रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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भैरो के घर से लौटकर सूरदास अपनी झोपड़ी में आकर सोचने लगा, क्या करूं कि सहसा दयागिरी आ गये और बोले -"सूरदास, आज तो लोग तुम्हारे ऊपर बहुत गरम हो रहे हैं, कहते हैं, इसे घमंड हो गया है। तुम इस माया-जाल में क्या पड़े हो, क्यों नहीं मेरे साथ कहीं तीर्थयात्रा करने चलते?”

सूरदास-“यही तो मैं भी सोच रहा हूँ। चलो, तो मैं भी निकल पड़ूँ।"

दयागिरि-"हाँ चलो, तब तक मैं भी मंदिर का कुछ ठिकाना कर लूँ। यहाँ कोई नहीं, जो मेरे पीछे यहाँ दिया-बत्ती तक कर दे, भोग-भाग लगाना तो दूर रहा।"

सूरदास-"तुम्हें मंदिर से कभी छुट्टी न मिलेगी।"

दयागिरि- "भाई, यह भी तो नहीं होता कि मंदिर को यों ही निराधार छोड़कर चला जाऊँ, फिर न जाने कब लौटूं, तब तक तो यहाँ घास जम जायगी।"

सूरदास-"तो जब तुम आप ही अभी इस माया में फंसे हुए हो, तो मेरा उद्धार क्या करोगे?"

दयागिरि-"नहीं, अब जल्दी ही चलूँगा। जरा पूजा के लिए फूल लेता आऊँ।"

दयागिरि चले गये, तो सूरदास फिर सोच में पड़ा-“संसार की भी क्या लीला है कि होम करते हाथ जलते हैं। मैं तो नेकी करने गया था, उसका यह फल मिला। मुहल्ले-वालों को बिस्वास आ गया। बुरी बातों पर लोगों को कितनी जल्द बिस्वास आ जाता है! मगर नेकी-बदी कभी छिपी नहीं रहती। कभी-न-कभी तो असली बात मालूम हो ही जायगी। हार-जीत तो जिंदगानी के साथ लगी हुई है, कभी जीतूंगा, तो कभी हारूँगा, इसकी चिंता ही क्या। अभी कल बड़े-बड़ों से जीता था, आज जीत में भी हार गया। यह तो खेल में हुआ ही करता है। अब बेचारी सुभागी कहाँ जायगी? मुहल्लेवाले तो अब उसे यहाँ रहने न देंगे, और रहेगी किसके आधार पर? कोई अपना तो हो। मैके में भी कोई नहीं है। जवान औरत अकेली कहीं रह भी नहीं सकती। जमाना ऐसा खराब आया हुआ है, उसकी आबरू कैसे बचेगी? भैरो को कितना चाहती है? समझती थी कि मैं उसे मारने गया हूँ; उसे सावधान रहने के लिए कितना जोर दे रही थी! वह तो इतना प्रेम करतो है, और भैरो का कभी मुँह ही सीधा नहीं होता, अभागिनी है और क्या। कोई दूसरा आदमी होता, तो उसके चरन धो-धोकर पीता; पर भैरो को जब देखो, उस पर तलवार ही खींचे रहता है। मैं कहीं चला गया, तो उसका कोई पुछत्तर भी न रहेगा। मुहल्ले के लोग उसकी छीछालेदर होते देखेंगे, और हँसेंगे! कहीं-न-कहीं डूब मरेगी, कहाँ तक संतोष करेगी। इस आँखोंवाले अंधे भैरो को तनिक भी खयाल नहीं कि मैं इसे निकाल दूंगा, तो कहाँ जायगी। कल को मुसलमान या किरिसतान हो जायगी, तो सारे सहर में हलचल पड़ जायगी; पर अभी उसके आदमी को
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कोई समझानेवाला नहीं। कहीं भरतीवालों के हाथ पड़ गई, तो पता भी न लगेगा कि कहाँ गई। सभी लोग जानकर अनजान बनते हैं।"

वह यही सोचता-बिचारता सड़क को ओर चला था कि सुभागी आकर बोली—"सूरे, मैं कहाँ रहूँगी?"

सूरदास ने कृत्रिम उदासीनता से कहा— "मैं क्या जानूँ, कहाँ रहेगी! अभी तू ही तो भैरो से कह रही थी कि लाठी लेकर जाओ। तू क्या यह समझती थी कि मैं भैरो को मारने गया हूँ?"

सुभागी—"हाँ सूरे, झूठ क्यों बोलू? मुझे यह खटका तो हुआ था।"

सूरदास—"जब तेरी समझ में मैं इतना बुरा हूँ, तो फिर मुझसे क्यों बोलती है? अगर वह लाठी लेकर आता और मुझे मारने लगता, तो तू तमासा देखती और हँसती, क्यों? तुझसे तो भैरो ही अच्छा कि लाठी-लबेद लेकर नहीं आया। जब तूने मुझसे बैर ठान रखा है, तो मैं तुझसे क्यों न बैर ठानूंँ?"

सुभागी—(रोती हुई)"सूरे, तुम भी ऐसा कहोगे, तो यहाँ कौन है, जिसकी आड़ में मैं छिन-भर भी बैठूँगी। उसने अभी मारा है, मगर पेट नहीं भरा, कह रहा है कि जाकर पुलिस में लिखाये देता हूँ। मेरे कपड़े-लत्ते सब बाहर फेक दिये हैं। इस झोपड़ी के सिंवा अब मुझे और कहीं सरन नहीं।”

सूरदास—"मुझे भी अपने साथ मुहल्ले से निकलवायेगी क्या?"

