राबिन्सन-क्रूसो/क्रूसो और समुद्र-तट

राबिनसन-क्रूसो
डैनियल डीफो, अनुवादक जनार्दन झा

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ ५० से – ५५ तक

 

क्रूसो और समुद्र-तट

मैं स्थल में आकर, विपत्ति से उद्धार पा, अपनी जीवन-रक्षा के लिए ऊपर की ओर देख कर परमेश्वर को धन्यवाद देने लगा । कुछ ही देर पहले जिस जीवन की कुछ भी आशा न थी उसे मृत्यु के मुख से सुरक्षित देख, मन में जो असीम आनन्द और उल्लास हुआ उसका वर्णन नहीं हो सकता । उस समय इतना अधिक आनन्द हुआ कि उस आवेग से ही मर जाने की आशंका हुई । कारण यह कि एकाएक अत्यन्त हर्ष होने से भी, अति विषाद की ही भाँति, चित्त अचेतन हो जाता है ।

मैं समुद्रतट पर, मारे खुशी के अकड़ता हुआ, हाथ उठाये अनेक प्रकार से अंग-भंगी करता हुआ घूमने लग । उस समय मेरे मन में सिर्फ यही चिन्ता थी कि मेरे सभी साथी डूब मरे; एक मैं ही "समुद्र से जीता-जागता बच निकला, ईश्वर ने मृत्यु के मुख से मुझे बचा लिया । मैंने अपने साथियों में
राबिन्सन क्रूसो

मैंने खूब ज़ोर से अँकवार भर कर पत्थर को पकड़ा और सांस बन्द
करके लेट रहा ।—पृ० ४८

किसी को नहीं देखा और न किसी का कुछ पता पाया; सिर्फ

उन लोगों की तीन टोपियाँ और दो जोड़े जूते समुद्र के किनारे इधर उधर पड़े दिखाई दिये ।

समुद्र के गर्भ में स्थित बालुकामय भूभाग में अटके हुए जहाज़ की ओर मैंने ध्यान से देखा । किन्तु तब भी समुद्र में फेन से भरी हुई इतनी तरंगों पर तरंगें चल रही थी कि मैं अच्छी तरह जहाज़ को न देख सका । तब मैंने मन में कहा-—भगवन, इस दुस्तर समुद्र से मुझे किस तरह किनारे निकाल लाये ?

इस अवस्था में यथासम्भव मन को सान्त्वना देकर मैं इधर उधर देखने लगा कि कहाँ कैसे स्थान में आ गया हूँ । मैं यह भी सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए । शीघ्र ही मेरे मन की सान्त्वना जाती रही । मैं एकाएक अधीर हो उठा । मैंने देखा; मैं बच कर भी भयंकर अवस्था में आ पड़ा हूँ मेरा तमाम बदन गीला था, पास में कोई दूसरा कपड़ा बदलने को न था, खाने-पीने की कोई चीज़ भी न थी और न वहाँ कोई ऐसा आदमी था जो मुझे कुछ आश्वासन देता । भूख-प्यास से या जंगली हिंस्त्र पशुओं के आक्रमण से सिवा मरने के जीने की आशा न थी । मेरे पास कई हथियार भी न था । मेरे पास कुल पूँजी बच रही थी एक छुरी, तम्बाकू पीने का एक नल और कुछ तम्बाकू । इन बातों को सोचते सोचते मैं पागल की तरह उस निर्जन स्थान में इधर उधर दौड़ने लगा ।

क्रमशः रात हुई । मैं चिन्तासागर में निमग्न हो कर सोचने लगा-- अब तमाम हिंस्त्रजन्तु चरने के लिए निकलेंगे । संभव है, वे मुझे देखते ही चबा डालें । इसके लिए क्या करें ? मेरी


