी के वायें किनारे ३३ ३४ अक्षांश उत्तर और ६८ १७ देशांतर पूर्व में पर्वत- मालाओं पर बनी कुछ प्राकृतिक और कुछ कृत्रिम ऊँची दीवाल से घिरा हुआ बसा है। इसका नाम राना और जीन भी मिलते हैं । प्रसिद्ध यूनानी लेखक 'टालमी' [ Ptolmy ] ने गञ्जक (Gazaca) नाम से जिस नगर का वर्णन किया है वह संभवत: राजनी ही है । 'रालिं- सन' महोदय Sir H. Rawlinson ] ने इसको जोस (Gazos) नाम से पहिचाना है और होनसांग ने होसीना [ Ho-si-na नाम से इसका afa fear है | श्रक्रमण काल के समय गजनी के आसपास का प्रदेश जाबुल ( Zabul ) कहलाता था और यह भारतीय व्यापार का प्रधान केंद्र था । सन् ८७९ ई० में बाकू ने इस प्रदेश पर आक्रमण कर यहाँ के निवा- सियों को तलवार के जोर से इस्लाम धर्मानुयायी बनाया। कलर (श्यालपति ), सामंद, कमलू, भीम, जयपाल ( प्रथम ), आनंदपाल, जयपाल ( द्वितीय ) और भीमपाल ये आठ ब्राह्मण शासक काबुल में हुए हैं और राजनी का इनके अधिकार में होना असंभव नहीं है । महनूद गजनवी के समय तक काबुल के हिन्दू राजवंश ने काबुल नदी की घाटी का कुछ भाग अपने अधिकार में रखा था। दसवीं सदी में अलप्तगीन नामक एक तुर्की दास ने बोखारा में राज्य करने वाले समनिद राज्यवंश से राजनी छीनकर वहाँ अपनी राजधानी स्थापित की । सन् ६७७ ई० में अलप्तगीन का दामाद सुबुक्तगीन गजनी की गद्दी पर बैठा और क्रमश: उसने अाधुनिक अगानिस्तान और पंजाब पर अधिकार कर लिया । सन् ६६७ ई० में उसका पुत्र महमूद गजनवी गद्दी पर बैठा । इसने भारतवर्ष पर सत्रह [आक्रमण किये और असंख्य धन लूटकर ग़ज़नी ले गया । महमूद के बाद उसके चौदह वंशजों ने और राज्य किया, परन्तु महमूद arita aathe पनी उस समृद्धि पर कभी न पहुँच सका। बहरामशाह ग़ज़नवी (सन् १९१८-५२ ई० ) ने ग़ज़नी श्राये हुए ज़िबल के बादशाह गोर के कुमार कुतुबुद्दीन को मार डाला जिसपर कुतुबुद्दीन के भाई सैफउद्दीन सूरी ने एक बड़ी सेना लेकर आक्रमण किया और बहराम को खदेड़ दिया; परन्तु ________________

( १५८ ) सन् १९४६ ई० में बहराम ने सैफ़उद्दीन को मरवा डाला। इस घटना कारण क़त्ल किये गये दो भाइयों से छोटा अलाउद्दीन गोर ग़ज़नी पर चढ़ आया और बहरामशाह को भगाकर उसने नगर को जलाने और निवासियों को तलवार के घाट उतारने की आज्ञा दी। इस क्रूरता के कारण अलाउद्दीन गोर का नाम 'जहाँ शोज' पड़ गया और बरबाद रानी फिर न पनप सका । अलाउद्दीन गोर के जाते ही बहराम ने पुन: ग़ज़नी पर अधिकार कर लिया । सन् १९५७ ३० में उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र खुसरोशाह गद्दी पर बैठा परन्तु उसके राज्यत्वकाल में बज्ज ( Ghuzz ) नामक तुर्की जाति ने राजनी को हथिया लिया | वादशाह लाहौर भाग गया और उसके पुत्र के बाद ग़ज़नवी