रक्षा बंधन/१०-मद
मद
( १ )
रायबहादुर केशवप्रसाद उन आदमियों में से थे जिनका विश्वास था कि संसार में धन ही सब कुछ है । जिसके पास धन है वही श्रेष्ठ है और वह सब कुछ प्राप्त कर सकता है।
रायबहादुर साहब का परिवार आठ-दस आदमियों का परिवार है। तीन पुत्र, दो पुत्रियाँ, पत्नी; विधवा चाची इत्यादि से परिवार भरा-पूरा है । बड़ा लड़का कृष्णप्रसाद डिप्टी कलक्टर है और बाहर रहता है।
रात के आठ बजे थे । रायबहादुर साहब अपने कुछ मित्रों तथा खुशामदियों सहित अपने विशाल भवन के एक सुसज्जित कमरे में बिजलो की अंगीठी के सन्मुख
"आज बड़ी सर्दी है ।" एक सज्जन ने कहा।
"हाँ आज कल से भी अधिक है।"
"ऐसे में सरकस देखने चलना तो मुसीबत है ।"
"न चलियेगा तो टिकट रद्दी हो जायगे।"
"खैर चलेंगे तो, परन्तु मानन्द नहीं पायगा।"
"शाल-बाल लेलीजिएगा। हम तो तूश लेकर आये हैं।" एक ने कहा। "जी मैं कम्बल लेकर आया हूँ! यह न समझियेगा कि आपके पास तूश है। वह मोल में भारी हैं तो यह तोल में भारी!"
सब लोग हँसने लगे रायबहादुर साहब बोले--"यह बराबरी अच्छी दिखाई। भारी दोनों हैं---एक मोल में तो दूसरा तोल में?"
"कहने को चाहे जो कहिए---तूश और मलीदा और अलवान--- परन्तु जो आनन्द कम्बल और रजाई में आता है वह किसी में नहीं है।"
रायबहादुर बोले---"तूश वगैरह हल्के होते हैं और साथ ही काफी गम भी इसलिए इनका मूल्य है। रजाई और कम्बल ओढ़े चलना- फिरना कठिन होता है।"
"हाँ बस इतनी ही सुविधा है। रात को तूश ओढ़ कर सोइये तो पता लग जाय! रात में तो लिहाफ और कम्बल ही काम देते हैं।"
"गधे हो! तूश इत्यादि का उपयोग रात में ओढ़कर सोने में नहीं होता।" रायबहादुर ने कहा।
"क्या-क्या गप लोग हाँक देते हैं। एक साहब उस दिन कह रहे थे कि पहले ऐसे तूश होते थे कि यदि जमे हुए घी के कुप्पे पर लपेट दीजिए तो घी पिघल जाता था।"
"हाँ तो क्या हुआ! ऐसे तूश बनते रहे होंगे।"
"ऐसा कोई कपड़ा बन ही नहीं सकता। तूश में गर्मी कहाँ से आई?"
"तूश में गर्मी नहीं होती तो शरीर को गर्म क्यों रखता है।"
"शरीर को तो आप के अन्दर निरन्तर उत्पन्न होती हुई गर्मी गर्म रखती हैं। ऊन केवल इतना करता है कि आपके शरीर की गर्मी को संचित रखता है बाहर की ठंडी हवा उसे नहीं घसीट पाती, क्योंकि ऊन गर्मी का वाहक न होकर रोधक होता है।"
"यह बात तो हमारी कुछ समझ में नहीं आती---हम तो यह जानते हैं कि ऊन गर्म होता है।"
"उसका यही तात्पर्य है। जितने पदार्थ गर्मी के अवरोधक होते हैं वे गर्म कहे जाते हैं। यद्यपि उन पदार्थों में गर्मी-वर्मी कुछ नहीं होती। यह विज्ञान का मत है।"
"होगा! हम इज्ञान-विज्ञान क्या जानें। हम तो सीधी बात जानते हैं।"
इन्हीं बातों में पौने नौ का समय हो गया। एक महाशय बोले--- "समय हो गया--अब चलना चाहिए।"
"हाँ अब समय हो गया।"
राय बहादुर साहब ने नौकर से कार मँगवाने के लिए कहा और स्वयं कपड़े पहनने चले गये।
( २ )
राय बहादुर साहब फर्स्टक्लास में अपने तीनों मित्रों सहित विराज- मान थे। खेल आरम्भ हो चुका था।
कुछ देर बाद एक उन्नीस-बीस वर्ष की श्वेताङ्ग युवती घुटनों तक फूला हुअा श्वेत घाँघरा सा और उसके ऊपर श्वेत रेशम की एक जाकट सी-बाहें खुली हुई-पहने हुये पाई और दो दौड़ते हुए घोड़ों की पीठ पर अपने कर्तब दिखाने लगो। युवती बहुत सुन्दरी दिखाई पड़ती थी। राय बहादुर साहब स्थिर दृष्टि से उसका कार्य देखते रहे।
जब वह अपना खेल दिखाकर चली गई तब रायबहादुर साहब को मानो होश सा आया। पास बैठे हुए एक मित्र से बोले---"बड़े गजब की लड़की है शरीर में मानो हड्डी हैं ही नहीं।"
"जी हाँ! बड़ा लोचदार शरीर है और नख-शिख भी सुन्दर है।"
"क्या कहने हैं। हूर की बच्ची है।" दूसरे मित्र ने कहा।
"इसको बहुत तनख्वाह मिलती होगी।"
"हाँ! इसमें क्या संदेह है।"
"भला कितनी मिलती होगी?" रायबहादुर साहब ने पूछा।
"हजार-पाँचसौ तो मिलते ही होंगे।" "हजार-पाँचसौ मेंं तो बड़ा अन्तर है यार !" तीसरे मित्र ने कहा।
"मेरा मतलब है कम से कम पाँच-सौ और अधिक से अधिक एक हजार!"
