रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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कुँवर विनयसिंह की वीर मृत्यु के पश्चात् रानी जाह्नवी का सदुत्साह दुगना हो गया। वह पहले से कहीं ज्यादा क्रियाशील हो गई। उनके रोम-रोम में असाधारण स्फूर्ति का विकास हुआ। वृद्धावस्था की आलस्यप्रियता यौवन-काल की कर्मण्यता में परिणत हो गई। कमर बाँधी और सेवक-दल का संचालन अपने हाथ में लिया। रनि-वास छोड़ दिया, कर्म-क्षेत्र में उतर आई और इतने जोश से काम करने लगी कि सेवक दल को जो उन्नति कभी न प्राप्त हुई थी, वह अब हुई। धन का इतना बाहुल्य कभी न था, और न सेवकों की संख्या ही कभी इतनी अधिक थी। उनकी सेवा का क्षेत्र भी इतना विस्तीर्ण न था। उनके पास निज का जितना धन था, वह सेवक-दल को अर्पित कर दिया, यहाँ तक कि अपने लिए एक आभूषण भी न रखा। तपस्विनी का वेष धारण करके दिखा दिया कि अवसर पड़ने पर स्त्रियाँ कितनी कर्मशील हो सकती हैं।

डॉक्टर गंगुली का आशावाद भी अंत में अपने नग्न रूप में दिखाई दिया। उन्हें विदित हुआ कि वर्तमान अवस्था में आशावाद आत्मवंचना के सिवा और कुछ नहीं है। उन्होंने कौंसिल में मि० क्लार्क के विरुद्ध बड़ा शोर मचाया, पर यह अरण्य-रोदन सिद्ध हुआ। महीनों का वाद-विवाद, प्रश्नों का निरंतर प्रवाह, सब व्यर्थ हुआ। वह गवर्नमेंट को मि० क्लार्क का तिरस्कार करने पर मजबूर न कर सके। इसके प्रतिकूल मि० क्लाक गर्क की पद-वृद्धि हो गई। इस पर डॉक्टर साहब इतने झल्लाये कि आपे में न रह सके। वहीं भरी सभा में गवर्नर को खूब खरी-खरी सुनाई, यहाँ तक कि सभा के प्रधान ने उनसे बैठ जाने को कहा। इस पर वह और गर्म हुए और प्रधान की भी खबर ली। उन परं पक्षपात का दोषारोपण किया। प्रधान ने तब उनको सभा-भवन से चले जाने का हुक्म दिया और पुलिस को बुलाने की धमकी दी। मगर डॉक्टर साहब का क्रोध इस पर भी शांत न हुआ। वह उत्तेजित होकर बोले-"आर पशु-बल से मुझे चुप करना चाहते हैं, इसलिए कि आपमें धर्म और न्याय का बल नहीं है। आज मेरे दिल से यह विश्वास उठ गया, जो गत चालीस वर्षों से जमा हुआ था कि गवर्नमेंट हमारे ऊपर न्यायबल से शासन करना चाहती है। आज उस न्याय-बल की कलई खुल गई, हमारी आँखों से पर्दा उठ गया और हम गवर्नमेंट को उसके नग्न, आवरण-हीन रूप में देख रहे हैं। अब हमें स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि केवल हमको पीसकर तेल निकालने के लिए, हमारा अस्तित्व मिटाने के लिए, हमारी सभ्यता और हमारे मनुष्यत्व की हत्या करने के लिए, हमको अनंत काल तक चक्की का बैल बनाये रखने के लिए हमारे ऊपर राज्य किया जा रहा है। अब तक जो कोई मुझसे ऐसी बातें कहता था, मैं उससे लड़ने पर तत्पर हो जाता था, मैं रिपन, राम और वेसेंट आदि की कीर्ति का उल्लेख करके उसे निरुत्तर करने की चेष्टा करता था। पर अब विदित हो गया कि उद्देश्य सबका एक ही है, केवल साधनों में अंतर है।" [ ५७१ ]
वह और न बोलने पाये। पुलिस का एक सार्जेंट उन्हें सभा-भवन से निकाल ले गया। अन्य सभासद भी उठकर सभा-भवन से चले गये। पहले तो लोगों को भय था कि गवर्नमेंट डॉक्टर गंगुली पर अभियोग चलायेगी, पर कदाचित् व्यवस्थाकारों को उनकी वृद्धावस्था पर दया आ गई, विशेष इसलिए कि डॉक्टर महोदय ने उसी दिन घर आते ही अपना त्याग-पत्र भेज दिया।

वह उसी दिन वहाँ से रवाना हो गये और तीसरे दिन कुँवर भरतसिंह से आ मिले। कुँवर साहब ने कहा-"तुम तो इतने गुस्सेवर न थे, यह तुम्हें हो क्या गया ?"

गंगुली-"हो क्या गया! वही हो गया, जो आज से चालीस वर्ष पहले होना चाहिए था। अब हम भी आपका साथी हो गया। अब हम दोनों सेवक-दल का काम खूब उत्साह से करेगा।"

कुँवर-"नहीं डॉक्टर साहब, मुझे खेद है कि मैं आपका साथ न दे सकूँगा। मुझमें वह उत्साह नहीं रहा। विनय के साथ सब चला गया । जाह्नवी अलबत्ता आपकी सहायता करेंगी। अगर अब तक कुछ संदेह था, तो आपके निर्वासन ने उसे दूर कर दिया कि अधिकारि-वर्ग सेवक-दल से सशंक है, और यदि मैं उससे अलग न रहा, तो मुझे अपनी जायदाद से हाथ धोना पड़ेगा। जब यह निश्चय है कि हमारे भाग्य में दासता ही लिखी हुई है......"

