राजा भोज का स्वप्न  (1905) 
द्वारा सी. एम. टकर, अनुवादक राजा शिव प्रसाद 'सितारे हिंद'
[ मुखपृष्ठ ]
 

राजा भोज का स्वप्ना
RAJA'S DREAM

By

Miss. C. M. Tucker.
Translated

By

RAZA SIVA PRASADA,

C.S.IN

For

H. C. Tucker, Esquire, B. C. S.

राजा शिवप्रसाद (सितारैहिन्द) ने बनाया॥
——:०:——

 

लखनऊ
मुंशी नवलकिशोर (सी, आई, ई) के छापेखाने में छपा
जौलाई सन् १९०५ई॰

1905.
कापीराइट महफूज़ है बहक़ इस छापेखाने के

[ चित्र ]
 
[  ] 

राजाभोजका स्वप्ना॥

वह कौनसा मनुष्य है जिसने महा प्रतापी राजा महाराज भोजका नाम न सुनाहो उसकी महिमा और कीर्ति तो सारे जगत् में ब्याप रही है बड़े बड़े महिपाल उसका नाम सुनतेही काँप उठते थे और बड़े बड़े भूपति उसके पाँव में अपना शिर नवाते सेना उसकी समुद्र की तरंगों का नमूना और खजाना उसका सोने चांदी और रत्नों की खान से भी दूना द्वार में राजा करणको लोगों के जी से भुला दिया था और न्याय में विक्रम को भी शर्मा लिया था कोई उसके राज भर में भूखा न सोता और न कोई उघाड़ा रहने पाता जो सत्तू मांगने आता उसे मोतीचूर मिलता और जो गजी चाहता उसे मलमल दियाजाता पैसे की जगह लोगों को अशरफ़ियाँ बाँटता और मेहकी तरह फ़कीरों पर मोती बरसाता एक एक श्लोक के [  ]लिये ब्राह्मणों को लाख लाख रुपया उठा देता और एक-एक दिनमें लाख लाख गोदान ढे डालता सवालक्ष ब्राह्मणों को षट्रस भोजन करा के तब आप खाने को बैठता तीर्थ यात्रा स्नान दान और व्रत उपवास में सदा तत्पर रहता बड़े बड़े चांद्रायण कियेथे और बड़े बड़े जूते गल पहाड़ छान डाले थे एक दिन शरद् ऋतु में संध्याके समय सुंदर फुलवाड़ीके बीच स्वच्छ पानीके कुंडके तीर जिसमें कुमुद और कमलों के दरमियान जलपक्षी कलोलैं कररहे थे रत्न जटित सिंहासन पर कोमल तकिये के सहारेसे स्वस्थ चित्त बैठा हुआ.महलों की सुनहरी कलशियां लगी हुई संगमरमर की गुमजियों के पीछे से उदय होता हुआ पूर्णिमा का चांद देख रहा था और निर्जन एकान्त होनेके कारण मनही मन में शोचता कि अहो मैंने अपने कुल को ऐसा प्रकाश किया जैसे सूर्य से इन कमलों का विकास होता है क्या मनुष्य और क्या जीव जन्तु मैंने अपना साराजन्म इन्हीं के भला करने में गवाया और व्रत उपासं करते २ [  ]अपने फूल से शरीर को कांटा बना दिया जितना मैंने दान दिया उतना तो कभी किसी के ध्यान में भी न आया होगा जिन जिन तीर्थों की मैंने यात्रा की वहां कभी परंदे ने पर भी न मारा होगा मुझ से बढ़कर अब इस संसार में और कौन पुण्यात्मा है और आगे भी कौन हुआ होगा जो मैं ही कृतकार्य नहीं तो फिर और कौन होसक्ता है मुझे अपने ईश्वर पर दावा है वह मुझे अवश्य, अच्छी गति देवैगा ऐसा कब होसक्ता है कि मुझे भी कुछ दोष लगेगा इसी अर्से में चोबदार पुकारा चौधरी इन्द्रदत्त निगाह रूबरू श्रीमहाराज सलामत भोजने आंख उठाई दीवानने साष्टांग दण्डवत् की फिर मम्मुख आ हाथ जोड़ यों निवेदन किया पृथ्वीनाथ वह इंदारा सड़क पर जिसके बास्ते आपने हुक्म दिया था बनकर तैयार होगया और वहां वह आमका बाग भी लग गया जो पानी पीता है आपको अशीश देताहै और जो उन पेड़ोंकी छाया में विश्राम करता है आपकी बढ़ती दौलत मनाता है राजा अति [  ]प्रसन्न हुआ और कहा कि सुन मेरी अमलदारी भर में जहां जहां सड़कहै कोस कोस पर कूए खुदवाके सदावर्त बैठादे