वंश का नाम लेवा पानी देवा कोई न रह गया । सन् १९७३ ई० में चला- उद्दीन गोर 'जहाँशोज' के भतीजे गयामुद्दीन ने धज्जों ( या ग़ज्जों ) से ग़ज़नी छीनकर अपने भाई मुईनुद्दीन को दे दी जिसे इतिहासकार मुहम्मद गोरी भी कहते हैं । सन् १९७४-७५ ई० में मुहम्मद गोरी ने भारतवर्ष पर थाक्रमण करके खुसरो मलिक राजनवी से लाहौर तक का प्रदेश छीन लिया और सन् १९३२ ई० में थानेश्वर के युद्ध में दिल्ली अजमेर के राजा को पराजित कर हिमालय से अजमेर तक का प्रदेश हस्तगत कर लिया । गयासुद्दीन के बाद मुहम्मद गोरी गोर और ग़ज़नी का सुलतान हो गया । सन् १२०६ ई० में गोरी की हत्या हो जाने पर ख़्वारजम के सुलतान मुहम्मद शाह ने राजनी को अपने राज्य में मिलाकर उसका शासन प्रवन्ध अपने पुत्र जलालुद्दीन के हाथ में दे दिया। चंगेज़ ख़ाँ ने जलालुद्दीन को सिंधु के उस पार खदेड़ दिया और अपने पुत्र गदा (Ogdai) से ग़ज़नी का घेरा डलवा दिया; तब से एशिया के इतिहास में ग़ज़नी का हाथ न रहा । इस पर मुग़लों का अधिकार रहा; कभी फारस का हुलागू वंश हाबी रहा और कभी तुर्किस्तान का चराताई वंश | इब्नबतूता (C. सन् १३३२ ई०) लिखता है कि राजनी नगर अधिकांश खंडहर था। तैमूर कभी ग़ज़नी नहीं गया परन्तु सन् १४०१ ई० में उसने काबुल, कंधार और ग़ज़नी अपने पौत्र पीर मुहम्मद को दिये थे । सन् १५०४ ई० में तैनूर वंशी बावरने ग़ज़नी पर अधिकार कर लिया । बाबर ने लिखा है कि "यह ( राजनी) एक साधारण और निर्धन स्थान I मुझे यह विचार कर आश्चर्य होता है कि वहाँ के सुलतानों ने जो हिन्दुस्तान और खुरासान के भी बादशाह थे, ख़ुरासान के बदले इस निकृष्ट स्थान को क्यों अपनी राजधानी बनाया?" सन् १७३८ ई० में नादिरशाह के आक्रमण तक राजनी बाबर के वंशजों के हाथ रहा; फिर नादिरशाह की मृत्यु के पश्चात् ________________

( १५६ ) अहमदशाह दुर्रानी ने इसे फ़ानी राजधानी बनाया । सन् १८३६ ई० में सर जान केन ने इस पर अधिकार कर लिया, परन्तु दिसम्बर १६, सन् १८४१ ई० से मार्च ६, सन् १८४२ तक गानों ने फिर इसे छोन लिया । इसी वर्ष वसंत में जेनरल नाट ने ग़ज़नी का घेरा डाला और दुर्ग तथा दीवाल की रक्षा के बच्चाय तोड़ कर महमूद ग़ज़नवी द्वारा ले जाये गये सोमनाथ के फाटक उठा लिये। "यदि तुन प्रबल याक्रमण द्वारा राजनी और काबुल का अधिकार पा सकना तो परिस्थिति के अनुसार कार्य करना तथा ब्रिटिश सेना की मानव भावना को अक्षुण्ण रखते हुए उसके अतुलित बल की अमिट छाप छोड़े आना | सुलतान ) महमूद गजनवी की कब्र पर लटकता हुआ उसका ( राज ) दंड और उसकी कब्र ( मकबरे ) के दरवाजे जो सोमनाथ मंदिर के द्वार हैं, तुम अपने साथ ले थाना । तुम्हारे आक्रमण की सफलता के ये उचित विजय चिह्न होंगे ।" [ लार्ड एडिनबरा