"कल जरा पता लगवाना चाहिए।" रायबहादुर साहब बोले।
"क्या करोगे पता लगवा कर?"
रायबहादुर साहब किंचित् मुस्कराकर बोले—"तबियत !"
"अच्छा जान पड़ता है तबियत आ गई। लेकिन यहाँ आपकी दाल नहीं गलेगी।"
"क्या कहते हो दाल नहीं गलेगी? रुपया वह चीज है कि पत्थर को गला देता है—दाल तो दाल !"
"यहाँ रुपया काम नहीं देगा।"
"रुपया हर जगह काम देता है और यहां भी काम देगा।"
"मुझे तो सन्देह है।"
"अच्छा कुछ शर्त बद लो!" रायबहादुर साहब बोले।
"शर्त-वर्त बदना तो अपनी समझ में नहीं आता।"
"मैं शर्त बदता हूं।" तीसरे सज्जन बोल उठे।
"क्या शर्त बदते हो।
"जो आपका जी चाहे।"
"हजार रुपये की शर्त रही।"
"रुपये की शर्त तो व्यर्थ है। देखिये यदि हार जाँय तो यह कहना छोड़ दें कि रुपया सब कुछ कर सकता है।"
"और जो तुम हार गये?" रायबहादुर ने पूछा।
"तो मैं यह मान लूँगा कि वाकई रुपया सब कुछ कर सकता है।"
"जरा समझ-बूझ कर शर्त बदो। थियेटर-सर्कस की औरतों पर ऐसी शर्त बदना मूर्खता है। ये तो पैसे से हस्तगत की जा सकती हैं।"
"हाँ—क्या हुआ। परन्तु कम से कम कोई हिन्दुस्तानी तो इसे पैसे के बल से भी हस्तगत नहीं कर सकता---ऐसा मेरा विश्वास है और इसीलिए मैं शर्त बद रहा हूँ।"
"तो रही शर्त?" रायबहादुर साहब ने पूछा।
"हाँ रही। जो कह दिया सो कह दिया उसको अब नहीं बदलूँगा।"
"तो बस ठीक है। कितना लेगी ससुरी हजार, दो हजार, चार हजार दस हजार!"
"बस। दस हजार तक का वजट रक्खा है।"
"बजट तो और बढ़ सकता है। अब तो शर्त बदी है न! चाहे जो खर्च हो जाय। परन्तु इतने से अधिक खर्च नहीं होगा।"
"अच्छी बात है।"
इसके पश्चात् खेल देखने लगे। खेल समाप्त होते होते श्वेताङ्ग लड़की एक बार पुनः दूसरी ड्रेस में पाई जो पहले से भी अधिक आकर्षक था। इस बार उसका खेल समाप्त होने पर रायबहादुर साहब ने खूब ताली बजाई। जोर से चिल्ला कर 'एक्सीलेन्ट' 'ग्रेण्ड' इत्यादि शब्दों का उच्चारण किया। श्वेताङ्ग लड़की एक बार इनकी ओर देख कर मुस्करा दी! रायबहादुर साहब कृतकृत्य हो गये।
( ३ )
दूसरे दिन रायबहादुर साहब के गण छूटे। तीन चार दिन में लड़की से रायबहादुर साहब का परिचय हो गया। लड़की एक अंग्रेजी होटल में ठहरी हुई थी। लड़की के साथ लड़की का पिता तथा बड़ा भाई भी था। ये तीनों 'स्पेनिश' ( स्पेन-देशीय ) थे। लड़की का नाम ईसाबेला था। बाप का नाम पीडो तथा लड़के का वेलेनटीनो था। वेलेनटीनों भी सर्कस का खेलाड़ी था, पिता घोड़ों की देख-रेख का काम करता था।
रायबहादुर साहब इन लोगों से एक बार नित्य मिलते थे। कभी वह स्वयं होटल जाते थे और कभी ये लोग रायबहादुर के घर आया करते थे। रायबहादुर साहब इनको बड़ी खातिर करते थे। फूलों के गुलदस्तों, फल, मिठाई तथा शृङ्गार सामग्री से इन लोगों को प्रसन्न करने का प्रयत्न कर रहे थे। ये लोग भी रायबहादुर को बहुत मानने लगे।
