रानी केतकी की कहानी  (1925) 
इंशा अल्ला खां

वाराणसी: नागरीप्रचारिणी सभा, पृष्ठ मुखपृष्ठ से – ३४ तक

 

TEXT

नागरीप्रचारिणी ग्रंथमाला—३४

सैय्यद इंशाअल्लाह खाँ लिखित

रानी केतकी की कहानी


संपादक

श्यामसंदरदास





नागरीप्रचारिणी सभा, काशी

1925

 

रानी केतकी की कहानी

यह वह कहानी है कि जिसमें हिंदी छुट।
और न किसी बोली का मेल है न पुट॥

सिर झुकाकर नाक रगड़ता हूँ उस अपने बनानेवाले के सामने जिसने हम सब को बनाया और बात की बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया। आतियाँ जातियाँ जो साँसें हें, उसके बिन ध्यान यह सब फाँसें हैं। यह कल का पुतला जो अपने उस खेलाड़ी की सुध रक्खे तो खटाई में क्‍यों पड़े और कड़वा कसैला क्‍यों हो। उस फल की मिठाई चक्खे जो बड़े से बड़े अगलों ने चक्खी है।

देखने को दो आँखें दीं और सुनने को दो कान।
नाक भी सब में ऊँची कर दी मरतों को जी दान॥

मिट्टी के बासन को इतनी सकत कहाँ जो अपने कुम्हार के करतब कुछ ताड़ सके। सच है, जो बनाया हुआ हो, सो अपने बनानेवाले को क्‍या सराहे और क्या कहे। यों जिसका जी चाहे, पड़ा बके। सिर से लगा पाँव तक जितने रोंगटे हैं, जो सबके सब बोल उठें और सराहा करें और उतने बरसों उसी ध्याम में रहें जितनी सारी नदियों में रेत और फूल फलियाँ खेत में हैं, तो भी कुछ न हो सके, कराहा करैं। इस सिर झुकाने के साथ ही दिन रात जपता हूँ उस अपने दाता के भेजे हुए प्यारे को जिसके लिये यों कहा है—जो तू न होता तो मैं कुछ न बनाता; और उसका चचेरा भाई जिसका ब्याह उसके घर हुआ, उसकी सुरत मुझे लगी रहती है। मैं फूला अपने आप में नहीं समाता, और जितने उनके लड़के वाले हैं, उन्हीं को मेरे जी में चाह है। और कोई कुछ हो, मुझे नहीं भाता। मुझको उस घराने छुट किसी चोर ठग से क्या पड़ो! जीते और मरते आसरा उन्हीं सभों का और उनके घराने का रखता हूँ तीसों घड़ी।

डौल डाल एक अनोखी बात का

एक दिन बैठे-बैठे यह बात अपने ध्यान में चढ़ी कि कोई कहानी ऐसी कहिए कि जिसमें हिंदवी छुट और किसी बोलो का पुट न मिले, तब जाके मेरा जी फूल की कली के रूप में खिले। बाहर की बोली और गँवारी कुछ उसके बीच में न हो। अपने मिलनेवालों में से एक कोई बड़े पढ़े लिखे, पुराने-धुराने, डाँग, बूढ़े घाग यह खटराग लाए। सिर हिलाकर, मुँह थुथाकर, नाक भौं चढ़ाकर, आँखें फिराकर लगे कहने—यह बात होते दिखाई नहीं देती। हिंदवीपन भी न निकले और भाखापन भी न हो। बल जैसे भले लोग अच्छों से अच्छे आपस में बोलते चालते हैं, ज्यों का त्यों वही सव डौल रहे और छाँह किसी की न हो, यह नहीं होने का। मैंने उनकी ठंडी साँस का टहोका खाकर कुँभुलाकर कहा—मैं कुछ ऐसा बढ़-बोला नहीं जो राई को परवत कर दिखाऊँ और मूठ सच बोलकर उँगलियाँ नचाऊँ, और बे-सिर बे-ठिकाने को उलझो-सुलकी बातें सुनाऊँ। जो मुझ से न हो सकता तो यह बात मुँह से क्यों निकालता? जिस ढब से होता, इस बखेड़े को टालता।  

इस कहानी का कहनेवाला यहाँ आपको जताता है और जैसा कुछ उसे लोग पुकारते हैं, कह सुनाता है। दहना हाथ मुँह पर फेरकर आपको जताता हूँ, जो मेरे दाता ने चाहा तो यह ताव-भाव, राव-चाव और कूद-फाँद, लपट-झपट दिखाऊँ जो देखते ही आप के ध्यान का घोड़ा, जो बिजली से भी बहुत चंचल अचपलाइट में है, हिरन के रूप में अपनी चौकड़ी भूल जाय।

टुक घोड़े पर चढ़ के अपने आता हूँ मैं।
करतब जो कुछ है, कर दिखाता हूँ मैं॥
उस चाहनेवाले ने जो चाहा तो अभी।
कहता जो कुछ हूँ, कर दिखाता हूँ मैं॥

अब आप कान रख के, आँखें मिला के, सन्मुख होके टुक इधर देखिए, किस ढब से बढ़ चलता हूँ और अपने फूल की पंखड़ी जैसे होठों से किस-किस रूप के फूल उगलता हूँ।

कहानी के जोवन का उभार और बोलचाल की दुलहिन का सिंगार

किसी देश में किसी राजा के घर एक बेटा था। उसे उसके माँ-बाप और सब घर के लोग कुँवर उदैभान करके पुकारते थे। सचमुच उसके जोबन की जोत में सूरज की एक सोत आ मिली थी। उसका अच्छापन और भला लगना कुछ ऐसा न था जो किसी के लिखने और कहने में आ सके। पंद्रह बरस भरके उनने सोलहवें में पाँव रक्खा था। कुछ योंही सी उसकी मसें भींनती चली थीं। अकड़-तकड़ उसमें बहुत सारो थीं। किसी को कुछ न समझता था। पर किसी बात के सोच का घर-घाट न पाया था और चाह की नदी का पाट उनने देखा न था। एक दिन हरियाली देखने को अपने घोड़े पर चढ़के अठखेल और अल्हड़पन के साथ देखता-भालता चला जाता था। इतने में जो एक हिरनी उसके सामने आई, तो उसका जी लोट-पोट हुआ। उस हिरनी के पीछे सब छोड़ छाड़कर घोड़ा फेंका। कोई घोड़ा उसको पा सकता था? जब सूरज छिप गया और हिरनी आँखों से ओझल हुई, तब तो कुँवर उदेभान भूखा, प्यासा, उनींदा, जँभाइयाँ, अगड़ाइयाँ लेता, हक्का-बक्का होके लगा। आसरा ढ़ूँढ़ने। इतने में कुछ एक अमरइयाँ देख पड़ीं, तो उधर चल निकला; तो देखता है जो चालीस-पचास रंडियाँ एक से एक जोबन में अगली फूला डाले पड़ी मूल रही हैं और सावन गातियाँ हैं। ज्यों ही उन्होंने उसको देखा—तू कौन? तू कौन? की चिंघाड़-सी पड़ गई। उन सभों में एक के साथ उसकी आँख लग गई।

कोई कहती थी यह उचक्का है।
कोई कहतो थी एक पक्का है।

वही झूलने वालो लाल जोड़ा पहने हुए, जिसको सब रानी केतकी कहती थीं, उसके भी जी में उसकी चाह ने घर किया। पर कहने-सुनने को बहुत सी नाँह-नूह की और कहा—“इस लग चलने को भला क्या कहते हैं! हक न थक, जो तुम झट से टहक पड़े। यह न जाना, यहाँ रंडियाँ अपने मूल रही है। अजी तुम जो इस रूप के साथ इस रव बेधड़क चले आए हो, ठंडे-ठंडे चले जाओ।” तब कुँवर ने मसोस के मलोला खाके कहा—“इतनी रुखाइयाँ न कीजिए। मैं सारे दिन का थका हुआ एक पेड़ की छाँह में झोस का बचाव करके पड़ रहूँगा। बड़े तड़के धुँधलके में उठकर जिधर को मुँह पड़ेगा चला जाऊँगा। कुछ किसी का लेता देता नहीं। एक हिरनी के पोछे सब लोगों को छोड़-छाड़कर घोड़ा फेंका था। कोई

घोड़ा उसको पा सकता था? जब तलक उजाला रहा उसके ध्यान में था। जब अँधेरा छा गया और जी बहुत घबरा गया, इन अमरइयों का आसरा ढ़ूँढ़कर यहाँ चला आया हूँ। कुछ रोक टोक तो इतनी न थी जो माथा ठनक जाता और रुक रहता। सिर उठाए हाँपता चला आया। क्या जानता था—यहाँ पद्मिनियाँ पड़ी फूलती पेंगें चढ़ा रही हैं। पर यों बदी थो, बरसों मैं भी झूला करूँगा।"