द्वारा जनरल नाट को (२८ मार्च १८४३ ई० की 'गुप्त समिति' की बैठक में भेजे हुए पत्र का एक अंश ) ] महमूद ग़ज़नवी की कब्र के चंदन के द्वार बड़े समारोह के साथ भारत परन्तु पीछे सिद्ध हुआ कि वे सोमनाथ वाले द्वार न थे 'लाल किले में रख दिया गया जहाँ वे वर्ष में लाये गये । अस्तु उन्हें बागरा जा सकते हैं। आज भी देखे " जून सन् १८६८ में शेराली ने राजनी पर फिर अधिकार कर लिया । सन् १८७८-८१ के अफगान युद्ध के बाद अफगानिस्तान की परि- स्थिति जो बदली तो निर्वासित अब्दुर्रहमान फिर अमीर हो गया । अंग्रेज़ों ने उससे सुलह कर ली और काबुल, राजनी, जलालाबाद और कंधार उसे दे दिये । ग़ज़नी तभी से अफग़ानिस्तान के शाहों के पास चला खाता है । अफगानिस्तान यद्यपि अनेक घटनायें तब से हो चुकी हैं परन्तु ग़ज़नी का उनमें विशेष हाथ नहीं रहा” (Afghanistan, Macmumn. pp. 168, 206). 1 श्राज पुरानी इमारतों में राजनी में १४० फिट ऊँचे दो मीनार पर- स्पर ४०० गज की दूरी पर हैं। उत्तरी मीनार के कूफिक लिपि के लेखों से पता लगता है कि वह महमूद गजनवी का बनवाया हुआ है और दूसरा उसके पुत्र मसऊद का है । राजनी दुर्ग, नगर से उत्तर पहाड़ियों के बाद है । इस नगर से एक मील आगे काबुल जाने वाली सड़क पर एक साधारण वाग में प्रसिद्ध विजेता महमूद की क्रय हैं। राजनी से ऊन, फलों और खालों का व्यापार भारतवर्ष से होता है । ________________

( १६० ) [वि० वि० देखिये -- Visit to Ghazni, Kabul and Kan- dhar. G. T. Vigne, p. 134, Afghanistan, Hamilton Angus, pp. 343-45, Afghanistan, Muhammad Habib; History of Afghanistan, Malleson; History of Afgha- nistan, Walker; Afghanistan, Godard ( Paris); Geogra- phy of Ancient India, Cunningham, pp. 45-18; His- tory of Afghanistan, Macmunn and Afghanistan, Jamal- uddin Ahmad and Md. Abdul Aziz, 1936.] दिल्ली (> दिल्ली ) - यमुना नदी के किनारे अक्षांश २८° ३८ उत्तर और देशांतर ७७° १२ पूर्व में बसा हुआ एक प्रसिद्ध और प्राचीन नगर है जो बहुत दिनों तक हिन्दू राजाधों और मुसलमान बादशाहों की राजधानी था और जो सन् १९१२ फिर ब्रिटिश भारत की भी राजधानी हो गया । जिस स्थान पर वर्तमान दिल्ली नगर हैं उसके चारों ओर १०-१२ मील के घेरे में भिन्न-भिन्न स्थानों में यह नगर कई बार बसा और कई बार उजड़ा। कुछ विद्वानों का मत है कि इंद्रप्रस्थ के मयूर वंशी अंतिम राजा 'दिलू' ने इसे पहले पहल बसाया था, इसी से इसका नाम दिल्ली पड़ा । [ पृथ्वीराज रासो सम्यौ ३ ] - दिल्ली किल्ली प्रस्ताव में लिखा है कि पृथ्वीराज के नाना अनंगपाल ने एक बार एक गढ़ बनवाना चाहा था । उसकी नींव रखने के समय उनके पुरोहित ने अच्छे