रसज्ञ-रञ्जन/६-हंस सन्देश
६-हंस सन्देश
संस्कृत में सहृदयानन्द नामक एक बहुत ही सरस काव्य है। उसके कर्ता कविकी जबानी एक पुरानी कथा सुनिए।
निषध देशका राजा नल, एकबार, वनविहार को निकला। नगरसे कुछ दूर जाने पर, एक उपवन में, उसने एक मनोहर तालाब देखा। उसमे कमल खूब खिल रहे थे। मछलियां खेल रही थीं और अनेक प्रकार के जल पक्षी कलोल कर रहे थे। वहाँ पर उसने एक बहुत ही मनोहर हंस देखा। राजा को वह इतना पसन्द आया कि उसने उसे सजीव पकड़ना चाहा। इसलिये उसने अपने निषङ्ग से एक सम्मोहन शर, उसपर चलाने के लिये, निकाला। शर को उसने शरासन पर रक्खा ही था कि उसने एक अलक्षित वाणी सुनी। उस वाणी का मर्म यह था कि—
"हे नरेश, इस पर वाण मत छोड़। यह तेरा अभीष्ट सिद्ध करेगा। तेरे ही रूप-गुण-सम्पदा के अनुरूप यह तुझे एक त्रिभुवन मोहनी राज-कन्या प्राप्त करा देगा। उसे तू अपनी महिषी बनाना।"
यह सुनकर उस आकर्णकृष्ट वाणको राजा ने उतार लिया।
नल की इस दयालुता पर वह हंस बहुत प्रसन्न हुआ। वह अपना स्थान छोड़कर नल के कुछ निकट आया और बोला—"हे निषधनाथ, ईश्वर तेरा कल्याण करे। तूने मुझ पर दया दिखाई है। इसके बदले में मैं भी तेरी कुछ सेवा करना चाहता हूँ। तू मुझे साधारण पक्षी मत समझ। मैं ब्रह्मा के रथ को खींचता हूँ, इन्द्र के सिंहासन के पास बैठता हूँ, जयन्त इत्यादि देव-बालकों के साथ खेलता हूँ, और मन्दाकिनी के किनारे विहार किया करता हूँ, तूने अपने नृपोचित गुणों से इस भूमण्डल को स्वर्गसे भी अधिक सुषमाशाली कर रक्खा है इसलिये कभी-कभी मैं यहाँ भी घूमने आजाता हूँ। मैं चाहता हूँ कि जैसे और देवता मुझसे सख्य-भाव रखते हैं वैसे ही तू भी रख।"
नल ने इस बात को प्रसन्नतापूर्वक स्वीकार किया। आज सेतू मेरे प्राणों से भी अधिक प्यारा हुआ, यह कह कर राजा ने बड़े ही प्रेम से उस पक्षी के शरीर पर अपना कर-कमल फेरा। कुछ देर तक वे दोनों परस्पर प्रेमालाप करते रहे। अनन्तर नल के लिये एक कन्या-रत्न ढूँढ़ने के निमित्त, हंस ने, राजा की अनुमति पाकर, वहाँ से प्रस्थान किया। राजा भी नगर की तरफ लौटा, परन्तु शरीर मात्र से, मन से नहीं। मन उसका हंस ही के साथ उड़ गया था।
हंस के वियोग में नल को बड़ा दुःख हुआ। दिन-रात वह उसी का चिन्तन करने लगा। किसी काममें उसका दिल न लगने लगा। इस समय बसन्त का आविर्भाव हुआ। इससे उसे और भी अधिक पीड़ा हुई। बसन्त विरहियों का वैरी है। अतएव दिल बहलाने के लिये, अपने उद्यान में, एक वावली के किनारे, राजा जा बैठा। वहाँ वह सैकड़ों तरह की भावनाएँ कर रहा था कि सहसा उसका परिचित वही हंस वहाँ आता हुआ उसे देख पड़ा। राजा को परमानन्द हुआ। उसे खोई हुई निधि-सी मिली। नल ने उस दिव्य हंस को अपनी गोद में विठाला। कुशल समाचार पूछने के अनन्तर राजा ने उसे अपने हाथ से मृणालांकुर खिलाये रास्ते की उसकी सारी थकावट जाती रही। नल ने हंस से सुना कि स्वर्गलोक में जितने शहर, गाँव और कस्वे हैं, सबमें उसके यशोगीत गाये जाते हैं। गन्धर्व नारियों किन्नरियों और सुराङ्गनाओं को अब और किसी विषय के गीत अच्छे नहीं लगते। औरों को लोग सुनते भी नहीं। इससे गायक और गायिकाएँ बहुधा यहाँ आती है, उसके नये नये चरित्र सुनती हैं, और उन्हीं के आधार पर श्लोक, गजल और गीतों की वे रचना करती हैं।
