राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो का गृहत्याग और तूफ़ान

राबिनसन-क्रूसो
डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १ से – ८ तक

 

 

 

राबिन्सन क्रूसो

क्रूसो का गृहत्याग और तूफ़ान

१६३२ इसवी में इँगलेण्‍ड अन्तर्गत यार्क नगर में मेरा जन्म हुआ। मैं अपने माँ-बाप का तृतीय पुत्र था। मेरे बड़े भाई सैन्य-विभाग में काम करते थे। युद्ध में उनकी मृत्यु हुई थी। छोटे भाई का हाल मैं कुछ भी नहीं जानता। बालकों में छोटा या बड़ा जो समझिए मैं ही था, इसलिए मैं घर भर के लोगों का अत्यन्त स्नेहभाजन था। मेरे पिता सुनार का काम करते थे, तथापि उन्होंने मेरे पढ़ाने लिखाने में कभी कोई त्रुटि नहीं की। जब मैं अपने घर और पाठशाला में कुछ विद्या पढ़ चुका तब पिता ने मुझको क़ानून पढ़ाने की इच्छा प्रकट की। किन्तु मेरे दिमाग़ में तो बाल्यकाल से ही देशभ्रमण का शौक़ घुसा था, इसके लिए समुद्रयात्रा की और मेरा ध्यान लग रहा था। समुद्रयात्रा के अतिरिक्त मुझे और कुछ न सुहाता था, और न किसी दूसरे काम में मेरा जी लगता था। समुद्रयात्रा का उद्वेग ऐसा प्रबल हो उठा, समुद्रयात्रा की तरङ्ग मेरे मन में इस प्रकार लहराने लगी कि पिता की इच्छा और आदेश, माता की सान्त्वना और अनुनय, तथा आत्मीय बन्धुगणों की फटकार के विरुद्ध मेरा दृढ़ संकल्प हो गया। मानो मेरी चित्तवृत्ति स्वतन्त्र हो
कर मेरे जीवन के भविष्य अशुभ और आपत्ति की ही ओर प्रधावित होने लगी।

मेरे पिता ज्ञानी और गम्भीर प्रकृति के मनुष्प थे। उन्होंने मेरा कठिन उद्देश्य और अभिप्राय समझ कर एक दिन सवेरे मुझको अपनी बैठक में बुलाया। वे बातव्यथा से पीड़ित होकर खाट पर पड़े थे। वे मुझे अपने पास बैठा कर भाँति भाँति के सुन्दर और समीचीन उपदेश देने लगे। उन्होंने अत्यन्त गम्भीर तापूर्वक मुझसे पूछा—एकमात्र भ्रमण लालसा के अतिरिक्त क्या स्वदेश का सुख और पिता के आश्रय की सुविधा छोड़ कर तुम्हारे विदेश जाने का और भी कोई कारण है? अपने देश में तुम्हारा -खच्छन्द से निर्वाह हो सकता है, तुम अपने देश में रह कर परिश्रम और अध्यवसाय के द्वारा मज़े में आर्थिक उन्नति भी कर सकोगे। किन्तु विदेश में तो किसी बात का कुछ निश्चय नहीं। सभी अनिश्चित है। वहाँ न किसी से जान पहचान, न संकट के समय कोई सहायक होगा। जो लोग अपने देश में किसी तरह अपनी दशा की उन्नति नहीं कर सकते अथवा जिनकी उच्च आकांक्षा अपने देश में फलित नहीं होती वही लोग प्रायः विदेश जाते हैं। तुम्हारी अवस्था इन दोनों से भिन्न है, तो फिर तुम क्यों विदेश जाना चाहते हो? हम मध्यम श्रेणी के मनुष्य हैं। न हम दरिद्रता के दुःख से दुखी हैं, न धनाढ्य के भोगविलास के दम्भ से चंचल हैं। यह जो दारिद्रय और ऐश्वर्य को मध्यवर्तिनी अवस्था है, इस अचिन्त्य अवस्था की जो सुख स्वच्छन्दता है, उसे देख राजा महाराजों का भी जी ललचाता है। विद्वान लोगों ने मुक्त कण्ठ से इस अवस्था की प्रशंसा की है। राबिन्सन क्रूसो

वे मुझे अपने पास बैठा कर भाँति भाँति के सुन्दर और समीचीन उपदेश देने लगे।---पृष्ठ २