मुहूर्त में लोहे की एक कील पृथ्वी में गाड़ दी और कहा कि यह की शेषनाग के मस्तक पर जा लगी है। जिसके कारण आपके तर (तोमर) वंश का राज्य अचल हो गया। विश्वास न हुच्चा और उन्होंने वह कील उखड़वा दी । राजा को इस बात पर कील उखाड़ते ही वहाँ से रक्त की धारा निकलने लगी । इस पर राजा को बहुत पश्चाताप हुआ । उन्होंने फिर वही कील उस स्थान पर गड़वाई, पर इस बार वह ठीक नहीं बैठी, कुछ ढीली रह गई । इसी से उस स्थान का नाम 'ढीली' पड़ गया जो बिगड़- कर 'दिल्ली' हो गया। दिल्ली में यह कील अब भी देखी जा सकती है । परन्तु कील या स्तंभ पर जो शिलालेख है उससे रासो की उपयुक्त कथा का खंडन हो जाता है क्योंकि उसमें अनंगपाल से बहुत पहले के किसी चंद्र नामक राजा ( शायद चंद्रगुप्त, विक्रमादित्य ) की प्रशंसा है । नाम के विषय में चाहे जो कुछ हो पर इसमें संदेह नहीं कि इसकी पहली शताब्दी के ________________

( १६१ ) बाद से यह नगर कई बार बसा और उजड़ा। सन् १९६३ में मुहम्मद गोरी ने इस नगर पर अधिकार कर लिया, तभी से यह मुसलमान बादशाहों की राजधानी हो गया । सन् १३६८ में इसे तैमूर ने ध्वंस किया और सन् १५२६ बाबर ने इस पर अधिकार कर लिया । सन् १८०३ में इस पर अँगरेज़ों का अधिकार हो गया । सन् १८५७ के विद्रोह में दिल्ली भी बागियों का एक केन्द्र था। ग़दर के बाद फिर अँग्रेजी हुकूमत में श्राया। पहले अँग्रेजी भारत की राजधानी कलकत्ता में थी; पर सन् १६१२ से उठकर दिल्ली चली गई । याज- कल वर्तमान दिल्ली के पास एक नईदिल्ली बस गई है। महाराज पृथ्वीराज चौहान तृतीय के दुर्ग और उसके प्राचीर के ध्वंस आज भी दिल्ली के अंतिम हिन्दू सम्राट की गाथा अमर बनाये हुए हैं I देवगिरि [ <देवगिरि] 1 दक्षिण का यह प्राचीन नगर जो व्याजकल दौलताबाद कहलाता है। [ Hindostan Hamilton, Vol. I, p. 147] निजाम राज्य में औरंगाबाद से सात मील उत्तर-पश्चिम अक्षांश ६६° ५७' उत्तर और ७५° १५' देशांतर पूर्व में बसा हुआ है [ The East India Gazetteer. Walter Hamilton, Vol. I, P. 526] 1 ""देवगिरि में एक दुर्ग भी है। यह इतना दृढ़ बना है और इसमें इतनी सुविधायें हैं कि यदि रक्षा का पूरा प्रबन्ध कर लिया जाय तो शत्रु को केवल भोजन की कमी होने पर ही ग्रात्म समर्पण करना पड़ेगा । पहाड़ियों की श्रेणी से उत्तर पश्चिम ३००० गज की दूरी पर मैंनाइट में छिद्र करके बनाया हुआ यह दृढ़ दुर्ग मधुमक्खियों के ठोस छत्ते सदृश दिखाई पड़ता है । इसका नीचे का तिहाई भाग तराशकर चट्टान की सीधी दीवाल सदृश कर दिया गया है। अनुमानत: ५०० फिट ऊँचे इस दुर्ग के चारों ओर एक गहरी नहर है और नहर के बाद एक साधारण दीवाल परन्तु नहर औौर दुर्ग तक तीन फाटक और तीन मोटी दीवालें पड़ती हैं । नहर