मामूली बातें हो चुकने पर हंस ने मतलब की बात शुरू कीं, जिसे सुननेके लिये नल घबरा रहा था। उसने कहा—मित्र,तेरे लिए एक अनन्य-साधारण कन्या ढूँढ़ने में मुझे बड़ी हैरानी, उठानी पड़ी। ऊपर जितने लोक हैं; सबकी खाक मैंने छान डाली। पर एकभी सर्वोत्तम रूपवती मुझे न देख पड़ी। तब मैंने ठेठ अमरावती की राह ली। वहाँ पर भी मैने एक-एक घर ढूँढ़ डाला। जिस पर भी मेरा काम न हुआ। मेरे चेहरे पर उदासी छा गई। मैं डरा, मुझे यह विश्वास होने लगा कि मेरी प्रतिज्ञा भङ्ग हो जायगी। मैं अपना प्रण पालन न कर सकूँगा, मुझे तेरे लायक कोई कामिनी न मिलेगी। जब अमरावती ही में नहीं, तब उसके होने की और कहाँ सम्भावना हो सकती है? इसी सोच विचार में मेरे मिनट, घन्टे और दिन जाने लगे। एक दिन मेरा जी बहुत ऊबा। इसलिये मैं देवराजकी सभा में गया। मैंने कहा चलों वही चलकर कुछ देर जी बहलावे।
वहाँ मैने देखा कि सब देवता यथास्थान बैठे हैं। साहित्य-शास्त्री देवता, महाराजा अयोध्या के रसकुसुमाकर पर वाद-विवाद कर रहे हैं। कोई इस नायिका मे दोष निकाल रहा है, कोई उसमें। कोई कहता है, रूप नही अच्छा; कोई कहता है भाव नही अच्छा। इसी तरह लोग अपनी-अपनी हाँक रहे हैं। इस खींचा-तानी को देख कर सुरेन्द्र ने कामेश्वर शास्त्री की तरफ देखा। इन शास्त्री महाराज का जन्म सृष्टि के आदि का है। पर इतने बूढ़े हो जाने पर भी नायिकाओं के गुण-दोष की पहचान में आप अपना सानी नहीं रखते। यही समझ कर सुरेन्द्र महाराज ने आज्ञा दी कि शास्त्रीजी अब आप भी कुछ कहिए, आपकी राय में कौन रमणी सब से अधिक रूपवती है?
कामेश्वरजी ने सुरेश्वर की आज्ञा सिर पर रक्खी। अपनी पगड़ी के ढीले पेंचों को उन्होंने कड़ा किया। फिर उन्होंने वक्तता आरम्भ की। आप बोले—
अमरराज, इनमें से एक भी नायिका मुझे अच्छी नहीं जँचती। सब में कोई न कोई दोष है। मेरी गृहिणी को यह घमंड था कि मैं बहुत ही रूपवती हूँ। इससे वह कभी-कभी मुझे भी कुछ न समझती थी। एक बार उसका गर्व-गर्भित व्यवहार मुझे दुःसह हो उठा इसलिए मैंने उसके गर्व को दूर करना चाहा। मैं एक सर्वाङ्गसुन्दरी रमणी की खोज में निकला। इसमें मैं बहुत दिन तक हैरान रहा। आखिर को मुझे कामयाबी हुई। विदर्भ-देश के राजा भीम की कन्या दमयन्ती को देख कर मैं स्तम्भित हो गया। वैसी सुन्दरी मैंने कभी नहीं देखी थी! उसका चित्र में खींच लाया। उसे देख कर मेरी घरवाली की अकल ठिकाने आ गई। तब से उसका गर्व दूर हो गया और वह मुझे वक्त पर रोटी देने लगी।
एक घण्टे तक, साहित्याचार्य कामेश्वर शास्त्री ने दमयन्ती के रूप का वर्णन किया। उस समय सुरेन्द्र-सभा में अनेक सुन्दरियाँ बैठी हुई थी। दमयन्ती का नखशिख-वर्णन सुन कर उनकी अजीब हालत हुई। वे एक-दूसरे का मुँह ताकने लगी। तिलोत्तमा का चेहरा काले तिल के समान काला पड़ गया। मदालसा का सौन्दर्य-मद उतर गया। सुलोचना ने अपने लोचन बन्द कर लिए। सुमध्यमा सखियों के मध्य में छिप गई। मेनका का मन मलिन हो गया। कलावती अपनी कलाओं को भूत गई। सुविभ्रमा का विभ्रम भ्रम में पड़ गया। शशिप्रभा निस्तम्भ हो गई और चित्र-लेखा चित्र के समान बैठी रह गई।
शास्त्रीजी की बात सुन कर मैं बहुत खुश हुआ। मैं वहाँ से फौरन ही उड़ा। कोई दो घण्टे में विदर्भपुरी में दाखिल हुआ। वहाँ मैं दमयन्ती के प्राङ्गण में पहुँचा। उस जगह एक हौज था। उसमें एक फब्बारा था। उसको चोटी पर मैं जा बैठा। कुछ देर में मुझे वहाँ दमयन्ती देख पड़ी। उसके रूप को देख कर मैं अचरज में पड़ गया। मित्र, इसके पहले मैने वैसी सुन्दरी कहीं न देखी थी। रूप-वर्णन में शास्त्रीजी की जड़ता का मुझे तब अन्दाज हुआ। कहाँ दमयन्ती का भुवन-मोहन रूप और कहाँ शास्त्रीजी का शुष्क वर्णन। दोनों में आकाश-पाताल का अन्तर! आखिर बूढ़े ही तो ठहरे!