इस जीवन-संग्राम में धनी और निर्धनों को सब प्रकार

का दुःख सहना पड़ता है, किन्तु मध्यावित्त बालों को बैसा दुःख भोगने का अवसर नहीं आता । धनवान लोग अनाचार के असंयम और विलासपरायणता में पड़ कर और दरिद्र लोग कदन्न-भक्षण या निराहार के द्वारा स्वास्थ्य भंग करके जो अनेक कष्ट और अशान्ति भोगते हैं, उन यात- नाओं से मध्यवित्त के मनुष्य बिलकुल बचे रहते हैं।

इसलिए वत्स ! लड़कपन करके निश्चित सुख-शान्ति के लात मार कर, एकाएक विपत्ति के रुप में मत कूद पड़ो । मेरी बात पर ध्यान दो, नितान्त मूर्खों की भाँति काम करके बूढ़े माँ-बाप को कष्ट देना क्या ठीक है ? मैं बार बार तुम्हें सावधान करता हूँ-पिता के वचन की अवहेलना करने से भगवान् अप्रसन्न होंगे, उससे तुम्हारा अमंगल होगा।

यह कहते कहते उनका कण्ठ सँध गया, फिर वे कुछ बोल न सके। उनकी आंखों से झर झर कर आँसू गिरने लगे ।

यह देख कर मेरा जी व्याकुल हो उठा । मैंने निश्चय किया कि अब विदेश न जाऊँगा । पिता की इच्छा और आदेश के अनुसार देश में ही रह कर कोई रोज़गार करूंगा।

किन्तु हा खेद ! कुछ ही दिनों में मेरी यह प्रतिज्ञा छूमन्तर हो गई । मेरी बुद्रि फिर विदेशभ्रमण के लिए चंचल हो उठी। विदेश जाने के लिए फिर मेरी जीभ से लार टपकने लगी । पिता के अनुरोध से छुटकारा पाने के लिए मैंने कई सप्ताह के अनन्तर घर से भाग जाने ही का निश्चय किया।

किन्तु कल्पना के पहले उत्तेजना ने मुझे जितना पाबन्द कर रक्खा था, उतना शीघ्र में नहीं भागा। एक दिन मैंने
अपनी माँ के कुछ विशेष प्रसन्न देख कर कहा—माँ, मेरा मन विदेश देखने के लिए इतना व्यग्र हो रहा है कि मैं उसे किसी तरह शान्त नहीं कर सकता । मेरी उम्र अठारह वर्ष की हो चुकी । मैं इतनी उम्र में चाहता तो कोई व्यवसाय करता या कहीं अध्यापनवृत्ति करता पर ये सब काम मुझसे न होंगे कारण यह कि उन कामों में मेरा जी ही नहीं लगता। मेरा मन यही चाहता है कि मैं कामधन्धा छोड़ कर देश देशान्तर में घूमता फिरूँ, या एक दिन अपने मालिक का काम छोड़ कर समुद्र की ओर रवाना हो जाऊँ। मेरी उम्र अब विदेश जाने योग्य हो गई । तुम लोग एक बार मुझे समुद्र की सैर कर आने दो । यदि समुद्र यात्रा मेरे पसन्द न आवेगी तो मैं घर लौट आऊँगा औौर तुम लोगों का आाज्ञाकारी हो कर रहूंगा; तब तुम लोग जो कहोगी वही कहूंगा । पिता जी से कह कर तुम उन से अनुमति दिला दो, नहीं तो तुम लोगों की अनुमति लिये बिना ही मैं चला जाऊँगा। क्या यही अच्छा होगा ?

मेरी बात सुन कर माँ क्रोध से एकदम जल-भुन उटी । वह बोली—मैं यह बात उनसे कभी न कह सकेंगी; तुम्हारे जी में जो आवे सो करो, आप ही दुःख भोगोगे । इसमें हम लोगों का क्या ? हम बूढ़ी , आज हैं, कल नहीं । हम तुम्हारी ही भलाई के लिए कहती सुनती हैं।

यद्यपि माँ ने यह बात पिता से न कहने ही के ऊपर ज़ोर दिया था ता भी थोड़ी ही देर के बाद मैंने सुना कि उन्होंने सब बातें पिता जी से जाकर कह सुनाई । वे सब बातें ध्यानपूर्वक सुन कर लम्बी साँस लेकर बोले—लड़के को कुबुद्धि ने आ घेरा है । उसके भाग्य में कष्ट बदा है। अपने
मन से जाना चाहे तो चला जाय, मैं जाने की सलाह न दूंगा।