के ऊपर से दुर्गं में जाने का मार्ग इतना संकीर्ण बनाया गया है कि एक साथ दो मनुष्यों से अधिक नहीं जा सकते ।" [ दुर्ग के वि० वि० के लिये देखिये —— The east India Gazetteer. Walter Hamilton, Vol. I, pp. 526, 527. ] "बादशाह ( मुहम्मद तुगलक ) देवगढ़ ( दुर्ग और नगर ) की स्थिति और दृढ़ता देखकर तथा इसे दिल्ली की अपेक्षा अपने साम्राज्य का उचित केन्द्र विचारकर इतना प्रसन्न हुआ कि उसने इसे अपनी राजधानी बनाने का संकल्प कर लिया ।” [Firishta-Briggs. (1829) Vol. I, p. 419.] ________________

{ १६२ ) “देवगिरि, यादव राजाओं की बहुत दिनों तक राजधानी रहा । प्रसिद्ध कलचुरि वंश का जब अध: पतन हुआ तब इसके आसपास का सारा प्रदेश द्वार-समुद्र के यादव राजाओं के हाथ आया। कई शिलालेखों में जो इन यादव राजाओं की वंशावली मिली है वह इस प्रकार है--- सिंघन (१ ला ) मल्लूगि भिल्लम ( शक ११०६-१११३ ) जैतू गि (१ ला) वा जैत्रपाल, जैत्रसिंह ( शक १११३ ११३१) सिंघन ( २ रा ) वा त्रिभुवनमल ( शक ११३१-११६६ ) जैतू गि ( २ रा ) वा चैत्रपाल महादेव कृष्ण व कन्हार ( शक ११६६-१९८२ ) रामचन्द्र वा रामदेव ( शक ११९३ - १२३१ ) ( शक १९८३ - ११६३ ) द्वितीय सिंघन के समय में ही देवगिरि यादवों की राजधानी प्रसिद्ध हुआ । महादेव की सभा में बोपदेव और हेमाद्रि ऐसे प्रसिद्ध पंडित थे । कृष्ण के पुत्र रामचन्द्र रामदेव बड़े प्रतापी हुए । उन्होंने अपने राज्य का विस्तार खूब बढ़ाया। शक १२१६ में अलाउद्दीन ने अकस्मात् देवगिरि पर चढ़ाई कर दी। राजा जहाँ तक लड़ते वना वहाँ तक लड़े पर अंत में दुर्ग के भीतर सामग्री घट जाने पर उन्होंने चात्म समर्पण कर दिया। शक १२२५ में रामचन्द्र ने कर देना स्वीकार किया । उस समय दिल्ली के सिंहासन अलाउद्दीन बैठ चुका था उसने एक लाख सवारों के साथ मलिक काफ़र को दक्षिण भेजा। राजा हार गये और दिल्ली भेजे गये । अलाउद्दीन ने पर सम्मानपूर्वक उन्हें देवगिरि भेज दिया। इधर मलिक काफूर दक्षिण के और राज्यों में लूट पाट करने लगा। कुछ दिन बीतने पर राजा रामचन्द्र का जामाता हरिपाल मुसलमानों को दक्षिण से भगाकर देवगिरि के सिंहासन पर ________________

( १६३ ) बैठा । छै वर्ष तक उसने पूर्ण प्रताप से राज्य किया चन्त में शक १३४० में दिल्ली के बादशाह ने उस पर चढ़ाई की और कपट युक्ति से उसको परास्त करके मार डाला । इस प्रकार यादव राज्य की समाप्ति हुई ।" [ हिन्दी शब्द सागर, पृ० १६१६-२० ] । मुहम्मद तुगलक ने दिल्ली वीरान करने और देवगढ़ याबाद करने का फ़रमान निकाल | उसने दिल्ली और देवगिरि के मार्ग पर छाया के लिये वृक्ष लगवाये और कहला दिया कि निर्धन दिल्ली निवासियों को देवगिरि तक जाने के लिये भोजन की व्यवस्था राज्यकोप से