रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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सोफ़िया के धार्मिक विचार, उसका आहार-व्यवहार, रहन-सहन, उसकी शिक्षा-दीक्षा, ये सभी बातें ऐसी थीं, जिनसे एक हिन्दू महिला को घृणा हो सकती थी। पर इतने दिनों के अनुभव ने रानीजी की सभी शंकाओं का समाधान कर दिया। सोफ़िया अभी तक हिन्दू-धर्म में विधिवत् दीक्षित न हुई थी, पर उसका आचरण पूर्ण रीति से हिंदू-धर्म और हिंदू-समाज के अनुकूल था। इस विषय में अब जाह्नवी को लेश-मात्र भी संदेह न था। उन्हें अब अगर संदेह था, तो यह कि दांपत्य प्रेम में फँसकर विनय कहीं अपने उद्देश्य को न भूल बैठे। इस आंदोलन में नेतृत्व का भार लेकर विनय ने इस शंका को भी निर्मूल सिद्ध कर दिया। रानीजी अब विवाह की तैयारियों में प्रवृत्त हुई। कुँवर साहब तो पहले ही से राजी थे, सोफ़िया की माता की रजामंदी आवश्यक थी। इंदु को कोई आपत्ति हो ही न सकती थी। अन्य संबंधियों की इच्छा या अनिच्छा की उन्हें कोई चिंता न थी। अतएव रानीजी एक दिन मिस्टर सेवक के मकान पर गई कि इस संबन्ध को निश्चित कर लें। मिस्टर सेवक तो प्रसन्न हुए, पर मिसेज सेवक का मुँह न सीधा हुआ। उनकी दृष्टि में एक योरपियन का जितना आदर था, उतना किसी हिंदुस्तानी का न हो सकता था, चाहे वह कितना ही प्रभुताशाली क्यों न हो। वह जानती थीं कि यहाँ साधारण-से-साधारण योरपियन की प्रतिष्ठा यहाँ के बड़े-बड़े राजा से अधिक है। प्रभु सेवक ने योरप की राह ली, अब घर पर पत्र तक न लिखते थे। सोफिया ने इधर यह रास्ता पकड़ा। जीवन की सारी अभिलाषाओं पर ओस पड़ गई। जाह्नवी के आग्रह पर क्रुद्ध होकर बोलीं—"खुशी सोफिया की चाहिए; जब वह खुश है, तो मैं अनुमति दूँ, या न दूँ, एक ही बात है। माता हूँ, संतान के प्रति मुँह से जब निकलेगी, शुभेच्छा ही निकलेगी, उसकी अनिष्ट-कामना नहीं कर सकती; लेकिन क्षमा कीजिएगा, मैं विवाह-संस्कार में सम्मिलिप्त न हो सकूँगी। मैं अपने ऊपर बड़ा जब कर रही हूँ कि सोफ़िया को शाप नहीं देती, नहीं तो ऐसी कुलकलंकिनी लड़की का तो मर जाना ही अच्छा है, जो अपने धर्म से विमुख हो जाय।”

रानीजी को और कुछ कहने का साहस न हुआ। घर आकर उन्होंने एक विद्वान्पं डित को बुलाकर सोफिया के धर्म और विवाह-संस्कार का मुहूर्त निश्चित कर डाला।

रानी जाह्नवी तो इन संस्कारों को धूमधाम से करने की तैयारियाँ कर रही थीं, उधर पाँड़ेपुर का आंदोलन दिन-दिन भीषण होता जाता था। मुआवजे के रुपये तो अब किसी के बाकी न थे, यद्यपि अभी तक मंजूरी न आई थी, और राजा महेंद्रकुमार को अपने पास से सभी असामियों को रुपये देने पड़े थे, पर इन खाली मकानों को गिराने के लिए मजदूर न मिलते थे। दुगनी-तिगुनी मजदूरी देने पर भी कोई मजदूर काम करने न आता था। अधिकारियों ने जिले के अन्य भागों से मजदूर बुलाये, पर
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जब वे आये और यहाँ की स्थिति देखी, तो रातों-रात भाग खड़े हुए। तब अधिकारियों ने सरकारी बर्कदाजों और तहसील के चपरासियों को बड़े-बड़े प्रलोभन देकर काम करने के लिए तैयार किया, पर जब उनके सामने सैकड़ों युवक, जिनमें कितने ही ऊँचे कुलों के थे, हाथ बाँधकर खड़े हो गये और विनय की कि भाइयो, ईश्वर के लिए फावड़े न चलाओ, और अगर चलाया ही चाहते हो, तो पहले हमारी गरदन पर चलाओ, तो उन सबों की भी काया-पलट हो गई। दूसरे दिन से वे लोग फिर काम पर न आये। विनय और उनके सहकारी सेवक आजकल इस सत्याग्रह को अग्रसर करने में व्यस्त रहते थे।

सूरदास सबेरे से संध्या तक झोंपड़े के द्वार पर मूर्तिवत् बैठा रहता। हवलदार और उसके सिपाहियों पर अदालत में अभियोग चल रहा था। घटनास्थल को रक्षा के लिए दूसरे जिले से सशस्त्र पुलिस बुलाई गई थी। वे सिपाही संगीनें चढ़ाये चौबीसों घन्टे झोपड़ी के सामनेवाले मैदान में टहलते रहते थे। शहर के हजार-दो-हजार आदमी आठों पहर मौजूद रहते। एक जाता, तो दूसरा आता। आने-जानेवालों का ताँता दिन-भर न टूटता था। सेवक दल भी नायकराम के खाली बरामदे में आसन जमाए रहता था कि न जाने कब क्या उपद्रव हो जाय। राजा महेंद्रकुमार और सुपरिंटेंडेंट पुलिस दिन में दो-दो बार अवश्य आते थे, किंतु किसो कारण झोंपड़ा गिराने का हुक्म न देते थे। जनता को ओर से उपद्रव का इतना भय न था, जितना पुलिस की अवज्ञा का। हवलदार के व्यवहार से समस्त अधिकारियों के दिल में हौल समा गया था। प्रांतोय सरकार को यहाँ की स्थिति की प्रति दिन सूचना दी जाती थी। सरकार ने भी आश्वासन दिया था कि शीघ्र ही गोरखों का एक रेजिमेंट भेजने का प्रबंध किया जायगा। अधिकारियों को आशा अब गोरखों हो पर अवलंबित थी, जिनकी राजभक्ति पर उन्हें पूरा विश्वास था। विनय प्रायः दिन-भर यहीं रहा करते थे। उनके और राजा साहब के बीच में अब नंगी तलवार का बीच था। वह विनय को देखते, तो घृणा से मुँह फेर लेते। उनकी दृष्टि में विनय सूत्रधार था, सूरदास केवल कठपुतली।

रानी जाह्नवी ज्यों-ज्यों विवाह की तैयारियाँ करती थीं और संस्कारों की तिथि समीप आती जाती थी, सोफिया का हृदय एक अज्ञात भय, एक अव्यक्त शंका, एक अनिष्ट-चिता से आच्छन्न होता जाता था। भय यह था कि कदाचित् विवाह के पश्चात्ह मारा दांपत्य जीवन सुखमय न हो, हम दोनो को एक दूसरे के चरित्र-दोष ज्ञात हों, और हमारा जीवन दुःखमय हो जाय। विनय की दृष्टि में सोफी निर्विकार, निर्दोष, उज्ज्वल, दिव्य सर्वगुण-संपन्ना देवी थी। सोफी को विनय पर इतना विश्वास न था। उसके तात्त्विक विवेचन ने उसे मानव-चारित्र की विषमताओं से अवगत कर दिया था। उसने बड़े-बड़े महात्माओं, ऋषियों, मुनियों, विद्वानों, योगियों और ज्ञानियों को, जो अपनी घोर तपस्याओं और साधनाओं से वासनाओं का दमन कर चुके थे, संसार के चिकने, पर काई से ढके हुए, तल पर फिसलते देखा था। वह जानती थी कि यद्यपि संयम-शील पुरुष बड़ी
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मुश्किल से फिसलते हैं, मगर जब एक बार फिसल गये, तो किसी तरह नहीं सँभल सकते, उनकी कुंठित वासनाएँ, उनकी पिंजर-बद्ध इच्छाएँ, उनको संयत प्रवृत्तियाँ बड़े प्रबल वेग से प्रतिकूल दिशा की ओर चलती हैं। भूमि पर चलनेवाला मनुष्य गिरकर फिर उठ सकता है, लेकिन आकाश में भ्रमण करनेवाला मनुष्य गिरे, तो उसे कौन रोकेगा, उसके लिए कोई आशा नहीं, कोई उपाय नहीं। सोफिया को भय होता था कि कहीं मुझे भी यही अप्रिय अनुभव न हो, कहीं वही स्थिति मेरे गले में न पड़ जाय। संभव है, मुझमें कोई ऐसा दोष निकल आए, जो मुझे विनय को दृष्टि में गिरा दे, वह मेरा अनादर करने लगें। यह शंका सबसे प्रबल, सबसे निराशामय थी। आह! तब मेरी क्या दशा होगी। संसार में ऐसे कितने दंपति हैं कि अगर उन्हें दूसरी बार चुनाव का अधिकार मिल जाय, तो अपने पहले चुनाव पर संतुष्ट रहें!

सोफी निरंतर इन्हीं आशंकाओं में डूबी रहती थी। विनय बार-बार उसके पास आते, उससे बातें करना चाहते, पाड़ेपुर की स्थिति के विषय में उससे सलाह लेना चाहते, पर उसकी उदासीनता देखकर उन्हें कुछ कहने की इच्छा न होती।

चिंता रोग का मूल है। सोफ़ी इतनी चिंता-ग्रस्त रहती कि दिन-दिन-भर कमरे से न निकलती, भोजन भी बहुत सूक्ष्म करती, कभी-कभी निराहार ही रह जाती, हृदय में एक दीपक-सा जलता रहता था, पर किससे अपने मन की कहे? विनय से इस विषय में एक शब्द भी न कह सकती थी, जानती थी कि इसका परिणाम भयंकर होगा, नैराश्य की दशा में विनय न जाने क्या कर बैठें। अंत को उसको कोमल प्रकृति इस ममंदाह को सहन न कर सकी। पहले सिर में दर्द रहने लगा, धीरे-धीरे ज्वर का प्रकोप हो गया।

लेकिन रोग-शय्या पर गिरते ही सोफ़ी को विनय से एक क्षण अलग रहना भी दुस्सह प्रतीत होने लगा। निर्बल मनुष्य को अपनी लकड़ी से भी अगाध प्रेम हो जाता है। रुग्णावस्था में हमारा मन स्नेहापेक्षी हो जाता है। सोफिया, जो कई दिन पहले कमरे में विनय के आते ही बिल-सा खोजने लगती थी कि कहीं यह प्रेमालाप न करने लगे, उनके तृषित नेत्रों से, उनकी मधुर मुसकान से, उनके मृदु हास्य से थर-थर काँपती रहती थी, जैसे कोई रोगो उत्तम पदार्थों को सामने देखकर डरता हो कि मैं कुपथ्य न कर बैठू, अब द्वार की ओर अनिमेष नेत्रों से विनय की बाट जोहा करती थी। वह चाहती कि यह अब कहीं न जायँ, मेरे पास ही बैठे रहें। विनय भी बहुधा उसके पास ही रहते। पाँड़ेपुर का भार अपने सहकारियों पर छोड़कर सोफिया की सेवा-शुश्रूषा में तत्पर हो गये। उनके बैठने से सोफी का चित्त बहुत शांत हो जाता था। वह अपने दुर्बल हाथों को विनय की जाँघ पर रख देती और बालोचित आकांक्षा से उनके मुख की ओर ताकती। विनय को कहीं जाते देखती, तो व्यग्र हो जाती और आग्रह-पूर्ण नेत्रों से बैठने की याचना करती।