मैंने देखा, दमयन्ती की पशा अच्छी नहीं। वह उदास हैं। इसलिए उसकी चिन्ता का कारण जानने की इच्छा से मैं वहीं ठहर गया। उस हौज के पास दमयन्ती के कई क्रीड़ा-हंस भी थे। इन्हीं के साथ मैं भी इधर-उधर घूमने और दमयन्ती की चर्य्या अवलोकन करने लगा। मैं बीच-बीच में मनुष्य की बोली बोलने लगा। उसे सुन कर दमयन्ती को बड़ा कौतूहल हुआ। वह मेरी तरफ बार-बार देखने लगी। मैं यही चाहता था। इतने में विघ्न हुआ। दमयन्ती को खेंदवती देख, एक सखी उससे खेद का कारण पूछने लगी। वह बोली—
"सखी लवलीलता के समान तेरी गण्डस्थली पीली पड़ गई है। लाल कमल के समान अपने कोमल कर-पल्लव के बोझ से उसे तू क्यों तङ्ग कर रही है? देख, यह निष्करुण पिक अधखिली कलियों वाली आम की इस पतली शाखा को पीड़ित कर रहा है। क्यों नहीं तू उसे अपनी करमालिका से उड़ा देती? सुगन्ध के लोलुप ये भ्रमर खिले हुए फूलों को छोड़ कर तेरी तरफ आते हैं, पर व्याकुल हो कर वे पीछे हट जाते हैं। इससे जान पड़ता है कि सन्ताप से तेरा श्वास तप रहा है। तेरे कान में खोंसे हुए तमाल-दल को खींचने में जिसे तत्पर देख कौतूहल होता था, वह हरिण-शावक तुझे खिन्न-हृदय जान कर मुँह में रक्खे गये दर्भाङ्करों को भी नहीं खाता। करतल में रख कर जिसे तू अनेक प्रकार की सरस वाते सिखलाती थी, वह तेरा क्रीड़ा-शुक, तुझे चुप देख, ऐसा मूक हो रहा है जैसे अभी नया जङ्गल से पकड़ आया हो। अपने इस केलि-हंस को तो तू जरा देख। उसकी सहचरी आगे चल कर बड़ी ही मधुर और रस-भरी वाणी से, उसे पुकार रही है। परन्तु वह उसके पास नहीं जाता। वह चाहता है कि तू अपने पाणि-पल्लव से मृणाल का एक टुकड़ा उसकी चोंच में रख दे। क्या बात है? हैं, क्या कारण कि यह अतर्कित आई हुई पियराई, कनक-चम्पक के समान तेरी गौर कान्ति को बिगाड़ रही है? एक तो तू स्वयं ही दुबली-पतली थी, तिस पर यह अधिक दुबलापन क्यों?"
