रक्षा बंधन
विश्वंभरनाथ शर्मा 'कौशिक'

आगरा: राजकिशोर अग्रवाल, विनोद पुस्तक मंदिर, पृष्ठ १७ से – २३ तक

 



प्रतिहिंसा

( १ )

फ्रांस के पेरिस नगर के एक विशाल भवन में जर्मन सेना की एक टुकड़ी का निवास था। पेरिस नगर की जर्मन सेना का कमाण्डर भी इसी भवन में डेरा डाले हुए था। दोपहर का समय था। कमाण्डर अपने दफ्तर में बैठा कुछ कागज पत्र देख रहा था कि इसी समय चार सैनिकों सहित एक सार्जेण्ट कमाण्डर के सामने उपस्थित हुआ। सार्जेंट ने "हाइल हिटलर' कहकर कमान्डर का अभिवादन किया। कमान्डर ने प्रत्युत्तर देकर पूछा--"क्या है?"

“एक फ्रांसीसी लड़का मिला है जो हमारे लिए जासूसी करने को तैयार है।"

"खूब ! उसे हाजिर करो।"

सार्जेन्ट चला गया और कुछ क्षण पश्चात् एक लड़के को साथ लेकर वापस आया। यह लड़का १७-१८ वर्ष का था और बड़ा रूपवान था। कमाण्डर ने उसे कुछ क्षण तक ध्यानपूर्वक देखकर उससे पूछा-- "तुम्हारा नाम ?"

"लुई।" लड़के ने उत्तर दिया।

"और बाप का नाम?"

"दिसाले।" "कहाँ रहते हो?"

लड़के ने मौहल्ले का नाम बताया।

"तुम्हारे घर में कौन-कौन हैं।"

"मेरा बाप, मेरी मां, एक बड़ा भाई।"

"बड़े भाई की क्या उम्र है।"

"पच्चीस वर्ष!"

"तुम्हारा बाप क्या करता है?"

"एक काबरे में नौकर हैं।"

"और भाई?"

"होटल में।"

"काबरे और होटल का नाम?"

लड़के ने बताया।

"तुम हमारा काम करोगे?"

"हाँ—आँ?"

"तुमको फिलहाल दस फ्रांक रोज मिलेंगे। अच्छा काम करोगे तो बढ़ा दिये जायेंगे।"

"बहुत अच्छा।"

"देखो घर में तुम्हारे माँ-बाप और भाई जो बातें करें वह नित्य हमको आकर बता जाया करो और लोग भी अर्थात् तुम्हारे पड़ोसी अथवा जहाँ तुम जानो वे लोग जो बातें करें वह भी बता जाया करो, यह काम कर सकोगे?"

"बड़ी सरलता से!"

"यहाँ किस समय आया करोगे?"

"इसी समय।"

"ठीक है! सार्जेण्ट।"

"हुजूर!"

"इसे इधर ले जाकर रजिस्टर्ड करवा दो।"

"बहुत खूब!"

"सार्जेण्ट लड़के को दूसरे कमरे में ले गया। वहाँ लड़के का नाम, मुहल्ला इत्यादि सब लिख लिया गया और उसके अँगूठे का निशान तथा फोटो लिया गया। इसके पश्चात उससे कहा गया––तुम्हारा नम्बर १४०५ है! समझे? यहाँ आकर अथवा किसी जर्मन अफसर के पूछने पर यही नम्बर बताना––नाम किसी को मत बताना। बहुत होशियारी से रहना। किसी को यह पता न लगे कि तुम हमारे लिए काम कर रहे हो।"

"बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा।" लुई ने कहा।

"अच्छा तो तुम अब जा सकते हो। कल इसी समय आकर अपनी रिपोर्ट देना।"

"बहुत अच्छा।"

यह कहकर लुई विदा हुआ।

लुई जर्मन कमाण्डर के निवासस्थान से निकल कर सीधा अपने घर पहुँचा। उसके पीछे-पीछे एक जर्मन गुप्त रूप से लगा हुआ था। जब लुई अपने मकान के अन्दर चला गया तो गुप्तचर वापस लौट गया। लुई का पिता तथा उसकी माता बैठे बात कर रहे थे। लुई को देखकर उसके पिता ने पूछा––"क्या हुआ?"

"ठहरिये पिताजी, पहले मैं कपड़े बदल आऊँ!"