सुभागी—"तुम जहाँ जाओगे, मैं भी तुम्हारे साथ चलूंँगी।"

सूरदास—"तब तो तू मुझे कहीं मुँह दिखाने-लायक न रखेगी। सब यही कहेंगे कि अंधा उसे बहकाकर ले गया।"

सुभागी—" तुम तो बदनामी से बच जाओगे, लेकिन मेरी आबरू कैसे बचेगी? है कोई मुहल्ले में ऐसा, जो किसी की इजत-आबरू जाते देखे, तो उसकी बाँह पकड़ ले? यहाँ तो एक टुकड़ा रोटी भी माँगूँ, तो न मिले। तुम्हारे सिवा अब मेरा और कोई नहीं है। पहले मैं तुम्हें आदमी समझती थी, अब देवता समझती हूँ। चाहो, तो रहने दो; नहीं तो कह दो, कहीं मुँह में कालिख लगाकर ब मरूँ।"

सूरदास ने देर तक चिंता में मग्न रहने के बाद कहा-"सुभागी, तू आप समझदार है, जैसा जी में आये, कर। मुझे तेरा खिलाना-पहनाना भारी नहीं है। अभो सहर में इतना मान है कि जिसके द्वार पर खड़ा हो जाऊँगा, वह नाहीं न करेगा। लेकिन मेरा मन कहता है कि तेरे यहाँ रहने से हमारा कल्यान न होगा। हम दोनों ही बदनाम हो जायेंगे। मैं तुझे अपनी बहन समझता हूँ, लेकिन अंबा संसार तो किसी की नीयत नहीं देखता। अभी तू ने देखा, लोग कैसी-कैसी बातें करते रहे। पहले भी गाली उठ चुकी है। जब तू खुल्लमख्नुल्ला मेरे घर में रहेगो, तब तो अनरथ ही हो जायगा। लोग गरदन काटने पर उतारू हो जायँगे। बता, क्या करूँ?"

सुभागी—"जो चाहे करो, पर मैं तुम्हें छोड़कर कहीं न जाऊँगी।" [ ३५३ ]सूरदास—“यही तेरी मरजी है, तो यही सही। मैं तो सोच रहा था, कहीं चला जाऊँ। न आँखों देखुंगा, न पीर होगी; लेकिन तेरी बिपत देखकर अब जाने की इच्छा नहीं होती। आ, पड़ी रह। जैसी कुछ सिर पर आयेगी, देखी जायगी। तुझे मँझधार में छोड़ देने से बदनाम होना अच्छा है।"

यह कहकर सूरदास भीख माँगने चला गया। सुभागी झोपड़ी में आ बैठी। देखा, तो उस मुख्तसर घर की मुख्तसर गृहस्थी इधर-उधर फैली पड़ी थी। कहीं लुटिया औंधी पड़ी थी, कहीं घड़े लुढ़के हुए थे। महीनों से अंदर सफाई न हुई थी, जमीन पर मनों धूल बैठी हुई थी। फूस के छप्पर में मकड़ियों ने जाले लगा लिये थे। एक चिड़िया का घोंसला भी बन गया था। सुभागी सारे दिन झोपड़ी की सफाई करती रही। शाम को वही घर, जो "बिन घरनी घर भूत का डेरा" को चरितार्थ कर रहा था, साफ- सुथरा, लिपा-पुता नजर आता था कि उसे देखकर देवतों का रहने के लिए जी ललचाये। भैरो तो अपनी दूकान पर चला गया था, सुभागी घर जाकर अपनी गठरी उठा लाई। सूरदास संध्या समय लौटा, तो सुभागी ने थोड़ा-सा चबेना उसे जल-पान करने को दिया, लुटिया में पानी लाकर रख दिया और उसे अंचल से हवा करने लगी। सूरदास को अपने जीवन में कभी यह सुख और शांति न नसीब हुई थी। गृहस्थी के दुर्लभ आनंद का उसे पहली बार अनुभव हुआ। दिन-भर सड़क के किनारे लू और लपट में जलने के बाद यह सुख उसे स्वर्गोपम जान पड़ा। एक क्षण के लिए उसके मन में एक नई इच्छा अंकुरित हो आई। सोचने लगा-"मैं कितना अभागा हूँ। काश यह मेरी स्त्री होती, तो कितने आनंद से जीवन व्यतीत होता! अब तो भैरो ने इसे घर से निकाल ही दिया; मैं रख लूँ, तो इसमें कौन-सी बुराई है! इससे कहूँ कैसे, न जाने अपने दिल में क्या सोचे। मैं अंधा हूँ, तो क्या आदमी नहीं हूँ! बुरा तो न मानेगी? मुझसे इसे प्रेम न होता, तो मेरी इतनी सेवा क्यों करती?"

मनुष्य-मात्र को, जीव-मात्र को, प्रेम की लालसा रहती है। भोग लिप्सी प्राणियों में यह वासना का प्रकट रूप है, सरल-हृदय दीन प्राणियों में शांति-भोग का।

सुभागी ने सूरदास की पोटली खोली, तो उसमें गेहूँ का आटा निकला, थोड़ा-सा चावल, कुछ चने और तीन आने पैसे। सुभागी बनिये के यहाँ से दाल लाई और रोटियाँ बनाकर सूरदास को भोजन करने को बुलाया।

सूरदास-"मिठुआ कहाँ है?"

