रक्षा बंधन
विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक'

आगरा: राजकिशोर अग्रवाल, विनोद पुस्तक मंदिर, पृष्ठ ५८ से – ६४ तक

 

कार्य-कुशलता

( १ )

शहर में रिश्वत का बाजार गर्म था। कोतवालसाहब तथा इन्चार्ज कोतवाली खूब चांदी काट रहे थे। इसी कारण शहर में अनेक प्रकार के अपराध बढ़ रहे थे। स्थान-स्थान पर जुए के अड्डे स्थापित थे । इन अड्डों से पुलीस को मासिक आय होती थी। बदमाश तथा गुण्डे बात पड़ने पर अलानिया कहते थे कि पुलीस तो हमारो नौकर है। संध्या का समय था । नगर के एक बाजार में, जहाँ भले आदमियों के मध्य में वेश्याओं के घर भी थे खूब चहल पहल थी। जहाँ वेश्याएं" होती हैं वहां गुण्डे बदमाश भी आते जाते रहते हैं । अतः इस समय वहां शहर का एक प्रसिद्ध गुण्डा अपने दो अनुचरों के साथ मंडला रहा था। कभी वह किसी तम्बोली को दुकान पर खड़ा हो जाता, कभी किसी वेश्या के मकान के सामने खड़ा होकर वेश्या से इशारेबाजी करता, कभी किसी दुकानदार से गप-शप करने लगता था । इस समय वह एक तम्बोली की दुकान पर खड़ा हुआ पान बनवा रहा था। इसी समय उस हल्के के चीफ साहब उधर से निकलें । गुण्डे को देख कर वह उसके पास पहुंचे और बोले— क्या अकेले ही अकेले पान खायोगे गुरू!

गुरू ने घूमकर चीफ साहब की तरफ देखा और कहा—"आओ! देना भई चीफ साहब को चार पान और एक सिगरट।कहाँ चले ?" "कहीं नहीं। ऐसे ही चले आये ।"

"हरामखोरी को निकले होगे। शाम का समय है।"

चीफ साहब हँसकर बोले---'दुनियाँ ही हरामखोरी पर उतर आई है तब हम क्या उल्लू हैं जो हलालखोरी को पकड़े बैठे रहें।"

गुन्डा हँस कर बोला---"ठीक कहते हो।"

इसी समय सामने के छज्जे पर से एक युवती वेश्या ने तमोली को पुकार कर कहा---लछमन भइया। आठ पान और एक डिब्बी सिगरेट भेज दो।"

गुन्डा हँस कर बोला---"क्यों लछमन भइया तुम्हारी बहिन है?"

यदि और कोई ऐसी बात कह देता तो लछमन बिगड़ उठता; क्योंकि वह भी बदमाश था; परन्तु गुरू के सामने बोलने का साहस उसमें नहीं था। इस कारण वह मुस्कराकर बोला---'वाह गुरू ऐसी कहोगे! हमारी बहिन ससुरी काहे को है। और वैसे तो पराई औरत मां-बहिन के बराबर ही होती है।"

"यह कहो! आज कल तो बड़े साधू बने हुए हो। लेकिन एक बात तो बताओ यह कौशल्या किसी के पास नौकर है क्या?"

"अभी नई आई है। हमारी जान में तो अभी कहीं नौकर नहीं है।"

"तब भी ससुरी इतनी लम्बी-चौड़ी बात करती है। इसे किसी दिन ठीक करना है। ऊपर चढ़ जाऊँगा और दो सौ जूते गिन कर मारूंँगा---सारी नखरेवाजी भूल जायगी। अभी हमें पहचानती नहीं है।"

"अब पहचान लेगी।" चीफ साहब बोले।

"और आप बोलियेगा नहीं। चीफ साहब यह बताये देता हूँ।"

"हमें क्या मतलब है। ससुरी को जूतों से मारो या चाहे जो करो।"

"और बोलना तो हम से पूछ लेना--हम तुम्हें कुछ पैदा करा देंगे।" "अच्छी बात है। हमारा इतना ख्याल रखते हो---यही क्या कम है।"

"ख्याल रखना ही पड़ता है। तुम हमारे नौकर हो।"

चीफ साहब बेहयाई की हँसो हँसकर बोले---"ठीक कहते हो। हम पब्लिक के नौकर तो हई हैं।"

"पब्लिक जाय चूल्हे-भाड़ में। हम पब्लिक की हैसियत से थोड़े हो कहते हैं। हम तो इसलिए कहते हैं कि हम तुम लोगों को तनखाह देते हैं---हर महीने कलदार!"