यह बात सुनकर वह जो लाल जोड़ेवाली सबको सिरघरी थी, उसने कहा—"हाँ जी, बोलियाँ ठोलियाँ न मारो और इनको कह दो जहाँ जी चाहे, अपने पड़ रहें; और जो कुछ खाने को माँगें, इन्हें पहुँचा दो। घर आए को आज तक किसी ने मार नहीं डाला। इनके मुँह का डौल, गाल तमतमाए, और होंठ पपड़ाए, और घोड़े का हाँपना, और जी का काँपना, और ठंडी साँसें भरना, और निढाल हो गिरे पड़ना इनको सच्चा करता है। बात बनाई हुई और सचौटी की कोई छिपतो नहीं पर हमारे इनके बीच कुछ घोट कपड़े-लत्ते की कर दो।" इतना आसरा पाके सब से परे जो कोने में पाँच सात पौदे थे, उनको छाँब में कुँवर उदैमान ने अपना बिछौना किया और कुछ सिरहाने घरकर चाहता था कि सो रहें, पर नोंद कोई चाहत को लगावट में आती थी? पड़ा पड़ा अपने जी से बातें कर रहा था। जब रात साँय-साँयें बोलने लगी और साथवालियाँ सब सो रहीं, रानी केतकी ने अपनी सहेली मदनबान को जगाकर यों कहा—"अरी ओ, तूने कुछ सुना है? मेरा जी उस पर आ गया है और किसी डौल से थम नहीं सकता। तू सब मेरे भेदों को जानती है। अब होनो जो हो सो हो; सिर रहता रहे, जाता जाय। मैं उसके पास जाती हूँ। तू मेरे साथ चल पर तेरे पाँवों पड़ती हूँ, कोई सुननेनपाए। अरी यह मेरा जोड़ा मेरे

और उसके बनानेवाले ने मिला दिया। मैं इसी जो में इस अमरइयों

में आई थी।" रानी केतकी मदनबान का हाथ पकड़े हुए वहाँ आन पहुँची, जहाँ कुँवर उदैमान लेटे हुए कुछ-कुछ सोच में बड़बड़ा रहे थे। मदनबान आगे बढ़ के कहने लगी—"तुम्हें अकेला जानकर रानी जी आप आई हैं।" कुँवर उदैभान यह सुनकर उठ बैठे और यह कहा—"क्यों न हो, जी को जी से मिलाप है?" कुँवर और रानी दोनों चुप चाप बैठे; पर मदनबान दोनों को गुदगुदा रही थी। होते होते रानी का वह पता खुला कि राजा जगतपरकास की बेटी है और उनकी माँ रानी कामलता कहलाती हैं। "उनको उनके माँ-बाप ने कह दिया है एक महीने पीछे अमरइयों में जाकर फूल आया करो 'आज वही दिन था; सो तुम से मुठभेड़ हो गई। बहुत महाराजों के कुँवरों से बातें आईं, पर किसी पर इनका ध्यान न चढ़ा। तुम्हारे घन भाग जो तुम्हारे पास सबसे छुपके, मैं जो उनके लड़कपन को गोइयाँ हूँ, मुझे अपने साथ लेके आई हैं। अब तुम अपनी बीती कहानी कहो—तुम किस देस के कौन हो।" उन्होंने कहा—"मेरा बाप राजा सूरजभान और माँ रानी लछमीबास हैं। आपस में जो गँठजोड़ हो जाय तो कुछ अनोखी, अचरज और अचंभे की बात नहीं। याँही आगे से होता चला आया है। जैसा मुँह वैसा थप्पड़ जोड़ तोड़ टटोल लेते हैं। दोनों महाराजों को यह चित्त चाही बात अच्छी लगेगी, पर हम तुम दोनों के जी का गँठजोड़ा चाहिए।" इसी में मदनबान बोल उठी— "सो तो हुआ। अपनी अपनी अँगूठियाँ हेर-फेर कर लो और आपस में लिखौती लिख दो। फिर कुछ हिचर-मिचर न रहे।" कुँवर उभान ने अपनी अँगूठी रानी केतकी को पहना दी और रानी ने भी अपनी अँगूठी कुँवर की उँगली में डाल दी; और एक धीमी-सी चुटकी भी ले ली। इसमें मदनबान बोली—"जो सच

पूछो तो इतनी भी बहुत हुई। मेरे सिर चोट है। इतना बढ़ चलना

अच्छा नहीं। अब उठ चलो और इनको सोने दो; और रोएँ तो पड़े रोने दो। बातचीत तो ठीक हो चुकी।" पिछले पहर से रानी तो अपनी सहेलियों को लेके जिधर से आई थी, उधर को चली गई और कुँवर उदैभाव अपने घोड़े को पीठ लगाकर अपने लोगों से मिलके अपने घर पहुँचे।

पर कुँवर जी का रूप क्या कहूँ। कुछ कहने में नहीं आता। न खाना, न पीना, न मग चलना, न किसी से कुछ कहना, न सुनना। जिस स्थान में थे उसी में गुथे रहना और घड़ी घड़ी कुछ सोच-सोच- कर सिर धुनना होते होते लोगों में इस बात की चरचा फैल गई। किसी किसी ने महाराज और महारानी से कहा—"कुछ दाल में काला है। वह कुँवर उदैभान, जिससे तुम्हारे घर का उजाला है, इन दिनों में कुछ उसके बुरे तेंबर और चेडौल आँखें दिखाई देती हैं। घर से बाहर पाँव नहीं धरता। घरवालियाँ जो किसी डौल से बह- लातियाँ हैं, तो और कुछ नहीं करता, ठंडी ठंडी साँस भरता है। और बहुत किसी ने छेड़ा तो छपरखट पर जाके अपना मुँह लपेट के आठ आठ आँसू पड़ा रोता है।" यह सुनते ही कुँवर उदैभान के माँ-बाप दोनों दौड़े आए। गले लगाया, मुँह चूम पाँव पर बेटे के गिर पड़े, हाथ जोड़े और कहा—'जो अपने जो की बात है, सो कहते क्यों नहीं? क्या दुखड़ा है जो पड़े पड़े कराहते हो? राज- पाट जिसको चाहो, दे डालो। कहो तो, क्या चाहते हो? तुम्हारा जी क्यों नहीं लगता? भला वह क्या है जो हो नहीं सकता? मुँह से बोलो, जी को खोलो। जो कुछ कहने से सोच करते हो, अभी लिख भेजो। जो कुछ लिखोगे, ज्यों की त्यों करने में आएगी। जो तुम कहो कूँ एँ में गिर पड़ो, तो हम दोनों अभी गिर पड़ते हैं। कहो—सिर काट डालो, तो सिर अपने अभी काट डालते हैं।"

कुँवर उदैभान, जो बोलते ही न थे, लिख भेजने का आसरा पाकर

इतना बोले—"अच्छा आप सिधारिए, मैं लिख भेजता हूँ। पर मेरे उस लिखे को मेरे मुँह पर किसी ढब से न लाना। इसीलिये मैं मारे लाज के मुखपाट होके पड़ा था और आप से कुछ न कहता था।" यह सुनकर दोनों महाराज और महारानी अपने स्थान को सिधारे। तब कुँवर ने यह लिख भेजा—"अब जो मेरा जी होठों पर आ गया और किसी डौल न रहा गया और आपने मुझे सौ-सौ रूप से खोला और बहुत सा टटोला, तब तो लाज छोड़ के हाथ जोड़ के मुँह फाड़ के विधिया के यह लिखता हूँ—

चाह के हाथों किसी को सुख नहीं।
है भला वह कौन जिसको दुख नहीं॥

उस दिन जो मैं हरियाली देखने को गया था, एक हिरनी मेरे सामने कनौतियाँ उठाए आ गई। उसके पोछे मैंने घोड़ा बगछुट फेंका। जब तक उजाला रहा, उसकी धुन में बहका किया। जब सूरज डूबा, मेरा जी बहुत ऊबा। सुहानी सी अमरइयाँ ताड़के मैं उनमें गया, तो उन अमरइयों का पत्ता पत्ता मेरे जी का गाहक हुआ। वहाँ का यह सौहिला है। रंडियाँ झूला डाले झूल रही थीं उनकी सिरधरी कोई रानी केतकी महाराज जगतपरकास की बेटी हैं। उन्होंने यह अँगूठी अपनी मुझे दी और मेरी अँगूठी उन्होंने ले ली और लिखौट भी लिख दी। सो यह अँगूठी उनकी लिखौट समेत मेरे लिखे हुए के साथ पहुँचती है। अब आप पढ़ लीजिए। जिसमें बेटे का जो रह जाय, सो कीजिए।" महाराज और महारानी ने अपने बेटे के लिखे हुए पर सोने के पानी से थों लिखा—"हम दोनों ने इस अँगूठो और लिखौट को अपनी आँखों से मला अब तुम इतने कुछ कुदो पचो मत। जो रानी केतकी के माँ-बाप तुम्हारी बात मानते हैं, तो हमारे समधी और समधिन