सुभागी-"क्या जानूँ, कहीं खेलता होगा। दिन में एक बार पानी पीने आया था, मुझे देखकर चला गया"

सूरदास-"तुझसे सरमाता होगा। देख, मैं उसे बुलाये लाता हूँ।"

यह कहकर सूरदास बाहर जाकर मिठुआ को पुकारने लगा। मिठुआ और दिन जब जी चाहता था, घर में जाकर दाना निकाल लाता, भुनवाकर खाता; आज सारे दिन भूखों मरा, इस वक्त मंदिर में प्रसाद के लालच में बैठा हुआ था। आवाज सुनते ही
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दौड़ा। दोनों खाने बैठे। सुभागी ने सूरदास के सामने चावल और रोटियाँ रख दो ओर मिठुआ के सामने सिर्फ चावल। आटा बहुत कम था, केवल दो रोटियाँ बन सकी थीं।

सूरदास ने कहा—"मिट्ठू, और रोटी लोगे?”

मिट्ठू—"मुझे तो रोटी मिली ही नहीं।"

सूरदास—"तो मुझसे ले लो। मैं चावल ही खा लूँगा।"

यह कहकर सूरदास ने दोनों रोटियाँ मिट्ठू को दे दी। सुभागी क्रुद्ध होकर मिट्ठू से बोली— "दिन-भर साँड़ की तरह फिरते हो, कहीं मजूरी क्यों नहीं करते? इसी चक्को-घर में काम करो, तो पाँच-छ आने रोज मिलें।"

सूरदास—“अभी वह कौन काम करने लायक है। इसी उमिर में मजूरी करने लगेगा, तो कलेजा टूट जायगा!”

सुभागी—"मजूरों के लड़कों का कलेजा इतना नरम नहीं होता। सभी तो काम करने जाते हैं, किसी का कलेजा नहीं टूटता।"

सूरदास—"जब उसका जी चाहेगा, आर काम करेगा।"

सुभागी—"जिसे बिना हाथ-पैर हिलाये खाने को मिल जाय, उसकी बला काम करने जाती है।"

सूरदास—"ऊँह, मुझे कौन किसी रनि-धन का सोच है। माँगकर लाता हूँ, खाता हूँ। जिस दिन पौरुख न चलेगा, उस दिन देखी जायगी। उसकी चिंता अभी से क्यों करूँ?"

सुभागी—"मैं इसे काम पर भेजूंगी। देखू, कैसे नहीं जाता। यह मुटमरदी है कि अँधा माँगे और आँखों वाले मुसंडे बैठे खाये। सुनते हो मिठू, कल से काम करना पड़ेगा।"

मिट्ठू—"तेरे कहने से न जाऊँगा; दादा कहेंगे तो जाऊँगा।"

सुभागी—"मूसल की तरह घूमना अच्छा लगता है। इतना नहीं सूझता कि अन्धा आदमी तो माँगकर लाता है, और मैं चैन से खाता हूँ। जनम-भर कुमार हो बने रहोगे?"

मिट्ठू—"तुझसे क्या मतलब, मेरा जी चाहेगा, जाऊँगा, न जी चाहेगा, न जाऊँगा।"

इसी तरह दोनों में देर तक वाद-विवाद हुआ, यहाँ तक कि मिठुआ झल्लाकर चोके से उठ गया। सूरदास ने बहुत मनाया, पर वह खाने न बैठा। आखिर सूरदास भी आधा ही भोजन करके उठ गया।

जब वह लेटा, तो गृहस्थी का एक दूसरा चित्र उसके सामने था। यहाँ न वह शांति थी, न वह सुषमा, न वह मनोल्लास। पहले ही दिन यह कलह आरंभ हुआ, विस्मिल्लाह ही गलत हुई, तो आगे कौन जाने, क्या होगा। उसे सुभागी की यह कठोरता अनुचित प्रतीत होती थी। जब तक मैं कमाने को तैयार हूँ, लड़के पर क्यों गृहस्थी का बोझ डालूँ? जब मर जाऊँगा, तो उसके सिर पर जैसी पड़ेगी, वैसी से। [ ३५५ ]
वह अंकुर, वह नन्ही-सी आकांक्षा, जो संध्या-समय उसके हृदय में उगो थी, इस ताप के झोंके से जल गई, अंकुर सूख गया।

सुभागी को नई चिंता सवार हुई—"मिठुआ को काम पर कैसे लगाऊँ? मैं कुछ उसकी लौंड़ी तो हूँ नहीं कि उसकी थाली धोऊँ, उसका खाना पकाऊँ और वह मटरगस करे। मुझे भी कोई बैठाकर न खिलायेगा। मैं खाऊँ ही क्यों? जब सब काम करेंगे, तो यह क्यों छैला बना घूमेगा!"

प्रातःकाल जब वह झोपड़ी से घड़ा लेकर पानी भरने निकली, तो घीसू की माँ ने देखकर छाती पर हाथ रख लिया और बोली-"क्यों री, आज रात तू यहीं रही थी क्या?"

सुभागी ने कहा—"हाँ, रही तो फिर!"

जमुनी—"अपना घर नहीं था?"

सुभागी—“अब लात खाने का बूता नहीं है।"

जमुनी—"तो तू दो-चार सिर कटाकर तब चैन लेगी। इस अंवे की भी मत मारो गई है कि जान-बूझकर साँप के मुँह में उँगली देता है। भैरो गला काट लेनेवाला आदमी है। अब भी कुछ नहीं बिगड़ा, चली जा घर।"

सुभागी—“उस घर में तो अब पाँव न रखूँगी, चाहे कोई मार ही डाले। सूरे में इतनी दया तो है कि डूबते हुए को बाँह पकड़ ली; और दूसरा यहाँ कौन है?"