और दुतर्फा पेड़ भी जल्द लगवादे इसी अर्से में दानाध्यक्ष ने आकर आशीर्वाद दिया और निवेदन किया कि धर्मावतार वह जो पाँच हजार ब्राह्मण हरसाल जाड़ों में रजाई पाते हैं सो डेवढ़ी पर हाजिर हैं राजाने कहा अक पाँच के बदले पचास हजार को मिलाकरे और रजाई की जगह शाल दुशाली दिया जावे दानाध्यक्ष दुशालों के लाने के वास्ते तोशेरखाने में गया इमारत के दारोगा ने आकर मुजरा किया और खबर दी कि महाराज वह बड़ा मन्दिर जिसके जल्द बना देने के वास्ते सौर से हुक्म हुआ है आज उसकी नेव खुदगई पत्थर गढ़े जाते हैं और लुहार लोहा भी तैयार कर रहे हैं महाराज ने तिउरियां बदल कर उस दरोगा को खूब घुरका और कहा कि मुर्ख वहां पत्थर और लोहे का क्या काम है बिलकुल मन्दिर संगमरमर और सङ्गमूसासे बनायाजावे [  ]और लोहेके बदल उसमें सब जगह सोना काम मैं आवे जिसमें भगवान् भी उसे देखकर प्रसन्न होजावे और मेरा नाम इस संसार में अतुल कीर्ति पाचे यह सुनकर सारा दरबार पुकार उठा कि धन्य महाराज धन्य क्यों न हो जब ऐसे हो तब तो ऐसे हो आपने इस कलिकाल को सत्ययुग बना दिया मानो धर्म का उद्धार करने को इस जगत् में अवतार लिया आज आपसे बढ़कर और दूसरा कौन ईश्वरका प्यारा है हमने तो पहलेही से आपको साक्षात् धर्मराज विचारा है व्यासजी ने कथा प्रारम्भ की कथा के पीछे देर तक भजन कीर्तन होता रहा इसमें चांद शिरपर चढ़आया घड़ियाली ने निवेदन किया कि महाराज रात आधी के निकट पहुँची राजाकी आँखों में नींद छारही थी व्यासजी कथा कहते थे पर राजाको ऊँघ आतीथी उठकर रनवास में गया जड़ाऊ पलंग और फूलों की सेज पर सोया रानियाँ पैर दाबने लगीं राजा जी की आँख झपक गई स्वप्न में क्या देखता है कि वह बड़ा संगमरमर, [  ]का मन्दिर बनकर बिलकुल तैयार होगया जहां कहीं उसपर नक्काशी का काम किया है तो बारीकी में हाथीदाँत को भी मात कर दिया है जहाँ कहीं पच्चीकारी का हुनर दिखलाया है तो जवाहिरों को पत्थरों में जड़कर तसवीर का नमूना बनादिया है कहीं लालों-के गुल्लालों पर नीलम की बुलबुलें बैठी हैं और ओसकी जगह हीरों के लोलक लटकाये हैं कहीं पुखराजों की डंडियों से पन्ने के पत्ते निकाल कर मोतियों के भुट्टे लगाए हैं सोने की चोवों पर कमखाब के शामियाने और उनके नीचे बिल्लौर के हौजों में गुलाब और केवड़े के फुहारे छूट रहे हैं मानों धूप जलरह। है सैकड़ों कपूरके दीपक बलरहे हैं राजा देखलेही मारे घमण्ड के फूल कर भशक बन गया कभी नीचे कभी ऊपर कभी दहने कभी बायें निगाह करता और मन में शोचता कि क्या अब इतने पर भी मुझे कोई स्वर्ग में घुसने से रोकेगा या पवित्र पुण्यात्मा न कहेगा मुझें अपने कर्मोंका भरोसा है दूसरे किसी से क्या काम [  ]पड़ेगा इसी अर्सेमें वह राजा उस स्वप्नेके मन्दिरमें खड़ा २ क्या देखता है कि एक जोतसी उसके साम्हने आस्मान से उतरी चली आती, है उसका प्रकाश तो हज़ारों सूर्य से भी अधिक है परन्तु जैसे सूर्य्यको बादल घेर लेता है इस प्रकार उसने अपने मुहँपर एक नकाब डाल लिया है नहीं तो राजाकी आँखें कब उसपर ठहर सकती थीं बस्न इस नकाब पर भी मारे चकाचौंध के झपकी चली जाती थीं राजा उसे देखतेही काँप उठा और लड़खड़ाती सी जबान से बोला कि हे महाराज आप कौन हैं और मेरे पास किस प्रयोज़न से आये हैं उस देवी पुरुषने बादल की गरजके समान गंभीर उत्तर दिया कि