रानी जाह्नवी के व्यवहार में भी अब एक विशेष अंतर दिखाई देता था। स्पष्ट तो न कह सकतीं, पर संकेतों से विनय को पाँडेपुर के सत्याग्रह में सम्मिलित होने से रोकती
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थीं। इंद्रदत्त की हत्या ने उन्हें बहुत सशंक कर दिया था। उन्हें भय था कि उस हत्या-कांड का अंतिम दृश्य उससे कहीं भयंकर होगा। और, सबसे बड़ी बात तो यह थी कि विवाह का निश्चय होते ही विनय का सदुत्साह भी क्षीण होने लगा था। सोफिया के पास बैठकर उससे सांत्वनाप्रद बातें करना और उसकी अनुराग-पूर्ण बातें सुनना उन्हें अब बहुत अच्छा लगता था। सोफिया की गुप्त याचना ने प्रेमोद्गारों को और भी प्रबल कर दिया। हम पहले मनुष्य हैं, पीछे देश-सेवक। देशानुराग के लिए हम अपने मानवीय भावों की अवहेलना नहीं कर सकते। यह अस्वाभाविक है। निज पुत्र की मृत्यु का शोक जाति पर पड़नेवाली विपत्ति से कहीं अधिक होता है। निज शोक मर्मान्तक होता है, जातिशोक निराशा-जनक; निज शोक पर हम रोते हैं, जाति-शोक पर चिंतित हो जाते हैं।

एक दिन प्रातःकाल विनय डॉक्टर के यहाँ से दवा लेकर लौटे थे (सद्वौद्यों के होते हुए भी उनका विश्वास पाश्चात्य चिकित्सा ही पर अधिक था) कि कुँवर साहब ने उन्हें बुला भेजा। विनय इधर महीनों से उनसे मिलने न गये थे। परस्पर मनोमालिन्यसा हो गया था। विनय ने सोफी को दवा पिलाई, और तब कुँवर साहब से मिलने गये। वह अपने कमरे में टहल रहे थे, इन्हें देखकर बोले-"तुम तो अब कभी आते ही नहीं।"

विनय ने उदासीन भाव से कहा-“अवकाश नही मिलता। आपने कभी याद भी तो नहीं किया। मेरे आने से कदाचित आपका समय नष्ट होता है।"

कुँवर साहब ने इस व्यंग्य को परवा न करके कहा-“आज मुझे तुमसे एक महान संकट में राय लेनी है! सावधान होकर बैठ जाओ, इतनी जल्द छुट्टी न होगी।"

विनय-“फरमाइए, मैं सुन रहा हूँ।"

कुँवर साहब ने घोर असमंजस के भाव से कहा-'गवर्नमेंट का आदेश है कि तुम्हारा नाम रियासत से....."

यह कहते-कहते कुँवर साहब रो पड़े। जरा देर में करुणा का उद्वेग कम हुआ, तो बोले—"मेरी तुमसे विनीत याचना है कि तुम स्पष्ट रूप से अपने को सेवक-दल से पृथक्कर लो और समाचार-पत्रों में इसी आशय की एक विज्ञप्ति प्रकाशि कर दो। तुमसे यह याचना करते हुए मुझे कितनी लजा और कितना दुःख हो रहा है, इसका अनुमान तुम्हारे सिवा और कोई नहीं कर सकता; पर परिस्थिति ने मुझे विवश कर दिया है। मैं तुमसे यह कदाग्निं नहीं कहता कि किसी की खुशामद करो, किसी के सामने सिर झुकाओ, नहीं, मुझे स्वयं इससे घृणा थी और है। किंतु अपनी भूसंपत्ति की रक्षा के लिए मेरे अनुरोध को स्वीकार करो। मैंने समझा था, रियासत को सरकार के हाथ में दे देना काफी होगा। किंतु अधिकारी लोग इसे काफी नहीं समझते। ऐसी दशा में मेरे लिए दो ही उपाय हैं—या तो तुम स्वयं इन आंदोलनों से पृथक् हो जाओ, या कम-से-कम उनमें प्रमुख भाग न लो, या मैं एक प्रतिज्ञा-पत्र द्वारा तुम्हें रियासत से वंचित कर दूँ। भावी
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संतान के लिए इस संपत्ति का सुरक्षित रहना परमावश्यक है। तुम्हारे लिए पहला उपाय जितना कठिन है, उतना ही कठिन मेरे लिए दूसरा उपाय है। तुम इस विषय में क्या निश्चय करते हो?”

विनय ने गर्वान्वित भाव से कहा-"मैं संपत्ति को अपने पाँव की बेड़ी नहीं बनाना चाहता। अगर संपत्ति हमारी है, तो उसके लिए किसी शर्त की जरूरत नहीं; अगर दूसरे की है, और आपका अधिकार उसकी कृपा के आधीन हैं, तो उसे संपत्ति नहीं समझता। सच्ची प्रतिष्ठा और सम्मान के लिए संपत्ति की जरूरत नहीं, उसके लिए त्याग और सेवा काफी है।"

भरतसिंह-"बेटा, मैं इस समय तुम्हारे सामने संपत्ति को विवेचना नहीं कर रहा हूँ, उसे केवल क्रियात्मक दृष्टि से देखना चाहता हूँ। मैं इसे स्वीकार करता हूँ कि किसी अंश में संपत्ति हमारी वास्तविक स्वाधीनता में बाधक होती है, किंतु इसका उज्ज्वल पक्ष भी तो है-जीविका की चिंताओं से निवृत्ति और आदर तथा सम्मान का वह स्थान, जिस पर पहुँचने के लिए असाधारण त्याग और सेवा की जरूरत होती है, मगर जो यहाँ बिना किसी परिश्रम के आप-ही-आप मिल जाता है। मैं तुमसे केवल इतना चाहता हूँ कि तुम इस संस्था से प्रत्यक्ष रूप से कोई संबन्ध न रखो, यों अप्रत्यक्ष रूप से उसकी जितनी सहायता करना चाहो, कर सकते हो। बस, अपने को कानून के पंजे से बचाये रहो।”

विनय-"अर्थात् कोई समाचार-पत्र भी पढ़े, तो छिपकर, किवाड़ बंद करके कि किसी को कानों-कान खबर न हो। जिस काम के लिए परदे की जरूरत है, चाहे उसका उद्देश्य कितना ही पवित्र क्यों न हो, वह अपमानजनक है। अधिक स्पष्ट शब्दों में मैं उसे चोरी कहने में भी कोई आपत्ति नहीं देखता। यह संशय और शंका से पूर्ण जीवन मनुष्य के सर्वोत्कृष्ट गुणों का ह्रास कर देता है। मैं वचन और कर्म की इतनी स्वाधीनता अनिवार्य समझता हूँ, जो हमारे आत्मसम्मान की रक्षा करे। इस विषय में मैं अपने विचार इससे सष्ट शब्दों में नहीं व्यक्त कर सकता।"

कुँवर साहब ने विनय को जल-पूर्ण नेत्रों से देखा। उनमें कितनी उद्विग्नता भरी हुई थी! तब बोले- "मेरी खातिर से इतना मान जाओ।"

विनय-"आपके चरणों पर अपने को न्योछावर कर सकता हूँ, पर अपनी आत्मा की स्वाधीनता की हत्या नहीं कर सकता।"

विनय यह कहकर जाना ही चाहते थे कि कुँवर साहब ने पूछा-"तुम्हारे पास रुपये तो बिलकुल न होंगे?"

विनय-"मुझे रुपये की फिक्र नहीं।"

कुँवर-"मेरी खातिर से—यह लेते जाओ।"

उन्होंने नोटों का एक पुलिंदा विनय की तरफ बढ़ा दिया। विनय इनकार न कर सके। कुँवर साहब पर उन्हें दया आ रही थी। जब वह नोट लेकर कमरे से चले गये,
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तो कुँवर साहब क्षोभ और निराशा से व्यथित होकर कुर्सी पर गिर पड़े, संसार उनकी दृष्टि में अँधेरा हो गया।

विनय के आत्मसम्मान ने उन्हें रियासत का त्याग करने पर उद्यत तो कर दिया, पर उनके सम्मुख अब एक नई समस्या उपस्थित हो गई। वह जीविका की चिंता थी। संस्था के विषय में तों विशेष चिंता न थी, उसका भार देश पर था, और किसी जातीय कार्य के लिए भिक्षा माँगना भी लज्जा की बात नहीं। उन्हें इसका विश्वास हो गया था कि प्रयत्न किया जाय, तो इस काम के लिए स्थायी कोष जमा किया जा सकता है। किंतु जीविका के लिए क्या हो? कठिनाई यह थी कि जीविका उनके लिए केवल दैनिक आवश्यकताओं की पूर्ति न थी, कुल-परंपरा की रक्षा भी-उसमें शामिल थी। अब तक इस प्रश्न की गुरुता का उन्होंने अनुमान न किया था। मन में किसी इच्छा के उत्पन्न होने की देर रहती थी। अब जो आँखों के सामने यह प्रश्न अपना विशद रूप धारण करके आया, तो वह घबरा उठे। संभव था कि अब भी कुछ काल तक माता-पिता का वात्सल्य उन्हें इस चिंता से मुक्त रखता, किंतु इस क्षणिक आधार पर जीवन-भवन का निर्माण तो नहीं किया जा सकता। फिर उनका आत्मगौरव यह कब स्वीकार कर सकता था कि अपनी सिद्धांत-प्रियता और आदर्श-भक्ति का प्रायश्चित्त माता-पिता से कराये। कुछ नहीं, यह निर्लज्जता है, निरी कायरता! मुझे कोई अधिकार नहीं कि अपने जीवन का भार माता-पिता पर रखू। उन्होंने इस मुलाकात की चर्चा माता से भी न की, मन-ही-मन डूबने-उतराने लने। और, फिर अब अपनी ही चिंता न थो, सोफ़िया भी उनके जीवन का अंश बन चुकी थी, इसलिए यह चिंता और भी दाहक थी। माना कि सोफी मेरे साथ जीवन की बड़ी-से-बड़ी कठिनाई को सहन कर लेगी, लेकिन क्या यह उचित है कि उसे प्रेम का यह कठोर दंड दिया जाय? उसके प्रेम को इतनी कठिन परीक्षा में डाला जाय? वह दिन-भर इन्हीं चिंताओं में मग्न रहे। यह विषय उन्हें असाध्य-सा प्रतीत होता था। उनकी शिक्षा में जीविका के प्रश्न पर लेश मात्र भी ध्यान न दिया गया था। अभी थोड़े ही दिन पहले उनके लिए इस प्रश्न का अस्तित्व ही न था। वह स्वयं कठिनाइयों के अभ्यस्त थे। विचार किया था कि जीवन- पर्यन्त सेवा-व्रत का पालन करूँगा। किंतु सोफिया के कारण उनके सोचे हुए जीवन-क्रम में काया-पल हो गई थी। जिन वस्तुओं का पहले उनकी दृष्टि में कोई मूल्य न था, वे अब, परमावश्यक जान पड़ती थीं। प्रेम को विलास-कल्पना ही से विशेष रुचि होती है, वह दुःख और दरिद्रता के स्वप्न नहीं देखता। विनय सोफिया को एक रानी की भाँति रखना चाहते थे, उसे जीवन की उन समस्त सुख-सामग्रियों से परिपूरित कर देना चाहते थे, जो विलास ने आविष्कृत की हैं; पर परिस्थितियाँ ऐसा रूप धारण करती थीं, जिनसे वे उच्चाकांक्षाएँ मलियामेट हुई जाती थीं। चारों ओर विपत्ति और दरिद्रता का ही कंटकमय विस्तार दिखाई पड़ रहा था। इस मानसिक उद्वेग की दशा में वह कभी सोपी के पास आते, कभी अपने कमरे में जाते, कुछ गुमसुम, उदास, मलिन-मुख, निष्प्रभ,