हैं। दोनों राज एक हो जायँगे। और जो कुछ नाँह-नूँह ठहरेगी

ती जिस डौल से बन आवेगा, ढाल तलवार के बल तुम्हारी दूल्हन हम तुमसे मिला देंगे। आज से उदास मत रहा करो। खेलो, कूदो, चोलो चालो, आनंद करो। अच्छी घड़ी. सुभ मुहूरत सोच के तुम्हारी ससुराल में किसी बाह्मन को भेजते हैं; जो बात चीत- चाही ठीक कर लावे।" और सुभ घड़ो सुभ मुहूरत देख के रानी केतकी के माँ-बाप के पास भेजा।

बाह्मन जो सुभ मुहूरत देखकर हड़बड़ी से गया था, उस पर बुरी घड़ी पड़ी। सुनते ही रानी केतकी के माँ बाप ने कहा—"हमारे उनके नाता नहीं होने का! उनके बाप-दादे हमारे चाप दादे के आगे सदा हाथ जोड़कर बातें किया करते थे और जो तेवरी चढ़ी देखते थे, बहुत डरते थे। क्या हुआ, जो अब वह बढ़ गए, ऊँचे पर चढ़ गए। जिनके माथे हम बाँए पाँव के अँगूठे से टोका लगावे, वह महाराजों का राजा हो जावे। किसी का मुँह जो यह बात हमारे मुँह पर लावे!" बाह्यन ने जल-भुन के कहा—"अगले भी, बिचारे ऐसे ही कुछ हुए हैं। राजा सूरजभान भी भरी सभा में कहते थे—हम में उनमें कुछ गोत का तो मेल नहीं। यह कुँवर की हठ से कुछ हमारी नहीं चलती। नहीं तो ऐसी ओछी बात कब हमारे मुँह से निकलती।" यह सुनते हो उन महाराज ने बाह्वान के सिर पर फूलों की चंगेर फेंक मारी और कहा—"जो चाह्मन की हत्या का धड़का न होता तो तुमको अभी चक्को में दलवा डालता।" और अपने लोगों से कहा—"इसको ले जाओ और ऊपर एक अँधेरी कोठरी में मूँद रक्खो।" जो इस बाान पर धोतो सो सब उदैभान के माँ-बाप ने सुनी। सुनते ही लड़ने के लिये अपना ठाठ बाँध के भादों के दल बादल जैसे घिर आते हैं, चढ़ आया। जब दोनों महाराजों में लड़ाई होने लगी, रानी केतकी

सावन भादों के रूप रोने लगी; और दोनों के जी में यह आ गई—

यह कैसी चाहत जिसमें लोह बरसने लगा और अच्छी बातों को जो तरसने लगा। कुँवर ने चुपके से यह कहला भेजा—"अब मेरा कलेजा टुकड़े टुकड़े हुआ जाता है। दोनों महाराजाओं को आपस में लड़ने दो। किसी डौल से जो हो सके, तो तुम मुझे अपने पास बुला लो। हम तुम मिलके किसी और देस निकल चलें; होनी हो सो हो, सिर रहता रहे, जाता जाय।" एक मालिन, जिसको फूलकली कर सब पुकारते थे, उसने उस कुँवर की चिट्ठी किसो फूल की पंखड़ी में लपेट सपेटकर रानी केतकी तक पहुँचा दी रानी ने उस चिट्ठी को अपनो आँखों लगाया और मालिन, को एक थाल भर के मोती दिए; और उस चिट्ठी की पीठ पर अपने मुँह की पीक से यह लिखा— "ऐ मेरे जी के गाइक, जो तू मुझे बोटी बोटी कर के चील कौवों को दे डाले, तो भी मेरी आँखों चैन और कलेजे सुख हो। पर यह बात भाग चलने को अच्छी नहीं। इसमें एक बाप-दादे को चिट लग जाती है और जब तक माँ-बाप जैसा कुछ होता चला आता है उसी डौल से बेटे बेटी को किसी पर पटक न मारें और सिर से किसी के चेपक न दें, तब तक यह एक जी तो क्या, जो करोड़ जी जाते रहें तो कोई बात हमें रुचती नहीं।"

यह चिट्ठी जो बिस भरी कुँवर तक जा पहुँची, उस पर कई एक थाल सोने के हीरे, मोती, पुखराज के खचाखच भरे हुए निछावर करके लुटा देता है। और जितनी उसे बेचैनी थी, उससे चौगुनी पचगुनी हो जाती है। और उस चिट्ठी को अपने उस गोरे डंड पर बाँध लेता है।

आना जोगी महेंदर गिर का कैलास पहाड़ पर से और कुँवर उदैमान और उसके माँ बाप को हिरनी हिरन कर डालना

जगतपरकाल अपने गुरू को जो कैलास पहाड़ पर रहता था,

लिख भेजता है—कुछ हमारो सहाय कीजिए। महाकठिन बिपता

भार हम पर आ पड़ी है। राजा सूरजभान को अब यहाँ तक बाव बँहक ने लिया है, जो उन्होंने हम से महाराजों से डौल किया है।

सराहना जोगी जी के स्थान का

कैलास पहाड़जो एक डौल चाँदी का है, उसपर राजा जगतपरकास का गुरू, जिसको महेंदर गिर सब इंदरलोक के लोग कहते थे, ध्यान ज्ञान में कोई ९० लाख अतीतों के साथ ठाकुर के भजन में दिन रात लगा रहता था। सोना, रूपा, ताँबे, राँगे का बनाना तो क्या और गुटका मुँह में लेकर उड़ना परे रहे, उसको और बातें इस इस ढब की ध्यान में थीं जो कहने सुनने से बाहर हैं। मेंह सोने रूपे का बरसा देना और जिस रूप में चाहना हो जाना, सब कुछ उसके आगे खेल था। गाने बजाने में महादेव जी छुट सब उसके आगे कान पकड़ते थे। सरस्वती जिसको सब लोग कहते थे, उनने भी कुछ कुछ गुनगुनाना उसी से सीखा था। उसके सामने छः राग छत्तीस रागिनियाँ घाठ पहर रूप बंदियों का सा धरे हुए उसकी सेवा में सदा हाथ जोड़े खड़ी रहती थीं। और वहाँ अतीतों को गिर कहकर पुकारते थे—भैरोगिर, बिभासगिर, हिंडोलगिर, मेघनाथ, केदारनाथ, दीपक सेन, जोतोसरूप, सारङ्गरूप। और तो तिनें इस ढब से कहलाती थीं—गूजरी टोड़ी, असावरी, गौरी, मालसिरी, बिलावली। जब चाहता, अधर में सिंघासन पर बैठकर उदाए फिरता था और नब्बे लाख अतीत गुटके अपने मुँह में लिए, गेरुए बस्तर पहने, जटा बिखेरे उसके साथ होते थे। जिस घड़ी रानी केतकी के बाप की चिट्ठी एक बगला उसके घर तक पहुँचा देता है, गुरू महेंदर गिर एक चिग्घाड़ मारकर दल बादलों को ढलका देता है। वघंबर पर बैठे भभूत अपने मुँह से मल कुछ कुछ पढ़ंत

करता हुआ बाव के घोड़े की पीठ लगा और सब अतीत मृगछालों

पर बैठे हुए गुटके मुँह में लिए बोल उठे—गोरख जागा और मुछंदर भागा। एक आँख की झपक में यहाँ आ पहुँचता है जब दोनों महाराजों में लड़ाई हो रही थी। पहले तो एक काली आँधी आई; फिर ओले बरसे; फिर टिड्डी आई। किसी को अपनी सुधी न रही। राजा सूरजभान के जितने हाथी-घोड़े और जितने लोग और भीड़ भाड़ थी, कुछ न समझा कि क्या किधर गई और उन्हें कौन उठा ले गया। राजा जगतपरकास के लोगों पर और रानी केतकी के लोगों पर क्योड़े को बूँदों को नन्हीं-नन्हीं फुहारसी पड़ने लगी। जब यह सब कुछ हो चुका, तो गुरूजी ने अतीतियों ने कहा—"उदैभान, सूरजभान, लक्ष्मीबास इन तीनों को हिर हिरन बना के किसी बन में छोड़ दो; और उनके साथी ह उन सभों को तोड़ फोड़ दो: "जैसागुरूजी ने कहा, झटपट वह किया। बिपत का मारा कुँवर उभान और उसका बाप वह राज सूरजभान और उसकी माँलछमोबास हिरन हिरनी बन गए। हरी घास कई बरस तक चरते रहे; और उस भीड़ भाड़ का तो कुछ थल बेड़ा न मिला, किधर गए और कहाँ थे। बस यहाँ की यह रहने दो। फिर सुनों। अब रानी केतकी के बाप महाराजा जगत परकास की सुनिए। उनके घर का घर गुरूज़ी के पाँव पर गिराऔ सबने सिर झुकाकर कहा—"महाराज, यह आपने बड़ा काम किया। हम सबको रख लिया। जो आज आप न पहुँचते तो क्या रहा था। सब ने मर मिटने की ठान ली थी। इन पापियों से कुछ न चलेगी, यह जानते थे। राज-पाट हमारा अब निछावर करके जिसको चाहिए, दे डालिए; राज हम से नहीं थम सकता सूरजभान के हाथ से अपने बचाया। अब कोई उनका चर्चा चंद्रभान चढ़ आवेगा तो क्योंकर बचना होगा? अपने आप में तो सकत नहीं फिर ऐसे राज का फिट्टे मुँह कहाँ तक आपके सताया करें।" जोगी महेंदर गिर ने यह सुनकर कहा—"तुम हमारे बेटा बेटी हो, अनंदे करो, दनदनाओ, सुख चैन से रहो। अब। वह कौन है जो तुम्हें आँख भरकर और ढब से देख सके। वह बघंबर और यह भभूत हमने तुमको दिया। जो कुछ ऐसी गाढ़ पड़े तो इसमें से एक रौंगटा तोड़ आग में फूंक दीजियो। वह रोंगटा फुकने न पावेगा जो बात की बात में हम आ पहुँचेगे। रहा भभूत, सो इसलिये हैं जो कोई इसे अंजन करै, वह सबको देखे और उसे कोई न देखै, जो चाहै सो करै।"

