रक्षा बंधन/२४—विजय दशमी
विजय-दशमी
( १ )
पं० माताप्रसाद अनाज के एक बड़े व्यापारी हैं। लखपती कहलाते हैं । ठाठ भी लखपतियों जैसे हैं। आपका एक राम-मन्दिर भी है और उसकी गिनती नगर के अच्छे मन्दिरों में है ।
माताप्रसाद सबेरे दो घण्टे और सन्ध्या समय लगभग दो घण्टे इस मन्दिर में पूजन-पाठ तथा रामभजन किया करते हैं ।
लोगों का कथन है कि पण्डित जी बड़े उदार, सच्चे तथा सौम्य आदमी हैं । जिस समय अनाज का देशव्यापी संकट चल रहा था और ब्लेक-मार्केट करने वाले अनाज के व्यापारी जनता को दाने-दाने के लिए तरसा रहे थे, उस समय केवल पण्डित जी ने अपने बाजार से विद्रोह करके जनता को यथासम्भव अन्न दिया था। उनके राम-मन्दिर में नित्य पन्द्रह आदमियों को पका हुआ भोजन आमान्न मिलता है। इसके अतिरिक्त पण्डित जी अन्य लोकोपारी कार्यों के लिए भी यथाशक्ति दान देते रहते हैं।
पण्डित जी का परिवार छोटा है । कुल पांच व्यक्ति उनके परिवार में हैं । वह स्वयं, भ्राता, पत्नी, एक कन्या तथा एक पुत्र ।
पण्डित जी का नियम था कि पाँच बजे दुकान से उठ आते थे । घर आकर शौच-स्थान करते थे। तत्पश्चात् मन्दिर में पहुंच जाते थे। नौ बजे तक मन्दिर में रहते, तत्पश्चात् घर अाकर भोजन करते थे और फिर ग्यारह-साढ़े ग्यारह तक अपनी बैठक में बैठकर आगत मित्रों तथा परिचितों से वार्तालाप करते थे अथवा अकेले होने पर कोई धार्मिक ग्रन्थ पढ़ा करते थे !
पौनेदस का समय था। पण्डित जी भोजन करके अपनी बैठक में पाकर बैठे ही थे कि उसी समय उनके दो मित्र आ गये ।
पण्डित जी ने मुस्कराकर उनका स्वागत किया
"कहो भई रामजीदास, सब कुशल ?"
"हाँ सब आपकी दया है।"
"और तुम बम्बई से कब लौटे रामसेवक ?"
"मैं कल आया हूँ।"
"क्या हाल-चाल है।"
"हाल-चाल सब ठीक है।"
"रामलीला हो रही है ?"
"हाँ ! मैं तो अभी किसी दिन गया नहीं, लड़के बच्चे जाते हैं।"
"हम लोग क्या जाय ! वही सब पुरानी बातें, कहीं कोई नवीनता नहीं।" रामजीदास ने कहा।
"नवीनता हो कहाँ से । प्राचीन ढंग से करने में भी वाधा है।"
"वाधा कैसी?"
"यही, हिन्दू-मुस्लिम दंगे की।"
"दंगा-वंगा कुछ नहीं होगा। पुलिस का काफी प्रबन्ध है।" पण्डित जी मुस्करा दिये बोले-"इतनी नवीनता थोड़ी है ?"
"नवीनता इसमें क्या है ?"
"प्रति वर्ष पुलिस का प्रबन्ध अधिक होता जाता है यही नवी- नता है।"
दोनों व्यक्ति हँस पड़े । रामसेवक ने कहा—"इसमें कौन सी नवी-नता है?'
"इसमें बहुत बड़ी नवीनता है। सरकार को लोगों के धार्मिक कार्य सकुशल सम्पन्न करा देने का कितना खयाल है । स्वयं अपना प्रबन्ध करके आपके सब कार्य करा देती है।"
“यह क्या बात हुई । प्रबन्ध करना तो सरकार का कर्तव्य है।"
"निस्सन्देह ! जब आप लोग अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर सकते तब सरकार को करनी पड़ती है।"
"हाँ यह बात तो ठीक है । यह अच्छा भी है । सरकारी प्रबन्ध में अपना सब कार्य निश्चिन्तापूर्वक हो जाता है ।
"इसमें क्या सन्देह है । चिन्ता को हम लोग पास भी नहीं फटकने देना चाहते । इसी कारण चिन्ता करने का काम सरकार को करना पड़ता है।"
"शासक का यही कर्तव्य है।"
"बिलकुल ! और शासित का यह कर्तव्य है कि वह सब चिन्ताओं का भार शासक पर छोड़ कर सुख की नींद सोवे ।"
"और क्या ! जनता को चिन्ता करने की क्या आवश्यकता है।"
"ठीक बात है । ऐसी दशा में स्वराज्य मांगना बिलकुल व्यर्थ है। क्योंकि स्वराज्य मिल जाने पर चिन्ता करने का भार भी अपने ही ऊपर आ पड़ेगा---उस दशा में सुख की नींद कैसे सोइयेगा ?"