जमुनी—"जिस घर में कोई मेहरिया नहीं, वहाँ तेरा रहना अच्छा नहीं।"

सुभागो—"जानती हूँ, पर किसके घर जाऊँ? तुम्हारे घर आऊँ, रहने दोगो? जो कुछ करने को कहोगी, करूँगी, गोबर पायूँगी, भैंसों को घास-चारा दूँगी, पानी डालूँगो, तुम्हारा आटा पीसूँगी रखोगी?"

जमुनी—"न बाबा, यहाँ कौन बैठे-बिठाये रार मोल ले! अपना खिलाऊँ भी, उस पर बदू भी बनूँ।"

सुभागी—“रोज गाली-मार खाया करूँ?"

जमुनी—"अपना मरद है, मारता ही है, तो क्या घर छोड़कर कोई निकल जाता है?"

सुभागी—"क्यों बहुत बढ़-बढ़कर बात करतो हो जमुना! मिल गया है बैल, जिस कल चहती हो, बैठाती हो। रात-दिन डंडा लिये सिर पर सवार रहता, तो देखतो कि कैसे घर में रहतीं। अभी उस दिन दूध में पानी मिलाने के लिए मारने उठा था, तो चादर लेकर मैके भागी जाती थीं। दूसरों को उपदेस करना सहज है। जब अपने सिर पड़ती है, तो आँखें खुलती हैं।"

यह कहती हुई सुभागो कुएँ पर पानी भरने चली गई। वहाँ भी उसने टीकाकारों को ऐसा ही अक्खड़ जवाब दिया। पानी लाकर बर्तन धोये, चौका लगाया और सूरदास को सड़क पर पहुँचाने चली गई। अब तक बह लाठी से टटोलता हुआ अकेले हो
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चला जाता था, लेकिन सुभागी से यह न देखा गया। अंधा आदमी, कहीं गिर पड़े तो, लड़के ही दिक करते हैं। मैं बैठो ही तो हूँ। उससे फिर किसी ने कुछ न पूछा। यह स्थिर हो गया कि सूरदास ने उसे घर डाल लिया। अब व्यंग्य, निंदा, उपहास की गुंजाइश न थी। हाँ, सूरदास सबकी नजरों में गिर गया। लोग कहते-"रुपये न लौटा देता, तो क्या करता। डरता होगा कि सुभागी एक दिन भैरो से कह ही देगी, मैं पहले ही से क्यों न चौकन्ना हो जाऊँ। मगर सुभागी क्यों अपने घर से रुपये उड़ा ले गई? वाह! इसमें आश्चर्य की कौन-सी बात है। भैरो उसे रुपये-पैसे नहीं देता। मालकिन तो बुढ़िया है। सोचा होगा, रुपये उड़ा लूँ, मेरे पास कुछ पूँजी तो हो जायगी, अपने पास कहाँ। कौन जाने, दोनों में पहले ही से साठ-गाँठ रही हो। सूरे को भला आदमी समझकर उसके पास रख आई हो। या सूरदास ने रुपये उठवा लिये हो, फिर लौटा आया हो कि इस तरह मेरा भरम बना रहेगा। अंधे पेट के बड़े गहरे होते हैं, इन्हें बड़ी दूर की सूझती है।"

इस भाँति कई दिनों तक गद्देबाजियाँ हुआ की।

परंतु लोगों में किसी विषय पर बहुत दिनों तक आलोचना करते रहने की आदत नहीं होती। न उन्हें इतना अवकाश होता है कि इन बातों में सिर खपायें, न इतनी बुद्धि ही कि इन गुत्थियों को सुलझायें।, मनुष्य स्वभावतः क्रियाशील होते हैं, उनमें विवेचन-शक्ति कहाँ? सुभागी से बोलने-चालने, उसके साथ उठने-बैठने में किसी को आपत्ति न रही; न कोई उससे कुछ पूछता, न आवाजें कसता। हाँ, सूरदास की मान प्रतिष्ठा गायब हो गई। पहले मुहल्ले-भर में उसकी धाक थी, लोगों का उसकी हैसियत से कहीं अधिक उस पर विश्वास था। उसका नाम अदब के साथ लिया जाता था। अब उसको गणना भी सामान्य मनुष्यों में होने लगी, कोई विशेषता न रही।

किंतु भैरो के हृदय में सदैव यह काँटा खटका करता था। वह किसी भाँति इस सजीव अपमान का बदला लेना चाहता था। दूकान पर बहुत कम जाता। अफसरों से शिकायत भी की गई कि यह ठेकेदार दूकान नहीं खोलता, ताड़ी-सेवियों को निराश होकर जाना पड़ता है। मादक-वस्तु-विभाग के कर्मचारियों ने भैरो को निकाल देने को धमकी भी दी; पर उसने कहा, मुझे दूकान का डर नहीं, आप लोग जिसे चाहें, रख लें। पर वहाँ कोई दूसरा पासी न मिला, और अफसरों ने एक दूकान टूट जाने के भय से कोई सख्ती करनी उचित न समझी।

