राबिनसन-क्रूसो
डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १३५ से – १४२ तक

 

खेती

मैं अपनी नाव के लिए अधीर हो उठा था, परन्तु उसके लिए फिर मैं विपत्ति में पड़ना भी नहीं चाहता था। अपनी डोंगी को देखने के लिए दिन दिन मेरी उत्सुकता बढ़ने लगी। आखिर मैंने स्थल मार्ग से उस नदी के मुहाने तक जाने का विचार किया जहाँ वह नाव बँधी थी। मैं किनारे किनारे चला। जिस स्वरूप से मैं रवाना हुआ, उस शकल में यदि कोई मुझे देखता तो निःसन्देह वह बहुत डरता या हँसते हँसते लोट पोट हो जाता। मैं आप ही अपने को देख कर हँसी न रोक सका। मेरे चेहरे का नमूना इस तरह था,

सिर में चमड़े की बेडौल टोपी थी, जिसके ऊपर लम्बे लम्बे बाल लटक रहे थे। इसी ढंग का कोट और ढीला पायजामा था। पैरों में भी ऐसा ही एक चमड़ा लिपटा था। न उसे मोजा कह सकते हैं और न जूता ही। कमर के दोनों ओर चमड़े की पेटी से लगकर एक बसूला और एक कुल्हाड़ी झूल रही थी। गले में झूलती हुई एक चमड़े का थैली में गोली-बारूद थी। पीठ पर टोकरी, और कन्धे पर बन्दूक थी। हाथ में वही चर्मनिर्मित छतरी थी। आध हाथ लम्बी डाढ़ी लटक रही थी और मुँह पर पकी हुई लम्बी मोछें फहरा रही थीं।

ऐसा भयङ्कर चेहरा लेकर मैंने यात्रा की। पाँच छः दिन के बाद मैं उस मोड़ के पास आ पहुँचा जहाँ मेरी डोंगी स्रोत में पड़ कर मेरे हाथ से निकल गई थी। इस समय वहाँ स्रोत का चिह्न न देख पड़ा। मैं क्षुब्ध होकर इसका कारण सोचने लगा। सोचते सोचते मेरे ध्यान में यह बात आई कि भाटे के समय किसी नदी के स्रोत का ऐसा भयङ्कर वेग होता होगा।

मेरा यह अनुमान ठीक निकला। यथार्थ ही में जब भाटा आया तब फिर वैसा ही प्रखर स्रोत बहने लगा। तब मैंने सोचा कि ज्वार के समय डोंगी को उधर से ले आना सहज होगा, किन्तु ऐसा करने का साहस न हुआ। प्राणों को संकट में डालने की अपेक्षा फिर एक नाव बना लेना ही मैंने अच्छा समझा। उसके बनाने में अधिक समय और श्रम लगेगा तो लगे, यह मुझे स्वीकार है; पर उस सर्वनाशी प्रखर प्रवाह में जाने का साहस नहीं कर सकता।

इस समय मेरे दो खलिहान थे; एक मेरी चहार दीवारी के पास, और दूसरा कुञ्जभवन के भीतर। इन्हीं के आस पास मेरे पालतू पशुओं की चरागाह थी। इसके चारों ओर पेड़ की डालों के खूब घने खंभे बनाकर और उन्हें धरती में गाड़ कर घेरा दे दिया था। वे शाखाएँ लगकर बड़े बड़े वृक्ष बन गई थीं। यह घेरा इस समय दीवाल की अपेक्षा मज़बूती में बढ़ा चढ़ा था। इन बातों से समझना चाहिए कि मैं कभी आलसी होकर नहीं रहता था, बराबर अपने कामों में लगा रहता था।

मेरा कुञ्जभवन द्वीप के प्रायः मध्यभाग में था इसलिए मैं आजकल अधिक समय तक यहीं रहता था और बीच बीच में डोंगी पर चढ़ कर किनारे के आस पास समुद्र में इधर उधर घूमता था। मैं एक रस्सी से अधिक दूर जाने का साहस न करता था।