लाना गुरूजी का राजा के घर

गुरु महेंदर गिर के पाँव पूजे और धनधन महाराज कहे। उनसे तो कुछ छिपाव न था। महाराज जगतपरकास उनको मुद्दल करते हुए अपनी रानियों के पास ले गए। सोने रूपे के फूल गोद भर-भर सबने निछाबर किए और माथे रगड़े। उन्होंने सबकी पोठें ठोंकी रानी केतकी ने भी गुरूजी को दंडवत की; पर जी में । बहुत सी गुरूजी को गालियाँ दीं। गुरूजी सात दिन सात रात यहाँ रह कर जगतपरकास को सिंघासन पर बैठाकर अपने बघंबर पर बैठ उसी डौल से कैलास पर आ धमके और राजा जगतपरकास अपने अगले ढब से राज करने लगा।

रानी केतकी का मदनवान के आगे रोना और पिछली बातों का ध्यान कर जान से हाथ धोना।

दोहरा

(अपनी बोली की धुन में)

रानी को बहुत सी बेकली थी।
कब सूझती कुछ बुरी भली थी॥


चुपके चुपके कराहती थी।
जीना अपना न चाहती थी॥
कहती थी कभी अरी मदनबान।
है आठ पर मुझे वही ध्यान॥
याँ प्यास किसे किसे भला भूख।
देखूँ वहीं फिर हरे-हरे रूख॥
टपके का डर है अब यह कहिए।
चाहत का घर है अब यह कहिए॥
अमराइयों में उनका वह उतरना।
और रात का साँय-साँय करना॥
और चुपके से उठके मेरा जाना।
और तेरा वह चाह का जताना॥
उनकी वह उतार अँगूठी लेनी।
और अपनी अँगूठी उनको देनी॥
आँखों में मेरे वह फिर रही है।
जी का जो रूप था वही है॥
क्यों कर उन्हें भूलूँ क्या करूँ मैं।
माँ-बाप से कब तक डरूँ मैं॥
अब मैंने सुना है ऐ मदनवान।
बन-बन के हिरन हुए उदयभान॥
चरते होंगे हरी हरी दूब।
कुछ तू भी पसीज सोच में डूब॥
मैं अपनी गई हूँ चौकड़ी भूल।
मत मुझको सुँघा यह डहडहे फूल॥
फूलों को उठाके यहाँ से लेजा।
सौ टुकड़े हुआ मेरा कलेजा॥


बिखरे जी को न कर इकट्ठा।
एक घास का ला के रख दे गट्ठा॥
हरियाली उसी की देख लूँ मैं।
कुछ और तो तुझको क्या कहूँ मैं॥
इन आँखों में है फड़क हिरन की।
पलकें हुई जैसे घास बन की॥
जब देखिए डबडबा रही हैं।
ओसे आँसू की छा रही हैं॥
यह बात जो जी में गड़ गई है।
एक ओस सी मुझ पै पड़ गई है॥

इसी डौल जब अकेली होती तो मदनबान के साथ ऐसे कुछ मोती पिरोती।


रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदनवान
का साथ देने से नाहीं करना और लेना उसी भभूत
का, जो गुरूजी दे गए थे, आँख मिचौवल
के बहाने अपनी माँ रानी
कामलता से।

एक रात रानी केतकी ने अपनी माँ रानी कामलता को भुलावे में डालकर यों कहा और पूछा—'गुरूजी गुसाई' महेंदर गिर ने जो भभूत मेरे बाप को दिया है, वह कहाँ रक्खा है और उससे क्या होता है?" रानी कामलता बोल उठी—"तेरे वारी, तू क्यों पूछती है।" रानी केतकी कहने लगी—"आँख मिचौबल खेलने के लिये चाहती हूँ। जब अपनी सहेलियों के साथ खेलूँ और चोर बनूँ तो

मुझको कोई पकड़ न सके।" महारानो ने कहा—"वह खेलने के

लिये नहीं है। ऐसे लटके किसी बुरे दिन के सँभालने को डाल रखते हैं। क्या जाने कोई घड़ी कैसी है, कैसी नहीं।" रानी केतकी अपनी माँ की इस बात पर अपना मुँह थुथा कर उठ गई और दिन भर खाना न खाया। महाराज ने जो बुलाया तो कहा मुझे रुच नहीं। तब रानी कामलता बोल उठी—"अजी तुमने सुना भो, बेटी तुम्हारी आँख मिचौबल खेलने के लिये वह भभूत गुरूजी का दिया माँगती थी। मैंने न दिया और कहा, लड़की यह लड़कपन की बातें अच्छी नहीं। किसी बुरे दिन के लिए गुरूजी दे गए हैं। इसी पर मुझ से रूठी है। बहुतेरा बहलाती हूँ, मानती नहीं।" महाराज ने कहा—"भभूत तो क्या, मुझे अपना जी भी उससे प्यारा नहीं। मुझे उसके एक पहर के बहल जाने पर एक जी तो क्या, जो करोर जी हों तोदे डालें।" रानी केतकी को डिबिया में से थोड़ा सा भूत दिया। कई दिन तलक आँख मिचौवल अपने माँ बाप के सामने सहेलियों के साथ खेलती सबको हँसाती रही, जो सौ सौ थाल मोतियों के निछावर हुआ किए, क्या कहूँ, एक चुहल थी जो कहिए तो करोड़ों पोथियों में ज्यों को त्यों न आ सके।


रानी केतकी का चाहत से बेकल होना और मदन-
वान का साथ देने से नाहीं करना।


एक रात रानी केतकी उसी ध्यान में मदनबान से यों बोल उठी— "अब मैं निगोड़ी लाज से कुट करती हूँ, तू मेरा साथ दे ।" मद- नबान ने कहा—क्यों कर? रानी केतकी ने वह भभूत का लेना उसे बताया और यह सुनाया—"यह सब आँख मिचौबल के भाई अप्पे मैंने इसी दिन के लिये कर रक्खे थे।" मदनवान बोली— "मेरा कलेजा थरथराने लगा। अरी यह माना जो तुम अपनी

आँखों में उस भभत का अंजन कर लोगी और मेरे भी लगा दोगी
तो हमें तुम्हें कोई न देखेगा और हम तुम सबको देखेंगी। पर ऐसी हम कहाँ जी चली हैं। जो बिन साथ, जोबन लिए, बन-बन में पड़ी भटका करे और हिरनों को लोगों पर दोनों हाथ डालकर लटका करें, और जिसके लिये यह सब कुछ है, सो वह कहाँ? और होय तो क्या जाने जो यह रानी केतकी है और यह मदनबान निगोड़ी नोची खसोटी उजड़ी उनकी सहेली है। चूल्हे और भाड़ में जाय यह चाहत जिसके लिए आपको माँ बाप का राज-पाट सुख नींद लाज छोड़कर नदियों के कछारों में फिरना पड़े, सो भी बेडौल। जो वह अपने रूप में होते तो भला थोड़ा बहुत आसरा था। ना जी यह तो हमसे न हो सकेगा। जो महाराज जगतपरकाल और महारानी कामलता का हम जान-बूझकर घर उजाड़े और इनको जो इकलौती लाडली बेटी है, उसको भगा ले जावें और जहाँ तहाँ उसे भटकावें और बनासपत्ती खिलावें और अपने चोंड़े को हिलायें। जब तुम्हारे और उसके माँ-बाप में लड़ाई हो रही थी और उनने उस मालिन के हाथ तुम्हें लिख भेजा था जो मुझे अपने पास बुला लो, महाराजों को आपस में लड़ने दो, जो होनी हो सो हो; हम तुम मिलके किसी देश को निकल चलें, उस दिन न समझीं। तब तो वह ताव भाव दिखाया। अब जो वह कुँवर उभान और उसके माँ-बाप तीनों जी हिरनी हिरन बन गए। क्या जाने किधर होंगे। उनके ध्यान पर इतनी कर वैठिए जो किसी ने तुम्हारे घराने में न की अच्छी नहीं। इस बात पर पानी डाल दो; नहीं तो बहुत पछताओगी और अपना किया पाओगी। मुझसे कुछ न हो सकेगा। तुम्हारी जो कुछ अच्छी बात होती, तो मेरे मुँह से जीते जी न निकलती। पर यह बात मेरे पेट में नहीं पच सकती। तुम अभी अल्हण हो। तुमने अभी कुछ देखा नहीं। जो ऐसी बात पर सचमुच ढलाव देखूँगी तो तुम्हारे

