राबिन्सन-क्रूसो/द्वीप का पुनर्दर्शन

राबिनसन-क्रूसो
डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १०१ से – १०६ तक

 

द्वीप का पुनर्दर्शन

मैं पहले कह पाया हूँ कि समस्त द्वीप देखने की मेरी इच्छा थी। मेरे कुञ्जभवन के पास ही समुद्र था। मैं उसी ओर समुद्र के किनारे किनारे घूमने की इच्छा से बन्दूक, कुल्हाड़ी, कुत्ते, यथेष्ट गोली-बारूद, दो डिब्बे बिस्कुट और एक बड़ो थैली में सूखे अंगूर लेकर रवाना हुआ। समुद्रतट पर जाकर पहले पश्चिम ओर की स्थल-भूमि देखी। किन्तु कुछ निश्चय नहीं कर सका कि वह किस द्वीप या महादेश का किनारा है। अनुमान किया, वह किनारा पन्द्रह-बीस मील से दूर न होगा। मैंने यही मान लिया कि यह अमेरिका ही का कोई अंश होगा और वहाँ असभ्य लोग रहते होंगे। अहा! यदि मैं वहाँ किसी तरह पहुँच सकता तो विधाता का सदय विधान जान कर हृदय से कृतज्ञ होता।

फिर मैंने यह सोचा कि यदि वह स्पेन का राज्य होगा तो एक न एक दिन कोई जहाज़ इस रास्ते से जाते आते ज़रूर दिखाई देगा। यदि ऐसा न होगा तो निश्चय कर लूँगा कि यह असभ्य लोगों का मुल्क है और वे असभ्य कुछ ऐसे वैसे न होंगे, वे ज़रूर नरखादक राक्षस होंगे।

इन बातों को सोचते-विचारते मैं धीरे धीरे आगे बढ़ा। मैंने जिस ओर अपने रहने के लिए घर बनाया था उस ओर से इस तरफ का समुद्रतट अधिक रमणीय मालूम होने लगा। खूब लम्बा-चौड़ा मैदान हरियाली, भाँति भाँति के फूल और तरु-लताओं से शोभायमान था। झुण्ड के झुण्ड हरे रंग के सुग्गे इधर से उधर आकाश को सब्ज़ करते हुए उड़े क्या जा रहे थे मानो आकाश में कमल घास के खेत बहे जाते हों। यदि मैं एक सुग्गे को पकड़ सकता तो उसे पालता और पढ़ना सिखाता। बड़ी युक्ति से मैंने एक दिन एक तोते के बच्चे को लाठी की झपट मार कर नीचे गिराया। उसे पकड़ कर मैं घर पर लाया और यत्नपूर्वक पढ़ाने लगा। किन्तु बहुत दिनों बाद उसका कण्ठ खुला। आख़िर उसने बोलना सीखा। वह बड़ी कोमलता से मेरा नाम लेकर मुझे पुकारने लगा।

इस प्रकार भ्रमण करने से मेरा चित्त बहुत प्रसन्न हो गया था। निम्न भूमि में कहीं कहीं ख़रगोश और श्टगाल के सदृश जानवर नज़र आते थे। मैंने कई एक खरगोश मारे परन्तु वे ऐसे, विचित्र शकल के, थे कि उनको खाने की प्रवृत्ति न होती थी। मज़बूरी हालत में पड़ कर ही लोग ऐसी वस्तु खाते हैं जो खाने के लायक नहीं। अब भी मुझे खाद्य पदार्थ का अभाव न था। बकरे, कबूतर और कछुए-जिन्हें मैं खूब पसन्द करता था—बहुतायत से पाये जाते थे; इसलिए अनाप शनाप चीज़ खाने की मुझे आवश्यकता न थी। मेरी अवस्था यद्यपि अत्यन्त शोचनीय थी तथापि खाद्य-वस्तुओं की कमी न थी, इस कारण मैं हृदय से ईश्वर का कृतज्ञ था।

मैं एक दिन में दो मील से अधिक रास्ता नहीं चलता था। किन्तु देश की दशा देखने के लिए मैं दिन भर इस प्रकार घूमता रहता था कि रात बिताने के अड्डे पर आते आते एकदम थक कर पड़ रहता था। पेड़ के ऊपर या जमीन में थोड़ी सी जगह घेर कर उसके भीतर रात बिताता था जिसमें कोई जन्तु मेरी निद्रित अवस्था में मुझ पर एकाएक आक्रमण न कर सके।

इस तरफ़ समुद्रतट पर आकर देखा, कछुए और पक्षी बहुत थे। पक्षी प्रायः सब मेरे पहचाने हुए थे। जो परिचित न भी थे उनका भी मांस बहुत स्वादिष्ठ था। तब मैंने समझा कि जिधर द्वीप का सब से ख़राब अंश था उधर ही मैंने घर बनाया है। वहाँ डेढ़ वर्ष के भीतर मुझे इने गिने तीन कछुए मिले थे।

मैं जितना चाहता उतना पक्षियों का शिकार कर सकता था। किन्तु बारूद-गोली शीघ्र चुक जाने की आशङ्का से पक्षियों को यथेच्छ न मार सका। मैं चिड़ियों के शिकार की अपेक्षा बकरों के शिकार को ज़्यादा पसन्द करता था। कारण यह कि एक बकरे से कई दिनों का खाना मजे में चल जाता था। मेरे घर की तरफ़ से द्वीप के इस हिस्से में बकरों की संख्या भी बहुत अधिक थी। किन्तु यह भाग द्वीप के और भागों की तरह ऊँचा नीचा न था। इधर की भूमि समतल थी। इसलिए वे मुझ को दूर से देखते ही बड़ी तेजी से भाग जाते थे। उनका पीछा में कहाँ तक कर सकता।