की जाय तथा यह सूचना दी कि आज से देवगढ़ का नाम दौलताबाद हो गया ।" [Firishta ( Briggs ), 1829, Vol I, p. 420.] सन् १५९५ ई० में दौलताबाद (देवगढ़ या देवगिरि) ने ग्रहमदनगर के अहमद निजामशाह को आत्म समर्पण कर दिया । निजामशाही वंश के पश्चात् हवशी गुलाम मलिक अंबर ने इस पर अधिकार कर लिया । उसके वंशज सन् १६३४ तक यहाँ राज्य करते रहे । सन् १६३४ में शाहजहाँ के शासनकाल में मुग़लों ने दुर्ग और नगर पर कब्जा कर लिया । मुगलों के दक्षिण साम्राज्य के साथ दौलताबाद निजाम-उल-मुल्क के अधीन हुआ और तभी से हैदराबाद के निज़ाम यहाँ का शासन प्रबन्ध करते चले आ रहे हैं। केवल सन् १७५८ में अंग्रेज सेनापति 'वसी' ( N. Bussy ) ने दौलताबाद पर अधिकार कर लिया था परन्तु जब 'लैली' (M. Lally ) ने सेना लेकर atch जाने के लिये चाज्ञा दो तो 'बसी' ने दौलताबाद का अधिकार छोड़ दिया । [ Fitzclarence, Fullerton, Firishta, Scott और Orme के आधार पर ] | लाहौर C प्राचीन राजधानी के खण्डहरों पर पंजाब का आधुनिक प्रसिद्ध नगर लाहौर, रावी नदी के बायें किनारे, पाँच छै मील की दूरी तक पूर्व से पश्चिम ३१° ३७ अक्षांश उत्तर और ७६ २६ देशांतर पूर्व में बसा हुआ है । इसकी जनसंख्या सन् १९३१ की गणना के अनुसार ४२६७४७ थी और सन् १९४१ की गणना के आधार पर ६७१६५६ है । फारसी इतिहासकारों ने लाहौर को लोहर, लोहेर, लोहवर लेहवर, लुइवर, लोहावर, लहानूर रहावर आदि भी लिखा है । राजपूताने की ख्यातों में इसका नाम लोह-कोट और (पुराणों के) देश विभाग में लबपुर ________________

( १६४ ) पाया जाता है । "लहानूर, 'लोहनगर' का विकृत रूप है क्योंकि 'नगर' का दक्षिणी रूप 'नूर' है जैसे कलानूर, कनानूर आदि" ( Thornton ) । रूनी ने इसका विशुद्ध नाम लोहचवर लिखा है। लोहचवर का अर्थ है लोह (या व ) का किला (Cunningham)। j वाल्मीकीय रामायण के अनुसार राम के पुत्र 'लव' ने 'लाहौर' बसाया और 'कुश' ने 'कसुर' । राजतरंगिणी में 'लाहौर' महाराज ललितादित्य के साम्राज्य का नगर बतलाया गया है । 'देशविभाग' में लिखा है कि द्वापर के अन्त में लाहौर के राजा वनमल के साथ भीमसेन का युद्ध हुआ था । उत्तर सीमांत के गीतिकाव्यों में लाहौर का जंगल उदीनगर, स्यालकोट के योद्धा सालवाहन के पुत्र रत्सलू और एक राक्षस का युद्ध क्षेत्र कहा जाता है मेवाड़ राज्य की ख्यातों में लिखा है कि यदि पूर्वज सूर्यवंशी कनकसेन लाहौर छोड़कर दूसरी शताब्दी में मेवाड़ में बसे थे । अन्हलवाड़ा पहन के सोलंकी और जैसलमेर के भट्टी राजपूतों का आदि स्थान लाहौर ही पाया जाता है। लाहौर में याज भी एक भाटी दरवाज़ा है। इन सब बातों से तथा अनेक अन्य प्रमाणों से यह निष्कर्ष निकलता है कि लाहौर बसाने वाले राजपूत थे