बाप से कहकर वह भभूत जो वह मुत्रा निगोड़ा भूत मुछंदर का पूत अवधूत दे गया है, हाथ सुरकवाकर छिनवा लूँगी।" रानी केतकी ने यह रुखाइयाँ मदनवान को सुनकर हँसकर टाल दिया और कहा—"जिसका जी हाथ में न हो, उसे ऐसी लाखों सूझती हैं; पर कहने और करने में बहुत सा फेर है। भला यह कोई अंधेर है जो माँ-बाप, राजपाट, लाज छोड़कर हिरन के पीछे दौड़ती करझाले मारती फिरूँ। पर घरी तू तो बड़ो बावली चिड़िया है जो यह बात सच जानी और मुझसे लड़ने लगी।"


रानी केतको का भभूत लगाकर बाहर निकल जाना
और सब छोटे बड़ों का तिलमिलाना

दस पंद्रह दिन पीछे एक दिन रानी केतकी बिन कहे मदनबान के वह भभूत आँखों में लगा के घर से बाहर निकल गई। कुछ कहने में आता नहीं, जो माँ-बाप पर हुई। सबने यह बात ठहराई, गुरूजी ने कुछ समझकर रानी केतकी को अपने पास बुला लिया होगा। महाराज जगतपरकास और महारानी कामलता राजपाट उस वियोग में छोड़-छाड़ के एक पहाड़ की चोटी पर जा बैठे और किसी को अपने लोगों में से राजथामने को छोड़ गए। बहुत दिनों पीछे एक दिन महारानी ने महाराज जगतपरकास से कहा— "रानी केतकी का कुछ भेद जानती होगी तो मदनबान जानती होगी। उसे बुलाकर तो पूछो।" महाराज ने उसे बुलाकर पूछा तो मदनधान ने सब बातें खोलियाँ। रानी केतकी के माँ-बाप ने कहा— "अरी मदनबान, जो तू भी उसके साथ होती तो हमारा जो भरता। अब जो वह तुझे ले जावे तो कुछ हचर पचर न कीजियो, उसके साथ हो लोजियो। जितना मभूत हैं, तू अपने पास रख।

हम कहाँ इस राख को चूल्हे में डालेंगे। गुरूजो ने तो दोनों राज

का खोज खोया—कुँवर उदैमान और उसके माँ-बाप दोनों अलग हो रहे। जगतपरकास और कामलता को यों तलपट किया। भगत न होती तो ये बातें काहे को सामने आतीं।" मदनवान भी उनके ढूँढने को निकली। अंजन लगाए हुए रानी केतकी रानी केतकी कहती हुई पड़ो फिरती थी। बहुत दिनों पीछे कहीं रानी केतकी भी हिरनों की दहाड़ों में उभान उदेभान चिघाड़ती हुई आ निकली। एक ने एक को ताड़कर पुकारा—"अपनी तनी आँखे धो डालो।" एक डबरे पर बैठकर दोनों की मुठभेड़ हुई। गले लग के ऐसी रोइयाँ जो पहाड़ों में कूक सी पड़ गई।

दोहरा

छा गई ठंडी साँस झाड़ों में।
पड़ गई कूक सी पहाड़ों में॥

दोनों जनियाँ एक अच्छी सी छाँव को ताड़कर आ बैठियाँ और अपनी अपनी दोहराने लगीं।

बातचीत रानी केतकी की मदनवान के साथ

रानी केतकी ने अपनी बीती सब कही और मदनवान वही अगला झोंकना झौंका की और उनके माँ-बाप ने जो उनके लिये जोग साधा था, जो वियोग लिया था, सब कहा। जब यह सब कुछ हो चुकी, तब फिर हँसने लगी। रानी केतको उसके हँसने पर रुककर कहने लगी—

दोहरा

हम नहीं हँसने से रुकते, जिसका जो चाहे हँसे।
है वही अपनी कहावत या फँसे जी आ फँसे॥
अब तो सारा अपने पीछे झगड़ा झाँटा लग गया।
पाँव का क्या ढूँढ़ती हो जी में काँटा लग गया॥


पर मदनबान से कुछ रानी केतकी के आँसू पुँछते चले । उन्ने यह बात कही—"जो तुम कहीं ठहरो तो मैं तुम्हारे उन उजड़े हुए माँ-बाप को ले आऊँ और उन्हीं से इस नात को ठहराऊँ। गोसाई महेंदर गिर जिसकी यह सब करतूत है, वह भी इन्हीं दोनों उजड़े हुओं की मुट्टी में है। अब भी जो मेरा कहा तुम्हारे ध्यान चढ़े, तो गए हुए दिन फिर सकते हैं। पर तुम्हारे कुछ भावे नहीं, हम क्या पड़ी बकती हैं। मैं इसपर बीड़ा उठाती हूँ।" बहुत दिनों पोछे रानी केतकी ने इसपर 'अच्छा' कहा और मदनबान को अपने माँ-बाप के पास भेजा और चिट्री अपने हाथों से लिख भेजी जो आप से हो सके, तो उस जोगी से ठहरा के आवें ।


मदनबान का महाराज और महारानी के पास फिर
आना और चितचाही बात सुनाना

मदनवानरानी केतकी को अकेला छोड़कर राजा जगतपरकास और रानी कामलता जिस पहाड़ पर बैठी थीं, झट से आदेश करके आ खड़ी हुई और कहने लगी—"लोजे आप राज कीजे, आपके घर नए सिर से बसा और अच्छे दिन आये। रानी केतकी का एक बाल भी बाँका नहीं हुआ। उन्हीं के हाथों की लिखी चिट्ठी लाई हूँ, आप पढ़ लीजिए। आगे जो जो चाहे सो कीजिए।" महाराज ने उस बघंबर में से एक रौंगटा तोड़कर आग पर रख के फूँक दिया। बात की बात में गोसाई महेंदर गिर आ पहुँचा और जो कुछ नया सवाँग जोगी-जोगिन का आया, आँखों देखा; सबको छाती लगाया और कहा—"बघंबर इसी लिये तो मै सौंप गया था कि जोतुम पर कुछ हो तो इसका एक बाल फूंक दीजियो। तुम्हारी यह गत हो गई। अब तक क्या कर रहे थे और किन नींदों

में सोते थे? पर तुम क्या करो यह खिलाड़ी जो रूप चाहे सो

दिखावे, जो नाच चाहे सो नचावै। भभूत लड़को को क्या देना था। हिरनी हिरन उदैमान और सूरजभान उसके बाप और लछमीबास उनकी माँ को मैंने किया था। फिर उन तोनों को जैसा का तैसा करना कोई बड़ी बात न थी। अच्छा, हुई सो हुई। अब उठ चलो, अपने राज पर बिराजो और ब्याह को ठाट करो। अब तुम अपनी बेटी को समेटो, कुँवर उदैमान को मैंने अपना बेटा किया और उसको लेके मैं ब्याहने चढ़ँगा।" महाराज यह सुनते ही अपनी गद्दी पर आ बैठे और उसो घड़ी यह कह दिया "सारी -ऋतों और कोठों को गोटे से मढ़ो और सोने और रूपे के सुनहरे रुपहरे सेहरे सब झाड़ पहाड़ों पर बाँध दो और पेड़ों में मोती की लड़ियाँ बाँध दो और कह दो, चालीस दिन रात तक जिस घर में नाच आठ पहर न रहेगा, उस घर वाले से मैं रूठ रहूँगा, और यह जानूँगा यह मेरे दुख सुख का साथी नहीं। और छः महीने कोई चलनेवाला कहीं न ठहरे। रात दिन चला जावे।" इस हेर फेर में वह राज था। सब कहीं यही डौल था।


जाना महाराज, महारानी और गुसाई महेंदर गिर
का रानी केतकी के लिये

फिर महाराज और महारानी और महेंदर गिर मदनबान के साथ जहाँ रानी केतकी चुपचाप सुन खींचे हुए बैठी हुई थी, चुप चुपाते वहाँ आान पहुँचे। गुरुजी ने रानी केतकी को अपने गोद में लेकर कुँवर उभान का चढ़ावा चढ़ा दिया और कहा—तुम अपने माँ बाप के साथ अपने घर सिधारो। अब मैं बेटे उभान को लिये हुये आता हूँ।" गुरूजो गोसाईं जिनको दंडौत है, सोतो वह सिधारते हैं। आगे जो होगो सो कहने में आवेगो—यहाँ पर