मैं सत्य हूं मैं अंधों की आँखें खोलताहूं मैं उनके आगे से धोखेकी टही हटाता हूं मैं मृगतृष्णा के भटके हुओं का भ्रम मिटाता हूं और स्वप्ने के भूले हुओंको नींदसे जगाता हूं हे भोज यदि कुछ हिम्मत रखता है तो आ हमारे साथ आ और हमारे तेजके प्रभाव से मनुष्यों के मन के मन्दिरों का भेद ले [  ]इस समय हम तेरेही मनको जांच रहेहैं राजा के जीपर एक अजब दहशत सी छागई नीची निगाहें करके गरदन खुजाने लगा सत्यबोला भोज तू डरताहै तुझे अपने मनका हाल जानने में भी भय लगताहै भोजने कहा कि नहीं इस बातसे तो नहीं डरता क्योंकि जिसने अपने को नहीं जाना उसने फिर क्या जाना सिवाय इस के मैं तो आप चाहता हूं कि कोई मेरे मनकी थाह लेवे और अच्छी तरह से जाँचे मारे व्रत, और उपवासों के मैंने अपना फूलसा शरीर कांटा बनादिया ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देते २ सारा खजाना खाली करडाला कोई तीर्थ बाक़ी न रक्खा कोई नदी या तालाब नहाने से न छोड़ा ऐसा कोई आदमी नहीं है जिसकी निगाह में मैं पवित्र पुण्यात्मा न ठहरूं सत्य बोला ठीक पर भोज यह तो बतला कि तू ईश्वर की निगाह में क्या है क्या हवामें बिना धूप तसरेणु कभी दिखलाई देते हैं पर सूर्य्य को किरन पड़तेही कैसे अनगिनत चमकने लग जाते हैं क्या कपड़े में छाने हुए पानी के [  ]दरमियान किसी को कीड़े मालूम पड़ते हैं पर जब उस शीशे को लगाकर देखो जिससे छोटी चीज़ बड़ी नज़र आती है तो एक एक बूंद में हज़ारोही जीव सूझने लग जाते हैं पस जो तू उस बातके जानने से जिसे अवश्य जानना चाहिये डरतानहीं ती आ मेरे साथ आ मैं तेरी आंखें खोलूंगा निदान सत्य यह कह के राजा को मन्दिर के उस बड़े ऊँचे दरवाजे पर चढ़ा ले-गया कि जहाँ से सारा बाग दिखलाई देता था और फिर वह उससे यों कहने लगा कि भोज मैं अभी तेरे पाप कर्मों का कुछ भी जिकर नहीं करता क्योंकि तुने अपने को निरा निपाप समझ रक्खा है पर यह तो बतला कि तूने पुण्य स कौन कौन से किये हैं कि उनसे सर्वशक्तिमान जगदीश्वर संतुष्ट होगातो मैं भी सब लोगोंकी तरह निस्संदेह तेरी प्रशंसा करूं राजा यह सुनके अत्यन्त प्रसन्न हुआ यह तो मानों उसके मनकी बात थी पुण्य कर्मके नाम ने उसके चित्तको कमलसा खिला दिया उसे निश्चय था कि पापतो मैंने चाहे किया हो चाहे [ १० ]न किया हो पर पुण्य मैंने इतन किया है कि भोससे भारीपापी भी उसके पासिंगे में ना ठहरेगा राजा को वहां उस समय स्वप्न में सोम पेड़ बड़े ऊँच २ अपनी आँख के साम्हने मंदिवलाई दियेज्ञपालोस इंसना लदे हुयेकि मारे झकाउनकी टहनियाँ धरती सक का गई धीराजा उन्हें देिखतेही हरा होगा और बोला कि संस्थं यह ईश्वर की मिति जीवों की दया अर्थात्ई श्वर और मनुदोनों की नीति के पैड हैं। दिख फलोकबोलाले धरती पर नये जाले हैं यहक्षप्रतीनी मेरही लगाये हि पहला मैं गतो वह सब लालरीपाल मेरेदानसे लगे है और दूसरे मैंग्रहक्पी ले पालो मिरे न्यायसे और तीसरे में यह सब सफेदफिल मेरे सपेका प्रभाव दिखलातेहैमानों डिस समय चारों ओरसे यहध्वनि राजाक कान में चली आती थी किधिन्यहो महाराज अन्य होघाज तुमसा पुण्यात्मा दूसरा कोई नहीं समसाक्षात् धर्म का अवतीराहो इसलीकामेंक्ष मी सुमनै बड़ा पद छाया हो धौर उस लोका भी तो इससे अधिकमिलेगा तुमा मनुष्य और [ ११ ]ईश्वर दोनों की आँखों में निर्दोष और निष्पाप हो