धीरे-धीरे भैरो को सूरदास ही से नहीं, मुहल्ले-भर से अदावत हो गई। उसके विचार में मुहल्लेवालों का यह धर्म था कि मेरी हिमायत के लिए खड़े हो जाते और सूरे को कोई ऐसा दंड देते कि वह आजीवन याद रखता-“ऐसे मुहल्ले में कोई क्या रहे, जहाँ न्याय और अन्याय एक ही भाव बिकता है! कुकर्मियों से कोई बोलता ही नहीं। सूरदास अकड़ता हुआ चला जाता है। यह चुडैल आँखों में काजल लगाये फिरा करती है। कोई इन दोनों के मुँह में कालिख नहीं लगाता। ऐसे गाँव में तो आग लगा देनी
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चाहिए।" मगर किसी कारण उसकी क्रियात्मक शक्ति शिथिल पड़ गई थी। वह मार्ग में सुभागी को देख लेता, तो कतराकर निकल जाता। सूरदास को देखता तो ओठ चबाकर रह जाता। वार करने की हिम्मत न होती। वह अब कभी मंदिर में भजन गाने न जाता, मेलों-तमाशों से भी उसे अरुचि हो गई, नशे का चस्का आप-ही-आप छूट गया। अपमान की तीव्र वेदना निरंतर होती रहती। उसने सोचा था, सुभागी मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जायगी, मेरे कलंक का दाग मिट जायगा। मगर वह अभी तक वहाँ उसकी छाती पर मूंग ही नहीं दल रही थी, बल्कि उसी पुरुष के साथ विलास कर रही थी, जो उसका प्रतिद्वंद्वी था। सबसे बढ़कर दुःख उसे इस बात का था कि मुहल्ले के लोग उन दोनों के साथ पहले ही का-सा व्यवहार करते थे, कोई उन्हें न रगेदता था, न लताड़ता था। उसे अपना अपमान सामने बैठा मुँह चिढ़ाता हुआ मालूम होता था। अब उसे गाली-गलौज से तस्कीन न हो सकती थी। वह इस फिक्र में था कि इन दोनों का काम तमाम कर दूँ। इस तरह मारूँ कि एड़ियाँ रगड़-रगड़कर मरें, पानी की बूंद भी न मिले। लेकिन अकेला आदमी क्या कर सकता है। चारों ओर निगाह दौड़ाता, पर कहीं से सहायता मिलने की आशा न दिखाई देती। मुहल्ले में ऐसे जीवट का कोई आदमी न था। सोचते-सोचते उसे खयाल आया कि अंधे ने चतारी के राजा साहब को बहुत बदनाम किया था। कारखानेवाले साहब को भी बदनाम करता फिरता था। इन्हीं लोगों से चलकर फरियाद करूँ। अंधे से दिल में तो दोनों खार खाते ही होंगे, छोटे के मुँह लगना अपनी मर्यादा के विरुद्ध समझकर चुप रह गये होंगे। मैं जो सामने खड़ा हो जाऊँगा, तो मेरी आड़ से वे जरूर निशाना मारेंगे। बड़े आदमी हैं, वहाँ तक पहुँचना मुश्किल है। लेकिन जो कहीं मेरो पहुँच हो गई और उन्होंने मेरी सुन ली, तो फिर इन बचा की ऐसी खबर लेंगे कि सारा अंधापन निकल जायगा। (अंधेपन के सिवा यहाँ और रखा ही क्या था।)

कई दिनों तक वह इसी हैस-त्रैस में पड़ा रहा कि उन लोगों के पास कैसे पहुँचूँ। जाने की हिम्मत न पड़ती थी? कहीं उलटे मुझी को मार बैठे, निकलवा दें तो और भी भद्द हो। आखिर एक दिन दिल मजबूत करके वह राजा साहब के मकान पर गया, और साईस के द्वार पर जाकर खड़ा हो गया। साईस ने देखा, तो कर्कश कंठ से बोला—“कौन हो? यहाँ क्या उचक्कों की तरह झाँक रहे हो?"

भैरो ने बड़ी दीनता से कहा—"भैया, डाँटो मत, गरीब-दुखी आदमी हूँ।"

साईस—"गरीब दुखियारे हो, तो किसी सेठ-साहूकार के घर जाते, यहाँ क्या रखा है।"

भैरो—“गरीब हूँ, लेकिन भिखमंगा नहीं हूँ। इजत-आबरू सभी की होती है। तुम्हारी ही बिरादरी में कोई किसी की बहू-बेटी लेकर निकल जाय, तो क्या उसे पंचाइत यों ही छोड़ देगी? कुछ-न-कुछ दंड देगी ही। पंचाइत न देगी, तो अदालत-कचहरी से तो कुछ होगा।"

२३ [ ३५८ ]
साईस जात का चमार था, जहाँ ऐसी दुर्घटनाएँ आये-दिन होती रहती हैं, और बिरादरी को उनकी बदौलत नशा-पानी का सामान हाथ आता रहता है। उसके घर में नित्य यही चर्चा रहती थी और इन बातों में उसे जितनी दिलचस्पी थी, उतनी और किसी बात से न हो सकती थी। बोला-"आओ, बैठो, चिलम पियो, कौन भाई हो?"