"अच्छा ऐसा ही सही---जैसे तुम खुश रहो।"

यह कहकर चीफ साहब सिगरेट धकधकाते हुए चल दिये।

( २ )

सुपरिन्टेडेन्ट पुलीस ( कप्तान साहब ) मि० राबिन्सन एक अच्छे अफसर समझे जाते थे। न्यायप्रिय आदमी थे। हिन्दुस्तानी भाषा बहुत साफ बोलते थे। सहसा यह भान नहीं होता था कि कोई यूरोपियन बोल रहा है।

प्रातःकाल के नौबजे थे। कप्तान साहब शहर के दो रईसों से वार्तालाप कर रहे थे। एक रईस महोदय कह रहे थे---"हुजूर के होते हुए अगर शहर की यह हालत हो तो बड़े ताज्जुब की बात है।"

"हमको इस बात का खुद बहुत खयाल है और हम जल्दी ही कोई इन्तजाम करते हैं।"

"पुलीस के अमाल से हुजूर की बदनामी होती है और हुजूर की बदनामी सुनकर हम लोगों को बड़ी तकलीफ पहुँचती है क्योंकि हम लोग जानते हैं कि हुजूर बहुत इन्साफ-पसन्द और नेक हाकिम हैं।"

"शुक्रिया! हम स्काटलैंड यार्ड ( लंदन को कोतवाली ) के आदमी हैं पंडित साहब! स्काटलैंड यार्ड अपनी ईमानदारी और कारगुजारी के लिए दुनिया भर में मशहूर है।" कप्तान साहब ने कहा।

"ऐसे ही हाकिमों की तो यहाँ जरूरत है।"

"लेकिन यहाँ की पुलीस से हम परेशान हैं । कान्स्टेबिल से लेकर डी० एस० पी० तक सब रिश्वतखोर हैं। मेरा मतलब है कि ज्यादा तादाद में रिश्वतखोर हैं। बहुत कम आदमी ऐसे हैं जो रिश्वत नहीं लेते।"

"हुजूर तो खुद ही सब बात जानते हैं, हुजूर को हम क्या बतावेंगे। लेकिन अगर हुजूर पुलीस की मदद से कोई कार्यवाई करना चाहेंगे तो ठीक न होगा क्योंकि पुलीस का शायद ही कोई आदमी इस काबिल निकले कि जिसके भरोसे हुजूर कोई काम करके कामयाबी हासिल कर सके।"

"यह बात हम भी समझते हैं। देखा जायगा।"

"गुन्डे अलानिया भले आदमियों की आबरू लेने को तैयार हो जाते हैं और पुलीस खड़ी देखा करती है। अभी परसों का मामला है। शहर का एक गुन्डा जिसे छन्नो गुरू कहते हैं एक तवायफ के कमरे पर चढ़ गया और उसे मारते मारते बेदम कर दिया। उसने चौकी पर रिपोर्ट की तो चीफ साहब ने उलटे उसी पर इल्जाम रख कर उससे पचास रुपये ले लिए। दूसरे दिन वह बेचारी यहाँ से भाग गई। यह हालत है। हालांकि वह रंडी थी लेकिन हुजूर, जुल्म तो किसी पर भी न होना चाहिए, चाहे वह रंडी हो या शरीफ ! इसी तरह गुन्डों के हौसले बढ़ जाते हैं और वह शरीफों पर भी हाथ साफ करने लगते हैं।"

"बिल्कुल दुरुस्त है। हम सब इन्तजाम जल्दी ही कर देंगे। आप इतमीनान रक्खें।"

"हुजूर से ऐसी ही उम्मीद है।"

"लेकिन इस बात का जिक्र किसी से मत कीजिएगा।"

"ऐसा कभी हो सकता है। हुजूर की बात किसी से भी नहीं कही जायगी।"

"तो बस आप खातिर जमा रखिए हम अच्छी तरह इन्तजाम करेंगे हम अपनी बदनामी नहीं बरदाश्त कर सकते।"

"बेशक ! कोई भी नेक आदमी अपनी बदनामी बरदाश्त न करेगा।

अच्छा अब इजाजत हो--हुजूर का बहुत वक्त लिया।"

()

रात के दो बजने का समय था। इसी समय एक तङ्ग तथा अंधेरी गली से एक मुसलमान स्त्री बुर्के से अपना शरीर तथा मुख छिपाये निकली। इस गली के सामने सड़क पर दो कान्स्टेबिल भाले लिए एक बन्द दुकान के चबूतरे पर बैठे थे। बुर्कापोश स्त्री गली से निकल कर उनकी और आई और एक मुसलमानी मुहल्ले का नाम लेकर बोली, "---किधर है?"

