रसज्ञ-रञ्जन/८—कवियों की ऊर्म्मिला-विषयक उदासीनता

 

८—कवियों की ऊर्म्मिला-विषयक उदासीनता

वि स्वभाव ही से उच्छृङ्खल होते हैं। वे जिस तरफ झुक गये, झुक गये। जी में आया तो राई का पर्वत कर दिया; जी में न आया तो हिमालय की तरफ भी आँख उठा कर न देखा। यह उच्छृङ्खलता या उदासीनता सर्व-साधारण कवियो में तो देखा ही जाती है, आदि कवि तक इससे नहीं बचे। क्रौंच पक्षी के जोड़े में से एक पक्षी को निषाद द्वारा बध किया गया देख जिस कवि शिरोमणि का हृदय दुःख से विदीर्ण हो गया, और जिसके मुख से "मानिषाद" इत्यादि सरस्वती सहसा निकल पड़ी वही पर दुःख-कातर मुनि,रामायण निर्म्माण करते समय, एक नवपरणीता दुःखिनी वधू को बिलकुल ही भूल गया। विपत्ति विधुरा होने पर उसके साथ अल्पादल्पतरा समवेदना तक उसने प्रकट न की—उसकी खबर तक न ली।

वाल्मीकि रामायण का पाठ किंवा पारायण करने वालो को उम्मिला के दर्शन सब से पहले जनकपुर मे सीता, माण्डवी और श्रुतिकीर्ति के साथ होते हैं। सीता की बात तो जाने ही दीजिए। उनके और उनके जीविताधार रामचन्द्र के चरित्र-चित्रण ही के लिए रामायण की रचना हुई है। माण्डवी और श्रुतिकीर्ति के विषय मे कोई विशेषता नहीं। क्योंकि आग से भी अधिक सन्ताप पैदा करने वाला पति-वियोग उनको हुआ ही नहीं। रही बात-वियोगिनी देवी ऊर्म्मिला, सो उसका चरित्र सर्वथा गेय और आलेख्य होने पर भी, कवि ने उनके साथ अन्याय किया। मुने! इस देवी की इतनी उपेक्षा क्यों? इस सर्वसुखवंचिता के विषय में इतना पक्षपात-कार्पण्य क्यों? क्या इसलिए कि इसका नाम इतना श्रुतिसुखद, इतना मंजुल, इतना मधुर है और तापसजनो का शरीर सदेव शीतातप सहने के कारण कठोर और कर्कश होता है—पर नहीं,आपका काव्य पढ़ने से तो यही जान पड़ता है कि आप कठोरता प्रेमी नहीं। भवतु नाम। हम इस उपेक्षा का एक मात्र कारण भगवती ऊर्म्मिला का भाग्यदोष ही समझते हैं। हा हतविधिलसते! परमकारूणिकेन मुनिना वाल्मीकिनापि विस्मृतासि।

हाय वाल्मीकि! जनकपुर मे तुम ऊर्म्मिला को सिर्फ एक बार, वैवाहिक-वधू-वेश में, दिखा कर चुप हो बैठे। अयोध्या आने पर सुसराल में उसकी सुधि यदि आपको न आई थी तो न सही पर, क्या लक्ष्मण के वन-प्रयाण-समय में भी उसके दुःखाश्रुमोचन करना आपको उचित न जँचा? रामचन्द्र के राज्यभिषेक की जब तैयारियाँ हो रही थीं, जब राजान्तःपुर ही क्यों, सारा नगर नन्दन-वन बन रहा था, उस समय नवला ऊर्म्मिला कितनी खुशी मना रही थी, सो क्या आपने नहीं देखा? अपने पति के परमाराध्य राम को राज्य-सिंहासन पर आसीन देख ऊर्म्मिला को कितना आनन्द होता, इसका अनुमान क्या आपने नहीं किया? हाय! वही ऊर्म्मिला एक घंटे बाद, राम-जानकी के साथ, निज पति को १४ वर्ष के लिए बन जाते हुए देख, छिन्नमूल शाखा की तरह राज-सदन की एक एकान्त कोठरी में भूमि पर लोटती हुई क्या आपके नयनगोचर नही हुई? फिर भी उसके लिए आपकी "बचने दरिद्रता" ऊर्म्मिला वैदेही की छोटी बहिन थी। सो उसे बहिन का वियोग सहना पड़ा और प्राणाधार पति का भी वियोग सहना पड़ा। पर इतनी घोर दुःखिनी होने पर भी आपने दया न दिखाई। चलते समय लक्ष्मण को उसे एक बार आँख भर देख भी न लेने दिया! जिस दिन राम और लक्ष्मण, सीतादेवी के साथ, चलने लगे—जिस दिन उन्होंने अपने पुरत्याग से अयोध्या नगरी को अन्धकार में, नगरवासियों को दुःखोदधि में और पिता को मृत्यु-मुख में निपतित किया, उस दिन भी आपको उर्म्मिला याद न आई। उसकी क्या दशा थी, वह कहाँ पड़ी थी, सो कुछ भी आपने न सोचा इतनी उपेक्षा!