यह कहकर लुई एक छोटे से कमरे में घुस गया। कुछ क्षण पश्चात् जब वह बाहर निकला तो लड़का न होकर लड़की था। केवल सिर के बालों को छोड़कर जो पुरुषों जैसे थे, अन्य सब प्रकार से वह लड़की थी।

उसकी माता बोल उठी––"विग (नकली बाल) पहन लो बेटी।"

"ओ भूल गई!"

यह कहकर वह पुनः कमरे में चली गई और दूसरे ही क्षण बाहर निकल आई अब उसके बाल जनाने थे। माता के बगल में कुर्सी पर बैठते हुए वह बोली––'ओफ! अब जान में जान आई! मैं तो बहुत डर रही थी कि कहीं जर्मन मुझे पहचान न लें कि यह लड़की है। जान जोखिम का काम था: यदि पहचान लेते तो मैं जीवित न लौट सकती।"

"मैं तुम्हारे साहस की दाद देता हूँ लुइसी! हुआ क्या यह बताओ!"

"सब ठीक हो गया! मैं प्रविष्ट कर ली गई। ये जर्मन बड़े सतर्क हैं पिताजी। मेरा नाम-धाम इत्यादि लिखने के साथ ही उन्होंने मेरा फोटो तथा अंगूठे का निशान भी ले लिया।"

"सो तो करेंगे ही। इतने सतर्क न रहें तो यहाँ रहने पावें।" चलो सब ठीक हो गया। इन जर्मन कुत्तों से बदला लेने की सुविधा प्राप्त हो गई। अब हम लोगों को अपना काम करने की तैयारी करनी चाहिए। तुमने सब बातें ठीक-ठीक बता दी थीं।"

"अपना नाम छोड़कर सब बातें ठीक ही बताईं।"

"ठीक! यदि जर्मन तहकीकात करें तो उन्हें कोई बात गलत न मिले।"

"परन्तु मैंने अपना नाम तो ग़लत ही बताया है।"

"कोई हर्ज नहीं! पास पड़ोस वालों को तो कह ही दिया गया है कि यदि कोई पूछे तो लड़का बताना और नाम लुई बताना।"

"यदि होटल तथा काबरे में जाकर पूछा तो?" लुइसी ने प्रश्न किया।

"उनको क्या पता कि मेरे घर में कौन-कौन है। न मैंने और न तेरे भाई ने वहाँ किसी से कभी बताया। वहाँ तो केवल मेरा नाम तथा पता दर्ज है। ऐसा तेरे भाई का भी है।"

"तब तो कोई खटका नहीं।"

"मेरा नम्बर १४०५ रक्खा गया है।"

"गुप्तचरों के नम्बर ही होते हैं। उनके नाम अफसरों के अतिरिक्त और किसी को ज्ञात नहीं होते। एक बात का ध्यान रखना लुइसी तुम जब घर से जाना तो मर्दाने-भेष में ही जाना। ये जर्मन बड़े सयाने हैं। सम्भव है उन्होंने हमारे मकान पर कोई गुप्तचर तैनात किया हो। यदि वह तुम्हें जनाने-भेष में देखेगा तो वह इसकी रिपोर्ट देगा और ऐसा होने से जर्मनों को सन्देह उत्पन्न हो जायगा।" "ठीक है, मैं सदैव इसका खयाल रक्खूँगी।"

( २ )

लुइसी नित्य जर्मन कमाण्डर के दफ्तर में जाकर अपनी रिपोर्ट लिखाने लगी। दो तीन दिन तो उसने साधारण बातें बताईं। चौथे दिन उसने रिपोर्ट दी—"कल चार पाँच आदमी मेरे पिता के पास आये थे। एक बन्द कमरे में वह एक घण्टे तक मेरे पिता से बातें करते रहे।"

उससे प्रश्न किया गया—"तुम वे बातें नहीं सुन सके?"

"कैसे सुन सकता था, कमरा अन्दर से बन्द था।"

"सुनने का प्रयत्न करो। यही तो खास बात है।"

"मैं अवश्य सुन लूँगी।"

"शाबाश! तुमको बहुत इनाम मिलेगा।"

सातवें दिन लुइसी ने रिपोर्ट दी—"आज मेरे पिता के पास आठ-दस आदमी आये थे। पिता ने हम लोगों को बता दिया था कि आज कुछ लोग आवेंगे, उनके लिए चाय तैयार रखना। यह समाचार पाकर मैं उस कमर में जिसमें वे लोग बैठने वाले थे पहले से ही छिप गया।"

"ठीक! तुम्हें छिपते किसी ने देखा तो नहीं था।"

"नहीं मैं बाहर जाने का बहाना करके पहले घर से बाहर आगया था फिर अवसर पाकर चुपचाप कमरे में जा छिपा था।"

"शाबाश! क्या बातें हुई थीं?"