कान्स्टेबिल ने पूछा—"तुम वहाँ रहती हो?"

"हाँ"

"यहां इतनी रात को क्यों आई थी।"

स्त्री कुछ क्षण विचार कर के बोली—"अब यह क्या करोगे पूछ के रास्ता बता दो।"

"हूँ ! तब तो मामला कुछ गड़बड़ है। अब तो तुम्हें बताना पड़ेगा।"

स्त्री ने खुशामद की लेकिन कान्स्टेबिल किसी तरह न माने। स्त्री बोली—"अच्छा सब बता दूँगी।"

दोनों कान्स्टेबिल उसे लेकर चौकी पहुँचे। चीफ साहब पड़े सो रहे थे उन्हें जगाकर सब वृतान्त कहा—"सच बताओ।"

स्त्री बोली—"यहाँ एक आदमी से मेरा ताल्लुक है उसी के पास आई थी।

"हूँ—जिना करके आई थी। अच्छा इसे बन्द करो—सबेरे थाने पर पेश करेंगे।

स्त्री ने खुशामद की, पर चीफ साहब न माने। अन्त में उसने अपने हाथ से एक सोने की चूड़ी उतार कर दी तब चीफ साहब राजी हुए।

स्त्री आगे चली। कुछ फासले पर उसे एक और कान्स्टेबिल मिला। उसने भी उसे टोका। स्त्री ने उससे भी यही कहा कि वह अपने प्रेमिका से मिलने आई थी।

कान्स्टेबिल बोला—"चलो थाने पर।"

"थाने पर न ले जाओ—यह लो।"

यह कहकर स्त्री ने पांच रुपये कान्स्टेबिल की ओर बढ़ाये। कान्स्टेबिल ने एक लप्पड़ स्त्री के मुख पर मारकर कहा—"रिश्वत देती है हरामजादी। हम रिश्वत लेते हैं? ऐसी रिश्वत हम हराम समझते हैं—चल थाने।"

कान्स्टेबिल स्त्री को थाने पर ले गया। दारोगा जी को जगा कर उनके सामने स्त्री को पेश किया। वहाँ भी स्त्री ने वही कथा सुनाई। दारोगाजी ने उसे हवालात में बन्द करने का हुक्म दिया। स्त्री ने दो सोने की चूड़ियाँ उतार कर दारोगा जी को दी।

दारोगा जी चूड़ियां देखकर बोले—"सोने की ही हैं न, कलई तो नहीं है?"

"हुजूर के साथ ऐसा धोखा नहीं कर सकती, एक दिन का काम थोड़ा ही है।" यह कहकर स्त्री चल दी।

स्त्री के जाने के बीस मिनट बाद ही पुलिस कप्तान मि० राबिन्सन ने थाने पर छापा मारा। उसी समय एक डी० एस० पी० ने चौकी पर छापा मारा। दोनों जगह चूड़ियाँ बरामद हुई। चीफ कान्स्टेबिल तथा थानेदार साहब गिरफ़्तार कर लिये गये।

चूड़ियों के भीतर की ओर कप्तान साहब के नाम के प्रथमाक्षर अत्यन्त महीन खुदे हुए थे।

दूसरे दिन कप्तान साहब ने अपने बंगले पर उस कान्स्टेबिल को तलब किया जिसने स्त्री के लप्पड़ मारा था। उस से कप्तान साहब बोले "हमने तुमको चीफ कान्स्टेबिल बनाया। ऐसी ही ईमानदारी से काम करते रहना।"

कान्स्टेबिल ने सेल्यूट कर के कहा—"हुजूर के एकबाल से हमेशा ऐसी ही ईमानदारी और बफादारी से काम करूंगा।" कान्स्टेबिल चलने लगा तो कप्तान साहब बोले—"लेकिन एक बात का खयाल रखना। आयन्दा किसी औरत के इतने जोर का लप्पड़ मत मारना।"

कान्स्टेबिल चला गया। उसके जाने के बाद कप्तान साहब अपनी पत्नी से जो उनके निकट ही बैठी थी अँग्रेजी में बोले—"बड़े जोर का लप्पड़ मारा था इसने मेरा गाल अब तक दर्द कर रहा है।"

मेम साहब हँस कर बोलीं—

"ताकतवर आदमी है। आयन्दा जरा बचकर काम करना।"

कप्तान साहब हँस कर बोले—"अगर दूसरा लप्पड़ मारता तो मुझे वहीं अपने को प्रकट कर देना पड़ता।"

"तब तो इसकी शकल उस समय देखने के योग्य होती।"

"बेचारा खौफ से अधमरा हो जाता।"

दोनों खिलखिला कर हँसने लगे।