“यह तो बनी बनाई बात है । क्या आप समझते हैं कि यदि भारत स्वतन्त्र होता तो इस युद्ध की भाग से बच सकता था ?"
"कभी नहीं। इस युद्ध में भारत तो बेदाग ही रहा ।"
"बिलकुल ! लाखों भारतीय सैनिक कट गये, बंगाल में लाखों आदमी अन्नभाव से मर गये, लाखों को कपड़े नहीं मिले, पेट भर भोजन नहीं मिला, भारत का करोड़ों रुपया युद्ध की भेट हो गया । ये सब आराम स्वराज्य में कहाँ नसीब होते ।"
"ये आराम नहीं कष्ट की बातें थी-यह मानना पड़ेगा, परन्तु जो देश युद्ध में रत थे उनकी दशा तो यहाँ से भी अधिक खराब है । उनको तुलना में तो भारत का कष्ट बहुत कम है । जापान और जर्मनी की दशा देखिये, चीन की हालत पर विचार कीजिए।" "हाँ ! ठीक कहते हो।" पण्डित जी ने मुस्कराकर कहा।" इसके पश्चात् बात का प्रसंग बदल गया।
( २ )
अष्टमी का दिन था। चारों ओर दुर्गापूजा की धूम थी ? स्त्री-पुरुष देवी-भन्दिर की ओर दौड़े चले जा रहे थे ।
पण्डित माता प्रसाद अपने मन्दिर में नित्यानुसार उपस्थित थे मन्दिर का पुजारी बोला-'आप देवी के दर्शन करने न जायगे-कर आइये दुर्गाष्टमी है।
"क्या बतावे पुजारी जी, दर्शन करते-करते ये आँखें बेकार हुई जा रही हैं, परन्तु कोई लाभ तो होता नहीं।"
"देव-दर्शन स्वयं सबसे बड़ा लाभ है।"
"पारलौकिक हो तो हो, लौकिक लाभ तो कुछ भी नहीं है।"
"लौकिक लाभ होता ही है श्रद्धा होनी चाहिए।"
"श्रद्धा ! इस देश में श्रद्धालुओं की कमी है। झुण्ड के झण्ड स्त्री-पुरुष जो देवी-मन्दिर की ओर भागे चले जा रहे है, ये क्या श्रद्धा का विज्ञापन नहीं करते।"
"निस्सन्देह ! करते हैं । इसो से तो पता चलता है कि हमारे देश में अब भी इतनी श्रद्धा है।"
"परन्तु उसका फल क्या ? महिषासुरमर्दिनी जगज्जननी महा. माया आज तक अपने भक्तों को गुलामी की जंजीरों से मुक्त न करा सकी।"
"अवश्य करायगी, समय आने दीजिए।"
"यदि सर्वशक्तिमान देवताओं को भी समय की प्रतीक्षा है तब तो यह श्रद्धा-वृद्धा सब व्यर्थ है।"
"एक बात और भी तो है पण्डित जी, हम लोग उन्हें हृदय से पुकारते कब हैं।"
"तब तो यह श्रद्धा ढोंग है, दिखावा मनोरंजन है।" "नहीं, सब तो ऐसे नहीं हैं । ऐसे लोग भी हैं जो सच्चे भक्त हैं।"
"तब वे केवल अपने व्यक्तित्व अथवा अपने सपरिवार के लिए देवी की कृपा चाहते हैं, यह तो स्वार्थ कहलायगा।"
"आप का तात्पर्य क्या है पण्डित जो !"
"मेरा तात्पर्य यह है कि मुझे यह व्यर्थ की श्रद्धा-भक्ति देख कर क्लेश होता है। हम अपने धर्म की लाश को हृदय से लगाये हुए हैं, हमारा धर्म निष्प्राण हो चुका है।"
"आप ऐसा कहते हैं ! राम के अनन्य भक्त होकर !”