धूम धाम और फैज़ावा अब ध्यान कीजिये। महाराज जगतपर

कास ने अपने सारे देश में कह दिया—"यह पुकार दे जो यह न करेगा उसकी बुरी गत होवेगी। गाँव गाँव में अपने सामने छिपोले बना बना के सूहे कपड़े उनपर लगा के गोट धनुष की और गोखरू रुपहले सुनहरे की किरनें और डाँक टाँक टाँक रक्खो और जितने बड़ पीपल नए पुराने जहाँ जहाँ पर हों, उनके फूल के सेहरे बड़े बड़े ऐसे जिसमें सिर से लगा पैर तलक पहुँचे, बाँधो।

चौतुक्का

पौदों ने रँगा के सूहे जोड़े पहने। सच पाँव में डालियों ने तोड़े पहने॥
बूटे २ ने फूल फूल के गहने पहने। जो बहुत न थे तो थोड़े २ पहने॥

जितने डहडहे और हरियावल फल पात थे, सब ने अपने हाथ में चहचही मेंहदी को रचावट की सजावट के साथ जितनी समाबट में समा सके, कर लिये और जहाँ जहाँ नवल ब्याही दुलहिन नन्हीं नन्हीं फलियों की और सुहागिनें नई नई कलियों के जोड़े पँखुड़ियों के पहने हुए थीं। सब ने अपनी अपनी गोद सुहाग और प्यार के फूल और फलों से भरी और तीन बरस का पैसा सारे उस राजा के राज भर में जो लोग दिया करते थे, जिस ढब से हो सकता था खेती बारी करके, हल जोत के और कपड़ा लत्ता बेंचकर सो सब उनको छोड़ दिया और कहा जो अपने अपने घरों में बनाव की ठाट करें। और जितने राज भर में कुएँ थे, खँडसालों की खँड़साले उनमें उड़ेल गई और सारे बनों और पहाड़ तलियाँ में लाल पटों की कमझमाहट रातों को दिखाई देने लगी। और जितनी झोलें थीं उनमें कुसुम और टेलू और हरसिंगार पड़ गया और केसर भी थोड़ी थोड़ी घोले में आ गई। फुनगे से लगा जड़ तलक जितने झाड़खाड़ों में पत्ते और पत्ती बँधी थीं, उनपर रुपहरी सुनहरी डाँक गोंद लगाकर चिपका दिए और सभों को कह दिया जो सूही पगड़ी और बागे चिन कोई

किसी डौल किसी रूप से फिर चले नहीं। और जितने गवैये,

फिरे चले नहीं। और जितने गवैये, बजवैए, भाँड़-भगतिए रहसधारी और संगीत पर नाचनेवाले थे, सबको कह दिया जिस जिस गाँव में जहाँ जहाँ हाँ अपनी अपनी ठिकानों से निकलकर अच्छे अच्छे बिछौने बिठाकर गाते-नाचते, धूम मचाते कूदते रहा करें।


ढूँढ़ना गोहाई महेंदर गिर का कुँवर उदैभान और
उसके माँ बाप को, न पाना और बहुत तलमलाना

यहाँ की बात और चुहलें जो कुछ है, सो यहीं रहने दो। अब आगे यह सुनो। जोगी महेंदर और उसके ९० लाख जतियों ने सारे बन के बन छान मारे, पर कहीं कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप का ठिकाना न लगा। तब उन्होंने राजा इंदर को चिट्ठी लिख भेजी। उस चिट्ठी में यह लिखो हुआ था—'इन तीनों जनों को हिरनी हिरन कर डाला था। अब उनको ढूँढ़ता फिरता हूँ। कहीं नहीं मिलते और मेरी जितनी सकत थी, अपनी सी बहुत कर चुका हूँ। अब मेरे मुँह से निकला कुँवर उभान मेरा बेटा मैं उसका बाप और ससुराल में सब ब्याह का ठाट हो रहा है। अब मुझपर बिपत्ति गाढ़ी पड़ी जो तुमसे हो सके, करो।' राजा इंदर चिट्ठी को देखते ही गुरु महेंदर को देखने को सब इंद्रासन समेटकर आ पहुँचे और कहा—"जैसा आपका बेटा बैसा मेरा बेटा। आपके साथ मैं सारे इंद्रलोक को समेटकर कुँवर उभान को व्याहने चढूँगा।" गोसाई महेंदर गिर ने राजा इंद्र से कहा— "हमारी आपकी एक ही बात है, पर कुछ ऐसा सुझाइए जिससे कुँवर उदैभान हाथ आ जावे।" राजा इंदर ने कहा—"जितने

गवैए और गायनें हैं, उन सबको साथ लेकर, हम और आप सारे

बनों में फिरा करें। कहीं न कहीं ठिकाना लग जायगा।" गुरू ने कहा—अच्छा।


हिरन हिरनी का खेल बिगड़ना और कुँवर उदैमान
और उसके माँ-बाप का नए सिरे से रूप पकड़ना

एक रात राजा इंदर और सोसाई महेंदर गिर निखरी हुई चाँदनी में बैठे राग सुन रहे थे, करोड़ों हिरन राग के ध्यान में चौकड़ी भूल श्रास पास सर झुकाए खड़े थे। इसी में राजा इंदर ने कहा—"इन सब हिरनों पर पढ़कै मेरी सकत गुरु की भगत फुरे मंत्र ईश्वरोवाच पढ़के एक एक छींटा पानी का दो।" क्या जाने वह पानी कैसा था। छींटों के साथ हो कुँवर उदैभान और उसके माँ-बाप तीनों जने हिरनों का रूप छोड़कर जैसे थे वैसे हो गए। गोसाईं महेंदर गिर और राजा इंदर ने उन तीनों को गले लगाया और बड़ी आवभगत से अपने पास बैठाया अर वही पानी घड़ा अपने लोगों को देकर वहाँ भेजवाया जहाँ सिर मुड़वाते ही ओले पड़े थे।

राजा इंदर के लोगों ने जो पानी के छोंटे वही ईश्वरोवाच पढ़ के दिए तो जो मरे थे, सब उठ खड़े हुए; और जो अधमुए भाग बचे थे, सब सिमट आए। राजा इंदर और महेंदर गिर, कुँवर उदैमान और राजा सूरजभान और रानी लछमीबास को लेकर एक उड़न खटोले पर बैठकर बड़ो धूमधाम से उनको उनके राज पर बिठाकर ब्याह का ठाट करने लगे। पसेरियन हीरे मोती उन सब पर से निछावर हुए। राजा सूरजभान और कुँवर उदैभान और रानी लछमीबास चितचाही असीस पाकर फूली न समाई और अपने सारे राज को कह दिया—'जेंबर भौंरे के मुँह खोल

दो। जिस जिस को जो जो उकत सूझे, बोल दो। आज के दिन

का सा कौन सा दिन होगा। हमारी आँखों की पुतलियों का जिससे चैन हैं, उस लाडले इकलौते का ब्याह और हम तीनों का हिरनों के रूप से निकलकर फिर राज पर बैठना। पहले तो यह चाहिए जिन जिन को बेटियाँ बिन ब्याहियाँ हों, उन सब को उतना कर दो जो अपनी जिस चाव चोज से चाहें, अपनी गुड़ियाँ सँवार के उठावें; और तब तक जीती रहें, सबकी सब हमारे यहाँ से खाया पकाया रौंधा करें। और सब राज भर की बेटियाँ सदा सुहागिनें बनी रहें और सूहे राते छुट कभी कोई कुछ न पहना करें और सोने रूपे के केवाड़ गंगाजमुनी सब घरों में लग जाएँ और सब कोठों के माथे पर केसर और चंदन के टीके लगे हों। और जितने पहाड़ हमारे देश में हों, उतने ही पहाड़ सोने रूपे के आमने सामने खड़े हो जाएँ और सब डाँगों की चोटियाँ मोतियों की माँग से बिन माँगे ताँगे भर जाएँ; और फूलों के गहने और बँधनवार से सब झाड़ पहाड़ लदे फँदे रहें; और इस राज से लगा उस राज तक घर में छत सी बाँध दो और चप्पा चप्पा कहीं ऐसा न रहे जहाँ भीड़ भड़क्का धूम धड़क्का न हो जाय। फूल बहुत सारे बहा दो जो नदियाँ जैसे सचमुच फूल को बहियाँ हैं यह समझा जाय। और यह डौल कर दो, जिधर से दुल्हा को ब्याहने चढ़े सब लाड़ली और हीरे पन्ने पोखराज की उमड़ में इधर और उधर कवॅल को टट्टियाँ बन जायँ और क्यारियाँ सी हो जाय जिनके बीचो बीच से हो निकलें। और कोई डाँग और पहाड़ तली का चढ़ाव उतार ऐसा दिखाई न दे जिसकी गोद पंखुरियों से भरी हुई न हों।