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उत्साह-हीन, मानों कोई बड़ी मंजिल मारकर लौटे हो। पाँड़ेपुर से बड़ी भयप्रद सूचनाएँ आ रही थीं, आज कमिश्ननर आ गया, आज गोरखों का रेजिमेंट आ पहुँचा, आज गोरखों ने मकानों को गिराना शुरू किया, और लोगों के रोकने पर उन्हें पीटा, आज पुलिस ने सेवकों को गिरफ्तार करना शुरू किया, दस सेवक पकड़ लिये गये, आज बीस पकड़े गये, आज हुक्म दिया गया है कि सड़क से सूरदास को झोपड़ी तक काँटेदार तार लगा दिया जाय, कोई वहाँ जा ही नहीं सकता। विनय ये खबरें सुनते थे और किसी पंखहीन पक्षी की भाँति एक बार तड़पकर रह जाते थे।

इस भाँति एक सप्ताह बीत गया और सोफी का स्वास्थ्य सुधरने लगा। उसके पैरों में इतनी शक्ति आ गई कि पाँव-पाँव बगीचे में टहलने चली जाती, भोजन में रुचि हो गई, मुखमंडल पर आरोग्य की कांति झलकने लगी। विनय की भक्ति-पूर्ण सेवा ने उस पर संपूर्ण विजय प्राप्त कर ली थी। वे शंकाएँ, जो उसके मन में पहले उठती रहती थीं, शांत हो गई थीं। प्रेम के बंधन को सेवा ने और भी सुदृढ़ कर दिया था। इस कृतज्ञता को वह शब्दों से नहीं, आत्मसमर्पण से प्रकट करना चाहती थी। विनयसिंह को दुखी देखकर कहती, तुम मेरे लिए इतने चिंतित क्यों होते हो? मैं तुम्हारे ऐश्वर्य और संपत्ति की भूखी नहीं हूँ, जो मुझे तुम्हारी सेवा करने का अवसर न देगी, जो तुम्हें भाव-हीन बना देगी। इससे मुझे तुम्हारा गरीब रहना कहीं ज्यादा पसंद है। ज्यों-ज्यों उसकी तबियत सँभलने लगी, उसे यह ख्याल आने लगा कि कहीं लोग मुझे बदनाम न करते हो कि इसी के कारण विनय पाँड़ेपुर नहीं जाते, इस संग्राम में वह भाग नहीं लेते, जो उनका कर्तव्य है, आग लगाकर दूर खड़े तमाशा देख रहे हैं। लेकिन यह ख्याल आने पर भी उसकी इच्छा न होती थी कि विनय वहाँ जाएँ।

एक दिन इंदु उसे देखने आई। बहुत खिन्न और विरक्त हो रही थी। उसे अब अपने पति से इतनी अश्रद्धा हो गई थी कि इधर हफ्तों से उसने उनसे बात तक न की थी, यहाँ तक कि अब वह स्नुले-स्नुले उनकी निंदा करने से भी न हिचकती थी। वह भी उससे न बोलते थे। बातों-बातों में विनय से बोली—“उन्हें तो हाकिमों की खुशामद ने चौपट किया, पिताजी को संपत्ति-प्रेम ने चौपट किया, क्या तुम्हें भी मोह चौपट कर देगा? क्यों सोफी, तुम इन्हें एक क्षण के लिए भी कैद से मुक्त नहीं करतीं? अगर अभी से इनका यह हाल है, तो विवाह हो जाने पर क्या होगा! तब तोमर कदाचित न-दुनिया कहीं के भी न होंगे, भौंरे की भाँति तुम्हारा प्रेम-रस-पान करने में उन्मत्त रहेंगे।"

सोफिया बहुत लजित हुई, कुछ जवाब न दे सकी। उसकी यह शंका सत्य निकली कि विनय की उदासीनता का कारण मैं ही समझो जा रही हूँ।

लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं है कि विनय अपनी संपत्ति की रक्षा के विचार से मेरी बीमारी का बहाना लेकर इस संग्राम से पृथक् रहना चाहते हों? यह कुत्सित भाव बलात्उ सके मन में उत्पन्न हुआ। वह इसे हृदय से निकाल देनी चाहती थो, जैसे हम किसी
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घृणित वस्तु की ओर से मुँह फेर लेते हैं। लेकिन इस आक्षेप को अपने सिर से दूर करना आवश्यक था। झेंपते हुए बोली-“मैंने तो कभी मना नहीं किया।"

इंदु-"मना करने के कई ढंग हैं।"

सोफिया-"अच्छा, तो मैं आपके सामने कह रही हूँ कि मुझे इनके वहाँ जाने में कोई आपत्ति नहीं है, बल्कि इसे मैं अपने और इनके, दोनों ही के लिए गौरव की बात समझती हूँ। अब मैं ईश्वर की दया और इनकी कृपा से अच्छी हो गई हूँ, और इन्हें विश्वास दिलाती हूँ कि इनके जाने से मुझे कोई कष्ट न होगा। मैं स्वयं दो-चार दिन में जाऊँगी।"

इंदु ने विनय की ओर सहास नेत्रों से देख कर कहा-"लो, अब तो तुम्हें कोई बाधा नहीं रही। तुम्हारे वहाँ रहने से सब काम सुचारु-रूप से होगा, और संभव है कि शीघ्र ही अधिकारियों को समझौता कर लेना पड़े। मैं नहीं चाहती कि उसका श्रेय किसी दूसरे आदमी के हाथ लगे।"

लेकिन जब इस अंकुश का भी विनय पर कोई असर न हुआ, तो सोफिया को विश्वास हो गया कि इस उदासीनता का कारण संपत्ति-लालसा चाहे न हो, लेकिन प्रेम नहीं है। जब इन्हें मालूम है कि इनके पृथक् रहने से मेरी निंदा हो रही है, तो जान-बूझकर क्यों मेरा उपहास करा रहे हैं? यह तो ऊँघते को ठेलने का बहाना हो गया। रोने को थे हो, आँखों में किरकिरी पड़ गई। मैं उनके पैर थोड़े ही पकड़े हुए हूँ। वह तो अब पाँडेपुर का नाम तक नहीं लेते, मानों वहाँ कुछ हो ही नहीं रहा है। उसने स्पष्ट तो नहीं, लेकिन सांकेतिक रीति से विनय से वहाँ जाने की प्रेरणा भी की, लेकिन वह फिर टाले गये। वास्तव में बात यह थी कि इतने दिनों तक उदासीन रहने के पश्चात् विनय अब वहाँ जाते हुए झेंपते थे, डरते थे कि कहीं मुझ पर लोग तालियाँ न बजायें कि डर के मारे छिपे बैठे रहे! उन्हें अब स्वयं पश्चात्ताप होता था कि मैं क्यों इतने दिनों तक मुँह छिपाये रहा, क्यों अपनी व्यक्तिगत चिंताओं को अपने कर्तव्य-मार्ग का काँटा बनने दिया। सोफी की अनुमति लेकर मैं जा सकता था, वह कभी मुझे मना न करतो। सोफी में एक बड़ा ऐब यह है कि मैं उसके हित के लिए भी जो काम करता हूँ, उसे भी वह निर्दय आलोचक की दृष्टि से ही देखती है। खुद चाहे प्रेम के वश कर्तव्य की तृण-बराबर भी परवा न करे, पर मैं आदर्श से जौ-भर नहीं टल सकता। अब उन्हें ज्ञात हुआ कि यह मेरी दुर्बलता, मेरी भीरुता और मेरी अकर्मण्यता थी, जिसने सोफिया की बीमारी को मेरे मुँह छिपाने का बहाना बना दिया, वरना मेरा स्थान तो सिपाहियों की प्रथम श्रेणी में था। वह चाहते थे कि कोई ऐसी बात पैदा हो जाय कि मैं इस झेप को मिटा सकूँ-इस कालिख को धो सकूँ। कहीं दूसरे प्रांत से किसी भीषण दुर्घटना का समाचार आ जाय, और मैं वहाँ अपनी लाज रखू। सोफिया को अब उनका आठों पहर अपने समीप रहना अच्छा न लगता। हम बीमारी में जिस लकड़ी के सहारे डोलते हैं, नीरोग हो जाने पर उसे छूते तक नहीं। माँ भी तो चाहती है कि बच्चा कुछ देर जाकर खेल आये। सोफी का हृदय अब भी विनय को आँखों से
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परे न जाने देना चाहता था, उन्हें देखते ही उसका चेहरा फूल के समान खिल उठता था, नेत्रों में प्रेम-मद छा जाता था, पर विवेक-बुद्धि उसे तुरत अपने कर्तव्य की याद दिला देती थी। वह सोचती थी कि जब विनय मेरे पास आयें, तो मैं निष्ठुर बन जाऊँ, बोलूंँ ही नहीं, आप चले जायँगे; लेकिन यह उसकी पवित्र कामना थी। वह इतनो निर्दय, इतनी स्नेह-शून्य न हो सकती थी। भय होता था, कहीं बुरा न मान जायँ। कहीं यह न समझने लगें कि इसका चित्त चंचल है, या यह स्वार्थ-परायण है, बीमारी में तो स्नेह की मूर्ति बनी हुई थी, अब मुझसे बोलते भी जबान दुखती है। सोफी! तेरा मन प्रेम में बसा हुआ है, बुद्धि यश और कीर्ति में, और इन दोनों में निरंतर संघर्ष हो रहा है।

संग्राम को छिड़े हुए दो महीने हो गये थे। समस्या प्रतिदिन भीषण होती जाती थी, स्वयंसेवकों की पकड़-धकड़ से संतुष्ट न होकर गोरखों ने अब उन्हें शारीरिक कष्ट देना शुरू कर दिया था, अपमान भी करते थे, और अपने अमानुषिक कृत्यों से उनको भयभीत कर देना चाहते थे। पर अंधे पर बंदूक चलाने या झोपड़े में आग लगाने की हिम्मत न पड़ती थी। क्रांति का भय न था, विद्रोह का भय न था, भीषण-से-भीषण विद्रोह भी उनको आशंकित न कर सकता था, भय था हत्याकांड का, न जाने कितने गरीब मर जाँय, न जाने कितना हाहाकार मच जाय! पाषाण-हृदय भी एक बार रक्त-प्रवाह से काँप उठता है!

