रंगभूमि
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ ५४१ से – ५४५ तक

 

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पाँडेपुर में गोरखे अभी तक पड़ाव डाले हुए थे। उनके उपलों के जलने से चारों तरफ धुआँ छाया हुआ था। उस श्यामावरण में बस्ती के खंडहर भयानक मालूम होते थे। यहाँ अब भी दिन को दर्शकों की भीड़ रहती थी। नगर में शायद ही कोई ऐसा आदमी होगा, जो इन दो-तीन दिनों में यहाँ एक बार न आया हो। यह स्थान अब मुसलमानों का शहीदगाह और हिंदुओं की तपोभूमि के सदृश हो गया था। जहाँ विनयसिंह ने अपनी जीवन-लीला समाप्त की थी, वहाँ लोग आते, तो पैर से जूते उतार देते। कुछ भक्तों ने वहाँ पत्र-पुष्प भी चढ़ा रखे थे। यहाँ की मुख्य वस्तु सूरदास के झोपड़े के चिह्न थे। फूस के ढेर अभी तक पड़े हुए थे। लोग यहाँ आकर घंटों खड़े रहते और सैनिकों को क्रोध तथा घृणा की दृष्टि से देखते। इन पिशाचों ने हमारा मान-मर्दन किया, और अभी तक डटे हुए हैं। अब न जाने क्या करना चाहते हैं। बजरंगी, ठाकुरदीन, नायकराम, जगधर आदि अब भी अपना अधिकांश समय यहीं विचरने में व्यतीत करते थे। घर की याद भूलते-भूलते ही भूलती है। कोई अपनी भूली-भटकी चीजें खोजने आता, कोई पत्थर या लकड़ी खरीदने, और बच्चों को तो अपने घरों का चिह्न देखने ही में आनन्द आता था। एक पूछता, अच्छा बताओ, हमारा घर कहाँ था? दूसरा कहता, वह जहाँ कुत्ता लेटा हुआ है। तीसरा कहता, जी, कहीं हो न? वहाँ तो बेचू का घर था। देखते नहीं, यह अमरूद का पेड़ उसी के आँगन में था। दूकानदार आदि भी यहीं शाम-सबेरे आते और घंटों सिर झुकाये बैठे रहते, जैसे घरवाले मृत देह के चारों ओर जमा हो जाते हैं! यह मेरा आँगन था, यह मेरा दालान था, यहीं बैठकर तो मैं बही लिखा करता था, अरे, मेरी घी को हाँड़ी पड़ी हुई है, कुत्तों ने मुँह डाल दिया होगा, नहीं तो लेते चलते। कई साल की हाँड़ी थी। अरे! मेरा पुराना जूता पड़ा हुआ है। पानी से फूलकर कितना बड़ा हो गया है! दो-चार सजन ऐसे भी थे, जो अपने बाप-दादों के गाड़े हुए रुपये खोजने आते थे। जल्दी में उन्हें घर खोदने का अवकाश न मिला था। दादा बंगाल की सारो कमाई अपने सिरहाने गाड़कर मर गये, कभी उसका पता न बताया। कैसी हो गरमी पड़े, कितने ही मच्छर काटें, वह अपनी कोठरी ही में सोते थे। पिताजी खोदते-खोदते रह गये। डरते थे कि कहीं शोर न मच जाय। जल्दी क्या है, घर में ही तो है, जब जी चाहेगा, निकाल लेंगे। मैं यही सोचता रहा। क्या जानता था कि यह आफत आनेवाली है, नहीं तो पहले ही से खोद न लिया होता। अब कहाँ पता मिलता है, जिसके भाग्य का होगा, वह पायेगा!