और यह पश्चिमी भारत के आदि राजपूत राज्य की राजधानी था । "पहली और दूसरी शताब्दी के मध्यकाल में कभी लाहौर नगर की नींव पड़ी होगी" (Geography of Ptolemy)। सातवीं सदी के द्वितीयार्द्ध में लाहौर, अजमेर वंश के चौहान राजा के श्राधीन था । सन् १०२२ ई० में महमूद ग़ज़नवी ने दूसरी बार लाहौर पर आक्रमण करके नगर लुटवाकर अपने राज्य में मिला लिया और इसका नाम महनूदनगर रखा । बारहवें ग़ज़नवी सुलतान ख़ुसरो ने ग़ज़नी छोड़कर तार को अपनी राजधानी बनाया; परन्तु सन् १९८३ ई० में गोर वंश ने ग़ज़नवी वंश की समाप्ति करके उक्त वंश का राज्य अधिकृत कर लिया । अलाउद्दीन के पुत्र सेफउद्दीन के उत्तराधिकारी सुलतान गयासुद्दीन के भाई शहाबुद्दीन ग़ोर ने नराई ( तराई ) के मैदान में अजमेर के राजा पिथौरा से युद्ध किया परन्तु हार गया ( Minhaj-us-seraj) । उसकी सेना ४० मील तक खदेड़ी गई और ग़ोरी अचेत अवस्था में लाहौर लाया गया (Sullivan)। आर्य वीरता के प्रतिनिधि इस पराक्रमी हिन्दू सम्राट [पृथ्वीराज चौहान तृतीय ] ने लाहौर दुर्ग के फाटकों पर सात बार टक्करें भारी ( Sullivan ) परन्तु अन्त में सन् १९६२-६३ ई० में गोरी द्वारा मरवाया गया [ Tabaqat- i-Nasiri; Firishta, Lahore, Latif. p. 13 ] । पृथ्वीराज रासो ________________

( १६५ ) सम्यौ ६७ में सुलतान गोरी की मृत्यु गजनी दरबार में नेत्रविहीन और बंदी पृथ्वीराज के शब्दवेधी बाण द्वारा होने का विस्तार पूर्वक उल्लेख है । आधुनिक इतिहासकारों का मत है कि पृथ्वीराज की मृत्यु युद्ध भूमि में हुई थी ( Mediaeval India. C. V. Vaidya; Dynastic History of India. Hemchandra ) । रासो के रेवातट सम्यौ में चंद पुंडीर को पृथ्वीराज द्वारा नियुक्त लाहौर का शासक कहा गया I लाहौर नगर और दुर्ग पर फारसी इतिहासकार मुस्लिम अधिकार बताते हैं । अन्य विश्वस्त सूत्रों के अभाव में हम दो सम्भावनायें मात्र कर सकते हैं कि या तो लाहौर नगर और दुर्गं पर कुछ समय के लिये पृथ्वीराज का अधिकार हो गया था था इस सम्यौ में वर्णित लाहौर से नगर का अर्थ न लेकर 'लाहौर प्रदेश' अर्थ करना उचित होगा; आधुनिक काल में जिस प्रकार लाहौर नगर और उस प्रदेश का थोड़ा भाग पाकिस्तान में है तथा उक्त प्रदेश का अधिक भाग हिन्दुस्तान में, कुछ ऐसी ही परिस्थिति उस समय भी रही होगी । सन् १२४१ ई० में चंगेज़ खाँ इस नगर को लूटा | खिलजी और तुगलक बादशाहतों के समय लाहौर की विशेष ख्याति नहीं हुई । सन् १३६८ ई० में तैमूर [ The Firebrand of the Universe ] ने इस नगर पर अधिकार कर लिया परन्तु लूटा पाटा नहीं और जाते समय सैयद विज्र खाँ को यहाँ का शासक नियुक्त कर गया । सन् १५२६ ई० में पानीपत के युद्ध में बाबर ने अफगानों को पराजित