इधर का सामुद्रिक तट यद्यपि मुझे अधिक रमणीय जँचता था तथापि मुझे अपने वासस्थल को उठाकर इस तरफ़ लाने की इच्छा न होती थी। ऐसे सर्वांशसम्पन्न घर को तोड़ कर नई जगह में आने को जी नहीं चाहता था। मैं इस तरफ़ सिर्फ घूमने ही आया था, जी मेरा अपने हाथ के बनाये हुए घर की ओर ही लगा था। समुद्र के किनारे किनारे मैंने अन्दाज़न बारह मील, जाकर घर लौट आने की इच्छा की। अपने घूमने की सीमा को निर्दिष्ट रखने की इच्छा से मैंने समुद्रतट पर एक लम्बा सा खंभा गाड़ दिया। वही मेरे पश्चिम ओर के भ्रमण का अन्तिम चिह्न हुआ। मैंने निश्चय किया कि घर जाकर अब पूरब ओर की यात्रा करूँगा और उधर से घूमते घूमते जब चिह्मस्वरूप गड़े हुए खमे तक आ जाऊँगा तब समझूँगा कि मेरी द्वीप-परिक्रमा पूरी हुई।

द्वीप का पूरा पूरा परिचय पाने के लिए मैं जिस राह से गया था उस राह से न लौटकर दूसरे रास्ते से लौटा। दो तीन मील आते न आते मैं पहाड़ की एक ऐसी तराई में पहुँचा कि जंगल से ढकी हुई राह में दिशा का र्निर्णय करना कठिन हो गया। मैं अपने दुर्भाग्य से तीन चार दिन तक तराई के जंगल में मार्ग भूलकर घूमता रहा। उसकी वजह यह थी कि कई दिनों से आकाश कुहरे से बिलकुल ढका था, इसलिए सूर्य्य को देखकर दिशा के निर्णय करने का भी सुयोग न था। मैं अत्यन्त उद्विग्नतापूर्वक घूम फिर कर आखिर फिर समुद्र-तट को ही लौट आया। यहाँ मैंने अपने चिह्न-स्वरूप खम्भे को ढूँढ़ निकाला। फिर जिस रास्ते से घूमने आया था उसी रास्ते से लौटा। तब आकाश बिलकुल साफ़ हो गया था। सूर्य का ताप असह्य हो उठा। बन्दूक, कुल्हाड़ी और अन्यान्य भारी वस्तुएँ लिये रहने के कारण पसीने से तरबतर होता हुआ घर पहुँचा। मेरे अदृष्ट की बलिहारी है।

लौटते समय मेरे कुत्ते ने एक बकरी के बच्चे को पकड़ लिया। मैं झट दौड़कर गया और उसके पास से उसे छुड़ा लिया। मैं दो-चार बकरों को पाल कर उनकी संख्या बढ़ाना चाहता था। यह इस लिए कि शायद गोली-बारूद घट भी गई तो मेरे खाने को कुछ टोटा न रहे। इस बकरी के बच्चे को घर ले जाकर पालूँगा, यह मैंने पहले ही सोच लिया था। अब एक गर्दानी (गले की रस्सी) बना करके उसके गले में बाँध दी और उसमें एक रस्सी बाँधकर उसे खींचते हुए किसी तरह अपने कुञ्जभवन में ले गया। मैं घर लौटने के लिए व्यग्र हो रहा था, क्योंकि घर छोड़े एक महीना हो गया था। बकरे को खींचकर घर ले जाने में विलम्ब होता, इसलिए उसे कुञ्जभवन में ही बाँध रक्खा।

बहुत दिनों के बाद घर लौट कर बिछौने पर सोने से जो आराम और सुख मिला उसका वर्णन नहीं हो सकता। चिरवियोग के बाद प्रिय-सम्मिलन का सुख और परदेशी को स्वदेश लौटने का सुख भी इस सुख के आगे तुच्छ है। मैंने इस निरुद्देशयात्रा में जो कुछ सुख का अनुभव किया था उससे कहीं बढ़कर सुख घर आने पर मिला। इससे मैंने संकल्प किया कि अब से कभी अधिक दूर न जाऊँगा।

मैंने घर आकर एक सप्ताह विश्राम किया। इधर कई दिनों तक मैं तोते के लिए एक पींजरा बनाता रहा। एकाएक मुझे कुञ्जभवन में बँधे हुए बकरी के बच्चे की बात स्मरण हो आई। मैं उसे घर ले आने की इच्छा से रवाना हुआ। वहाँ जाकर देखा, वह मारे भूख-प्यास के अधमरा सा हो गया है। मैंने पेड़ से हरे हरे पत्ते तोड़कर उसे खिलाये। वह भूख से ऐसा व्याकुल था कि खाने के लाभ से पालतू कुत्ते की भाँति आपही मेरे पीछे पीछे आने लगा। मेरे हाथ से दाना-घास पाकर वह खूब हिल गया। मेरे साथ वह सखा का सा व्यवहार करने लगा। मैं भी उसे जी से प्यार करने लगा।