सारे नगर में, गली-गली, घर-घर यही चर्चा होती रहती थी। सहस्रों नगरवासी रोज वहाँ पहुँच जाते, केवल तमाशा देखने नहीं, बल्कि एक बार उस पूर्ण-कुटो और उसके चक्षुहीन निवासी का दर्शन करने के लिए और अवसर पड़ने पर अपने से जो कुछ हो सके, कर दिखाने के लिए। सेवकों की गिरफ्तारी से उनकी उत्सुकता और भी बढ़ गई थी। आत्मसमर्पण की हवा-सी चल पड़ी थी।

तीसरा पहर था। एक आदमी डौंडो पीटता हुआ निकला। विनय ने नौकर को भेजा कि क्या बात है। उसने लौटकर कहा, सरकार का हुक्म हुआ है कि आज से शहर का कोई आदमी पाँड़ेपुर न जाय, सरकार उसकी प्राण-रक्षा की जिम्मेदार न होगी।

विनय ने सचिंत भाव से कहा-"आज कोई नया आघात होनेवाला है।"

सोफिया-"मालूम तो ऐसा ही होता है।"

विनय-"शायद सरकार ने इस संग्राम का अंत करने का निश्चय कर लिया है।"

सोफिया-"ऐसा ही जान पड़ता है।"

विनय--"भीषण रक्त-पात होगा।"

सोफिया-"अवश्य होगा।"

सहसा एक वालंटियर ने आकर विनय को नमस्कार किया और बोला-'आज तो उधर का रास्ता बंद कर दिया गया है। मि० क्लार्क राजपूताना से जिलाधीश की जगह आ गये हैं। मि० सेनापति मुअत्तल कर दिये गये हैं।" [ ५१५ ]
विनय-"अच्छा! मि० क्लार्क आ गये! कब आये!"

सेवक-"आज ही चार्ज लिया है। सुना जाता है, उन्हें सरकार ने इसी कार्य के लिए विशेष रीति से यहाँ नियुक्त किया है।"

विनय-"तुम्हारे कितने आदमी वहाँ होंगे?"

सेवक-"कोई पचास होंगे।"

विनय कुछ सोचने लगे। सेवक ने कई मिनट बाद पूछा-'आप कोई विशेष आज्ञा देना चाहते हैं?"

विनय ने जमीन की तरफ ताकते हुए कहा-"बरबस आग में मत कूदना; और यथासाध्य जनता को उस सड़क पर जाने से रोकना।"

सेवक-"आप भी आयेंगे?"

विनय ने कुछ खिन्न होकर कहा-“देखा जायगा।"

सेवक के चले जाने के पश्चात् विनय कुछ देर तक शोक-मग्न रहे। समस्या थी, जाऊँ या न जाऊँ? दोनों पक्षों में तर्क-वितर्क होने लगा-"मैं जाकर क्या कर लूंगा, अधिकारियों की जो इच्छा होगी, वह तो अवश्य ही करेंगे। अब समझौते की कोई आशा नहीं। लेकिन यह कितना अपमान-जनक है कि नगर के लोग तो वहाँ जाने के लिए उत्सुक हों, और मैं, जिसने यह संग्राम छेड़ा, मुँह छिपाकर बैठ रहूँ। इस अवसर पर मेरा तटस्थ रहना मुझे जीवन-पर्यंत के लिए कलंकित कर देगा, मेरी दशा महेंद्रकुमार से भी गई-बीती हो जायगी। लोग समझेंगे, कायर है। एक प्रकार से मेरे सार्वजनिक जीवन का अंत हो जायगा।"

लेकिन बहुत संभव है, आज भी गोलियाँ चलें। अवश्य चलेंगी। कौन कह सकता है, क्या होगा? सोफिया किसकी होकर रहेगी? आह! मैंने व्यर्थ जनता में यह भाव जायगा। अंधे का झोपड़ा गिर गया होता और सारी कथा समाप्त हो जाती। मैंने ही सत्याग्रह का झंडा खड़ा किया, नाग को जगाया, सिंह के मुँह में उँगली डाली।

उन्होंने अपने मन का तिरस्कार करते हुए सोचा-“आज मैं इतना कातर क्यों हो गया हूँ? क्या मैं मौत से डरता हूँ? मौत से क्या डर? मरना तो एक दिन है ही। क्या मेरे मरने से देश सूना हो जायगा? क्या मैं ही कर्णधार हूँ? क्या कोई दूसरी वीर-प्रसू माता देश में है ही नहीं?"

सोफिया कुछ देर तक टकटकी लगाये उनके मुँह की ओर ताकती रही। अकस्मात् ह उठ खड़ी हुई और बोली-"मैं वहाँ जाती हूँ।"

विनय ने भयातुर होकर कहा-"आज वहाँ जाना दुस्साहस है। सुना नही, सारे नाकेबंद कर दिये गये हैं?"

सोफिया-"स्त्रियों को कोई नारोकेगा।"

विनय ने सोफिया का हाथ पकड़ लिया और अत्यंत प्रेम-विनीत भाव से कहा-
[ ५१६ ]
"प्रिये, मेरा कहना मानो, आज मत जाओ। अच्छे रंग नहीं हैं। कोई अनिष्ट होने-वाला है।"

सोफिया-"इसलिए तो मैं जाना जाहती हूँ। औरों के लिए भय बाधक हो, तो मे लिए भी क्यों हो?"

विनय-"क्लार्क का आना बुरा हुआ।"

सोफिया-"इसीलिए मैं और जाना चाहती हूँ, मुझे विश्वास है कि मेरे सामने वह कोई पैशाचिक आचरण न कर सकेगा। इतनी सज्जनता अभी उसमें है।”

यह कहकर सोफिया अपने कमरे में गई और अपना पुराना पिस्तौल सलूके की जेब में रखा। गाड़ी तैयार करने को पहले ही कह दिया था। वह बाहर निकली, तो गाड़ी तैयार खड़ी थी। जाकर विनयसिंह के कमरे में झाँका, वह वहाँ न थे। तब वह द्वार पर कुछ देर तक खड़ी रही, एक अज्ञात शंका ने, किसी अमंगल के पूर्वाभास ने उसके हृदय को आंदोलित कर दिया। वह अपने कमरे में लौट जाना चाहती थी कि कुँवर साहब आते हुए दिखाई दिये। सोफी डरी कि यह कुछ पूछ न बैठें, तुरत गाड़ी में आ बैठी और कोचवान को तेज चलने का हुक्म दिया। लेकिन जब गाड़ी कुछ दूर निकल गई, तो वह सोचने लगी कि विनय कहाँ चले गये? कहीं ऐसा तो नहीं हुआ कि वह मुझे जाने पर तत्पर देखकर मुझसे पहले ही चल दिये हों? उसे मनस्ताप होने लगा कि मैं नाहक यहाँ आने को तैयार हुई। विनय की आने की इच्छा न थी! वह मेरे ही आग्रह से आये हैं। ईश्वर! तुम उनकी रक्षा करना। क्लार्क उनसे जला हुआ है ही, कहीं उपद्रव न हो जाय? मैंने विनय को अकर्मण्य समझा। मेरी कितनी धृष्टता है। यह दूसरा अवसर है कि मैंने उन पर मिथ्या दोषारोपण किया। मैं शायद अब तक उन्हें नहीं समझी। वह वीर आत्मा हैं, यह मेरी क्षुद्रता है कि उनके विषय में अक्सर मुझे भ्रम हो जाता है। अगर मैं उनके मार्ग का कंटक न बनी होती, तो उनका जीवन कितना निष्कलंक, कितना उज्ज्वल होता? मैं ही उनकी दुर्बलता हूँ, मैं ही उनको कलंक लगानेवाली हूँ! ईश्वर करे, वह इधर न आये हो। उनका न आना ही अच्छा। यह कैसे मालूम हो कि यहाँ आये या नहीं! चलकर देख लूँ।

उसने कोचवान को और तेज चलने का हुक्म दिया।

उधर विनयसिंह दफ्तर में जाकर सेवक-संस्था के आय-व्यय का हिसाब-लिख रहे थे। उनका चित्त बहुत उदास था। मुख पर नैराश्य छाया हुआ था। रह-रहकर अपने चारों ओर वेदनातुर दृष्टि से देखते और फिर हिसाब लिखने लगते थे। न जाने वहाँ से लौटकर आना हो या न हो, इसलिए हिसाब-किताब ठीक कर देना आवश्यक समझते थे। हिसाब पूरा करके उन्होंने प्रार्थना के भाव से ऊपर की ओर देखा, फिर बाहर निकलें, बाइसिकल उठाई और तेजी से चले, इतने सतृष्ण नेत्रों से पीछे फिरकर भवन, उद्यान और विशाल वृक्षों को देखते जाते थे, मानों उन्हें फिर न देखेंगे, मानों यह उनका अंतिम दर्शन है। कुछ दूर आकर उन्होंने देखा, सोफिया चली जा रही है। [ ५१७ ]
अगर वह उससे मिल जाते, तो कदाचित् सोफिया भी उनके साथ लौट पड़ती; पर उन्हें तो यह धुन सवार थी कि सोफिया के पहले वहाँ जा पहुँचूँ। मोड़ आते ही उन्होंने अपनी पैरगाड़ी को फेर दिया और दूसरा रास्ता पकड़ा। फल यह हुआ कि जब वह संग्राम-स्थल में पहुँचे, तो सोफिया अभी तक न आई थी। विनय ने देखा, गिरे हुए मकानों की जगह सैकड़ों छोलदारियाँ खड़ी हैं और उनके चारों ओर गोरखे खड़े चक्कर लगा रहे हैं। किसी की गति नहीं है कि अंदर प्रवेश कर सके। हजारों आदमी आस-पास खड़े हैं, मानों किसी विशाल अभिनय को देखने के लिए दर्शकगण वृत्ताकार खड़े हों। मध्य में सूरदास का झोपड़ा रंगमंच के समान स्थिर था। सूरदास झोपड़े के सामने लाठी लिये खड़ा था, मानों सूत्रधार नाटक का आरंभ करने को खड़ा है। सब-के-सब सामने का दृश्य देखने में इतने तन्मय हो रहे थे कि विनय की ओर किसी का ध्यान आकृष्ट नहीं हुआ। सेवक-दल के युवक झोपड़े के सामने रातों-रात ही पहुँच गये थे। विनय ने निश्चय किया कि मैं भी वहीं जाकर खड़ा हो जाऊँ।

एकाएक किसी ने पीछे से उनका हाथ पकड़कर खींचा। इन्होंने चौंककर देखा, तो सोफ़िया थी। उसके चेहरे का रंग उड़ा हुआ था। घबराई हुई आवाज से बोली-"तुम क्यों आये?"