सूर्य के सपहलमें लोग कलंक बतलाते हैं पर तुम्हें एक छीटा भी नहीं लगाते सत्य बोला कि भोज जल में इन पेड़ों के पाससे आया था जिन्हें तू ईश्वर की भक्ति और जीवों की दया के बुलकाता है। ता तो उनमें फूल कुछ भी नहीं था निरें ठूंठसे खड़े थे यहालाल पीले और सफेद फल किहां से आमये यहासचमुच उन पेडों में फायलों हैं ज्या तुझे कुससने और खुश करते कि किसी के उनकी टहनियों से उस्का दिये हैं जपली जन पेड़ों के पास कुलकर देखें तो सही मेरे सिम में तो यह लाल लाल मला जिन्हें तु अअनादानके वभावसेसमें बतलाताहै अश और मीलिमल्लाने की चाह अर्थात प्रशंसा पाने की बान्यानोइस फ्रेडसे लगाये है निवान ज्योही सत्य नि उसाजूके छने को हाफ बड़ाया मजा संवाने मैं क्या रखना है कि वह सारे मला जैसे समान से ओले गिरते हैं एक आतकी आन में बिरसी पर किएपले धरती किलकल लाल होगई पर पेड़ों पर सिवाय पत्तों को और कुंछन रहा [ १२ ]सत्य ने कहा कि राजा जैसे कोई किसी चीज़ को मोमसे चिपकाता है उसी तरह तू ने अपने भुलाने को प्रशंसा पाने की इच्छा से यह फल इस पेड़ पर लगा लिये थे सत्य के तेज से वह मोम गलगया पेड़ ठूंठे का ठूंठा रह गया जो कुछ तू ने दिया और किया सर्व दुनिया के दिखलाने और मनुष्यों से प्रशंसा पाने के लिये केवल ईश्वर की भक्ति और जीवों की दया से तो कुछ नहीं दिया यदि कुछ दिया हो या कियाहो तो तूही क्यों नहीं बतलाता मूर्ख इसी के भरोसे परत फूलाहुआ स्वर्गमें जाने को तैयार हुआ था भोज ने एक ठंढी श्वास ली उसने तो औरों को भुलाया था पर वह सब से अधिक भूला हुआ निकला सत्यने उस पेड़की तरफ़ हाथ बढ़ाया जो सोने की तरह चमकते पीले पीले फलों से लदाहुआ था सत्यका हाथ पास आते ही इसका भी वही हाल होगया जो पहले का हुआ था सत्य बोला कि राजा इस पेड़ में ये फल तूने अपने भुलाने को स्वार्थ सुधारनेकी इच्छासे लगा लिये थे कहने वाले ने ठीक [ १३ ]कहा है कि मनुष्य मनुष्य के कर्मों से उसके मनकी भावनाका विचार करता है और ईश्वर मनुष्य के मन की भावना के अनुसार उसके कर्मोका हिसाब लेताहै तू अच्छी तरह जानता है कि यही न्याय तेरे राज्य की जड़ है जो न्याय न करे तो फिर यह राज्य तेरे हाथ में क्यों कर रहसके जिस राज्य में न्याय नहीं वह तो बेनेव का घर है बुढ़िया के दाँतों की तरह हिलता रहता है अब गिरा तब गिरा मूर्खतूही क्यों नहीं बतलाता कि यह तेरा न्याय स्वार्थ सुधारने और सांसारिक सुखपानेकी इच्छा से है अथवा ईश्वर की भक्ति और जीवों की दया से भोज के माथे पर पसीना हो आया आखें नीची कर ली जवाब कुछ न बन पड़ा तीसरे पेड़ की पारी आई सत्यका हाथ लगतेही उसकी भी वही हालत हुई राजा अत्यन्त लजित हुआ सत्य ने कहा कि मूर्ख यह तेरे तप के फल कदापि नहीं इनको तो इस पेड़ पर तेरे अहंकारने लगा रक्खाथा वह कौन सा ब्रत वा तीर्थयात्रा है जो तूने निरहंकार [ १४ ]केवल ईश्वर की भक्ति और जीवों की दया से किया हो तूने यह तप इसी वास्ते किया कि जिस में तू अपने को औरों से अच्छा और बढ़के बिचारे ऐसेही तप पर गोबर गनेश तू स्वर्ग मिलनेकी उम्मेद रखता है पर यहती बतला कि मन्दिरकी उन मुड़ेरों पर वे जानवर से क्या दिखलाई देते हैं कैसेसुन्दर और प्यारे मालूम होते हैं पर तोउनके पन्नेके हैं और गरदने फ़ीरोज़ की लेकि़न दुममें तो सारे किस्मके जवाहिर जड़ दिये हैं