"मेरी भक्ति भी अन्यों की भांति ही है।"
"आप ऐसा कहें मैं तो ऐसा नहीं समझता।"
"मैं तो समझता हूँ।"
"तो आखिर आप चाहते क्या हैं ?"
"मैं चाहता हूँ कि हमारे धर्म का कायाकल्प हो उसमें फिर से नव स्फूर्ति भावे ।"
"वह कैसे आवेगी ?"
'धर्म को नया जामा पहनने से ! वर्तमान समय में हमारा धर्म जो रूप धारण किये हुए है वह हमारे लिए व्यर्थ है । हम उससे न अपना कुछ भला कर सकते हैं न दूसरों का । हम मानते तो हैं विजय दशमी और पुलीस के पहरे में अपने जुलूस निकालते हैं। हमारे राम- कृष्ण भी बिना पुलोस की सहायता के निरापद नहीं रह सकते । यह है हमारा धर्म ! यह विजय दशमी है ? यह विजय दशमी नहीं, विजय दशमी का उपहास है, उसका मखौल उड़ाना है । जरा गड़बड़ी होते ही हम अपने पूज्य देवताओं के प्रतीकों को छोड़ कर बिलों में घुस जाते हैं। थोड़ा सा ही विरोध होने पर हमें अपना धार्मिक कार्य ही बन्द कर देना पड़ता है। ये विजय के लक्षण हैं या पराजय के । बाँस और कागज के रावण पर विजय पाने के लिए हम इतना बड़ा आयोजन करते हैं, उसे जलाकर हम समझते हैं कि हमने विजय प्राप्त कर ली । परन्तु आप की वास्तविकता यह है कि बिना सरकारी सहायता के आप उस कागज के रावण पर भी विजय नहीं प्राप्त कर सकते।"
पुजारी जी सिर झुका कर बोले "बात तो आप ठीक कहते हैं, परन्तु किया क्या जाय ? यदि कुछ न किया जाय तब भी नहीं बनता कुछ करते रहने से हमारे धार्मिक उत्सवों का अस्तित्व तो बना हुआ है।"
"हाँ केवल इतना ही लाभ है। इस बहाने लोगों का मनोरंजन हो जाता है।
( ३ )
विजय दशमी का दिन आ पहुँचा । घर-घर में उत्साह तथा प्रानन्द हिलोरें मार रहा था । परन्तु पण्डित माताप्रसाद आज कुछ निरुत्साह तथा उदासीन दिखाई पड़ रहे थे। उनका घर भर प्रसन्न तथा उत्साहित था परन्तु वह स्वयं खिन्न-चित्त से थे ! इतना होते हुए भी वह सवेरे से ही मन्दिर में उपस्थित थे। आज भोजनार्थियों की भीड़ अधिक थी और पण्डित जी नियमित संख्या की उपेक्षा करके सबको भोजन दे रहे थे ।
बारह बजे तक वह यह कार्य करके पैदल ही घर की ओर आरहे थे कि राह में उनके एक परिचित मिल गये । पण्डित जी से उन्होंने पूछा—"आज अब मन्दिर से लौटे"
"हाँ ! जरा देर होगई । तुम किधर चले।"
"क्या बताऊँ, मैं तो थोड़े झंझट में हूं।"
"झंझट कैसा ?"
"मेरे पड़ोस में एक गरीब ब्राह्मण रहते थे। दो मास हुए उनका
देहान्त हो गया है । उनका परिवार बड़े कष्ट में है-पेट भर भोजन का
भी ठिकाना नहीं है । आज विजय-दशमी है । घर-घर में उत्साह और
आनन्द—विधवा बेचारी बैठी रो रही है। उसके दो बच्चे सबेरे से ही
रोना-धोना मचाये हैं--कहते हैं कपड़े लाओ, मिठाई लामो, खिलौने
लामो । बह विधवा बेचारी ये सब कहाँ से लावे।"
"तुम्हारे ऊपर क्या झंझट है।"
"इसी सोच में हूँ कि उनकी कुछ सहायता करूं । मिठाई तो मैं ला दूंगा, परन्तु अन्य चीजें मेरे बस को नहीं है । विधवा का दुःख देखा नहीं जाता । मैं गरीब आदमी उनकी क्या सहायता करूं—समझ में नहीं आता।"
"तुमसे नहीं देखा जाता तो मुझे ले चलो, मैं देखूंगा।"
"आपने अभी भोजन-वोजन नहीं किया है।"
"इसकी चिन्ता मत करो।"
"तो चलो। अच्छे मिल गये।"
दोनों चल कर विधवा ब्राह्मणी के घर पहुचे । एक गन्दे अंधेरे तथा तङ्ग मकान को एक कोठरी में विधवा का निवास था। विधवा केशरीर पर केवल एक फटी धोती और बच्चों के शरीर पर मैला तथा फटा कुर्ता था--लड़के का अधोभाग नंगा था-उसको आयु सात वर्ष की थी और कन्या केवल एक चिथड़ा लपेटे हुए थी। दोनों बच्चे मौन थे परन्तु उनके गालों पर आँसुओं की लकीरें स्पष्ट बता रही थीं कि उन्होंने अभी कुछ क्षण पूर्व ही रोना बन्द कर दिया है।
माताप्रसाद ने देख कर नेत्र बंद कर लिये और एक दीर्घ निश्वास छोड़कर बोले—'हे राम तुम कहाँ हो ?"