विनय-"तुम्हें अकेले क्योंकर छोड़ देता?”

सोफिया-"मुझे बड़ा भय लग रहा है। ये तोपें लगा दी गई हैं?"

विनय ने.तोपें न देखी थीं। वास्तव में तीन तोपें झोपड़े की ओर मुँह किये हुए खड़ी थीं, मानों रंगभूमि में दैत्यों ने प्रवेश किया हो।

विनय-"शायद आज इस सत्याग्रह का अंत कर देने का निश्चय हुआ है।"

सोफिया—"मैं यहाँ नाहक आई। मुझे घर पहुँचा दो।"

आज सोफिया को पहली बार प्रेम के दुर्बल पक्ष का अनुभव हुआ। विनय की रक्षा की चिंता में वह कभी इतनी भय-विकल न हुई थी। जानती थी कि विनय का कर्तव्य, उनका गौरव, उनका श्रेय यहीं रहने में है। लेकिन यह जानते हुए भी उन्हें यहाँ से हटा ले जाना चाहती थी। अपने विषय में कोई चिंता न थी। अपने को वह बिलकुल भूल गई थी।

विनय-"हाँ, तुम्हारा यहाँ रहना जोखिम की बात है। मैंने पहले ही मना किया था, तुमने न माना।"

सोफिया विनय का हाथ पकड़कर गाड़ी पर बैठा देना चाहती थी कि सहसा इंदु-रानी की मोटर आ गई। मोटर से उतरकर वह सोफ़िया के पास आई, बोली-"क्यों सोफी, जाती हो क्या?"

सोफिया ने बात बनाकर कहा-"नहीं, जाती नहीं हूँ, जरा पीछे हट जाना चाहती हूँ। [ ५१८ ]
सोफिया को इंदु का आना कभी इतना नागवार न मालूम हुआ था। विनय को भी बुरा मालूम हुआ बोले-"तुम क्यों आई?"

इंदु--"इसलिए कि तुम्हारे भाई साहब ने आज पत्र द्वारा मुझे मना कर दिया था।"

विनय-"आज की स्थिति बहुत नाजुक है, हम लोगों के धैर्य और साहस की आज कठिनतम परीक्षा होगी।"

इंदु-"तुम्हारे भाई साहब ने तो उस पत्र में यही बात लिखी थी।"

विनय-'क्लार्क को देखो, कितनी निर्दयता से लोगों को हंटर मार रहा है। किंतु कोई हटने का नाम भी नहीं लेता। जनता का संयम और धैर्य अब अंतिम बिंदु तक पहुँच गया है। कोई नहीं कह सकता कि कब क्या हो जाय।"

साधारण जनता इतनी स्थिर-चित्त और दृढ़-व्रत हो सकती है, इसका आज विनय को अनुभव हुआ। प्रत्येक व्यक्ति प्राण हथेली पर लिये हुए मालूम होता था। इतने में नायकराम किसी ओर से आ गये और विनय को देखकर विस्मय से पूछा-'आज तुम इधर कैसे भूल पड़े भैया?"

इस प्रश्न में कितना व्यंग्य, कितना तिरस्कार, कितना उपहास था! विनय ऐंठकर रह गये। बात टाल कर बोले-"क्लार्क बड़ा निर्दयी है!" नायकराम ने अंगोछा उठाकर विनय को अपनी पीठ दिखाई। गरदन से कमर तक एक नीली, रक्तमय रेखा खिंची हुई थी, मानों किसी नोकदार कील से खुरच लिया गया हो। विनय ने पूछा-"यह घाव कैसे लगा?"

नायकराम-"अभी यह हंटर खाये चला आता हूँ। आज जीता बचा, तो समझूँगा। क्रोध तो ऐसा आया कि टाँग पकड़कर नीचे घसीट लूँ, लेकिन डरा कि कहीं गोली न चल जाय, तो नाहक सब आदमी भुन जायँ। तुमने तो इधर आना ही छोड़ दिया। औरत का माया-जाल बड़ा कठिन है!"

सोफिया ने इस कथन का अंतिम वाक्य सुन लिया। बोली-“ईश्वर को धन्यवाद दो कि तुम इस जाल में नहीं फंँसे।"

सोफिया को चुटकी ने नायकराम को गुदगुदा दिया। सारा क्रोध शांत हो गया। बोले-"भैया, मिस साहब को जवाब दो। मुझे मालूम तो है, लेकिन कहते नहीं बनता। हाँ, कैसे?"

विनय-"क्यों, तुम्हीं ने तो निश्चय किया था कि अब स्त्रियों के नगीच न जाऊँगा, ये बड़ी बेवफा होती हैं। उसी दिन की बात है, जब मैं सोफ़ी की लताड़ सुनकर उदयपुर जा रहा था।"

नायकराम-(लज्जित होकर)-"वाह भैया, तुमने तो मेरे ही सिर झोंक दिया?"

विनय-"और क्या कहूँ। सच कहने में क्या संकोच! खुश हों, तो मुसीबत; नाराज हों, तो मुसीबत।" [ ५१९ ]नायकराम-"बस भैया, मेरे मन की बात कही। ठीक यही बात है। हर तरह मरदों ही पर मार, राजी हों, तो मुसीबत; नाराज हों, तो उससे भी बड़ी मुसीबत!”

सोफिया-"जब औरत इतनी विपत्ति है, तो पुरुष क्यों उसे अपने सिर मढ़ते हैं। जिसे देखो, वही उसके पीछे दौड़ता है! क्या दुनिया के सभी पुरुष मूर्ख हैं, किसी को बुद्धि नहीं छू गई?"

नायकराम-"भैया, मिस साहब ने तो मेरे सामने पत्थर लुढ़का दिया। बात तो सच्ची है कि जब औरत इतनी बड़ी बिपत है, तो लोग क्यों उसके पीछे हैरान रहते हैं? एक की दुर्दशा देखकर दूसरा क्यों नहीं सीखता! बोलो भैया, है कुछ जवाब?"

विनय-"जवाब क्यों नहीं है, एक तो तुम्हीं ने मेरी दुर्दशा से सीख लिया। तुम्हारी भाँति और भी कितने ही पड़े होंगे।"

नायकराम-(हँसकर ) "भैया, तुमने फिर मेरे ही सिर डाल दिया। यह तो कुछ ठीक जवाब न बन पड़ा।"

विनय-"ठीक वही है, जो तुमने आते-ही-आते कहा था कि औरत का माया-जाल बड़ा कठिन है।"

मनुष्य स्वभावतः विनोदशील है। ऐसी विडंबना में भी उसे हँसी सूझती है, फाँसी पर चढ़नेवाले मनुष्य भी हँसते देखे गये हैं। यहाँ ये ही बातें हो रही थीं कि मि० क्लार्क घोड़ा उछालते, आदमियों को हटाते, कुचलते आ पहुँचे! सोफी पर निगाह पड़ी। तीर-सा लगा। टोपी ऊपर उठाकर बोले-"यह वहो नाटक है, या कोई दूसरा शुरू कर दिया?"

नश्तर से भी तीव्र, पत्थर से भी कठोर, निर्दय वाक्य था। मि० क्लार्क ने अपने मनोगत नैराश्य, दुःख, अविश्वास और क्रोध को इन चार शब्दों में कूट-कूटकर भर दिया था।

सोफ़ी ने तत्क्षण उत्तर दिया-"नहीं, बिलकुल बया। तब जो मित्र थे, वे ही अब शत्रु हैं।"

क्लार्क व्यंग्य समझकर तिलतिला उठे। बोले -"यह तुम्हारा अन्याय है। मैं अपनी नीति से जौ-भर भी नहीं हटा।"

सोफी-"किसी को एक बार शरण देना और दूसरी बार उसी पर तलवार उठाना क्या एक ही बात है? जिस अंधे के लिए कल तुमने यहाँ के रईसों का विरोध किया था, बदनाम हुए थे, दंड भोगा था, उसी अंधे की गरदन पर तलवार चलाने के लिए आज राजपूताने से दौड़ आये हो। क्या दोनों एक ही बात है?"

क्लार्क-"हाँ मिस सेवक, दोनों एक ही बात है! हम यहाँ शासन करने के लिए आते हैं, अपने मनोभावों और व्यक्तिगत विचारों का पालन करने के लिए नहीं। जहाज से उतरते ही हम अपने व्यक्तित्व को मिटा देते हैं, हमारा न्याय, हमारी सहृदयता, हमारी
[ ५२० ]
सदिच्छा, सबका एक ही अभीष्ट है। हमारा प्रथम और अंतिम उद्देश्य शासन करना है।"

मि० क्लार्क का लक्ष्य सोफी की ओर इतना नहीं, जितना विनय की ओर था। वह विनय को अलक्षित रूप से धमका रहे थे। खुले हुए शब्दों में उनका आशय यही था कि हम किसी के मित्र नहीं हैं, हम यहाँ राज्य करने आये हैं, और जो हमारे कार्य में बाधक होगा, उसे हम उखाड़ फेकेंगे।

सोफी ने कहा-"अन्याय-पूर्ण शासन शासन नहीं, युद्ध है।"

क्लार्क-"तुमने फावड़े को फावड़ा कह दिया। हममें इतनी सजनता है। अच्छा, मैं तुमसे फिर मिलूँगा।"

यह कहकर उन्होंने घोड़े को एड़ लगाई। सोफिया ने उच्च स्वर से कहा-"नहीं, कदापि न आना; मैं तुमसे नहीं मिलना चाहती।"

आकाश मेघ मंडित हो रहा था। संध्या से पहले संध्या हो गई थी। मि० क्लार्क अभी गये ही थे कि मि० जॉन सेवक की मोटर आ पहुँची। वह ज्यों ही मोटर से उतरे कि सैकड़ों आदमी उनकी तरफ लपके। जनता शासकों से दबती है, उनकी शक्ति का ज्ञान उस पर अंकुश जमाता रहता है। जहाँ उस शक्ति का भय नहीं होता, वहाँ वह आपे से बाहर हो जाती है। मि० सेवक शासकों के कृपापात्र होने पर भी शासक नहीं थे। जान लेकर गोरखों के कैंप की तरफ भागे, सिर पर पाँव रखकर दौड़े; लेकिन ठोकर खाई, गिर पड़े। मि० क्लार्क ने घोड़े पर से उन्हें दौड़ते देखा था। उन्हें गिरते देखा, तो समझे, जनता ने उन पर आघात कर दिया। तुरत गोरखों का एक दल उनकी रक्षा के निमित्त भेजा। जनता ने भी उग्र रूप धारण किया-चूहे बिल्ली से लड़ने को तैयार हुए। सूरदास अभी तक चुपचाप खड़ा था। यह हलचल सुनी, तो भयभीत होकर भैरो से बोला, जो एक क्षड़ के लिए उसे न छोड़ता था- "भैया, तुम मुझे जरा अपने कंधे पर बैठा लो, एक बार और लोगों को समझा देखू। क्यों लोग यहाँ से हट नहीं जाते। सैकड़ों बार कह चुका, कोई सुनता ही नहीं। कहीं गोली चल गई, तो आज उस दिन से भी अधिक खून-खच्चर हो जायगा।"