भैरो—“पासी हूँ, यहीं पाँड़ेपुर में रहता हूँ।"

वह साईस के पास जा बैठा और दोनों में सायँ-सायँ बातें होने लगी, मानों वहाँ कोई कान लगाये उनकी बातें सुन रहा हो। भैरों ने अपना संपूर्ण वृत्तांत सुनाया और कमर से एक रुपया निकालकर साईस के हाथ में रखता हुआ बोला-"भाई, कोई ऐसी जुगुत निकालो कि राजा साहब के कानों में यह बात पड़ जाय। फिर तो मैं अपना सब हाल आप ही कह लूँगा। तुम्हारी दया से बोलने—चालने में ऐसा बुद्ध नहीं हूँ। दरोगा से तो कभी डरा ही नहीं।"

साईस को रौप्य मुद्रा के दर्शन हुए, तो मगन हो गया। आज सबेरे-सबेरे अच्छी बोहनी हुई। बोला—"मैं राजा साहब से तुम्हारी इत्तला कराये देता हूँ। बुलाहट होगी, तो चले जाना। राजा साहब को घमंड तो छू ही नहीं गया। मगर देखना, बहुत देर न लगाना, नहीं तो मालिक चिढ़ जायँगे। बस, जो कुछ कहना हो, साफ-साफ कह डालना, बड़े आदमियों को बातचीत करने की फुरसत नहीं रहती। मेरी तरह थोड़े ही हैं कि दिन-भर बैठे गप्पें लड़ाया करें।"

यह कहकर वह चला गया। राजा साहब इस वक्त बाल बनवा रहे थे, जो उनका नित्य का नियम था। साईस ने पहुँचकर सलाम किया।

राजा—"क्या कहते हो? मेरे पास तलब के लिए मत आया करो।”

साईस—"नहीं हजूर, तलब के लिए नहीं आया था। वह जो सूरदास पाँडेपुर में रहता है।"

राजा—"अच्छा, वह दुष्ट अंधा!"

साईस—"हाँ हजूर, वह एक औरत को निकाल ले गया है।"

राजा—"अच्छा! उसे तो लोग कहते थे, बड़ा भला आदमी है। अब यह स्वाँग रचने लगा!

साईस—"हाँ हजूर, उसका आदमी फरियाद करने आया है। हुकुम हो, तो लाऊँ।" राजा साहब ने सिर हिलाकर अनुमति दी और एक क्षण में भैरो दबकता हुआ आकर खड़ा हो गया।

राजा—"तुम्हारी औरत है?"

भैरो—"हाँ हजूर, अभी कुछ दिन पहले तो मेरी ही थी!”

राजा—"पहले से कुछ आमद-रफ्त थी?"

भैरो—"होगी सरकार, मुझे मालूम नहीं।"

राजा—"लेकर कहाँ चला गया?" [ ३५९ ]भैरो—"कहीं गया नहीं सरकार, अपने घर में!"

राजा—"बड़ा ढीठ है। गाँववाले कुछ नहीं बोलते?"

भैरो—"कोई नहीं बोलता हजूर!"

राजा—"औरत को मारते बहुत हो?"

भैरो—“सरकार, औरत से भूल-चूक होती है, तो कौन नहीं मारता?"

राजा—"बहुत मारते हो कि कम?"

भैरो—हजूर, क्रोध में यह विचार कहाँ रहता है।"

राजा—"कैसी औरत है, सुंदर?"

भैरो—"हाँ हजूर, देखने-सुनने में बुरी नहीं है।"

राजा—"समझ में नहीं आता, सुंदर स्त्री ने अंधे को क्यों पसंद किया! ऐसा तो नहीं हुआ कि तुमने दाल में नमक ज्यादा हो जाने पर स्त्री को मारकर निकाल दिया हो और अंधे ने रख लिया हो?"

भैरो—“सरकार, औरत मेरे रुपये चुराकर सूरदास को दे आई। सबेरे सूरदास रुपये लौटा गया। मैंने चकमा देकर पूछा, तो उसने चोर को भी बता दिया। इस बात पर मारता न, तो क्या करता?"

राजा—"और कुछ हो, अंधा है दिल का साफ।"

भैरो—"हजूर, नोयत का अच्छा नहीं।” यद्यपि महेंद्रकुमारसिंह बहुत न्यायशील थे और अपने कुत्सित मनोविचारों को प्रकट करने में बहुत सावधान रहते थे। ख्याति-प्रिय मनुष्य को प्रायः,अपनी वाणी पर पूर्ण अधिकार होता है, पर वह सूरदास से इतने जले हुए थे, उसके हाथों इतनी मानसिक यातनाएँ पाई थीं कि इस समय अपने भावों को गुप्त न रख सके। बोले-"अजी, उसने मुझे यहाँ इतना बदनाम किया कि घर से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। क्लार्क साहब ने जरा उसे मुँह क्या लगा लिया कि सिर चढ़ गया। यों मैं किसी गरीब को सताना नहीं चाहता, लेकिन यह भी नहीं देख सकता कि वह भले आदमियों के बाल नोचे। इजलास तो मेरा ही है, तुम उस पर दावा कर दो। गवाह मिल जायँगे न?"

भैरो—"हजूर, सारा मुहल्ला जानता है।"