राजा इंदर का कुँवर उभान का साथ करना
राजा इंदर ने कह दिया, वह रंडियाँ चुलबुलियाँ जो अपने

मद में उड़ चलियाँ हैं, उनसे कह दो-सोलहो सिंगार, बाल गूँध

मोती पिरो अपने अचरज और अचंभे के उड़न-खटोलों की इस राज से लेकर उस राज तक अधर में छत बाँध दो। कुछ इस रूप से उड़ चलो जो उड़न-खटोलियों को क्यारियाँ और फुलवारियाँ सैकड़ों कोस तक हो जायँ और अधर हो अधर मृदंग, बीन, जलतरंग, मुँहचंग, घुँघरू, तबले, घंटताल और सैकड़ों इस ढब के अनोखे बाजे बजते आएँ। और उन क्यारियों के बीच में हीरे, पुखराज, अनबेधे मोतियों के झाड़ और लाल पटों की भीड़-भाड़ की झमझमाहट दिखाई दे और इन्ही लाल पटों में से हथफूल, फुलझड़ियाँ, जाही, जुही, कदम, गेंदा, चमेली इस ढब से छूटने लगें जौ देखनेवालों को छातियों के किवाड़ खुल जायँ। और पटाखे जो उछल-उछल फटें, उनमें हँसती सुपारी और बोलती करौती ढल पड़े। और जब तुम सबको हँसी आवे, तो चाहिए उस हँसी से मोतियों की लड़ियाँ मड़े जो सबके सच उनको चुन चुनके राजे हो जायँ। डोमनियों के जो रूप में सारंगियाँ छेड़ छेड़ सोहलें गाओ। दोनों हाथ हिला के उगलियाँ नचाओ। जो किसी ने न सुनी हो, वह ताव-भाव, वह चाव दिखाओ; ठुड्डियाँ गिनगिनाओ नाक भँवेंतान तान भाव बताओ; कोई छुटकर न रह जाओ। ऐसा चाव लाखों बरस में होता है।" जो जो राजा इंदर ने अपने मुँह से निकाला था, आँख की भपक के साथ वही होने लगा। और जो कुछ उन दिनों महाराजों ने कह दिया था, सब कुछ उसी रूप से ठीक ठीक हो गया। जिस ब्याह की यह कुछ फैलावट और जमावट और रचावट ऊपर तले इस जमघट के साथ होगी, और कुछ फैलावा क्या कुछ होगा, यही ध्यान कर लो।

ठाटो करना गोसाईं महेंदर गिर का

जब कुँवर उदैभान को वे इस रूप से व्याहने चढ़े और वह

बाह्मन जो अँधेरी कोठरी में मुँदा हुआ था, उसको भी साथ ले

लिया और बहुत से हाथ जोड़े और कहा—बाझ नदेवता, हमारे कहने सुनने पर न जाओं। तुम्हारी जो रीत चली आई है, बताते चलो।

एक उड़न खटोले पर वह भी रीत बता के साथ हो लिया। राजा इंदर और गोसाईं महेंदर गिर ऐरावत हाथीं ही पर झूलते झालते देखते भालते चले जाते थे। राजा सूरजभान दूल्हा के घोड़े के साथ माला जपता हुआ पैदल था। इसो में एक सन्नाटा हुआ। सब घबरा गए। उस सन्नाटे में से जो वद ९० लाख अतीत थे, अब जोगी से बने हुए सब माले मोतियों को लड़ियों को गले में डाले हुए और गातियाँ उस ढुब की बाँधे हुए मिरिंगछालों और बघंबरों पर भा ठहर गए। लोगों के जियों में जितनी उमंगे छा रही थीं, वह चौगुनी पचगुनी हो गई। सुखपाल और चंडोल और रथों पर जितनी रानियाँ थीं; महारानी लछमीबास के पीछे चली आातियाँ थीं। सब को गुदगुदियाँ सी होने लगीं इसी में भरथरी का सर्वांग आया। कहीं जोगी जतियाँ आ खड़े हुए। कहीं कहीं गोरख जागे कहीं मुछंदरनाथ भागे। कहीं मच्छ कच्छ बराह संमुख हुए, कहीं परसुराम, कहीं बामन रूप, कहीं हरनाकुस और नरसिंह, कहीं राम लक्ष्मन सीता सामने आई, कहीं रावन और लंका का बखेड़ा सारे का सारा सामने दिखाई देने लगा। कहीं कन्हैया जी की जनम अष्टमी होना और बसुदेव का गोकुल ले जाना और उनका बढ़ चलना, गाएँ चरानी और मुरली बजानी और गोपियों से धूमें मचानो और राधिका रहस और कुब्जा का बस कर लेना, वही करील की कुंजे, बंसीवट, चीरघाट, वृंदावन, सेवाकुंज, बरसाने में रहना और कन्हैया से जो जो हुआ था, सब का सब ज्यों का त्यों आँखों में आना और

द्वारका जाना और वहाँ सोने का घर बनाना, इधर बिरिज को न

आना और सोलह सौ गोपियों का तलमलाना सामने आ गया । उन गोपियों में से ऊधो का हाथ पकड़कर एक गोपी के इस कहने ने सबको रुला दिया जो इस ढब से बोल के उनसे रुँधे हुए जी को खोले थी ।

चौचुक्का

जब छाँड़ि करील को कुंजन को हरि द्वारिका जीउ माँ जाय बसे।
कलधौत के धाम बनाए घने महाराजन के महराज भये।
तज मोर मुकुट अरु कामरिया कछु औरहि नाते जोड़ लिए।
धरे रूप नए किए नेह नए और गइया चरावन भूल गए।

अच्छापन घाटों का

कोई क्या कह सके, जितने घाट दोनों राज की नदियो में थे, पक्के चादी के थक से होकर लोगों को हक्का-बक्का कर रहे थे। निवाड़े भौलिए, बजरे, लचके, मोरपंखी, स्यामसुंदर, रामसुंदर और जितनी ढब की नावें थीं, सुनहरी रुपहरी, सज सजाई कसी कसाई और सौ सौ लचकें खातियाँ, आतियाँ, जातियाँ, ठहरातियाँ, फिरातियाँ थीं। उन सभी पर खचाखच कंचनियाँ, रामजनियाँ, डोमिनियाँ भरो हुई अपने अपने करतयों में नाचती गाती बजाती कूदतों फाँदती धमें मचातियाँ अँगड़ातियाँ जम्हातियाँ उँगलियाँ नचातियाँ और ढ़ुली पड़तियाँ थों और कोई नाव ऐसी न थी जो सोने रूपे के पत्तरों से मढ़ी हुई और सवारी से भरी हुई न हो। और बहुत सी नावों पर हिंडोले भी उसी डब के थे। उनपर गायनें बैठी मूलती हुई सोहनी, केदार, बागेसरी, काम्हड़ों में गा रही थीं। दल बादल ऐसे नेवाड़ों

सब झीलों में छा रहे थे।


आ पहुँचना कुँवर उदैमान का ब्याह के ठाट
के साथ दुल्हन की ड्योढ़ी पर

इस धूमधाम के साथ कुँवर उदैमान सेहरा बाँधे दूल्हन के घर तक आ पहुँचा और जो रीतें उनके घराने में चली आई थों, होने लगियाँ। मदनबान रानी केतकी से ठठोली करके बोली—"लीजिए, अब सुख समेटिए, भर भर झोली। सिर निहुराए, क्या बैठी हो, आओ न टुक हम तुम मिलके झरोखों से उन्हें झाँकें।" रानो केतकी ने कहा—'न री, ऐसी नीच बातें न कर। हमें ऐसो क्या पड़ी जो इस घड़ी ऐसी मेल कर रेल पेल ऐसी उठें और तेल फुलेल भरी हुई उनके झाँकने को जा खड़ी हों।" मदनवान उसकी इस रुखाई को उड़नझाई की बातों में डालकर बोली—

बोलचाल मदनवान की अपनी बोली के दोनों में
यों तो देखो वा छड़े जो वा छड़े जी वा छड़े।
हम से जो आने लगी हैं आप यो मुहरे कड़े॥
छान मारे बन के बन थे आपने जिनके लिये।
वह हिरन जोवन के मद में हैं बने दूल्हा खड़े॥
तुम न जाओ देखने को जो उन्हें क्या बात है।
ले चलेंगी आपको हम हैं इसी धुन पर अड़े॥
है कहावत जी को भावे और यो मुदिया हिले।
झाँकने के ध्यान में उनके हैं सब छोटे बड़े॥
साँस ठंडी भरके रानी केतकी बोली कि सच।
सब तो अच्छा कुछ हुआ पर अब बखेड़े में पड़े॥