संध्या हो गई थी। नायकराम, बजरंगी और उनके अन्य मित्र आकर एक पेड़ के नीचे बैठ गए।

नायकराम-"कहो बजरंगी, कहीं कोई घर मिला?"
बजरंगी-"घर नहीं, पत्थर मिला। सहर में रहूँ, तो इतना किराया कहाँ से लाऊँ, घास-चारा कहाँ मिले। इतनी जगह कहाँ मिली जाती है। हाँ, औरों की भाँति दूध में पानी मिलाने लगूँ, तो गुजर हो सकती है, लेकिन यह करम उम्र-भर नहीं किया, तो अब क्या करूँगा। दिहात में रहता हूँ, तो घर बनवाना पड़ता है; जमींदार को नजर-नजराना न दो, तो जमीन न मिले। एक-एक बिस्वे के दो-दो सौ माँगते हैं। घरबनवाने को अलग हजार रुपये चाहिए। इतने रुपये कहाँ से लाऊँ? जितना मावजा मिला है, उतने में तो एक कोठरी भी नहीं बन सकती। मैं तो सोचता हूँ, जानवरों को बेच डालूँ और यहीं पुतली घर में मजूरी करूँ। सब झगड़ा ही मिट जाय। तलब तो अच्छी मिलती है। और कहाँ-कहाँ ठिकाना ढूँढ़ते फिरें?"

जगधर-“यही तो मैं भी सोच रहा हूँ, बना-बनाया मकान रहने को मिल जायगा, पड़े रहेंगे। कहीं घर-बैठे खाने को तो मिलेगा नहीं! दिन-भर खोंचा लिये न फिरे, यहीं मजूरी की।"

ठाकुरदीन-“तुम लोगों से मजूरी हो सकती है, करो; मैं तो चाहे भूखों मर जाऊँ, पर मजूरी नहीं कर सकता। मजूरी सूद्रों का काम है, रोजगार करना बैसों का काम है। अपने हाथों अपना मरतबा क्यों खोयें, भगवान कहीं-न-कहीं ठिकाना लगायेंगे ही। यहाँ तो अब कोई मुझे सेत-मेत में रहने को कहे, तो न रहूँ। बस्ती उजड़ जाती है, तो भूतों का डेरा हो जाता है। देखते नहीं हो, कैसा सियापा छाया हुआ है, नहीं तो इस बेला यहाँ कितना गुलजार रहता था!"

नायकराम-"मुझे क्या सलाह देते हो बजरंगी, दिहात में रहूँ कि सहर में?"

बजरंगी-“भैया, तुम्हारा दिहात में निबाह न होगा। कहीं पीछे हटना ही पड़ेगा। रोज सहर का आना-जाना ठहरा, कितनी जहमत होगी। फिर तुम्हारे जात्री तुम्हारे साथ दिहात में थोड़े ही जायँगे। यहाँ से तो सहर इतना दूर नहीं था, इसलिए सब चले आते थे।"

नायकराम-"तुम्हारी क्या सलाह है जगधर?"

जगधर-"भैया, मैं तो सहर में रहने को न कहूँगा। खरच कितना बढ़ जायगा, मिट्टी भी मोल मिले, पानी के भी दाम दो। चालीस-पचास का तो एक छोटा-सा मकान मिलेगा। तुम्हारे साथ नित्त दस-बीस आदमी ठहरा चाहें। इसलिए बड़ा घर लेना पड़ेगा। उसका किराया सौ से नीचे न होगा। गाय-भैंसे कहाँ रखोगे? जात्रियों को कहाँ ठहराओगे? तुम्हें जितना मावजा मिला है, उतने में तो इतनी जमीन भी न मिलेगी, घर बनवाने की कौन कहे!"

नायकराम-“बोलो भाई बजरंगी, साल के १२००) किराये के कहाँ से आयेंगे? क्या सारी कमाई किराये ही में खरच कर दूंँगा?”