भैरो ने सूरदास को कंधे पर बैठा लिया। इस जन-समूह में उसका सिर बालिश्त-भर ऊँचा हो गया। लोग इधर-उधर से उसकी बातें सुनने दौड़े। वीर-पूजा जनता का स्वाभाविक गुण है। ऐसा ज्ञात होता था कि कोई चक्षु-हीन यूनानी देवता अपने उपासकों के बीच खड़ा है।

सूरदास ने अपनी तेज-हीन आँखों से जन-समूह को देखकर कहा-“भाइयो, आप लोग अपने-अपने घर जायँ। आपसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, घर चले जायँ। यहाँ जमा होकर हाकिमों को चिढ़ाने से क्या फायदा? मेरी मौत आवेगी, तो आप लोग खड़े रहेंगे, और मैं मर जाऊँगा। मौत न आवेगी, तो मैं तोपों के मुँह से बचकर निकल आऊँगा। आप लोग वास्तव में मेरी सहायता करने नहीं आये, मुझसे दुसमनी करने
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आये हैं। हाकिमो के मन में, फौज के मन में, पुलिस के मन में जो दया और धरम का खयाल आता, उसे आप लोगों ने जमा होकर क्रोध बना दिया है। मैं हाकिमों को दिखा देता कि एक दोन, अंधा आदमी एक फौज को कैसे पीछे हटा देता है, तोप का मुँह कैसे बंद कर देता है, तलवार की धार कैसे मोड़ देता है! मैं धरम के बल से लड़ना चाहता था...।"

इसके आगे वह और कुछ न कह सका। मि० क्लार्क ने उसे खड़े होकर कुछ बोलते सुना, तो समझे, अंधा जनता को उपद्रव मचाने के लिए प्रेरित कर रहा है। उनकी घारणा थी कि जब तक यह आत्मा जीवित रहेगी, अंगों की गति बंद न होगी। इसलिए आत्मा ही का नाश कर देना आवश्यक है। उद्गम को बंद कर दो, जल-प्रवाह बंद हो जायगा। वह इसी ताक में लगे हुए थे कि इस विचार को कैसे कार्य-रूप में परिणत करें, किंतु सूरदास के चारों तरफ नित्य आदमियों का जमघट रहता था, क्लार्क को इच्छित अवसर न मिलता था। अब जो उसके सिर को ऊपर उठा हुआ देखा, तो उन्हें वह अवसर मिल गया। वह स्वर्णावसर था, जिसके प्राप्त होने पर ही इस संग्राम का अंत हो सकता था। इसके पश्चात् जो कुछ होगा, उसे वह जानते थे। जनता उत्तेजित होकर पत्थरों की वर्षा करेगी, घरों में आग लगायेगी, सरकारी दफ्तरों को लूटेगी। इन उपद्रवों को शांत करने के लिए उनके पास पर्यात शक्ति थी। मूल-मंत्र अंधे को समरस्थल से हटा देना था—यही जीवन का केंद्र है, यही गति-संचालक सूत्र है। उन्होंने जेब से पिस्तौल निकाली और सूरदास पर चला दिया। निशाना अचूक पड़ा। बाण ने लक्ष्य को बेध दिया। गोली सूरदास के कंधे में लगी, सिर लटक गया, रक्त प्रवाह होने लगा। भैरो उसे सँभाल न सका, वह भूमि पर गिर पड़ा। आत्मबल पशुबल का प्रतिकार न कर सका।

सोफिया ने मि० क्लार्क को जेब से पिस्तौल निकालते और सूरदास को लक्ष्य करते देखा था। उसको जमीन पर गिरते देखकर समझी, घातक ने अपना अभीष्ट पूरा कर लिया। फिटन पर खड़ी थी, नीचे कूद पड़ी और हत्याक्षेत्र की ओर चली, जैसे कोई माता अपने बालक को किसी अनेवाली गाड़ी की झपेट में देखकर दौड़े। विनय उसके पीछे-पीछे उसे रोकने के लिए दौड़े, वह कहते जाते थे-“सोफी! ईश्वर के लिए वहाँ न जाओ, मुझ पर इतनी दया करो। देखो, गोरखे बंदूकै सँभाल रहे हैं। हाय! तुम नहीं मानतीं।” यह कहकर उन्होंने सोफ़ी का हाथ पकड़ लिया और अपनी ओर खींचा1 लेकिन सोफी ने एक झटका देकर अपना हाथ छुड़ा लिया और फिर दौड़ी। उसे इस समय कुछ न सूझता था; न गोलियों का भय था, न संगीनों का। लोग उसे दौड़ते देखकर आप ही आप रास्ते से हटते जाते थे। गोरखों की दीवार सामने खड़ी थी, पर सोफी को देखकर वे भी हट गये। मि० क्लार्क ने पहले ही बड़ी ताकीद कर दी थी कि कोई सैनिक रमणियों से छेड़छाड़ न करे। विनय इस दीवार को न चीर सके। तरल वस्तु छिद्र के रास्ते निकल गई, ठोस वस्तु न निकल सकी। [ ५२२ ]
सोफी ने जाकर देखा, तो सूरदास के कंधे से रक्त प्रवाहित हो रहा था, अंग शिथिल पड़ गये थे, मुख विवर्ण हो रहा था; पर आँखें खुली हुई थीं और उनमें से पूर्ण शांति, संतोष और धैर्य की ज्योति निकल रही थी; क्षमा थी, क्रोध या भय का नाम न था। सोफी ने तुरंत रूमाल निकालकर रक्त प्रवाह को बंद किया और कंपित स्वर में बोली-"इन्हें अस्पताल भेजना चाहिए। अभी प्राण हैं; संभव है, बच जायँ।" भैरो ने उसे गोद में उठा लिया। सोफिया उसे अपनी गाड़ी तक लाई, उस पर सूरदास को लिटा दिया, आप गाड़ी पर बैठ गई और कोचवान को शफाखाने चलने का हुक्म दिया।

जनता नैराश्य और क्रोध से उन्मत्त हो गई। हम भी यहीं मर मिटेंगे। किसी को इतना होश न रहा कि यो मर मिटने से अपने सिवा किसी दूसरे की क्या हानि होगी। बालक मचलता है, तो जानता है कि माता मेरी रक्षा करेगी। यहाँ कौन माता थी, जो इन मचलनेवालों की रक्षा करेगी! लेकिन क्रोध में विचार-पट बंद हो जाता है। जन-समुदाय का वह अपार सागर उमड़ता हुआ गोरखों की ओर चला। सेवक-दल के युवक घबराए हुए इधर-उधर दौड़ते फिरते थे; लेकिन उनके समझाने का किसी पर असर न होता था। लोग दौड़-दौड़कर ईट और कंकड़-पत्थर जमा कर रहे थे। खंडहरों में मलबे की क्या कमी! देखते-देखते जगह-जगह पत्थरों के ढेर लग गये।

विनय ने देखा, अब अनर्थ हुआ चाहता है। आन-की-आन में सैकड़ों जानों पर बन आयेगो, तुरंत एक गिरी हुई दीवार पर चढ़कर बोले-"मित्रो, यह क्रोध का अवसर नहीं है, प्रतिकार का अवसर नहीं है, सत्य की विजय पर आनंद और उत्सव मनाने का अवसर है।"

एक आदमी बोला-“अरे! यह तो कुँवर विनयसिंह हैं।"

दूसरा-"वास्तव में आनंद मनाने का अवसर है, उत्सव मनाइए, विवाह मुबारक!"

तीसरा-"जब मैदान साफ हो गया, तो आप मुरदों की लाश पर आँसू बहाने के लिए पधारे हैं। जाइए, शयनागार में रंग उड़ाइए। यह कष्ट क्यों उठाते हैं।"

विनय-"हाँ, यह उत्सव मनाने का अवसर है कि अब भी हमारी पतित, दलित,

पीड़ित .जाति में इतना विलक्षण आत्मबल है कि एक निस्सहाय, अपंग, नेत्र-हीन भिखारी शक्ति-संपन्न अधिकारियों का इतनी वीरता से सामना कर सकता है।”

एक आदमी ने व्यंग्य-भाव से कहा-“एक बेकस अंधा जो कुछ कर सकता है, वह राजे-रईस नहीं कर सकते।"

दुसरा-"राजभवन में जाकर शयन कीजिए। देर हो रही है। हम अभागों को मरने दीजिए।"

तीसरा-"सरकार से कितना पुरस्कार मिलनेवाला है?"

चौथा-"आप ही ने तो राजपूताने में दरबार का पक्ष लेकर प्रजा को आग में झोंक दिया था।"

विनय-"भाइयो, मेरी निंदा का समय फिर मिल जायगा। यद्यपि मैं कुछ विशेष
[ ५२३ ]
कारणों से इधर आपका साथ न दे सका; लेकिन ईश्वर जानता है, मेरी सहानुभूति आप ही के साथ थी। मैं एक क्षण के लिए आपकी तरफ से गाफिल न था।"

एक आदमी-“यारो, यहाँ खड़े क्या बकवास कर रहे हो? कुछ दम हो, तो चलो, कट मरें।"

दूसरा-"यह व्याख्यान झाड़ने का अवसर नहीं है। आज हमें यह दिखाना है कि हम न्याय के लिए कितनी वीरता से प्राण दे सकते हैं।"

तीसरा-"चलकर गोरखों के सामने खड़े हो जाओ। कोई कदम पीछे न हटावे। वहीं अपनी लाशों का ढेर लगा दो। बाल-बच्चों को ईश्वर पर छोड़ो।"

चौथा-"यह तो नहीं होता कि आगे बढ़कर ललकारें कि कायरों का रक्त भी खौलने लगे। हमें समझाने चले हैं, मानों हम देखते नहीं कि सामने फौज बंदूकें भरे खड़ी है और एक बाढ़ में कलआम कर देगी।"

पाँचवाँ-"भाई, हम गरीबों की जान सस्ती होती है। रईसजादे होते, तो हम भी दूर-दूर से खड़े तमाशा देखते।"

छठा-"इससे कहो, जाकर चुल्लू-भर पानी में डूब मरे। हमें इसके उपदेशों की जरूरत नहीं। उँगली में लहू लगाकर शहीद बनने चले हैं!"