राजा—“सबों को पेश करो। यहाँ लोग उसके भक्त हो गये हैं। समझते हैं, वह कोई ऋषि है। मैं उसकी कलई खोल देना चाहता हूँ। इतने दिनों बाद यह अवसर मेरे हाथ आया है। मैंने अगर अब तक किसी से नीचा देखा, तो इसी अंधे से। उस पर न पुलिस का जोर था, न अदालत का। उसकी दीनता और दुर्बलता उसका कवच बनी हुई थी। यह मुकद्दमा उसके लिए वह गहरा गड्ढा होगा, जिसमें से वह निकल न सकेगा। मुझे उसकी ओर से शंका थी, पर एक बार जहाँ परदा खुला कि मैं निश्चित हुआ। विष के दाँत टूट जाने पर साँप से कौन डरता है! हो सके, तो जल्दी ही यह मुकद्दमा दायर कर दो।" [ ३६० ]
किसी बड़े आदमी को रोते देखकर हमें उससे स्नेह हो जाता है। उसे प्रभुत्व से मंडित देखकर हम थोड़ी देर के लिए भूल जाते हैं कि वह भी मनुष्य है। हम उसे साधारण मानवीय दुर्बलताओं से रहित समझते हैं। वह हमारे लिए एक कुतूहल का विषय होता है। हम समझते हैं, वह न जाने क्या खाता होगा, न जाने क्या पढ़ता होगा, न-जाने क्या सोचता होगा, उसके दिल में सदैव ऊँचे ऊँचे विचार आते होंगे, छोटी-छोटी बातों की ओर तो उसका ध्यान ही न जाता होगा-कुतूहल का परिष्कृत रूप ही आदर है। भैरो को राजा साहब के सम्मुख जाते हुए भय लगता था, लेकिन अब उसे ज्ञात हुआ कि यह भी हमी-जैसे मनुष्य हैं। मानों उसे आज एक नई बात मालूम हुई। जरा बेधड़क होकर बोला— "हजूर, है तो अंधा, लेकिन बड़ा घमंडी है। अपने आगे तो किसी को समझता ही नहीं। मुहल्लेवाले जरा सूरदास-सूरदास कह देते हैं, तो बस, फूल उठता है। समझता है, संसार में जो कुछ हूँ, मैं ही हूँ। हजूर, उसकी ऐसी सजा कर दें कि चक्की पीसते-पीसते दिन जायँ। तब उसकी सेखी किरकिरी होगी।"

राजा साहब ने त्योरी बदली। देखा, यह गँवार अब ज्यादा बहकने लगा। बोले—"अच्छा, अब जाओ।"

भैरो दिल में समझ रहा था, मैंने राजा साहब को अपनी मुट्ठी में कर लिया। अगर उसे चले जाने का हुक्म न मिला होता, तो एक क्षण में उसका 'हजूर' 'आप' हो जाता। संध्या तक उसकी बातों का तांता न टूटता। वह न जाने कितनी झूठी बातें गढ़ता। परनिंदा का मनुष्य की जिह्वा पर कभी इतना प्रभुत्व नहीं होता, जितना संपन्न पुरुषों के सम्मुख। न जाने क्यों हम उनकी कृपा-दृष्टि के इतने अभिलाषी होते हैं! हम ऐसे मनुष्यों पर भी, जिनसे हमारा लेशमात्र भी वैमनस्य नहीं है, कटाक्ष करने लगते हैं। कोई स्वार्थ की इच्छा न रखते हुए भी हम उनका सम्मान प्राप्त करना चाहते हैं। उनका विश्वासपात्र बनने की हमें एक अनिवार्य आंतरिक प्रेरणा होती है। हमारी वाणी उस समय काबू से बाहर हो जाती है।

भैरो यहाँ से कुछ लजित होकर निकला, पर उसे अब इसमें संदेह न था कि मनो-कामना पूरी हो गई। घर आकर उसने बजरंगी से कहा—"तुम्हें गवाही करनी पड़ेगी। निकल न जाना।"

बजरंगी—"कैसी गवाही?"

भैरो—“यही मेरे मामले की। इस अंधे की हेकड़ी अब नहीं देखी जाती। इतने दिनों तक सबर किये बैठा रहा कि अब भी वह सुभागी को निकाल दे, उसका जहाँ जा चाहे, चली जाय, मेरी आँखों के सामने से दूर हो जाय। पर देखता हूँ, तो दिन-दिन उसकी पेंग बढ़ती ही जाती है। अंधा छैला बना जाता है। महीनों देह पर पानी नहीं पड़ता था, अब नित्य स्नान करता है। वह पानी लाती है, उसकी धोती छाँटती है, उसके सिर में तेल मलती है। यह अंधेर नहीं देखा जाता।" [ ३६१ ]बजरंगी—"अंधेर तो है ही, आँखों से देख रहा हूँ। सूरे को इतना छिछोरा न समझता था। पर मैं कहीं गवाही-साखी करने न जाऊँगा।"

जमुनी—"क्यों, कचहरी में कोई तुम्हारे कान काट लेगा?"

वजरंगी—“अपना मन है, नहीं जाते।”

जमुनी—"अच्छा तुम्हारा मन है! भैरो, तुम मेरी गवाही लिखा दो। मैं चलकर गवाही दूँगी। साँच को आँच क्या!"

बजरंगी—(हँसकर) "तू कचहरी जायगी?"

जमुनी—"क्या करूँगी, जब मरदों की वहाँ जाते चूड़ियाँ मैली होती हैं, तो औरत ही जायगी। किसी तरह इस कसबिन के मुँह में कालिख तो लगे।"

बजरंगी—“भैरो, बात यह है कि सूरे ने बुराई जरूर की, लेकिन तुम भी तो अनीत ही पर चलते थे। कोई अपने घर के आदमी को इतनो बेदरदी से नहीं मरता। फिर तुमने मारा ही नहीं, मारकर निकाल भी दिया। जब गाय की पगहिया न रहेगी, तो वह दूसरों के खेत में जायगी ही। इसमें उसका क्या दोस?”