"वे सब बातें तो मुझे याद नहीं रहीं, उनका तात्पर्य आप लोगों के विरुद्ध कोई षड्यन्त्र रचने का है। कल फिर मीटिंग है।"

"तो कल भी सुनना और इस बार कागज पेन्सिल साथ रखना। वे लोग जो बातें करें उनके खास-खास स्थल नोट कर लेना।"

"लेकिन जहाँ मैं छिपता हूँ वहाँ बड़ा अन्धेरा रहता है कुछ दिखाई नहीं देता।"

"अच्छा! इसका हम उपाय कर देंगे।"

यह कहकर अफसर ने जर्मन भाषा में एक अर्दली से कुछ कहा। थोड़ी देर में वह एक पेंसिल लेकर आ गया। यह पेन्सिल निकल की बनी हुई थी। मामूली पेन्सिल से कुछ मोटी थी। अफसर बोला—"देखो यह पेन्सिल है। इसमें यह जो बल्ब लगा है इसे दबाने से इसमें रोशनी हो जायगी। यह रोशनी केवल कागज पर पड़ेगी—इधर उधर नहीं फैलेगी। इससे तुम अन्धेरे में भी लिख सकोगे। इसे अपने पास रक्खो। एक छोटी पाकेट बुक भी चाहिए या तुम्हारे पास है?"

"हो तो दिलवा दीजिए।"

आफिसर ने पाकेट बुक भी दिलवा दी।

तीसरे दिन लुइसी पाकेट-बुक लेकर पहुंची और उसे जर्मन अफसर के सामने पेश किया। जर्मन अफसर उसे पढ़कर बोला—तो यह कहो, यह हम लोगों के विरुद्ध षड्यन्त्र रच रहे हैं। परसों एक वृहत् मीटिंग है। स्थान—क्या लिखा है?"

लुइसी ने बताया।

"यह जगह कहाँ है!"

"यह जगह नगर के एक सुनसान स्थान में है। यहाँ एक पुराना मकान है जो खाली पड़ा रहता है।" इसमें होगी। यह कहकर लुइसी ने मकान का पूरा पता बता दिया। "हूँ! पचास-साठ आदमी होंगे। समय रात को नौ बजे के बाद! हूँ! ठीक है। शाबाश तुमने बहुत बड़ा काम किया। तुम्हें इसका भर पूर इनाम मिलेगा। अच्छा अब तुम जा सकते हो। कोई नई बात हो तो ध्यान रखना।"

XXX

लुइसी के बताये दिन, रात के नौ बजे लगभग पचास जर्मन सैनिकों की एक टुकड़ी अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर उपयुक्त मकान घेरने के लिए चल पड़ी। घूमते घामते दस बजे रात के लगभग ये लोग उक्त मकान के निकट पहुँचे। मकान का द्वार अन्दर से बन्द था। परन्तु मकान के अन्दर प्रकाश होने से यह पता लग रहा था कि अन्दर लोग मौजूद हैं। एक सैनिक ने खिड़की के पास कान लगाकर सुना—कुछ लोगों के बोलने का धीमा-स्वर सुनाई पड़ रहा था। सैनिकों ने सलाह दी कि द्वार तोड़कर एकदम भीतर घुस चलना चाहिए। चार-पांच सैनिकों ने कंधे जोड़कर एकदम द्वार पर आघात किया। द्वार का पल्ला टूटकर अलग हो गया। सब सैनिक एक दम धावे के साथ मकान के अन्दर घुस गये। मकान के अन्दर एक बड़ा कमरा था इस कमरे के बीचो-बीच मेज पर एक 'आटोमेटिक रिपीटर ग्रामोफोन' (जो अपने आपही एक रिकार्ड को बार-बार बजाता रहता है) रक्खा हुआ था। इसी ग्रामोफोन से आदमियों के बोलने की आवाज निकल रही थी। इसके अतिरिक्त और वहां आदमी का नाम भी नहीं था। जर्मन सैनिक बड़े चक्कर में पड़े और यह सोच ही रहे थे कि क्या मामला है कि उसी समय एक गगन-भेदी धड़ाका हुआ और वह मकान तथा उसके साथ सब जर्मन सैनिक आकाश में उड़ गये।

इस दुर्घटना के आध घण्टे बाद ही जर्मन सैनिकों की एक टुकड़ी ने लुइसी का मकान घेर लिया, परन्तु अन्दर जाने पर उन्हें मकान बिलकुल खाली मिला।