लक्ष्मण ने अकृत्रिम भ्रातृस्नेह के कारण बड़े भाई का साथ दिया। उन्होंने राज-पाट छोड़ कर अपना शरीर रामचन्द्र को अर्पण किया। यह बहुत बड़ी बात की। पर ऊर्मिला ने इससे भी बढ़ कर आत्मोत्सर्ग किया। उसने अपनी आत्मा की अपेक्षा भी अधिक प्यारा अपना पति राम-जानकी के लिए दे डाला और यह आत्मसुखोत्सर्ग उसने तब किया जब उसे ब्याह कर आये हुए कुछ ही समय हुआ था। उसने अपने सांसारिक सुख के सबसे अच्छे अंश से हाथ धो डाला। जो सुख विवाहोत्तर उसे मिलता उसकी बराबरी १४ वर्ष पति वियोग के बाद का सुख कभी नहीं कर सकता। नवोढ़त्व को प्राप्त होते ही जिस उर्म्मिला ने, रामचन्द्र और जानकी के लिए, अपने सुख सर्वस्व पर पानी डाल दिया उसी के लिए अन्वदर्शी आदि कवि के शब्द-भण्डार में दरिद्रता?

पति-प्रेम और पति-पूजा की शिक्षा सीतादेवी को जहाँ मिली थी वहीं उम्मिला को भी मिली थी। सीतादेवी की सम्मति

जह लगि नाथ नेह अरु नाते।
पिय बिनु तियहि तरनि ते ताते॥

उर्म्मिला की क्या यह भावना न थी? ज़रूर थी। दोनों एक ही घर की थी। ऊर्म्मिला भी पतिपरायणता-धर्म्म को अच्छी तरह जानती थी। पर उसने लक्ष्मण के साथ बन-गमन की हठ, जान-बूझ कर नहीं की। यदि वह भी साथ जाने को तयार होती, तो लक्ष्मण को अपने अग्रज राम के साथ उसे ले जाने में संकोच होता, और ऊर्मिला के कारण लक्ष्मण अपने उस आराध्य-युग्म की सेवा भी अच्छी तरह न कर सकते। यही सोच कर मिला ने सीता का अनुकरण नहीं किया। यह बात उसके चरित्र की बहुत बड़ी महत्ता की बोधक है। बाल्मीकि को ऐसी उच्चाशय रमणी का विस्मरण होते देख किस कविता-मर्मज्ञ को आन्तरिक वेदना न होगी?

तुलसीदासजी ने भी ऊर्म्मिला पर अन्याय किया है। आपने इस विषय में आदि कवि का ही अनुकरण किया है। "नाना पुराणानिगमागमसम्मत" लेकर जब-रामचरित मानस की रचना करने की घोषणा की थी, तब यहाँ पर आदि काव्य को ही अपने वचनों का आधार मानने की वैसी कोई ज़रूरत न थी। आपने भी चलते वक्त लक्ष्मण को ऊर्म्मिला से नहीं मिलने दिया। माता से मिलने के बाद, झट कह दिया —

गये लषण जह जानकिनाथा।

आपके इष्टदेव के अनन्य सेवक 'लषण' पर इतनी सख्ती क्यों? अपने कमण्डलु के करुणावारि का एक भी बूँद आपने ऊर्म्मिला के लिए न रक्खा। सारा का सारा कमण्डलु सीता को समर्पण कर दिया। एक ही चौपाई में ऊर्म्मिला की दशा का वर्णन कर देते। अथवा उसी के मुँह से कुछ कहलाते। पाठक सुन तो लेते कि राम-जानकी के वनवास और अपने पति के वियोग के सम्बन्ध में क्या-क्या भावनाये उसके कोमल हृदय में उत्पन्न हुई थी। ऊर्म्मिला को जनकपुर से साकेत पहुँचा कर उसे एक दम ही भूल जाना अच्छा नहीं हुआ।

हाँ, भवभूति ने इस विषय में कुछ कृपा की है। राम-लक्ष्मण और जानकी के वन से लौट आने पर भवभूति को बेचारी ऊर्म्मिला एक बार याद आ गई है। चित्र-फलक पर ऊर्म्मिला को देख कर सीता ने लक्ष्मण से पूछा—"इयमप्यपरा का?" अर्थात् लक्ष्मण कौन है? इस प्रकार देवर से पूछना कौतुक से खाली नहीं। इसमें सरसता है। लक्ष्मण इस बात को समझ गये। वे कुछ लज्जित होकर मन ही मन कहने लगे—ऊर्म्मिला को सीता देवी पूछ रही है। उन्होंने सीता के प्रश्न का उत्तर दिये बिना ही ऊर्म्मिला के चित्र पर हाथ रख दिया। उनके हाथ से वह ढक गया। कैसे खेद की बात है कि ऊर्म्मिला का उज्ज्वल चरित्र-चित्र कवियों के द्वारा भी आज तक इसी तरह ढकता आया।