अपरिचित पद-चिह्न

एक दिन में दोपहर को अपनी नाव की ओर जा रहा था। तब समुद्र के किनारे बालू के ऊपर किसी आदमी के पैर का चिह्न देखकर मुझे अत्यन्त आश्चर्य हुआ। पदचिह्न देखते ही मैं वज्राहत की तरह स्तब्ध हो कर खड़ा हो रहा। चारों ओर दृष्टि उठाकर देखा, कान लगा कर सुना, परन्तु न कहीं किसी को देखा और न किसी को कुछ बोलते सुना। तब ऊँची जगह चढ़कर देखा; समुद्र के किनारे किनारे इधर उधर घूमकर पता लगाया किन्तु सिवा उस एकमात्र पदचिह्न के और कहीं कुछ देख न पड़ा। फिर मैंने सोचा, वह चिह्न मेरे मन का भ्रम तो नहीं है, इसलिए मैं उस चिह्न को फिर अच्छी तरह देखने गया। देखा, भ्रम नहीं, वह सचमुच मनुष्य के पैर का चिह्न था। पैर की उँगलियाँ तलुवा और एँड़ी आदि प्रत्येक अंश का स्पष्ट चिह्न विद्यमान है। मैं किसी भी तरह निर्णय न कर सका कि यह पद-चिह्न यहाँ कैसे पड़ा। मैं हतबुद्धि हो चिन्ताकुल चित्त से अपने किले में भाग आया। मैं उतनी दूर कैसे आया, चल कर या उड़कर? उस समय इसका मुझे कुछ शान न था। दो तीन डग आगे चलता था, फिर पीछे की ओर घूम कर देखता था, कि कोई आ तो नहीं रहा है। प्रत्येक पेड़ पौधे के पास जाते ही मेरा कलेजा काँप उठता था। दूर से पेड़ के तने को देख कर मुझे मनुष्य का भ्रम होता था।

जब मैं अपने किले के भीतर पहुँचा तब मेरी बुद्धि ठिकाने आई। मैं किस रास्ते से गया था और किस रास्ते लौटकर किले के भीतर पहुँचा-यह कुछ मुझे याद न था। मैं भय से ऐसा घबरा गया था कि मुझे तन मन की भी कुछ सुध न रही।

उस रात को मुझे नींद नहीं आई। मैं रात भर भय का काल्पनिक चित्र देखता रहा। अद्भुत हास्यजनक चिन्ता तरह तरह से चित्त को मथित करने लगी। आखिर मैं यह सोच कर निश्चिन्त हुश्रा कि किसी असभ्य जाति की डोंगी शायद तीक्ष्ण धार में पड़कर या हवा की झोक से किनारे पर श्रा लगी होगी; उसके बाद वे लोग इस निर्जन द्वीप के स्थलमार्ग से चले गये होंगे।

इस भावना का मन में उदय होते ही मैंने भगवान् को धन्यवाद दिया कि कुशल हुआ, मैं उस समय वहाँ उपस्थित न था; और यह भी अच्छा ही हुआ कि उन लोगों ने मेरी नौका नहीं देखी, देखते तो वे इस द्वीप में मनुष्य की बस्ती का अनुमान करके ज़रूर मुझे ढूँढ़ते। तब नौका ही मेरी दुर्भावना का कारण हो उठी। असभ्य लोग यदि नौका देख कर मेरा पता लगालें तो वे मुझे मार कर खाही डालेंगे। यदि उन्हें मेरा पता न भी लगेगा तो भी वे मेरी खेती-बारी को नष्ट करके और बकरों को भगाकर चले जायँगे। तब मैं खाने के बिना ही मरूँगा।

अब मेरे मन में चैतन्य हुआ। अब तक मैं साल भर के खर्च लायक अनाज उपजा कर ही यथेष्ट समझता था। भविष्य के लिए कुछ भी संचय नहीं रखता था। मानों मेरी ज़िन्दगी में कभी दुर्भिक्ष का समय आवेहीगा नहीं। मैंने अपनी इस मूर्खता के लिए अपने को धिक्कार दिया और भविष्य में अब दो-तीन साल के लिए खाद्य-सामग्री संचय करने का संकल्प किया।

मनुष्य का जीवन भगवान् की विचित्र रचना का बड़ा अनोखा नमूना है! घटना के साथ साथ मनुष्य के मानसिक भाव का बहुत कुछ परिवर्तन होता है। जो आज अच्छा लगता है वही कल बुरा मालूम होता है। जिसको कल देखने के लिए आज जी तरसता है उसीको परसों देख कर डर लगता है। मनुष्य का साथ छुट जाने से इतने दिन तक मैं उद्विग्न था, आज मनुष्य के पैर का एक मात्र चिह्न देख कर भय से पागल हो उठा हूँ। मनुष्य का जीवन ऐसा ही विषम है। अब मैंने बखुबी समझ लिया कि इस निर्जन द्वीप में अकेले ही रह कर मुझे जीवन व्यतीत करना होगा-यही ईश्वर को मंजर है। ईश्वर कब क्या करेंगे, यह जानने का सामर्थ्य मनुष्य में नहीं है। इतने दिन तक मैंने यही समझ रक्खा था कि ईश्वर दयालु और मङ्गलमय हैं इसलिए मैंने उनके इस विधान को शुभ मान लिया। तब मुझे बाइबिल के उस मधुमय वाक्य का स्मरण हो आया-विपत्ति में मेरी शरण गहो, मैं विपत्तिसे तुम्हें छुड़ाऊँगा और तुम मेरी महिमाका प्रचार करोगे।

["अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्यः सम्यग्व्यवहितोऽपि सः॥
शीघ्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥"]

अर्जुन के प्रति भगवान् श्रीकृष्ण का कहा हुआ यह वाक्य बाइबिल के उपर्युक्त वाक्य से कुछ मिला जुला सा प्रतीत होता है। अस्तु।]

ऐसा ही सोच विचार करते कई सप्ताह बीत गये। किसी तरह वह सुन्दर उपदेश चित्त से न हटता था। एक दिन एकाएक मेरे मन में यह भावना हुई कि वह पद-चिह्न मेरा ही तो न था? जब मैं नाव से उतरा था तब का तो चिह्न नहीं है? इस बात का खयाल होते ही मेरा मन प्रफुल्ल हो उठा। भय दूर हुआ। मैंने अकारण इतना क्लेश पाया। अपनी इस मूर्खता पर मुझे बड़ी हँसी आई। कितने ही गवाँर आदमी जैसे अपनी छाया को देख कर भूत के भय से अभिभूत होते हैं उसी तरह मैंने अपना पद-चिह्न देख कर भय से इतना क्लेश पाया। मारे हँसी के मैं लोट-पोट हो गया। कितने ही लोग भ्रम में पड़ कर ऐसे ही भाँति भाँति के क्लेश सहते हैं।

इस नई भावना से साहस पा कर तीन दिन बाद में फिर बाहर निकला। घर में कुछ खाने की वस्तु भी न थी, और इस बात का स्मरण हुआ कि तीन दिन से बकरियों का दूध भी नहीं दुहा गया है। न मालूम उससे उन्हें कितना कष्ट होता होगा। सम्भव है, कितनी ही बकरियों का दूध एक दम सूख गया हो। सब सोच विचार कर मैं किले से बाहर निकला। बाहर तो निकला पर एकदम निर्भय नहीं हुआ। कुछ दूर आगे जाता और फिर पीछे की ओर ताकताथा। किसी किसी दफ़पीठ पर की टोकरी फेंक कर घर भाग जाने को जी चाहता था।

इस प्रकार डरता हुआ दो-तीन दिन तक घर से बाहर आयागया। डरने की जब कोई जगह न देखी तब मन में कुछ विशेष साहस हुआ और उस पदचिह्न को देखने के लिए फिर समुद्र-तट पर गया। जा कर देखा, जहाँ पैर का चिह्न था वहाँ खाली पैरों मैं कभी नहीं गया था, दूसरे मेरा पैर भी उतना लम्बा न था। इससे मेरा हृदय फिर भय से काँप उठा। मैं अपने हृत्कम्प को किसी प्रकार न रोक सका। मेरा सम्पूर्ण शरीर थर थर काँपने लगा। तब मैंने अपने मन में यही समझा कि इस द्वीप में कोई बाहर का आदमी पाया है या इसी द्वीप के किसी अंश में मनुष्य का निवास है। सम्भव है, किसी दिन एकाएक किसी मनुष्य से भेंट हो जाय। अब मैं अपनी रक्षा के लिए क्या उपाय करूँ-इसका कुछ निश्चय न कर सका।

डरने से लोगों की बुद्धि लोप हो जाती है। पहले मन में यही पाया कि घेरे को तोड़ ताड़ कर बकरों को जङ्गल में भगा दूँ, खेत को खोद कर उजाड़ डालूँ और कुञ्जभवन आदि स्थान को नष्ट भ्रष्ट कर दूँ। इससे कोई मेरा पता न पावेगा। कुछ देर के बाद खूब सोच कर देखा तो जान पड़ा कि ऐसा करने से उस विपत्ति की अपेक्षा लाख गुना अधिक विपत्ति का भय उठ खड़ा होगा। मैं वैसा कुछ न कर सका। यह द्वीप महादेश से अधिक अन्तर पर नहीं है इसलिए यहाँ मनुष्य का पाना भी असम्भव नहीं। तब जो इतने दिनों से किसी का दर्शन नहीं हुआ है यह मेरा परम सौभाग्य है। मैं इस द्वीप में पन्द्रह वर्ष से निवास कर रहा हूँ; इतने दिन बाद यह कौन सा उत्पात आ खड़ा हुआ। जो हो, यहाँ असभ्यो के आने पर छिप सकूँ, ऐसा कोई निरापद स्थान ढूँढ़ निकालना आवश्यक है।