राजा के जीमें घमंड की चिड़ियाने फिर फुर फुरीली मानों बुझते हुये दीयेकी तरह जग जगा उठा जल्दी जवाब दिया कि हे सत्य यह जो कुछ न मन्दिर की मुँडेरों पर देखताहै मेरे संध्याबंदन का प्रभावहै मैंने जो रातों जाग २ कर और माथा रगड़ते २ इस मंदिर की दिहली को घिसाकर ईश्वर की स्तुति बन्दना और बिनती प्रार्थना की है वही अब चिड़ियों की तरह पंख फैला कर आकाश को जाती हैं मानों ईश्वर के सामने पहुँचकर अब मुझे स्वर्ग का राजा बनाती हैं [ १५ ]सत्यने कहा कि राजा दीनबन्धु करुणासागर श्रीजगन्नाथ जगदीश्वर अपने भक्तों की बिमती सदा सुनता रहता है औ जो मनुष्य शुद्ध हृदय और निष्कपट होकर नम्रता और श्रद्धा के साथ अपने दुष्कर्मों का पश्चात्तापं अथवा उनके क्षमा होनेका टुक भी निवेदन करता है ग्रह उसका निवेदन उसी दम सूर्य चांद को बेधंकर पार होजाता है फिर क्या कारण कि यह सब अब तक मंदिर की मुड़ेरही पर बैठे रहे। आचल देखें तो सही हम, लोगों के पास जाने पर आकाशको उड़जाते, यां उसी जगह पर पिरकट कबूतरों की तरह फड़ फड़ाया करते हैं भोज डरा लेकिन सत्य का साथ न छोड़ा जब मुड़ेर पुर पहुंचा तो क्या देखता है कि बह सारे जानवर जो दूरसे ऐसे सुंदर दिखलाई देते थे मरेहुये पड़े हैं पंख नुचे खुचे और बहुतेरे बिल्कुल सहये। यहां तक कि मारे बदबू के राजा का शिर भिन्ना उठा दो एकने जिन में कुछ दम बाक़ी था जो उड़ने का इरादा भी किया तो उनका पंख पारेकी तरह भारी हो [ १६ ]गया और उन्हें उसी ठौर दबा रक्खा तड़फा जरूर किये पर उड़ने जरा भी न दिया सत्य बोला भोज बस यही तेरे पुण्य कर्म्म हैं इन्हीं स्तुति बंदना औ बिनती प्रार्थना के भरोसे पर त स्वर्ग में जाया चाहता है सूरत तो इनकी बहुत अच्छी है पर जान बिल्कुल नहीं तूने जो कुछ किया केवल लोगों के दिखलाने को जीसे कुछ भी नहीं जो तू एक बार भी जीं से पुकारा होता कि दीनबन्धु दीनानाथ दीनहितकारी मुझ पापी महा अपराधी डूबते हुये को बचा और कृपादृष्टि कर कर तो वह तेरी पुकार तीरकी तरह तारों से पार पहुँची होती राजा ने शिर नीचा कर लिया उत्तर कुछ न बन आया सत्यने कहा कि भोज अब या फिर इस मंदिर के अंदर चलें और वहां तेरे मनके मन्दिर को जांचें यद्यपि मनुष्य के मनके मंदिर में ऐसे ऐसे अँधेरे तहखाने और तलघरे पड़े हुये हैं कि उनको सिवाय सर्वदशी घट घट अंतर्यामी सकल जगत् स्वामीके और कोई भी नहीं देख अथवा जांच सक्ता तौ भी तेरा [ १७ ]परिश्रम व्यर्थ न जावेगा राजा उस सत्य के पीछे खिंचा खिंचा फिर मन्दिर के अन्दर घुसा पर अब तो उसका हालही कुछ से कुछ होगयो सच मुच स्वप्ने का खेलसा दिखलाई दिया चाँदी की सारी चमक जाती रही सोने की बिल्कुल दमक उड़गई दोनों में लोहे की तरह मोर्चा लगा हुआ और जहाँ जहाँ से मुलम्मा उड़गया था भीतर का चूना और ईट कैसा बुरा दिखलाई देता था जवाहिरों की जगह केवल काले काम दाग रह गयेथे और संगमर्मर की चट्टानों में हाथ हाथ भर गहरे गढ़े पड़गयेथे॥ राजा यह देखकर भैचक सा रह गया औसान जाते रहे हक्का बक्का बन गया धीमी आवाज से पूछा कि यह टिड्डी दल की तरह इतने दाग इस मन्दिर में कहाँ से आये जिधर मैं निगाह उठाताहूं सिवाय काले काले दागों के और कुछ भी नहीं दिखलाई देता ऐसा तो छीपी छीट को भी नहीं छापेगा और न शीतला से बिगड़ा हुआ किसी का मुखड़ा देख पड़ेगा। [ १८ ]