इस प्रकार मेरे हठ और माता-पिता के निरोध की खींचातानी में एक वर्ष बीत गया। एक दिन संयेाग पा कर मैं हल बन्दर की ओर झूमने गया। जाते समय मेरा भागने का इरादा बिलकुल ही न था। किन्तु वहाँ जाकर मैंने देखा, मेरा एक साथी अपने पिता के जहाज़ पर सवार होकर समुद्रपथ से लन्दन जा रहा है। वह अपने साथ मुझको ले जाने के लिए बार बार अनुरोध करने लगा और मुझ से कहने लगा कि जाने का तुम्हें कुछ खर्च न देना होगा। तब मैं माँ-बाप की अनुमति की अपेक्षा न कर के, उन लोगों को अपने जाने की कोई खबर दिये बिना ही जाने को प्रस्तुत हुआ। १६५१ ईसवी की पहली सितम्बर मेरे लिए एक अशुभ मुहूर्त था। उसी अशुभ मुहूर्त में शुभा-शुभ परिणाम की कुछ परवा न कर के, पिता-माता के बिना कुछ खबर दिये ही, ईश्वर से मङ्गल और माँ-बाप से आशीर्वाद की प्रार्थना किये बिना ही मैं उस लन्दन जानेवाले जहाज़ में जा बैठा।

यात्रा का आरम्भ होते न होते मेरी विपत्ति का आरम्भ होगया। जहाज़ खुल कर अभी बीच समुद्र में भी न गया था कि हवा ज़ोर से चलने लगी और समुद्र का जल ऊपर की ओर उछलने लगा। तरङ्ग पर तरङ्ग उठने लगी। देखते ही देखते समुद्र का आकार भयङ्कर हो उठा। मैंने इसके पूर्व कभी समुद्रयात्रा न की थी, इसलिए मेरा जी घूमने लगा। बारंबार वमन के वेग से शरीर, और डर से हृदय, काँपने लगा। मैं मन ही मन सोचने लगा--"दुष्ट महामूर्ख की भाँति,
कर्तव्य की अवहेला करके, पिता के पास से भागने का यह उचित दण्ड ईश्वर ने दिया । "उस समय माँ-बाप के अनुनय, अश्रुजल और उपदेश मुझे याद आने लगे । ईश्वर और पिता के प्रति मेरे कर्तव्य की त्रुटि के लिए मेरी धर्मबुद्धि मुझ को बार बार धिक्कारने लगी ।

आँधी का वेग क्रमशः बढ़ने लगा और समुद्र का जल ताड़ के बराबर ऊपर बढ़ गया । दो-एक दिन पहले मैने आँधी और समुद्र का जैसा कुछ भयङ्कर रूप देखा था उससे कहीं बढ़ कर आज की आँधी और समुद्र की अवस्था थी । मेरे प्राण सुखाने के लिए अभी यही यथेष्ट था । क्योंकि उस समय मेरी उम्र नई थी और समुद्र के साथ मेरा यही प्रथम परिचय था । समुद्र की भीषण मूर्ति देख कर मैं यही सोचने लगा कि हम लोगों की जीवनलीला आज ही समाप्त होगी । जब मैं एक से एक ऊँची तरङ्ग को आते देखता तब मेरे मन में यही होता था कि अब की बार इसी के भीतर हम लोगों की चिरसमाधि लगेगी । प्रत्येक बार जहाज़ तरङ्ग के ऊपर चढ़ कर मानो आकाश को चूमता था, और दो तरङ्गों के बीच के गढ़े में पड़ने पर ऐसा मालूम होता था । मानो वह पाताल में जा रहा है, अब फिर कभी ऊपर न आवेगा । यह भयङ्ककर दृश्य देख कर मेरे होश उड़ गये । हृदय की ऐसी अधीरता के समय मैं ईश्वर से बार बार क्षमा की प्रार्थना और मन ही मन प्रतिज्ञा करने लगा कि भगवान् ! इस बार यदि मेरे प्राण बच गये यदि खुशीखुशी समुद्र-तीरवर्ती सूखी ज़मीन पर मैं पैर रख सका तो इस जीवन में फिर कभी जहाज़ पर न चढ़ूँँगा और न कभी समुद्रयात्रा का नाम ही लूंँगा । समुद्र के किनारे पाँव रखते
ही एकदम पिता जी के पास हाज़िर हो जाऊँगा । उनके उपदेश की उपेक्षा कर फिर कभी इस तरह की विपत्पयोधि में न धँसूँगा । तूफ़ान जितना ही सख्त होने लगा उतना ही पिता के उपदेश का मीठापन मेरे हृदय को अनुतप्त करने लगा ।