ये अपमान-जनक, व्यंग्य-पूर्ण, कटु वाक्य विनय के उर-स्थल में बाण के सदृश चुभ गये-"हा हतभाग्य! मेरे जीवन-पर्यंत के सेवानुराग, त्याग, संयम का यही फल है! अपना सर्वस्व देश-सेवा की वेदी पर आहुति देकर रोटियों को मोहताज होने का यही पुरस्कार है! क्या रियासत का यही पुरस्कार है! क्या रियासत का कलंक मेरे माथे से कभी न मिटेगा?" वह भूल गये-"मैं यहाँ जनता की रक्षा करने आया हूँ, गोरखे सामने हैं। मैं यहाँ से हटा, और एक क्षण में पैशाचिक नर-हत्या होने लगेगी। मेरा मुख्य कर्तव्य अंत समय तक इन्हें रोकते रहना है। कोई मुजायका नहीं, अगर इन्होंने ताने दिये, अपमान किया, कलंक लगाया, दुर्वचन कहे। मैं अपराधी हूँ, अगर नहीं हूँ, तो भी मुझे धैर्य से काम लेना चाहिए। ये सभी बातें वह भूल गये। नीति-चतुर प्राणी अवसर के अनुकूल काम करता है। जहाँ दबना चाहिए, वहाँ दब जाता है; जहाँ गरम होना चाहिए, वहाँ गरम होता है। उसे मानापमान का हर्ष या दुःन नहीं होता। उसकी दृष्टि निरंतर अपने लक्ष्य पर रहती है। वह अविरलगति से, अदम्य उत्साह से उसो ओर बढ़ता है, किंतु सरल, लज्जाशील, निष्कपट आत्माएँ मेघों के समान होती हैं, जो अनुकूल वायु पाकर पृथ्वी को तृप्त कर देते हैं और प्रतिकूल वायु के वेग से छिन्न-भिन्न हो जाते हैं। नीतिज्ञ के लिए अपना लक्ष्य ही सब कुछ है, आत्मा का उसके सामने कुछ मूल्य नहीं। गौरव-संपन्न प्राणियों के लिए अपना चरित्र-बल ही सर्वप्रधान है। वे अपने चरित्र पर किये गये आघातों को सह नहीं सकते। वे अपनी निर्दोषिता सिद्ध करने को अपने लक्ष्य की प्राप्ति से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण सम- झते हैं। विनय की सौम्य आकृति तेजस्वी हो गई, लोचन लाल हो गये। वह उन्मत्तों
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की भाँति जनका का रास्ता रोककर खड़े हो गये और बोले-क्या आप देखना चाहते हैं कि रईसों के बेटे क्योंकर प्राण देते हैं? देखिए।"

यह कहकर उन्होंने जेब से भरी हुई पिस्तौल निकाल ली, छाती में उसकी नली लगाई और जब तक लोग दौड़ें, भूमि पर गिर पड़े। लाश तड़पने लगी। हृदय की संचित अभिलाषाएँ रक्त की धार बनकर निकल गई। उसी समय जल-वृष्टि होने लगी। मानों स्वर्गवासिनी आत्माएँ पुष्पवर्षा कर रही हों।

जीवन-सूत्र कितना कोमल है! वह क्या पुष्प से कोमल नहीं, जो वायु के झोंके सहता है और मुरझाता नहीं? क्या वह लताओं से कोमल नहीं, जो कठोर वृक्षों के झोंके सहती और लिपटी रहती हैं? वह क्या पानी के बबूलों से कोमल नहीं, जो जल की तरंगों पर तैरते हैं, और टूटते नहीं? संसार में और कौन-सी वस्तु इतनी कोमल, इतनी अस्थिर, इतनी सारहीन है, जिसे एक व्यंग्य, एक कठोर शब्द, एक अन्योक्ति भी दारुण, असह्य, घातक है! और, इस भित्ति पर कितने विशाल, कितने भव्य, कितने बृहदाकार भवनों का निर्माण किया जाता है!

जनता स्तंभित हो गई, जैसे आँखों में अँधेरा छा जाय! उसका क्रोधावेश करुणा के रूप में बदल गया। चारों तरफ से दौड़-दोड़कर लोग आने लगे, विनय के दर्शनों से अपने नेत्रों को पवित्र करने के लिए, उनकी लाश पर चार बूँद आँसू बहाने के लिए। जो द्रोही था, स्वार्थी था, काम-लिप्सा रखनेवाला था, वह एक क्षण में देव-तुल्य, त्यागमूर्ति, देश का प्यारा, जनता की आँखों का तारा बना हुआ था। जो लोग गोरखों के समीप पहुँच गये थे, वे भी लौट आये। हजारों शोक-विह्वल नेत्रों से अश्रु-वृष्टि हो रही थी, जो मेघ की बूंदों से मिलकर पृथ्वी को तृप्त करती थी। प्रत्येक हृदय शोक से विदीर्ण हो रहा था, प्रत्येक हृदय अपना तिरस्कार कर रहा था, पश्चात्ताप कर रहा था-"आह यह हमारे ही व्यंग्य-बाणों का, हमारे ही तीव्र वाक्य-शरों का पाप कृत्य है। हमीं इसके घातक हैं, हमारे ही सिर यह हत्या है। हाय! कितनी वीर आत्मा, कितना धैर्यशील, कितना गंभीर, कितना उन्नत हृदय, कितना लजाशील, कितना आत्माभिमानी, दीनों का कितना सच्चा सेवक और न्याय का कितना सच्चा उपासक था, जिसने इतनी बड़ी रियासत को तृणवत् समझा और हम पामरों ने उसकी हत्या कर डाली, उसे न पहचाना।"

एक ने रोकर कहा-'खुदा करे, मेरी जबान जल जाय। मैंने ही शादी पर मुबारकबादी का ताना मारा था।"

दूसरा बोला-"दोस्तो, इस लाश पर फिदा हो जाओ, इस पर निसार हो जाओ, इसके कदमों पर गिरकर मर जाओ।"

यह कहकर उसने कमर से तलवार निकाली, गरदन पर चलाई और वहीं तड़पने लगा। [ ५२५ ]
तीसरा सिर पीटता हुआ बोला-"कितना तेजस्वी मुख-मंडल है! हा, मैं क्या जानता था कि मेरे व्यंग्य वज्र बन जायँगे?”

चौथा-"हमारे हृदयों पर यह घाव सदैव हरा रहेगा, हम इस देवमूर्ति को कभी विस्मृत न कर सकेंगे। कितनी शूरता से प्राण त्याग दिये, जैसे कोई एक पैसा निकाल कर किसी भिक्षुक के सामने फेक दे। राजपुत्रों में ये ही गुण होते हैं। वे अगर जीना जानते हैं, तो मरना भी जानते हैं। रईस की यही पहचान है कि बात पर मर मिटे।"

अँधेरा छाया जाता था। पानी मूसलधार बरस रहा था। कभी जरा देर के लिए बूंदें हलकी पड़ जातीं, फिर जोरों से गिरने लगतीं, जैसे कोई रोनेवाला थककर जरा दम ले ले और फिर रोने लगे। पृथ्वी ने पानी में मुँह छिपा लिया था, माता मुँह पर अंचल डाले रो रही थी। रह-रहकर टूटी हुई दीवारों के गिरने का धमाका होता था, जैसे कोई धम-धम छाती पीट रहा हो। क्षण-क्षण बिजली कौंदती थी, मानों आकाश के जीव चीत्कार कर रहे हों! दम-के-दम में चारों तरफ यह शोक-समाचार फैल गया। इंदु मि० जॉन सेवक के साथ थी। यह खबर पाते हो मूर्चि्छत होकर गिर पड़ी।

विनय के शव पर एक चादर तान दी गई थी। दीपकों के प्रकाश में उनका मुख अब भी पुष्प के समान विहसित था। देखनेवाले आते थे, रोते थे और शोक-समाज में खड़े हो जाते थे। कोई-कोई फूलों की माला रख देता था। वीर पुरुष यों ही मरते हैं। अभिलाषाएँ उनके गले की जंजीर नहीं होती। विषय-वासना उनके पैरों की बेड़ियाँ नहीं होती। उन्हें इसकी चिन्ता नहीं होती कि मेरे पीछे कौन हँसेगा और कौन रोयेगा। उन्हें इसका भय नहीं होता कि मेरे बाद काम कौन सँभालेगा। यह सब संसार से चिमटनेवालों के बहाने हैं। वीर पुरुष मुक्तात्मा होते हैं। जब ल क जीते हैं निर्द्वन्द्व जोते हैं। मरते हैं, तो निर्द्वंद मरते हैं।

इस शोक-वृत्तांत को क्यों तूल दें? जब बेगानों की आँखों से आँसू और हृदय से आह निकल पड़ती थी, तो अपनों का कहना ही क्या! नायकराम सूरदास के साथ शफाखाने गये थे। लौटे ही थे कि यह दृश्य देखा। एक लंबी साँस खींचकर विनय के चरणों पर सिर रख दिया और बिलख-बिलखकर रोने लगे। जरा चित्त शांत हुआ, तो सोफो को खबर देने चले, जो अभी शफाखाने ही में थी।

नायकराम रास्ते-भर दौड़ते हुए गये, पर सोफी के सामने पहुंचे, तो गला इतना फँस गया कि मुँह से एक भी शब्द न निकला। उसकी ओर ताकते हुए सिसक सिसककर रोने लगे। सोफ़ी के हृदय में शूल-सा उठा। अभी नायकराम गये और उलटे पाँव लौट आये। जरूर कोई अमंगल-सूचना है। पूछा-"क्या है पंडाजी?" यह पूछते ही उसका कंठ भी रुंँध गया।

नायकराम की सिसकियाँ आर्त-नाद हो गई। सोफी ने दौड़कर उनका हाथ पकड़ लिया और आवेश कंपित कंठ से पूछा-"क्या विनय....?" यह कहते-कहते शोकातिरेक की दशा में शफास्त्राने से निकल पड़ी और पाँड़ेपुर की ओर चली। नायकराम आगे-
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आगे लालटेन दिखाते हुए चले। वर्षा ने जल-थल एक कर दिया था। सड़क के किनारे के वृक्ष, जो अब पानी में खड़े थे, सड़क का चिह्न बता रहे थे। सोफी का शोक एक ही क्षण में आत्मग्लानि के रूप में बदल गया-"हाय! मैं ही हत्यारिन हूँ। क्यों आकाश से वज्र गिरकर मुझे भस्म नहीं कर देता? क्यों कोई साँप जमीन से निकलकर मुझे डस नहीं लेता? क्यों पृथ्वी फटकर मुझे निगल नहीं जाती? हाय! आज मैं वहाँ न गई होती, तो वह कदापि न जाते। मैं क्या जानती थी कि विधाता मुझे सर्वनाश की ओर लिये जाता है! मैं दिल में उन पर झुंझला रही थी, मुझे यह संदेह भी हो रहा था कि यह डरते हैं! आह! यह सब मेरे कारण हुआ, मैं ही अपने सर्वनाश का कारण हूँ! मैं अपने हाथों लुट गई। हाय! मैं उनके प्रेम के आदर्श को न पहुँच सकी।"

फिर उसके मन में विचार आया-"कहीं खबर झूठी न हो। उन्हें चोट लगो हो और वह संज्ञा-शून्य हो गये हों। आह। काश मैं एक बार उनके वचनामृत से अपने हृदय को पवित्र कर लेती! नहीं-नहीं, वह जीवित हैं, ईश्वर मुझ पर इतना अत्याचार नहीं कर सकता। मैंने कभी किसी प्राणी को दुःख नहीं पहुँचाया, मैंने कभी उस पर अविश्वास नहीं किया, फिर वह मुझे इतना वज्रदंड क्यों देगा!"