इसके पश्चात् अपने साथी से बोले-"चलो!"
"इनके लिए क्या सोचा।"
"चलो ! तुम इस झंझट में न पड़ो।" दोनों चले । जहाँ भेंट हुई थी वहाँ पहुँचा कर पण्डित जी बोले-
"अच्छा तो चलता हूँ।" परिचित महोदय ने खिन्न होकर कहा-"अच्छा ! नमस्कार ।"
"नमस्कार' ! कह कर पण्डित जी चल दिये । परिचित महोदय ने मन ही मन कहा “वाह ! अच्छे मिले-देखकर चले आये कुछ दिया भी नहीं । बड़े धार्मिक की दुम बनते हैं। हमसे कहते हैं, तुम इस झंझट में न पड़ो । वाह भई वाह ! जब बड़ों की यह दशा है तब हम गरीब किस गिनती हैं।"
दो घंटे पश्चात् जब वह महाशय आठ पाने की मिठाई लेकर विधवा के यहां पहुंचे तो उन्होंने देखा कि विधवा बच्चों को नहला रही है, साबुन लगाकर।
वह बोले—'लो यह मिठाई तो मैं ले आया बच्चों के लिए परन्तु-"
विधवा प्रसन्नमुख होकर बोली—"मिठाई तो बहुत आगई !"
"कहाँ से आगई?"
"न जाने कोई दे गया है । और भी बहुत कुछ दे गया है।"
"क्या दे गया है।"
"कोठरी में धरा है देख लो।"
वह व्यक्ति कोठरी में गया तो उसने देखा कि एक थाल मिठाई का भरा रक्खा है । एक थाल में काफी आटा, दाल, चावल, घी इत्यादि कोई दस आदमियों का सामान । एक थाल में स्त्री के लिये दो धुली घोतियां, बच्चों के धुले कपड़े, लड़की के लिए धोती सलूका ! लड़के के लिए धोती, कुर्ता, टोपी ! और पचीस रुपये नकद !
"ये रुपये भी हैं" उस व्यक्ति ने पूछा ।
"हाँ ! कह गया है कि बच्चों के लिए जूते और खिलौनों के लिए !"
"परन्तु दे कौन गया ?'
"मैंने बहुत पूछा पर उसने बताया नहीं, रखके चला गया।" वह व्यक्ति एक दम वहाँ से भागा और सीधा माताप्रसाद के पास पहुँचा । पण्डित जी से वह बोला-"पण्डित जी क्या वह सब सामान आपने भेजा है।"
"राम जी ने भेजा होगा, मुझ में क्या शक्ति है।"
वह व्यक्ति कुछ क्षण हतबुद्धि सा खड़ा रहा। पण्डित जी मुस्करा कर बोले-'बैठो!" "नहीं अब जाऊँगा। आपने इतना किया है तो मैं उन्हें जूते तो पहना लाऊं।"
"अच्छी बात है! हाँ एक बात और है, जब तक विधवा के निर्वाह का कोई अन्य द्वार उत्पन्न न हो तब तक मैं उसे बीस रुपये मासिक देता रहूँगा।"
"आप धन्य हैं पण्डित जी! एक दुखिया के दुःख का नाश करके सच्ची विजय दशमी आपने ही मनाई। संध्या समय मेले में तो जाइयेगा।"
"जी नहीं! मेरी ऐसे मेलों में तनिक भी श्रद्धा नहीं है वरन् देखकर उलटा कष्ट होता है।"