रायबहादुर साहब की कार इनके लिए हर समय उपस्थित रहती थी। रायबहादुर साहब स्वयं भी इन्हें घुमाने फिराने ले जाया करते थे।
एक दिन सर्कस की छुट्टी थी। रायबहादुर ईसाबेला को कार पर लेकर घूमने चलें। उस दिन ईसाबेला अकेली थी। रायबहादुर साहब भी अकेले ही थे और स्वयं ही कार को 'ड्राइव' कर रहे थे।
ईसाबेला अगली सीट पर रायबहादुर साहब के बगल में बैठी हुई थी।
नगर के बाहर छावनी की ओर जाकर रायबहादुर ने एक निर्जन स्थान पर कार रोक दी। अन्धकार हो गया था।
ईसाबेला ने पूछा---"क्या बात है।"
रायबहादुर साहब ने कहा---"कुछ नहीं! जरा देर यहाँ रुककर चलेंगे।"
कुछ क्षण मौन रहकर रायबहादुर ने कहा---"तुम सर्कस की नौकरी क्यों करती हो ईसाबेला?"
"मुझे शौक है।"
"बड़ा खतरनाक काम करती हो। जरा चूकने से प्राण जा सकते हैं।"
"यही तो आनन्द है।"
"यह आनन्द का विषय नहीं, भय का है।"
"मुझे तो तनिक भी भय नहीं लगता।"
ईसाबेला ने हँस कर कहा।
"जब तक तुम खेल करती रहती हो मेरी छाती धड़कती रहती है।"
"वह कुछ नहीं! मुझे उसी में आनन्द आता है।" "तुम सर्कस की नौकरी छोड़ दो।"
"क्यों?"
"जितनी तनख्वाह तुम वहाँ पाती हो उतनी मैं तुम्हें दूंगा।"
ईसाबेला हंस पड़ी। बोली---"तनख्वाह की क्या बात है! मुझे अपनी कला से प्रेम है।"
"तो अब तुम कला का प्रेम छोड़ कर मुझ से प्रेम करो।" यह कहकर रायबहादुर साहब ने ईसाबेला के गले में बाई बाँह डाल दी और उसका चुम्बन किया। ईसाबेला ने पीछे सरक कर एक तमाचा रायबहादुर साहब के गाल पर मारा और स्पेनिश भाषा में न जाने क्या कहने लगी।
रायबहादुर साहब अंग्रेजी जानते थे, स्पेनिश भाषा नहीं जानते थे अतः वह नहीं समझ सके कि ईसाबेला क्या कह रही है, परन्तु इतना अनुमान लगा लिया कि सम्भवतः गालियाँ दे रही है।
रायबहादुर साहब ने अपनी बाँह खींच ली और झट अपनी जेब से चेक बुक निकाली, फाउन्टेन पेन निकाला और चेक बुक खोल कर वह बोले---"बताओ तुम्हें कितना रुपया चाहिए---बतानो उतना लिख दूँ।"
ईसाबेला ने एक तमाचा और जड़ा। इस बार वह अँग्रेजी में बोली "बेवकूफ गँवार हिन्दुस्तानी। समझता है मैं रुपया पैदा करने के लिए सर्कस की नौकरी करती हूँ। वह मेरी कला है, मेरा शौक है। लाख रुपये के लिए भी मैं उसे नहीं छोड़ सकती।"
यह कहकर ईसाबेला कार से उतर पड़ी।
रायबहादुर साहब---"क्यों! क्यों!" कहते रहे। ईसाबेला पैदल ही चल दी। कुछ दूर चलने पर एक खाली तांगा मिल गया, उसे लेकर वह चली गई।
रायबहादुर साहब कुछ क्षण बैठे सोचते रहे तत्पश्चात् कार लेकर चल दिये। दूसरे दिन रायबहादुर साहब ने देखा कि उनके दिये हुए सब उप- हार वापस आगये, उनके साथ में एक चिट भी थी। उसमें केवल इतना लिखा था---"अब मुझ से मिलने का प्रयत्न मत करना!" ईसाबेला।
उस दिन संध्या समय रायबहादुर साहब ने मित्र-मण्डली में कहा---"मैं शर्त हार गया! निस्सन्देह रुपये से सब चीजें प्राप्त नहीं हो सकतीं।"