जितनी बुद्धि थी उससे यही निश्चय किया कि पेड़ पर चढ़कर

मैं किसी तरह रात बिताऊँगा । आज किसी कँटीले वृक्ष पर बैठ कर ही सारी रात काटूँगा और सोचूँगा कि दूसरे दिन किस तरह मृत्यु होगी । क्योंकि प्राण-रक्षा की कोई सम्भावना ही न देख पड़ती थी । जिधर देखता था उधर ही मृत्यु मुँह फैलाये खड़ी दिखाई देती थी । मैं प्यास से व्याकुल था । मारे प्यास के मेरा कण्ठ सूख रहा था । मीठा जल कहीं है या नहीं, यह देखने के लिए मैं समुद्रतट से स्थल भाग की ओर गया । एकआध मील जाने पर अच्छा पानी मिला । मैंने बड़े उल्लास से अंजलि भर कर पानी पिया । प्यास शान्त होने पर कुछ भूख मालूम होने लगी; पर साथ में था क्या जो खाता । था सिर्फ तम्बाकू का पत्ता । उसी को तोड़ कर थोड़ा सा मुँह में रक्खा । नींद से आँखें घूमने लगीं । मैं झट एक पेड़ पर चढ़ कर जा बैठा । रात में नींद आने पर कहीं गिर न पड़ूँ , इसका प्रबन्ध पहले ही कर लिया । पेड़ की एक डाल काट कर उसी का सहारा बना लिया । दिन भर का थका-मादा था, बैठने के साथ ही गाढ़ी नींद ने आकर धर दबाया । खूब चैन से सोकर जब मैं जागा तब बदन में अच्छी फुरती मालूम होने लगी । मानो फिर नस नस मे नया उत्साह भर गया ।

जब मैं सोकर उठा तब देखा कि सवेरा हो गया है, आकाश बिलकुल साफ़ है, हवा रुक गई है, समुद्र की तरंगें भी अब उस प्रकार नहीं उछलतीं । रात में ज्वार के समय हमारा बालू में फँसा हुआ जहाज़ बह कर किनारे की ओर जहाँ मैंने पहले पत्थर से टकरा कर चोट खाई थी वहाँ तक, चला आया है । वह जगह स्थल भाग से
कोई एक मील पर थी । जहाज़ तब भी सीधा खड़ा था । यह देख कर मुझे बड़ा ही आश्चर्य हुआ । मैंने वहाँ तक जाने का इस लिए विचार किया कि यदि जहाज़ पर कोई आवश्यक वस्तु मिल जायगी तो ले आऊँगा ।

मैंने पेड़ पर से उतर कर देखा कि मेरे दहनी ओर, अन्दाज़न दो मील पर, सूखी ज़मीन पर हमारी नाव पड़ी है । मैं उसी ओर जाने लगा । समीप जाकर देखा, मेरे और नाव के बीच में आध मील चौड़ी एक खाड़ी है जिसमें पानी भरा है । तब नाव तक जाने की आशा छोड़कर मैंने पैदल ही जहाज़ देखने के लिए जाने का विचार किया । इसलिए वहाँ से लौट आया ।

दोपहर के बाद समुद्र स्थिर हो गया । भाटे के कारण जल इतना कम हो गया कि मैं जहाज़ से पाव मील दूर तक सूखी ज़मीन पर होकर ही गया था । वहाँ पहुँचने पर फिर मेरे मन में नया दुःख हुआ । यह सोच कर मुझे अत्यन्त खेद हुआ कि हम लोगों ने जहाज़ को छोड़ कर नाव का सहारा क्यों लिया । हम लोग यदि जहाज़ ही पर रहते तो कोई भी डूब कर न मरता । मैं भी संगी-साथियों से बिछुड़ कर ऐसी दुर्दशा में न पड़ता, सब लोग बिना किसी विघ्न-बाधा के किनारे आ जाते । मारे सोच के मैं रो पड़ा । किन्तु उस समय रोना निष्फल जान कर मैं जहाज़ पर जाने की चेष्टा करने लगा । कोट-पतलून खोलकर मैंने धरती पर रख दिया फिर मैं पानी में घुस गया ।

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