इस प्रकार सैकड़ों तरह की बातें दमयन्ती की सखी ने उससे पूछीं, परन्तु, उत्तर में, दमयन्ती के मुँह से एक भी शब्द न निकला। वह पववत् चुपचाप बैठी रही। हाँ, एक लम्बी उसाँस मात्र उसने ली। तब उसकी एक और सखी बोली। दमयन्ती के मौनावलम्बन और दुबलेपन का कारण वह समझ गई थी। उसने कहा—
"इसका पिता इसे एक योग्य वर को देना चाहता है। इसलिए उसने; कुछ समय हुआ, अनेक चतुर चित्रकारों को बुलाया। उनसे उसने हजारों रूप-गुण-सम्पन्न राजकुमारों के चित्र तैयार कराये। एक दिन वे चित्रफलक मेरी नजर में पड़ गये। मुझ पर मूर्खता सवार हुई। मै उनको इसके पास उठा लाई। इसने बड़े ध्यान से उनमें से एक-एक को देखा। देखते-देखते एक त्रिलोकी-तिलक युवा पर यह मोहित हो गई। तभी से इसकी हालत खराब है। तभी से यह अथाह चिन्ता-सागर में गोते खाती जा रही है।
इसके शरीर के भीतर जलने के भय से इसकी श्वास-वायु इससे दूर भाग रही है। आँसुओं की धारा में डूब जाने के डर से नीद इसके नयनों के पास नही आती। उशीर का लेप लगाने से यह और भी अधिक सन्तप्त हो उठती है। कमलिनी-दलों के पंखे को देख कर इसे क्रोध आता है। जिसने इसके हृदय मे प्रवेश किया है, उसी सुभग का यह सतत स्मरण करती रहती है। इसका सन्ताप मुझे तो, इस तरह, दुर्निवार मालूम होता है। खिड़की की राह से चन्द्रमा को देखने में इस चञ्चलाक्षों को पीड़ा होती है। इसलिए यह अपना मुँह नीचा कर लेती है। पर ऐसा करने से इसका मुँह इसके वक्ष-स्थल में प्रतिबिम्बित हुआ देख पड़ता है। उसे देख चन्द्रमा के धोखे यह बेतरह काँप उठती है। एक तो स्वभाव ही से यह सुकुमार और दुबली थी, फिर मनोज ने इसे और भी दुर्बल कर दिया। यह देख कर इसके हाथ के कङ्कणों को यह पन्देह हुआ कि अब यह हमारा बोझ न सह सकेगी। इसलिए देखों, वे जमीन पर जा गिरे है। यह कुमुदिनी इस पिष्टा चाँदनी से अभी तक प्रीति रखती है। सखी, इसको किसी वस्तु से ढक दे, जिसमे इसे चन्द्र-किरणों का स्पर्श न हो। नहीं तो, कही, इसे भी मेरे समान ज्वर न आ जाय। इस तरह यह बार-बार कहा करती है। न इसे सघन वृक्षों की छाया से शीतल उद्यान में आराम मिलता है, न चन्दन-चर्चित और मणि-मण्डित अट्टालिका में आराम मिलता है; और न चन्द्र-मरीचियों से धौत महल के भीतर ही आराम मिलता है।
इस प्रकार दमयन्ती की गुप्त चेष्टायों को वर्णन करके उसकी सखियाँ उस समय के अनुकुल उपचार करने लगी। उन्होंने कमलिनी-दलों की एक कोमल शय्या प्रस्तुत करके उस पर उसे लिटाया। पर बेचारी दमयन्ती को उस महा शीतल शय्या पर वैसा ही सन्ताप हुआ, जैसा कि मार्त्तण्ड की प्रचण्ड किरणों से उत्तप्त हुए गढ़े मे पड़ी हुई मछली को होता है। उसे बहुत ही व्याकुल देख उसकी सबसे प्यारी सखी ने ताजी मृणाल-लता को उसके कण्ठ पर रक्खा कि कुछ तो उसे ठंडक पहुँचे। परन्तु हुआ क्या? उसके ताप की प्रचण्डता से वह मृणाल-लता नीलम के समान काली हो गई!