जब सोफिया संग्राम-स्थल के समीप पहुँची, तो उस पर भीषण भय छा गया। वह सड़क के किनारे एक मील के पत्थर पर बैठ गई। वहाँ कैसे जाऊँ? कैसे उन्हें देखूँगी, कैसे उन्हें स्पर्श करूँगी! उनकी मरणावस्था का चित्र उसकी आँखों के सामने खिंच गया, उनकी मृत देह रक्त और धूल में लिपटी हुई भूमि पर पड़ी हुई थी। इसे उसने जीते-जागते देखा था। उसे इस जीर्णावस्था में वह कैसे देखेगी! उसे इस समय प्रबल आकांक्षा हुई कि वहाँ जाते ही मैं भी उनके चरणों पर गिरकर प्राण त्याग दूं। अब संसार में मेरे लिए कौन-सा सुख है! हाय! यह कठिन वियोग कैसे सहूँगी! मैंने अपने जीवन को नष्ट कर दिया, ऐसे नर-रत्न को धर्म की पैशाचिक क्रूरता पर बलिदान कर दिया।

यद्यपि वह जानती थी कि विनय का देहावसान हो गया, फिर भी उसे भ्रांत आया हो रही थी कि कौन जाने, वह केवल मूर्च्छित हो गये हों! सहसा उसे पीछे से एक मोटरकार पानी को चीरती हुई आती दिखाई दी। उसके उज्ज्वल प्रकाश में फटा हुआ पानी ऐसा जान पड़ता था, मानों दोनों ओर से जल-जंतु उस पर टूट रहे हों। वह निकट आकर रुक गई। रानी जाह्नवी थीं। सोफी को देखकर बोलीं-"बेटी! तुम यहाँ क्यों बैठी हो! आओ, मेरे साथ चलो। क्या गाड़ी नहीं मिली?"

सोफी चिल्लाकर रानी के गले से लिपट गई। किंतु रानी की आँखों में आँसू न थे, मुख पर शोक का चिह्न न था। उनकी आँखों में गर्व का मद छाया हुआ था, मुख पर विजय की आभा झलक रही थी। सोफी को गले से लगाती हुई बोलीं-"क्यों रोती हो बेटी? विनय के लिए? वीरों की मृत्यु पर आँसू नहीं बहाये जाते, उत्सव के राग गाते जाते हैं। मेरे पास हीरे और जवाहिर होते, तो उसकी लाश पर लुटा देती। मुझे
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उसके मरने का दुःख नहीं है। दुःख होता, अगर वह आज प्राण बचाकर भागता। यह तो मेरी चिर-सिंचित अभिलाषा थी, बहुत ही पुरानी। जब मैं युवती थी और वीर राजपूतों तथा राजपूतनियों के आत्मसमर्पण की कथाएँ पढ़ा करती थी, उसी समय मेरे मन में यह कामना अंकुरित हुई थी कि ईश्वर मुझे भी कोई ऐसा ही पुत्र देता, जो उन्हीं वीरों की भाँति मृत्यु से खेलता, जो अपना जीवन देश और जाति-हित के लिए हवन कर देता, जो अपने कुल का मुख उज्ज्वल करता। मेरी वह कामना पूरी हो गई। आज मैं एक वीर पुत्र की जननी हूँ। क्यों रोती हो? इससे उसकी आत्मा को क्लेश होगा। तुमने तो धर्म-ग्रन्थ पढ़े हैं। मनुष्य कभी मरता है? जीव तो अमर है। उसे तो परमात्मा भी नहीं मार सकता। मृत्यु तो केवल पुनर्जीवन की सूचना है, एक उच्चतर जीवन का मार्ग। विनय फिर संसार में आयेगा, उसकी कीर्ति और भी फैलेगी। जिस मृत्यु पर घरवाले रोयें, वह भी कोई मृत्यु है! वह तो एड़ियाँ रगड़ना है। वीर मृत्यु वही है, जिस पर बेगाने रोयें और घरवाले आनंद मनायें। दिव्य मृत्यु दिव्य जीवन से कहीं उत्तम है। दिव्य जीवन में कलुषित मृत्यु की शंका रहती है, दिव्य मृत्यु में यह संशय कहाँ? कोई जीव दिव्य नहीं है, जब तक उसका अंत भी दिव्य न हो। यह लो, पहुँच गये। कितनी प्रलयंकर वृष्टि है, कैसा गहन अंधकार! फिर भी सहस्रों प्राणी उसके शव पर अश्रु-वर्षा कर रहे हैं, क्या यह रोने का अवसर है?"

मोटर रुकी। सोफिया और जाह्नवी को देखकर लोग इधर-उधर हट गये। इंदु दौड़कर माता से लिपट गई। हजारों आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे। जाह्नवी ने विनय का नत मस्तक अपनी गोद में लिया, उसे छाती से लगाया, उसका चुंबन किया और शोक-सभा की ओर गर्व-युक्त नेत्रों से देखकर बोली-“यह युवक, जिसने विनय पर अपने प्राण समर्पित कर दिये, विनय से बढ़कर है। क्या कहा? मुसलमान है! कर्तव्य के क्षेत्र में हिंदू और मुसलमान का भेद नहीं, दोनों एक ही नाव में बैठे हुए हैं, डूबेंगे, तो दोनों डूबेंगे; बचेंगे, तो दोनों बचेंगे। मैं इस वीर आत्मा का यही मजार बनाऊँगी। शहीद के मजार को कौन खोदकर फेक देगा, कौन इतना नीच और अधम होगा! यह सच्चा शहीद था। तुम लोग क्यों रोते हो? विनय के लिए? तुम लोगों में कितने ही युवक हैं, कितने ही बाल-बच्चोंवाले हैं। युवकों से मैं कहूँगी-जाओ, और विनय की भाँति प्राण देना सीखो। दुनिया केवल पेट पालने की जगह नहीं है। देश की आँखें तुम्हारी ओर लगी हुई हैं, तुम्ही इसका बेड़ा पार लगाओगे। मत फँसों गृहस्थी के जंजाल में, जब तक देश का कुछ हित न कर लो। देखो, विनय कैसा हँस रहा है! जब बालक था, उस समय की याद आती है। इसी भाँति हँसता था। कभी उसे रोते नहीं देखा। कितनी विलक्षण हसी है। क्या इसने धन के लिए प्राण दिये? धन इसके घर में भरा हुआ था, उसकी ओर कभी आँख उठाकर नहीं देखा, बरसों हो गये, पलंग पर नहीं सोया, जूते नहीं पहने, भरपेट भोजन नहीं किया, जरा देखो, उसके पैरों में कैसे घठे पड़ गये हैं, विरागी था, साधु था, तुम लोग भी ऐसे ही

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साधु बन जाओ। बाल-बच्चोंवालों से मेरा निवेदन है, अपने प्यारे बच्चों को चक्की का बैल न बनाओ, गृहस्थी का गुलाम न बनाओ। ऐसी शिक्षा दो कि जियें, किंतु जीवन के दास बनकर नहीं, स्वामी बनकर। यही शिक्षा है, जो इस वीर आत्मा ने तुम्हें दी है। जानते हो, उसका विवाह होनेवाला था। यही प्यारी बालिका उसकी वधू बनने वाली थी। किसी ने ऐसा कमनीय सौंदर्य, ऐसा अलौकिक रूपलावण्य देखा है। रानियाँ इसके आगे पानी भरें! विद्या में इसके सामने कोई पंडित मुँह नहीं खोल सकता। जिह्वा पर सरस्वती हैं, घर का उजाला है। विनय को इससे कितना प्रेम था, यह इसी से पूछो। लेकिन क्या हुआ? जब अवसर आया, उसने प्रेम के बंधन को कच्चे धागे की भाँति तोड़ दिया, उसे अपने मुख का कलंक नहीं बनाया, उस पर अपने आदर्श का बलिदान नहीं किया। प्यारो! पेट पर अपने यौवन को, अपनी आत्मा को, अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को मत कुर्बान करो। इंदु बेटी, क्यों रोती हो? किसको ऐसा भाई मिला है?"

इंदु के अंतःस्थल में बड़ी देर से एक ज्वाला-सी दहक रही थी। वह इन सारी विडंबनाओं का मूल-कारण अपने पति को समझती थी। अब तक ज्वाला उरःस्थल में थी, अब बाहर निकल पड़ी। यह ध्यान न रहा कि मैं इतने आदमियों के सामने क्या कहती हूँ, औचित्य की ओर से आँखें बंद करके बोली-“माताजी, इस हत्या का कलंक मेरे सिर है। मैं अब उस प्राणी का मुँह न देखूँगी, जिसने मेरे वीर भाई की जान लेकर छोड़ी, और वह केवल अपने स्वार्थ की सिद्धि के लिए।"

रानी जाह्नवी ने तीव्र स्वर में कहा-"क्या महेंद्र को कहती है? अगर फिर मेरे सामने मुँह से ऐसी बात निकाली, तो तेरा गला घोट दूँगी। क्या तू उन्हें अपना गुलाम बनाकर रखेगी! तू स्त्री होकर चाहती है कि कोई तेरा हाथ न पकड़े, वह पुरुष होकर क्यों न ऐसा चाहें? वह संसार को क्यों तेरे ही नेत्रों से देखें, क्या भगवान् ने उन्हें आँखें नहीं दी? अपने हानि-लाभ का हिसाबदार तुझे क्यों बनायें, क्या भगवान् ने उन्हें बुद्धि नहीं दी? तेरी समझ में, मेरी समझ में, यहाँ जितने प्राणी खड़े हैं, उनकी समझ में यह मार्ग भयंकर है, हिंसक जंतुओं से भरा हुआ है। इसका बुरा मानना क्या? अगर तुझे उनकी बातें पसंद नहीं आती, तो कोशिश कर कि पसंद आयें। वह तेरे पतिदेव हैं, तेरे लिए उनकी सेवा से उत्तम और कोई पथ नहीं है।"

दस बज गये थे। लोग कुँवर भरतसिंह की प्रतीक्षा कर रहे थे। जब दस बजने की आवाज कानों में आई, तो रानी जाह्नवी ने कहा-"उनकी राह अब मत देखो, वह न आयेंगे, और न आ सकते हैं। वह उन पिताओं में हैं, जो पुत्र के लिए जीते हैं, पुत्र के लिए मरते हैं और पुत्र के पुत्रों के लिए मंसूबे बाँधते हैं। उनकी आँखों में अँधेरा छा गया होगा, सारा संसार सूना जान पड़ता होगा, अचेत पड़े होंगे। संभव है, उनके प्राणांत हो गये हों। उनका धर्म, उनका कर्म, उनका जीवन, उनका मरण, उनका दीन, उनकी दुनिया, सब कुछ इसी पुत्र-रत्न पर अवलंबित था। अब वह निरा-
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धार हैं, उनके जीवन का कोई लक्ष्य, कोई अर्थ नहीं है। वह अब कदापि न आयेंगे, आ ही नहीं सकते। चलो, विनय के साथ अपना अंतिम कर्तव्य पूरा कर लूँ; इन्हीं हाथों से उसे हिंडोले में झुलाया था, इन्हीं हाथों से उसे चिता में बैठा दूँ; इन्हीं हाथों से उसे भोजन कराती थी, इन्हीं हाथों से गंगाजल पिला दूँ।"