सत्य बोला कि राजा ये दाग जो तुझे इस मन्दिर में दिखलाई देते हैं वे दुर्बचन हैं जो दिनरात में सैकड़ों बार तेरे मुख से निकले याद तो कर तेरे क्रोध में आकर कैसी कड़ी कड़ी बातें लोगों को सुनाई हैं क्या खेलमें और क्या अपना अथवा दूसरे का चित्त प्रसन्न करने को क्या रुपया बचाने अथवा अधिक लाभ पाने को और क्या दूसरे का देश अपने हाथ में लाने अथवा किसी बराबर वाले से अपना मतलब निकालने और दुश्मनोंको नीचा दिखानेके लिये कितने झूठ बोला है अपने ऐब छिपाने और दूसरे की आंखों में अच्छा मालूम होने अथवा झूठी तारीफ़ पाने के वास्ते कैसी कैसी शेख़ियाँ हाँ की हैं और किस किस तरह की लन्तरानियाँ मारी हैं अपने को औरों से अच्छा और औरोंको अपने से बुरा दिखलाने को कहांतक बातें बनाई हैं तुझे तो अब कुछ भी याद न रहा बिल्कुल एकबारगी भुलादिया पर वहाँ वह तेरे मुहँ से निकलतेही बही में दर्ज होगया तू इन दाग़ों के गिनने में असमर्थ [ १९ ]है पर उस घट घट निवासी अनन्त अविनासी को एक एक बात जो तरे मुहँ से निकली है याद है और याद रहेगी उसके निकट भूत और भविष्य दोनों वर्तमान सा है॥ भोजने शिर न उठाया पर उसी दबी जबान से इतना मुहँसे और निकाला कि दाग तो दागं पर ये हाथ २ भरके गढ़े क्यों कर पड़ गये और सोने चांदी में मोर्चा. लगकर ये मसाले कहां से दिखलाई देने लगे॥ सत्यने कहा कि राजा क्या तने कभी किसी को कोई लगती हुई बात नहीं कही अथवा बोली ठोली नहीं मारी अरे नादाम यह बोली ठोली तो गोली से अधिक काम कर जाती हैं तंतो इन गढ़ोंही को देख कर रोताहै पर तेरे ताने तिसने तो बहुतों की छातियोंसे पार होगये जब अहंकारका मोर्चा लगा तो फिर यह दिखलावे का मुलम्मा कब तक ठहर सक्ताहै स्वार्थ और अश्रद्धा का ईंट चना प्रकट हो पाया राजा को इस अर्से में चिमगादड़ोंने बहुत तंग कर रखा था मारेबके सिर फंटा जाता था भनगे और फतंगों से [ २० ]सारा मकान भरगया था बीच बीच में पंखवाले सांप और बिच्छू भी दिखलाई देते थे राजा घबराकर चिल्लाउठा कि यह मैं किस आफ़त में पड़ा इन कमबख्तों को यहां किसने आने दिया सत्य बोला राजा सिवाय तेरे इनको यहाँ और कौन आने देवेगा तूही तो इन सबको लायाहै यह सब तेरे मनकी बुरी बासना है तने समझा था कि जैसे समुद्र में लहरें उठा और मिटा करती हैं उसीतरह मनुष्यके मनमें भी संकल्पकी मौजें उठकर मिट जाती हैं पर रे मढ़ याद रख कि आदमी के चित्त में ऐसा सोच विचार कोई नहीं आता जो जगत्कर्ता प्राणदाता परमेश्वर के सामने प्रत्यक्ष नहीं होजाता यह चिमगादड़ और भनगे और सांप बिच्छू और कीड़े मकोड़े जो तुझे दिखलाई देते हैं वे सब काम क्रोध मोह लोभ मत्सर अभिमान मद ईर्षा के संकल्प विकल्प हैं जो दिन रात तेरे अन्तःकरण में उठाकिये और इन्हीं चिमगादड़ और भनगे और सांप बिच्छू और कीड़े मकोड़ों की तरह तेरे हृदय के आकाश [ २१ ]में उड़ते रहे क्या कभी तेरे जी में किसी राजा की ओरसे कुछ द्वेष नहीं रहा या उसके मुल्कमाल पर लोभ नहीं आया या अपनी बड़ाई का अभिमान नहीं हुआ या दूसरे की सुन्दर स्त्री देखकर उस पर दिल न चला राजा ने एक बड़ी लम्बी ठंडी साँस ली और अत्यन्त निराश होके यह बात कही कि इस संसार में ऐसा कोई मनुष्य नहीं है जो कहसके कि मेरों हृदय शुद्ध और मनमें कुछ भी पाप नहीं इस संसार में निष्पाप रहना बड़ा कठिन है जो पुण्य करना चाहतेहैं उस में भी पाप निकल आता है इस संसार में पार से रहित कोई भी महीं ईश्वर के सामने पवित्र पुण्यात्मा कोई भी नहीं सारा मन्दिर बरन सारा धरती और आकाश गूंज उठा कोई भी नहीं कोई भी नहीं। सत्यने जो आँख उठाकर उस मन्दिर की एक दीवार की तरफ़ देखा तो वह उसी दम् संगमरमर से आइना बनगई राजा से कहा कि अब टुक इस आइने का भी तमाशा देख और जो कर्त्तव्य कर्मों के [ २२ ]लगे हैं उनकी भी हिसाबले॥ राजा उस आइने में क्या देखता है कि जिस प्रकार बरसात की बढ़ी हुई किसी नदी में नल के प्रवाह बहे जाते हैं उस प्रकार अनगिन्त सूरतें एक ओर से निकलती और दूसरी ओर अलोप होती चली जातीहैं कभी तो राजाको वे संब भूखे औरनंगे इस आईने में दिखलाई देते जिन्हें राजा खाने पहिने को देसक्ताथा पर न देकर दानका रुपया उन्हीं हटे कट्टे मोटे मुष्टण्ड खाते पीते हुओं को देता रहा जो उसकी खुशामद करते थे या किसी की सिफारिश ले आते थे या उसके कार्दारों को घूस दकर मिला लेते थे या सवारी के समय माँगते माँगते और शोर गुल मचाते मचाते उसे तंग करडालते थे या दार में आकर उसे लज्जा के भँवर में गिरा देते थे या झूठा छापा तिलक लगाकर उसे मकर के जाल में फंसा लेते थे या जन्मपत्र में मले बुरे ग्रह बतला कर कुछ धमकी भी दिखलाते थे या सुन्दर कवित्त और श्लोक पढ़कर उसके चित्तको भुलाते थे कभी वे दीन दुखी दिख[ २३ ]लाई देते जिन पर राजा के कारदार जुल्म किया करते थे और उसने कुछ भी उसकी तहक़ीक़ात और उपाय न की न कभी उनबीमारों को देखता जिनका चंगा करादेना राजाके इख्तियार में था कभी वे ब्यथा के जले और विपत्ति के मारे दिखलाई देते जिनका जी राजाके दो बात कह देने से ठंढा और सून्तुष्ट हो सक्ता था कभी अपने लड़का लड़कियों को देखता जिन्हें वह पढ़ा लिखा कर अच्छी अच्छी बातें सिखाकर बड़े बड़े पापों से बचा सक्ता था कभी उन गाँव और इलाका को देखता जिनमें कूए तालाब खुद्वाने और किसानों को मदद देने और उन्हें खेती बारी की नई नई तीबें बतलाने से हज़ारों गरीबों का भला कर सक्ता था कभी उन टूटे हुये पुल और रास्तों को देखता जिन्हें दुरुस्त करने से वह लाखों मुसाफिरों को आराम पहुँचा सक्ता था राजा से जियादः देखा न जासका थोड़ाही देर में घबरा कर हाथों से अपनी आँखों को ढाँप लिया वह अपने घमण्ड में [ २४ ]उन सब कामों को तो सदा याद रखताथा और उनका चरचा किया करता जिन्हें वह अपनी समझ में पुण्य के निमित्त किये हुये समझा हुआथा पर उन कर्तव्य कामोंका कभी टुकभी सोच न किया जिन्हें अपनी उन्मत्तता में अचेत होकर छोड़ दियाथा सत्य बोला राजा अभी से क्यों घबरा गया था इधर आ इस दूसरे आईने में मैं तुझे अब उन पापों को दिखलाता हूं जो तूने अपनी उमर में किये हैं राजाने हाथ जोड़े और पुकारा के बस महाराज बस की- जिये जो कुछ देखा उसी में मैं तो मिट्टी हो गया कुछ भी बाक़ी न रहा अब आगे क्षमा कीजिये पर यह तो बतलाइये कि आपने यहां आकर मेरे शर्बत में क्यों जहर घोला और पकी पकाई खीरमें साँपका विष उगला और आपने मेरे आनन्द को इसी मन्दिर में आके नाश में मिलाया जिसे मैंने सर्वशक्तिमान भगवान् के अर्पण किया है चाहे जैसा वह बुरा और अशुद्ध क्यों न हो पर मैंने तो उसीके निमित्त बनाया है सत्य ने कहा ठीक पर यह [ २५ ]तो बतला कि भगवान इस मन्दिर में बैठा है यदि तूने भगवान् को इस मन्दिर में बिठाया। होता तो फिर वहअशुद्ध क्यों रहता जरा आंख उठाकर उस मूर्ति को तो देख जिसे तू जन्म भर पूजता रहा है राजाने जो आँख उठाई तो क्या देखता है कि वहां उसबड़ी ऊँची बेदी पर उसीकी मूर्ति पत्थर की गढीहुई रक्खीहै और अभिमान की पगड़ी बाँधे हुये सत्यने कहा किमूर्ख तूने जो काम किये केवल अपनी प्रतिष्ठा के लिये इसी प्रतिष्ठा प्राप्त होने की सदा तेरी भावना और इच्छा रही और इसी प्रतिष्ठा के लिये तूने अपनी आप पूजा की रे मूर्ख सकल जगत् स्वामी घट घट अन्तर्यामी क्या ऐसे म्जरूपी मन्दिरों में भी अपना सिंहासन बिछनेदेता है जो अभिमान और प्रतिष्ठा प्राप्तिकी इच्छा इत्यादि से भराहै ये तो उसकी बिजली पड़ने के योग्य है सत्यका इतना कहना था कि सारी पृथ्वी एकबारगी कांपउठी मानो उसी दम टुकड़ा टुकड़ा हुआ चाहतीथी आकाशमें ऐसा शब्द हुआ कि जानो प्रलय [ २६ ]कालका मेघ गरजा दीवार मन्दिर की चारों ओर से अड़ अड़ाकर गिरपड़ी गोया उसपापी राजा को दबाही लेना चाहती थी और उस अहङ्कार की मूर्तिपर ऐसी एक बिजली गिरी कि वह धरती पर औंधे मुहँ आपड़ी त्राहि मां त्राहि मां मैं डूबा मैंडूबा कहके भोज जो चिल्लाया आँख उसकी खुल गई और सुपना सुपना होगया। इस अर्से में सबेरा होगया था आस्मान के किनारों पर लाली दौड़ आई थी चिड़ियाँ चह चढ़ा रही थीं एक ओर से शीतल मन्द सुगन्ध पंवन चलीबाती थी दूसरे ओर से बीन और मृदङ्ग की ध्वनि बन्दीजन राजा का यश गाने, लगे हरकारे हर तरफ़ काम को दौड़े कमल खिले कमोद कुम्हलाये राजा पलंगसे उठा पर जी भारी माथा थामे हुये न हवा अच्छी लगती थी न गाने बजाने की कुछ सुध बुध थी उठतेही पहले यह हुक्म दिया कि इस नगरमें जो अच्छे से अच्छे पण्डित हों जल्द उनको मेरे पास लाओ मैंने एक सुपना देखा है कि जिसके [ २७ ]आगे अब यह सारा खटराग सुपना मालूम होता उस सुपने के स्मरणही से मेरे रोंघटे खड़े हुये जातेहैं, राजाके मुखसे हुक्म निकलने की देर थी चोबदारोंने तीन पण्डितों को जो उस समय वसिष्ठं याज्ञवल्क्य और वृहस्पति के समान प्रख्यात थे बात की बात में राजा के साम्हने ला खड़ा किया॥ राजा का मुँह पीला पड़ गया था माथे पर पसीना हो आया था पूछा कि वह कौनसी उपाय है जिससे यह पापी मनुष्य ईश्वर के कोप से छुटकारा पावे उनमेंसे एक बड़े बड़े पंडितने आशीर्वाद देकर निवेदन किया कि धर्मराज धर्मावतार यह भय तो आपके शत्रुओंकी होना चाहिये आप से पवित्र पुण्यात्मा के जीमें ऐसा सन्देह क्यों उत्पन्न हुआ आप अपने पुण्य के प्रभाव का जामा पहन के बे खटके परमेश्वर के साम्हने जाइये न तो वह कहीं से फटा कटा है और न किसी जगह से मैला कुचैला हुआ है॥ राजा क्रोध करके बोला कि बस अधिक अपनी वाणी को परिश्रम न दीजिये और इसी दम [ २८ ]अपने घरकी राह लीजिये क्या आप फिर उस पर्दे को डाला चाहतेहैं जो सत्यने मेरे साम्हने से हटाया और बुद्धिकी आँखों को बंद किया चाहते हैं जिन्हें सत्य ने खोला उस पवित्र परमात्मा के साम्हने अन्याय कभी नहीं ठहर सक्ता मेरे पुण्य का जामा उसके आगे निरा चीथड़ा है यदि वह मेरे कामों पर निगाह करेगा तो नाश हो जाऊँगा मेरा कहीं पता भी न लगेगा इसमें दूसरा पंडित बोल उठा कि महाराज परब्रह्म परमात्मा तो आनन्द स्वरूप है उसकी दया के सांभर का कब किप्ती ने किनमरा पाया है वह क्या हमारे इन छोटे छोटे कामों पर निगाह किया करता है एक कृपादृष्टि सेसाराबेड़ा पार लगा देताहै राजाने आँखें दिखला के कहा कि महाराज आप भी अपने घर को सिधारिये आपने ईश्वर को ऐसा अन्याई ठहरा दिया कि वह किसी पापी को सजाही नहीं देता सब धान बाईसपसेरी तोलता है मानो हर भोंग पुरका राज करता है इसी संसार में क्यों नहीं देख लेते जो आम [ २९ ]पाता है वह आम खाताहै और जो बबूर लगाताहै वह कांटे चुनता है तो क्या उस लोकमें जोजैसा करेगा सर्वदशी घटघट अन्तर्यामी से उसका बदला वैसाही न पावेगा सारी सृष्टि पुकारे कहती है और हमारा अन्तः करण भी इस बात पर गवाही देता है कि ईश्वर अन्याय कभी नहीं करेगा जो जैसा करेगा वैसाही उस्से उस्का बदला पावेगा तबतीसरा पण्डित आगे बढ़ा और यो जबान खोली कि महाराजाधिराज परमेश्वर के यहांसे हमलोगों को वैसाही बदला मिलेगा कि जैसा हमलोग काम करते हैं इस्में कुछभी सन्देह नहीं आप बहुत यथार्थ फर्माते हैं परमेश्वर अन्याय कभी मिहीं करेगा पर यह इतने प्रायचिश्त्त और होम और यह और जप तप तीर्थ यात्रा किस लिये बनाये गये हैं यह इसीलिये हैं कि जिसमें परमेश्वर हम लोगों का अपराध क्षमा करै और बैकुंठ में अपने पास रहने को ठौर देवे राजा ने कहा देवता जी कलतक तो मैं आप की सब बात मानसक्ताथा लेकिन अबतो मुझे [ ३० ]इन कामों में भी ऐसा कोई नहीं दिखलाई देता जिसके करने से यह पापी मनुष्य पवित्र पुण्यात्मा हो जावे वह कौनसा जप तप तीर्थयात्रा होम यज्ञ और प्रायश्चित्त है जिसके करने से हृदय शुद्ध हो और अभिमान न आजावे आदमी का फुसला लेना तो सहज है पर उस घट घट के अन्तर्यामी को कोई क्यों कर फुसलावे जब मनुष्य का मनही पापसे भराहुआ है तो फिर उससे पुण्य कर्म कोई कहां बनावे पहले आप उस स्वप्नको सुनिये जो मैंने रातको देखा है तब फिर पीछे वह उपाय बतलाइये जिस्से पापीमनुष्य ईश्वर के कोपसे छुटकारा पाताहै॥

निदान राजाने जो कुछ रात को स्वप्न में देखा था सब जौंकांजौं उस पण्डित को कह सुनाया पण्डित जी तो सुनतेही अवाक होगये शिरझुका लिया राजाने निरास होकर चाहा कि तुषानल करके जल मरे पर एक परदेशी सा आदमी जो उन पण्डितोंके साथ बिना बुलाये घुस आया था सोचता विचारता उठकर खड़ा हुआ और धीरे से यों निवेदन किया कि महाराज, हम लोगों का कर्ता ऐसा दीनबंधु कृपासिंधु है कि अपने मिलने की राह पाने की सच्चे जी से मदद माँगिए। हे पाठकजनो, क्या तुम भी भोज की तरह ढूँढ़ते हो और भगवान् से उसके मिलने की प्रार्थना करते हो? भगवान् तुम्हें शीघ्र ऐसी बुद्धि दे और अपनी राह पर चलावे, यही हमारा अंतःकरण से आशीर्वाद है। जिन ढूँढ़ा तिन पाइया गहरे पानी पैठ।

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।