बजरंगी-"जमीन तो दिहात में भी मोल लेनी पड़ेगी, सेंत तो मिलेगी नहीं। फिर कौन जाने, किस गाँव में जगह मिले। बहुत-से आस-पास के गाँव तो ऐसे भरे हुए हैं

कि वहाँ अब एक झोपड़ी भी नहीं बन सकती। किसी के द्वार पर आँगन तक नहीं है। फिर जगह मिल गई, तो मकान बनवाने के लिए सारा सामान सहर से ले आना पड़ेगा। उसमें कितना खरच पड़ेगा! नौ की लकड़ी नब्बे खरच। कच्चा मकान बनवाओगे, तो कितनी तकलीफ! टपके, कीचड़ हो, रोज मनों कूड़ा निकले, सातवें दिन लीपने को चाहिए, तुम्हारे घर में कौन लीपनेवाला बैठा हुआ है। तुम्हारा रहा कच्चे मकान में न रहा जायगा। सहर में आने-जाने के लिए सवारी रखनी पड़ेगी। उसका खरच भी ५०) से नीचे न होगा। तुम कच्चे मकान में तो कभी रहे नहीं। क्या जानो दीमक, कीड़े-मकोड़े, सील, पूरी छीछालेदर होती है। तुम सैरबीन आदमी ठहरे। पान-पत्ता, साग भाजी दिहात में कहाँ? मैं तो यही कहूँगा कि दिहात के एक की जगह सहर में दो खरच पड़ें, तब भी तुम सहर ही में रहो। वहाँ हम लोगों से भी भेंट-मुलाकात हो जाया करेगो। आखिर दूध-दही लेकर सहर तो रोज जाना ही पड़ेगा।"

नायकराम-“वाह बहादुर, वाह! मान गया। तुम्हारा जोड़ तो भैरो था, दूसरा कौन तुम्हारे सामने ठहर सकता है। तुम्हारी बात मेरे मन में बैठ गई। बोलो जगधर, इसका कुछ जवाब देते हो, तो दो, नहीं तो बजरंगो की डिग्री होती है। सौ रुपये किराया देना मंजूर, यह झंझट कौन सिर पर लेगा!"

जगधर-"भैया, तुम्हारी मरजी है, तो सहर ही में चले जाओ, मैं बजरंगी से लड़ाई थोड़े ही करता हूँ। पर दिहात दिहात ही है, सहर सहर ही! सहर में पानी तक तो अच्छा नहीं मिलता। वही बंबे का पानी पियो, धरम जाय, और कुछ सवाद भी न मिले!"

ठाकुरदीन-'अन्धा आगमजानी था। जानता था कि एक दिन यह पुतलीघर हम लोगों को बनबास देगा, जान तक गंवाई, पर अपनी जमीन न दी। हम लोग इस किरंटे के चकमों में आकर उसका साथ न छोड़ते, तो साहब लाख सिर पटककर मर जाते, एक न चलती।"

नायकराम-"अब उसके बचने की कोई आसा नहीं मालूम होती। आज मैं गया था। बुरा हाल था। कहते हैं, रात को होस में था। जॉन सेवक साहब और राजा साहब से देर तक बातें की, मिठुआ से भी बातें कीं। सब लोग सोच रहे थे, अब बच जायगा। सिविलसारजंट ने मुझसे खुद कहा, अंधे की जान का कोई खटका नहीं है। पर सूरदास यही कहता रहा कि आपको मेरी जो साँसत करनी है, कर लीजिए, मैं बचूँ गा नहीं। आज बोल-चाल बन्द है। मिठुआ बड़ा कपूत निकल गया। उसी की कपूती ने अंधे की जान ली। दिल टूट गया, नहीं तो अभी कुछ दिन और चलता। ऐसे बीर बिरले ही कहीं होते हैं। आदमी नहीं था, देवता था।"

बजरंगी-"सच कहते हो भैया, आदमी नहीं था, देवता था। ऐसा सेर आदमी कहीं नहीं देखा। सच्चाई के सामने किसी की परवा नहीं की, चाहे कोई अपने घर का लाट ही क्यों न हो। घीसू के पीछे मैं उससे बिगड़ गया था, पर अब जो सोचता हूँ,