इस प्रकार दुर्निवार ताप से तरी हुई उस वाला को देख मुझे दया आई। मैं धीरे-धीरे उसके पास गया और अपने पंखों से उस पर हवा करने लगा। मुझे इस तरह अपनी सेवा करते देख उसने अपनी दृष्टि मेरी तरफ फेरी। तब, अवसर पाकर, मैने उससे कहा—
"तरुणि, जिस तरुण का तू चिन्तन करती है वह धन्य है उसके पुण्य की सीमा नही। जो युवा तुझसे प्रेम-बन्धन करने की अभिलाषा रखते है उनको मैं त्रिभुवन में सबसे बड़ा भाग्यशाली समझता हूँ। सुन्दरि, सुरेन्द्र के समान देवता भी तुझे पाने की कामना करते हैं। तब यदि, मनुष्यों में तेरा प्रार्थित तरुण तुझे न मिले, तो बड़े आश्चर्य की बात है। तेरे स्मरणके कारण, मन्दार-मालाओं से अलंकृत मणि-मन्दिरों में इन्द्राणी के साथ बातचीत करना भी इन्द्र को अच्छा नहीं लगता। क्षीर-सागरके ठीक बीच में रहकर भी, और रौकड़ों नदियों के द्वारा चरण स्पर्श किये जाने पर भी तेरे सोच से, वारिपति वरुण को ज्वर चढ़ रहा है। तेरे कारण पञ्चसर से पीड़ित किया गया कुबेर आँखें बन्द करके चन्द्रमौलि के पास से हटकर, उनकी सखियों के पास चला जाता है। चन्द्रचूड की चूड़ा के चन्द्रमा को किरणे उससे नहीं सही जाती। तेरे त्रैलोक्य-मोहक तनु को देखकर भगवान अरविन्द-बन्धु (सूर्य) को रागान्ध रोग होगया है। इसी से पृथ्वीके चारों ओर व दिन-रात गता-गत किया करते हैं गिरिजा को गिरीश के वाम भाग में बैठी हुई देख कर यदि तुझे स्पर्धा उत्पन्न हुई हो तो साफ-साफ मुझसे तू वैसा कहदे। मैं तुझे बहुत जल्द उनके दाहिने भाग मे विठला दूँ। अधिक कहना सुनना मैं व्यर्थ समझता हूँ। यदि तू कहे तो मैं तुझे लेकर दूसरी लक्ष्मी के समान, नारायण के अङ्क में अभी बिठला आऊं। मैंने तेरे सामने बहुत से देवताओं के नाम लिये। त्रिलोकी में जितनी बिलासिनियों है, उनके लिये वे सभी दुर्लभ हैं। कृपा करके अब तू मुझे बतलादे कि उनमें से तू किसे अपने पाणिपीड़न से सबसे अधिक भाग्यवान् बनाना चाहती है। मेरी ये मीठी-मीठी बातें सुनकर तू मुझे कहीं पिजड़े के शुक के समान, वृथा बकवादी मत समझना। मै ब्रह्मा का वैज्ञानिक हूं। मेरे लिए दुनियाँ में कोई वस्तु दुष्कर नहीं।"
यह सुनकर उस मृगाक्षी को मेरी बातों पर विश्वास आ गया और उसने उस फलक को, जिस पर तेरी तस्वीर थी बड़े प्रेम से अपनी छाती से लगाया। तुझमें, इस तरह अनुरुक्त हुई उस बाला को देखकर मैंने अपना प्रयास सफल समझा। मैंने कहा—"यह वीर युवक मधु है; तू माधवी है। यह कुमुद बन्धु है तू कौमदी है। ऐसी अनुपमेय जोड़ी का सम्बन्ध इस तरह चिरकाल तक सुखकारक हो। इस तरह उसको विश्वास दिला-कर तेरे पास आने की इच्छा से ज्यों ही मैं उड़नेको हुआ त्योंही उसने अपने कम्बु-कण्ठ से उतार कर, यह हार मेरे गले में डाल दिया। चन्द्रमा की चन्द्रिका से भी अधिक निर्मल, तेरी प्रिया की दूसरी हृदय-वृत्ति के समान, यह मुक्तालता तेरे हृदय को आनन्दित करे।"
इस माला को नल ने बड़े आदर से लिया। उसको स्पर्श करते ही उसका शरीर कण्टकित हो आया। उसे उस समय यह भावना हुई कि एक छेद होने के कारण इसको मेरी प्रियतमा के अङ्ग का स्पर्श हुआ। पर शायक के पञ्चशायकों से किये गये सैकड़ों छेदों को हृदय मे धारण करके भी मुझे अभी तक उसके दर्शन तक नहीं हुए। में बड़ा ही अभागा हूँ। कुछ देर तक वह ऐसी ही ऐसी चिन्ताओं में निमग्न रहा। जब वह उस चिन्ता-समुद्र से उन्मज्जित हुआ तब, आनन्द से पुलकित होकर, अपने निर्व्याज मित्र उस हंस को उसने हृदय से लगा लिया। मांगने से कल्पवृक्ष मांगी हुई चीज देता है और चिन्तामणि चिन्तन करने पर चिन्तित पदार्थ के पास पहुंचता है। परन्तु बिना प्रार्थना और चिन्तना ही के मुझे एक अलौकिक प्रियतमारत्न प्राप्त करने की चेष्टा करके तूने इन दोनों को नीचे कर दिया। इस प्रकार राजा नल पक्षी से कह ही रहा था कि सायंकाल का शङ्ख बजा और उसे सायन्तनी कृति के लिये उठकर महलों में जाना पड़ा।