वारी फेरी होना मदनबान का रानी केतकी पर
और उसकी बास सूँघना और उनींदे—
पन से ऊँघना

उस घड़ी मदनबान को रानी केतकी का बादले का जूड़ा और भीना भीनापन और अँखड़ियों का लजाना और बिखरा बिखरा जाना भला लग गया, तो रानो केतकी की वास सूँघने लगी और अपनी आँखों को ऐसा कर लिया जैसे कोई ऊँघने लगता है। सिर से लगा पाँव तक वारी फेरी होके तलवे सुह लाने लगी। तब रानी केतकी झट एक धीमी सी सिसकी लचके के साथ ले उठी। मदनबान बोली—"मेरे हाथ के दहोके से चही पाँव का छाला दुख गया होगा जो हिरनों को ढूँढ़ने में पड़ गया था।" इसो दुःख की चुटको से रानी केतकी ने मसोस कर कहा—"काँटा अड़ा तो अड़ा, छाला पड़ा तो पड़ा, पर निगोड़ी तू क्यों मेरी पनछाला हुई।"

सराहना रानी केतकी के जोबन का

केतकी का भला लगना लिखने पढ़ने से बाहर है। वह दोनों भँवों को खिंचावट और पुतलियों में लाज की समावट और नुकीली पलकों की रुँघायट हँसी की लगावट और दंतड़ियों में मिस्सी की ऊदाहट और इतनी सी बात पर रुकावट है। नाक और त्योरी का चढ़ा लेना, सहेलियों को गालियाँ देना और चल निकलना और हिरनों के रूप से करछालें मारकर परे उछलना कुछ कहने में नहीं आता।

सराहना कुँवर जी के जोबन का

कुँवर उदैभान के अच्छेपन का कुछ हाल लिखना किससे हो

सके। हाय रे उनके उभार के दिनों का सुहानापन, चाल ढाल का

अच्छन बच्छन, उठती हुई कोंपल की काली फवन और मुखड़े का गदराया हुआ जोबन जैसे बड़े तड़के धुँधले के हरे भरे पहाड़ों की गोद से सूरज की किरनें निकल आती हैं। यही रूप था। उनकी भींगो मसों से रस टपका पड़ता था। अपनी परछाई देखकर अकड़ता जहाँ जहाँ छाँव थी, उसका डौल ठीक ठीक उनके पाँव तले जैसे धूप थी।

दूल्हा का सिंहासन पर बैठना

दूल्हा उदैभान सिंहासन पर बैठा और इधर उधर राजा इंदर और जोगो महेंदर गिर जम गए और दूल्हा का बाप अपने बेटे के पीछे माला लिये कुछ गुनगुनाने लगा। और नाच लगा होने और अधर में जो उड़नखटोले राजा इंदर के अखाड़े के थे सब उसी रूप से छत बाँधे थिरका किए। दोनों महारानियाँ सम धिन बन के आपस में मिलियाँ चलियाँ और देखने दाखने को कोठों पर चंदन के किवाड़ों के आड़ तले आ बैठियाँ सर्वांग संगीत भँड़ताल रद्दस हँसी होने लगो। जितनी राग रागिनियाँ थीं, ईमन कल्यान, सुध कल्यान, झिंझोटी, कन्हाड़ा, खम्माच, सोहनी, परज, बिहाग, सोरठ, कालंगड़ा, भैरवी, गीत, ललित भैरो रूप पकड़े हुए सचमुच के जैसे गानेवाले होते हैं, उसी रूप में अपने अपने समय पर गाने लगे और गाने लगियाँ। उस नाच का जो ताव भाव रचावट के साथ हो, किसका मुँह जो कह सके जितने महाराजा जगतपरकास के सुखचैन के घर थे, माधो बिलास, रसधाम कृष्णनिवास, मच्छी भवन, चंद्र भवन सबके सब लप्पे लपेटे और सच्ची मोतियों को कालरें अपनी अपनी गाँठ में समेटे हुए एक भेस के साथ मतवालों के बैठनेवालों के मुँह चूम रहे थे।

बीचोबीच उन सब घरों के एक आरसी धाम बना था जिसकी

छत और किवाड़ और आँगन में आरसी छुट कहीं लकड़ी, ईंट, पत्थर की पुट एक उँगली के पोर बराबर न लगी थी। चाँदनी सा जोड़ा पहने तब रात घड़ी एक रह गई थी, तब रानी केतकी सी दूल्हन को उसी आरसी भवन में बैठाकर दूल्हा को बुला भेजा। कुँबर उदैमान कन्हैया सा बना हुआ सिर पर मुकुट धरे सेहरा बाधे उसी तड़ावे और जमघट के साथ चाँद सा मुखड़ा लिये जा पहुँचा जिस जिस ढब में बाह्मन और पंडित कहते गए और जो जो महाराजों में रीतें होतो चलो आईं थीं, उसी डौल से उसी रूप से भँवरी गँठ जोड़ा हो लिया।

अब उदैभान और रानी केतकी दोनों मिले।
आस के जो फूल कुम्हलाए हुए थे फिर खिले॥

चैन होता ही न था जिस एक को उस एक बिन।
रहने सहने सो लगे आपस में अपने रात दिन॥

ऐ खिलाड़ी यह बहुत सा कुछ नहीं थोड़ा हुआ।
आन कर आपस में जो दोनों का, गठजोड़ा हुआ॥

चाह के डूबे हुए ऐ मेरे दाता सब तिरें।
दिन फिरे जैसे इन्हों के वैसे दिन अपने फिरें॥

वह उड़नखटोलीवालियाँ जो अधर में छत सी बाँधे हुए थिरक रही थीं, भर भर झोलियाँ और मुट्ठियाँ हीरे और मोतियाँ से निछावर करने के लिये उतर आइयाँ और उड़नखटोले अधर में ज्यों के त्यों छत बाँधे हुए खड़े रहे। और वह दूल्हा दूल्हन पर से सात सात फेरे वारी फेरे होने में पिस गइयाँ। सभों को

एक चुपकी सी लग गई। राजा इंदर ने डूल्हन को मुँह दिखाई में

एक हीरे का एक डाल छपरखट और एक पेड़ी पुखराज की दी और एक परजात का पौधा जिसमें जो फल चाहो सो मिले, दूल्हा दूल्हन के सामने लगा दिया। और एक कामधेनु गाय की पठिया बछिया भी उसके पीछे बाँध दी और इक्कीस लौंडिया उन्हीं उड़नखटोलेवालियों में से चुनकर अच्छी से अच्छी सुथरी से सुथरी गावी बजातियाँ सीतियाँ पिरोतियाँ और सुघर से सुघर सौंपी और उन्हें कह दिया—"रानी केतकी छुट उनके दूल्हा से कुछ बात चीत न रखना, नहीं तो सत्र को सब पत्थर की मूरत हो जाओगी और अपना किया पाओगी।" और गोसाई महेंदर गिर ने बावन तोले पाख रत्ती जो उसकी इक्कीस चुटकी आगे रक्खी और कहा—"यह भी एक खेल है। जब चाहिए, बहुत सा ताँबा गलाके एक इतनी सी चुटको छोड़ दीजे; कंचन हो जायगा।" और जोगी जी ने सभों से यह कह दिया—"जो लोग उनके व्याह में जागे हैं, उनके घरों में चालीस दिन चालिस रात सोने को नदियों के रूप में मनि बरसे। जब तक जिएँ, किसी बात को फिर न तरसें।" ९ लाख ९९ गायें सोने रूपे की सिंगौरियों की, जड़ाऊ गहना पहने हुए, घुँघुरू छम छमातियाँ महंतों को दान हुई और सात बरस का पैसा सारे राज को छोड़ दिया गया। बाईस सौ हाथी औौ छत्तीस सौ ऊँट रुपयों के तोड़े लादे हुए लुटा दिए। कोई उस भीड़भाड़ में दोनों राज का रहने वाला ऐसा न रहा जिसको घोड़ा, जोड़ा, रुपयों का तोड़ा, जड़ाऊ कपड़ों के जोड़े न मिले हों। और मदनबान छुट दूल्हा दूल्हन के पास किसी का हियाव न था जो बिना बुलाये चली जोए। बिन बुलाए दौड़ी आए तो वही और हँसाए तो वही हँसाए। रानीकेतकी के छेड़ने के लिये उनके कुँवर उदैमान को कुँवर क्योड़ा जी कहके पुकारती थी और ऐसी बातों को

सौ सौ रूप से सँवारती थी।

दोहरा

घर बसा जिस रात उन्हों का तब मदनबान उस घड़ी।
कह गई दूल्हा दुल्हन से ऐसी सौ बातें कड़ी॥
जी लगाकर केवड़े से केतको का जी खिला।
सच है इन दोनों जियों को अब किसी की क्या पड़ी॥
क्या न आई लाज कुछ अपने पराए की अजी।
थी अभी उस बात की ऐसो भला क्या हड़बड़ी॥
मुसकरा के तब दुल्हन ने अपने घूँघट से कहा।
मोगरा सा हो कोई खोले जो तेरी गुलबड़ी॥
जी में आता है तेरे होठों को मलवा लूँ अभी।
बल वे ऐ रंडी तेरे दाँतों की मिस्सी की धड़ी॥

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