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तो मालूम होता है कि सूरदास ने कोई अन्याय नहीं किया। कोई बदमास हमारी ही बहू-बेटी को बुरी निगाह से देखे, तो बुरा लगेगा कि नहीं? उसके खून के प्यासे हो जायँगे, घात पायेंगे, तो सिर उतार लेंगे। अगर सूरे ने हमारे साथ वही बरताव किया, तो क्या बुराई की! घीसू का चलन बिगड़ गया था। सजा न पा जाता, तो न जाने क्या अंधेर करता।"

ठाकुरदीन-"अब तक या तो उसी की जान पर बन गई होती, या दूसरों की।"

जगधर-"चौधरी, घर-गाँव में इतनी सच्चाई नहीं बरती जाती। अगर सच्चाई से किसी का नुकसान होता हो, तो उस पर परदा डाल दिया जाता है। सूरे में और सब बातें अच्छी थीं, बस इतनी ही बात बुरी थी।"

ठाकुरदीन-“देखो जगधर, सूरदास यहाँ नहीं है, किसी के पीठ-पीछे निंदा नहीं करनी चाहिए। निंदा करनेवाले की तो बात ही क्या, सुननेवालों को भी पाप लगता है। न जाने पूरब-जनम में कौन-सा पाप किया था, सारी जमा-जथा चोर मूस ले गये, यह पाप अब न करूँगा।"

बजरंगी-"हाँ जगधर, यह बात अच्छी नहीं। मेरे ऊपर भी तो वही पड़ी है, जो तुम्हारे ऊपर पड़ी; लेकिन सूरदास की बदगोई नहीं सुन सकता।"

ठाकुरदीन-"इनकी बहू-बेटी को कोई घूरता, तो ऐसी बातें न करते।"

जगधर-"बहू-बेटी की बात और है, हरजाइयों की बात और।”

ठाकुरदीन-"बस, अब चुप ही रहना जगधर! तुम्ही एक बार सुभागी की सफाई करते फिरते थे, आज हरजाई कहते हो। लाज भी नहीं आती?"

नायकराम-"यह आदत बहुत खराब है।"

बजरंगी-"चाँद पर थूकने से थूक अपने हो मुँह पर पड़ता है।"

जगधर-"अरे, तो मैं सूरे की निंदा थोड़े ही कर रहा हूँ। दिल दुखता है, तो बात मुँह से निकल ही आती है। तुम्हीं सोचो, बिद्याधर अब किस काम का रहा? पढ़ाना-लिखाना सब मिट्टी में मिला कि नहीं? अब न सरकार में नौकरी मिलेगी, न कोई दूसरा रखेगा। उसकी तो जिंदगानी खराब हो गई। बस, यही दुख है, नहीं तो सूरदास का-सा आदमी कोई क्या होगा।"

नायकराम-"हाँ, इतना मैं भी मानता हूँ कि उसकी जिंदगानी खराब हो गई। जिस सच्चाई से किसी का अनभल होता हो, उसका मुँह से न निकलना ही अच्छा। लेकिन सूरदास को सब कुछ माफ है।"

ठाकुरदीन-"सूरदास ने इलम तो नहीं छीन लिया?"

जगधर-'यह इलम किस काम का, जब नौकरी-चाकरी न कर सके। धरम की बात होती, तो यों भी काम देती। यह बिद्या हमारे किस काम आवेगी?"

नायकराम-"अच्छा, यह बताओ कि सूरदास मर गये, तो गंगा नहाने चलोगे कि नहीं"

जगधर--"गंगा नहाने क्यों नहीं चलूँगा! सबके पहले चलूँगा! कंधा तो आदमी बैरी को भी दे देता है, सूरदास हमारे बैरी नहीं थे। जब उन्होंने मिठुआ को नहीं छोड़ा, जिसे बेटे की तरह पाला, तो दूसरों की बात ही क्या। मिठुआ क्या, वह अपने खास बेटे को न छोड़ते।"

नायकराम-"चलो, देख आयें।"

चारों आदमी सूरदास को देखने चले ।