राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो का वाणिज्य

राबिनसन-क्रूसो
डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ३४६ से – ३४९ तक

 

क्रूसो का वाणिज्य

मेरा बहुत समय भारतवर्ष के पूर्वी भाग बङ्गाल में ही बीत गया। देश लौटने के जितने उपाय मुझे बतलाये जाते थे उन में एक भी मेरे पसन्द न आता था। आखिर एक दिन अँगरेज़ वणिक् ने मुझसे कहा-आप मेरे स्वदेशी हैं। आपसे मुझे एक प्रस्ताव करना है। मैं आशा करता हूँ कि आप उससे असन्तुष्ट न होंगे। हम लोग देश से बहुत दूर आ पड़े हैं-आप दैवयोग से और मैं अपनी इच्छा से। किन्तु परिणाम में दोनों की अवस्था अभी बराबर है। जो हो, परन्तु यह देश ऐसा है कि यहाँ वाणिज्य करने से अपने देश की एक मुट्ठी धूल के बदले मुट्ठी भर सोना मिल सकता है। आइए, दस हज़ार रुपया आप दीजिए और दस हज़ार में देता हूँ। हम लोगों की पसन्द लायक यदि कोई जहाज़ मिल जाय तो भाड़े पर लेकर हम लोग चीन वालों के साथ उस मूलधन से व्यवसाय करने जायँगे। आप होंगे जहाज़ के अध्यक्ष और मैं बनूँगा व्यापारी। आलसी होकर समय बिताना ठीक नहीं। संसार में कोई निर्व्यवसायी नहीं है। सभी अपनी अपनी उन्नति में लगे रहते हैं। सभी कर्म-शील हैं। ग्रह-नक्षत्र भी एक जगह बैठे नहीं रहते। सभी जीव जब अपने अपने काम पर तत्पर रहा करते हैं तब हमी लोग मौन साध कर क्यों बैठे रहे?

यह प्रस्ताव मुझे अच्छा लगा। यद्यपि वाणिज्य मेरे स्वभाव के अनुकूल नहीं तथापि भ्रमण ही सही। जिस देश को मैंने पहले कभी नहीं देखा है उसके देखने की लालसा मेरे मन में जागती ही रहती थी। वहाँ जाने की संभावना मेरे लिए कभी अप्रीतिकारक नहीं हो सकती थी।

मनोनुकूल जहाज़ मिलने में बहुत दिन लगे। जहाज़ मिला भी तो अँगरेज़ नाविक नहीं मिलते थे। बड़े बड़े कष्ट से मेंट, एक माँझी और एक गोलन्दाज़ का प्रबन्ध किया। एक मिस्त्री और तीन नाविक भी मिल गये। बाकी भारतीय नाविक नियुक्त कर लिये गये।

हम लोग सुमात्रा टापू की सरहद से होते हुए स्याम देश में पहुँचे। वहाँ हम लोगों ने वस्तुएँ बेच कर अफ़ीम और कुछ अर्क़ ख़रीदे। उस समय चीन देश में अफ़ीम की बड़ी खपत थी। आठ महीने वाणिज्य करने के बाद हम फिर भारत को लौट आये। इन देशों में तिजारत कर के द्रव्योपार्जन की सुविधा और विलक्षण लाभ देख कर मेरा जी बहुत खुश हुआ। मेरी उम्र यदि एक चौथाई अर्थात् १५, २० वर्ष और कम होती तो मैं इस देश को छोड़ कर द्रव्य खोजने के लिए अन्यत्र कहीं न जाता। किन्तु मेरे ऐसे साठ वर्ष के बुड्ढे और प्रचुर धन-शाली व्यक्ति को केवल लाभ के सम्बन्ध से इन देशों पर विशेष मोह न था। क्योंकि मैं तो रुपया कमाने के लिए आया नहीं था। देश देखने ही के लिए मेरा आना हुआ था। सो इन नये देशों के दर्शन हो गये। अब देश लौटने के लिए जी अकुलाने लगा। देश में रहने से बाहर जाने के लिए चित्त व्यग्र होता था और बाहर आने पर देश जाने के लिए जी में छटपटी लगी रहती थी। मेरे साथी अँगरेज़ पूरे व्यवसायी थे। ये अपने व्यवसाय के पीछे दिन-रात हैरान और परेशान रहते थे। जिधर कुछ अधिक लाभ देखते उधर ही दौड़ पड़ते थे। मेरा खयाल केवल घूमने-फिरने की ओर था। एक स्थान को दोबारा देखना मेरी आँखों में खटकता था। मेरे साझी ने मुझसे यह प्रस्ताव किया कि अब की बार मसाला टापू में जाकर एक जहाज़ भर लौंगे लाकर व्यवसाय किया जाय। यद्यपि वाणिज्य-व्यवसाय में मेरा पूर्ण उत्साह नहीं था तथापि "बैठे से बेगार भली" की कहावत चरितार्थ करना उचित जान मैं लवङ्ग खरीदने चला। मैं बोर्नियो प्रभृति टापुओं में घूमता-फिरता पाँच महीने में फिर अपने बड़े पर आ पहुँचा और फारस के सौदागरों के हाथ लवङ्ग और जायफल बेच कर एक के पाँच वसूल कर मैंने बहुत धन कमाया।

हम लोगों ने लाभ का रुपया आपस में बाँट लिया। मेरे साझीदार अँगरेज ने मुझ पर जरा आक्षेप करके कहा-"कहिए साहब! आलसी होकर बैठ रहने की अपेक्षा इधर उधर घूमना-फिरना अच्छा है या नहीं?" मैंने कहा-हाँ, अच्छा तो है, किन्तु आप मेरे स्वभाव को भली भाँति नहीं जानते। जब भ्रमण का उन्माद मेरे सिर पर सवार होगा तब आपको दम लेने की भी फुरसत न दूँगा। आपकी नाक में रस्सी डाल कर अपने साथ साथ लिये फिरूँगा।