जब तक तूफान का वेग प्रबल था तब तक और उसके पीछे भी कुछ देर तक, यह सुबुध्दि मेरे हृदय पर अधिकार जमाये रही । दूसरे दिन वायु का वेग कुछ कम हुआ । समुद्र ने भी पहले से कुछ शान्तमूर्ति धारण की । मैं भी समुदयात्रा में कुछ कुछ अभ्यस्त हो चला । फिर भी उस दिन मैं बराबर गम्भीर भाव धारण किये रहा । किन्तु तब भी मेरा जी कुछ कुछ घूम रहा था और रह रह कर मुँँह में पानी भर आता था । साँझ होते होते आँधी एकदम रुक गई । सायंकाल का दृश्य अत्यन्त मनोहर देख पड़ा । सूर्य भगवान् समुद्र के ऊपर मानो सोना ढाल कर अस्त हुए । दूसरे दिन भी वैसी ही सुनहरी किरणों की शोभा विस्तीर्ण करके उदित हुए । यह देख कर मेरा चित्त फिर प्रफुल्ल हो उठा और जान पड़ा माने इस जीवन में ऐसा सुन्दर दृश्य कभी न देखा था ।

रात में मुझे अच्छी नींद आई और वमन का उद्वेग भी शान्त हो गया । मैं पूर्व दिन के उत्तुंग तरंग-भीषण समुद्र को इस समय प्रशान्त और सुन्दर देखकर विस्मित हो रहा था । तब मेरा साथी, जिसके प्रलोभन से मैं आया था, मेरे पास आकर और मेरी पीठ को थपथपाकर कहने लगा-—क्यों जी राबिन्सन ! कल ज़रा हवा तेज़ हुई थी तब से तुम खूब डरे थे ? उसकी यह बात सुनकर मैं अवाक् हो गया । भला यह क्या कह रहा है ? इतनी बड़ी आँधी इसके निकट एक तेज़ हवा मात्र है । तब न मालूम आँधी कैसी होगी ? जो हो,
अपने साथी का उत्साहवाक्य सुनकर और समुद्र की मनेहरता देख कर मैं पूर्व दिन की सब प्रतिज्ञायें और संकल्प धीरे धीरे भूलने लगा । बीच बीच में सुविद्धि का उदय होता भी था तो उसे मैं मानसिक दुर्बलता कह कर मन से दूर कर देने लगा । पाँच छः दिन में जब में समुद्र के स्वभाव से कुछ कुछ परिचित हो गया तब फिर उन सुविचारों का हृदय पर असर न होने दिया । किन्तु इस औद्धत्य के कारण विधाता ने मेरे भाग्य में अनेक तिरस्कार और लञ्छनाओं की व्यवस्था पहले ही ठीक कर रक्खी थी।

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क्रूसो के भाग्य में भयङ्कर तूफ़ान

समुद्र-यात्रा के छठे दिन हम लोगों का जहाज़ यारमाउथ बन्दर में आ लगा । आँधी आने के पीछे आज तक हवा प्रतिकूल और समुद्र स्थिर था, इसलिए हम लोग बहुत ही थोड़ी दूर आगे बढ़ सके । हम लोगों ने बाध्य होकर यहाँ लङ्गर डाला । सात आठ दिन तक वायु प्रतिकूल चलती रही, इस कारण हम लोग वहाँ से हिलडुल न सके । इसी बीच न्यूकैसिल से बहुत से जहाज़ इस बन्दर में आकर अनुकूल वायु की प्रतीक्षा करने लगे ।

हम लोग इतने दिन इस बन्दर में बैठे न रहते, नदी के प्रवाह की विपरीत दिशा में चले जाते; किन्तु हवा का वेग बढ़ते बढ़ते चार पाँच दिन के बाद बहुत प्रबल हो उठा । परन्तु नदी के मुहाने को बन्दर की ही भाँति निरापद जान कर और हम लोगों के जहाज़ की रस्सी को बहुत मजबूत समझ कर माँझी लोग निश्चिन्त और निःशङ्कभाव से समुद्र