गंगुली--"यह आपको कैसे निश्चय हुआ?"

कुँवर-“परिस्थितियों को देखकर, और क्या। जब यह निश्चय है कि हम सदैव गुलाम ही रहेंगे, तो मैं अपनी जायदाद क्यों हाथ से खोऊँ! जायदाद बची रहेगी, तो हम इस हीनावस्था में भी अपने दुखी भाइयों के कुछ काम आ सकेंगे। अगर वह भी निकल गई, तो हमारे दोनों हाथ कट जायँगे । हम रोनेवालों के आँसू भी न पोंछ सकेंगे।"

गंगुली-'आह ! तो कुँवर विनयसिंह का मृत्यु भी आपके इस बेड़ी को नहीं तोड़ सका। हम समझा था, आप निर्द्वेद हो गया होगा। पर देखता है, तो वह बेड़ी ज्यों-का-त्यों आपके पैरों में पड़ा हुआ है। अब आपको विदित हुआ होगा कि हम क्यों संपत्तिशाली पुरुषों पर भरोसा नहीं करता। वे तो अपनी संपत्ति का गुलाम हैं। वे कभी सत्यं के समर में नहीं आ सकते। जो सिपाही सोने का ईट गर्दन में बाँधकर लड़ने चले, वह कभी नहीं लड़ सकता। उसको तो अपने ईंट का चिंता लगा रहेगा। जब तक हम लोग ममता का परित्याग नहीं करेगा, हमारा उद्देश्य कभी पूरा नहीं होगा। अभी तक हमको कुछ भ्रम था, पर वह भी मिट गया कि संपत्तिशाली मनुष्य हमारा मदद करने के बदले उल्टा हमको नुकसान पहुँचायेगा। पहले आप निराशावादी था, अब आप संपत्तिवादी हो गया"

यह कहकर डॉक्टर गंगुली विमन हो यहाँ से उठे और जाह्नवीं के पास आये, तो देखा कि वह कहीं जाने को तैयार बैठी हैं। इन्हें देखते ही विहसित मुख से इनका अभिवादन करते हुए बोलीं-"अब तो आप भी मेरे सहकारी हो गये। मैं जानती थी कि
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एक-न-एक दिन हम लोग आपको अवश्य खींच लेंगे। जिनमें आत्मसम्मान का भाव जीवित है, उनके लिए वहाँ स्थान नहीं है। वहाँ उन्हीं के लिए स्थान है, जो या तो स्वार्थभक्त हैं, अथवा अपने को धोखा देने में निपुण । अभी यहाँ दो-एक दिन विश्राम कीजिएगा न ? मैं तो आज की गाड़ी से पंजाब जा रही हूँ।"

गंगुली-"विश्राम करने का समय तो अब निकट आ गया है, उसका क्या जल्दी है। अब अनंत विश्राम करेगा । हम भी आपके साथ चलेगा।"

जाह्नवी-"क्या कहें, बेचारी सोफिया न हुई, नहीं तो उससे बड़ी सहायता मिलती।"

गंगुली-"हमको तो उसका समाचार वहीं मिला था। उसका जीवन अब कष्टमय होता। उसका अंत हो गया, बहुत अच्छा हुआ। प्रणय-वंचित होकर वह कभी सुखी नहीं रह सकता था। कुछ भी हो, वह सती था; और सती नारियों का यही धर्म है। रानी इंदु तो आराम से है न !"

जाह्नवी-"वह तो महेंद्रकुमार से पहले ही रूठकर चली आई थी । अब यहीं रहती है। वह भी तो मेरे साथ जा रही है। उसने अपनी रियासत के सुप्रबंध के लिए एक ट्रस्ट बनाना निश्चय किया है, जिसके प्रधान आप होंगे। उसे रियासत से कोई संपर्क न रहेगा।"

इतने में इंदु आ गई और डॉक्टर गंगुली को देखते ही उन्हें प्रणाम करके बोली-"आप स्वयं आ गये, मेरा तो विचार था कि पंजाब होते हुए आपको सेवा में भी जाऊँ ।”

डॉक्टर गंगुली ने कुछ भोजन किया और संध्या-समय तीनों आदमी यहाँ से रवाना हो गये। तीनों के हृदय में एक ही ज्वाला थी, एक ही लगन । तीनों का ईश्वर पर पूर्ण विश्वास था।

कुँवर भरतसिंह अब फिर विलासमय जीवन व्यतीत कर रहे हैं, फिर वही सैर और शिकार है, वही अमीरों के चोचले, वही रईसों के आडंबर, वही ठाट-बाट । उनके धार्मिक विश्वास की जड़ें उखड़ गई हैं। इस जीवन से परे अब उनके लिए अनंत शून्य और अनंत आकाश के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। लोक असार है, परलोक भी असार है, जब तक जिंदगी है, हँस-खेलकर काट दो। मरने के पीछे क्या होगा, कौन जानता है । संसार सदा इसी भांति रहा है और इसी भाँति रहेगा। उसकी सुव्यवस्था न किसी से हुई है और न होगी। बड़े-बड़े ज्ञानी, बड़े-बड़े तत्त्ववेत्ता ऋषिमुनि मर गये, और कोई इस रहस्य का पार न पा सका। हम जीवमात्र हैं और हमारा काम केवल जीना है। देश-भक्ति, विश्व-भक्ति, सेवा, परोपकार, यह सब ढकोसला है। अब उनके नैराश्यव्यथित हृदय को इन्हीं विचारों से शांति मिलती है ।