कर भारतवर्ष में मुग़ल साम्राज्य की नींव street | प्रथम छै मुग़ल बादशाहों का शासन काल लाहौर के लिये स्वर्ण युग था और इस नगर की सब प्रकार से बड़ी उन्नति हुई । "from the destined walls Of Cambal, seat of Cathian can, And Samarchand by Oxus, Temir's throne To Paquin of Sinaen Kings, and thence To Agra and Lahore of Great Mogal" Milton, Paradise Lost, Book XI-I. औरंगज़ब की मृत्यु के बाद लाहौर के फिर दुर्दिन आये । सन् १७३८५ में नादिरशाह का धावा हुआ परन्तु तत्कालीन दिल्ली सम्राट नियुक्त araौर के शासक जकरिया ख़ाँ के मेल कर लेने से नगर की रक्षा हो गई। सन् १७४८ में अहमदशाह ने लाहौर ले लिया । सन् १७६६ ई० में रणजीत सिंह ________________

( १६६ ) ने लौटते हुए दुर्रानी शहंशाह से लाहौर का अधिकार माँग कर प्राप्त किया रणजीत सिंह ने सिक्ख राज्य की नींव डाली और मरते-मरते अपना साम्राज्य तिब्बत से सुलेमान तक और सिंधु के उस पार सुलतान तक कर लिया । उनके उत्तराधिकारी उतने योग्य न निकले । सन् १८४८ ई० में अंग्रेजों ने दलीप सिंह को गद्दी से उतार कर सिक्ख साम्राज्य ब्रिटिश भारत में मिला लिया । "Sorrow was silenced and the Sikh Empire became a story of the past. " (Old Lahore Goulding) लाहौर दुर्ग दक्षिण पूर्व में छोटा रावी नदी पर बना है । याधुनिक नगर के चारों ओर के बाग बगीचे, पुरानी मसजिदें, मीनार, मठ, कब्रें यदि देखकर स्पष्ट पता लग जाता है कि प्राचीन लाहौर का विस्तार यब से कहीं अधिक था । सिक्व उत्थान काल में सैनिकों को कवायद कराने के लिये न जाने कितनी पुरानी इमारतें गिरा कर मैदान बनाये गये और बाद में अंग्रेजों ने भी नगर की उन्नति की । लाहौर नगर में चारों ओर ये तेरह दरवाज़े हैं-- रौशनी, कश्मीरी, मस्ती, विजी, यकी, देहली, अकबरी, मोची, शाह आलमी, लाहौरी, मोरी, भाटी और तक्षली । अगस्त सन् १६४७ ई० में डोमीनियन स्टेटस प्राप्ति के उपरांत भारतवर्ष दो भागों में विभाजित हो गया और लाहौर इस समय पश्चिमी पंजाब की राजधानी तथा पाकिस्तान का प्रमुख नगर है । विभाजन काल में धार्मिक सहिष्णुता की ओट में, मानवता को कलंकित करने वाले हिंदू रक्तपात से इस नगर की भूमि रंजित हो चुकी है। शायद लाहौर की इतनी दुर्गति चंगेज़ खाँ तथा अन्य लुटेरे शासकों ने नहीं की, जितनी कि लीग के अनुयाइयों ने भारत विभाजन समय में की। [वि० वि० देखिये --Lahore, Latif Syed Muhammad; Old Lahore, Goulding; Lahore Directory; Ancient Geography of India, Cunningham; Delhi to Cabul, Barr; Vigin's travels; Journal of the Punjab Historical Socie- ty, Vol. I, (Historical Notes on Lahore Fort. J. Ph. Vogel, p. 38. ) ]