जमुनी—"तुम इन्हें बकने दो भैरो, मैं तुम्हारी गवाही करूँगी।"

बजरंगी—"तू सोचती होगी, यह धमकी देने से मैं कचहरी जाऊँगा, यहाँ इतने बुद्धू नहीं हैं। और, सच्ची बात तो यह है कि सूरे लाख बुरा हो, मगर अब भी हम सबों से अच्छा है। रुपयों की थैली लौटा देना कोई छोटी बात नहीं।”

जमुनी—"बस चुप रहो, मैं तुम्हें खूब समझती हूँ। तुम भी जाकर चार गाल हँस-बोल आते हो न, क्या इतनी यारी भी न निभाओगे। सुभागी को सजा हो गई, तो तुम्हें भी तो नजर लड़ाने को कोई न रहेगा।"

बजरंगी यह लांछन सुनकर तिलमिला उठा। जमुनी उसका असन पहचानती थी। बोला—"मुँह में कीड़े पड़ जायँगे।"

जमुनी—"तो फिर गवाही देते क्यों कोर दबती है?"

बजरंगी—"लिखा दो भैरो मेरा नाम, यह चुडैल मुझे जीने न देगी। मैं अगर हारता हूँ, तो इसी से। मेरी पीठ में अगर धूल लगाती है, तो यह। नहीं तो यहाँ कभी किसी से दबकर नहीं चले। जाओ, लिखा दो।"

भैरो यहाँ से ठाकुरदीन के पास गया और वही प्रस्ताव किया। ठाकुरदीन ने कहा—"हाँ-हाँ, मैं गवाही करने को तैयार हूँ। मेरा नाम सबसे पहले लिखा दो। अंधे को देखकर मेरी तो अब आँखें फूटती हैं। अब मुझे मालूम हो गया कि उसे जरूर कोई सिद्धि है; नहीं तो क्या सुभागी उसके पीछे यो दौड़ी-दौड़ी फिरती।"

भैरो—"चक्की पीसेंगे, तो बचा को मालूम होगा।"

ठाकुरदीन—"ना भैया, उसका अकबाल भारी है, वह कभी चक्की न पीसेगा, वहाँ से भी बेदाग लौट आयेगा। हाँ, गवाही देना मेरा धरम है, वह मैं दे दूंगा। जो आदमी सिप्द्धि से दूसरों का अनभल करे, उसकी गरदन काट लेनी चाहिए। न जाने क्यों भगवान्
[ ३६२ ]
संसार में चोरों और पापियों को जनम देते हैं। यही समझ लो कि जब से मेरी चोरी हुई, कभी नींद-भर नहीं सोया। नित्य वही चिंता बनी रहती है। यही खटका लगा रहता है कि कहीं फिर न वही नौबत आ जाय। तुम तो एक हिसाब से मजे में रहे कि रुपये सब मिल गये, मैं तो कहीं का न रहा।"

भैरो—"तो तुम्हारी गवाही पक्की रही?"

ठाकुरदीन—"हाँ, एक बार नहीं, सौ बार पक्की। अरे, मेरा बस चलता, तो इसे खोदकर गाड़ देता। यों मुझसे सीधा कोई नहीं है, लेकिन दुष्टों के हक में मुझसे टेढ़ा भी कोई नहीं है। इनको सजा दिलाने के लिए मैं झूठी गवाही देने को भी तैयार हूँ। मुझे तो अचरज होता है कि इस अंधे को क्या हो गया। कहाँ तो धरम-करम का इतना बिचार, इतना परोपकार, इतना सदाचार, और कहाँ यह कुकर्म!"

भैरो यहाँ से जगधर के पास गया, जो अभी खोंचा बेचकर लौटा था और धोती लेकर नहाने आ रहा था।

भैरो—"तुम भी मेरे गवाह हो न?”

जगधर—"तुम हक-नाहक सूरे पर मुकदमा चला रहे हो। सूरा निरपराध है।"

भैरो—“कसम खाओगे?"

जगधर—"हाँ, जो कसम कहो, खा जाऊँ। तुमने सुभागी को अपने घर से निकाल दिया, सूरे ने उसे अपने घर में जगह दे दी। नहीं तो अब तक वह न जाने किस घाट लगी होती। जवान औरत है, सुंदर है, उसके सैकड़ों गाहक हैं। सूरे ने तो उसके साथ नेकी की कि उसे कहीं बहकने न दिया। अगर तुम फिर उसे घर में लाकर रखना चाहो, और वह उसे आने न दे, तुमसे लड़ने पर तैयार हो जाय, तब मैं कहूँगा कि उसका कसूर है। मैंने अपने कानों से उसे सुभागी को समझाते सुना है। वह आती ही नहीं, तो बेचारा क्या करें?"

भैरो समझ गया कि यह एक लोटे जल से प्रसन्न हो जानेवाला देवता नहीं, इसे कुछ भेंट करनी पड़ेगी। उसकी लोभी प्रकृति से वह परिचित था।

बोला—"भाई, मुआमला इजत का है। ऐसी उड़नघाइयाँ न बताओ। पड़ोसी का हक बहुत कुछ होता है; पर मैं तुमसे बाहर नहीं हूँ, जो कुछ दस-बीस कहो, हाजिर है। पर गवाही तुम्हें देनी पड़ेगी।"

जगधर—“भैरो, मैं बहुत नीच हूँ, लेकिन इतना नीच नहीं कि जान-सुनकर किसी भले आदमी को बेकसूर फँसाऊँ।"

भैरो ने बिगड़कर कहा—"तो क्या तुम समझते हो कि तुम्हारे ही नाम जुदाई लिख गई है? जिस बात को सारा गाँव कहेगा, उसे एक तुम न कहोगे, तो क्या बिगड़ जायगा। टिड्डी के रोके आँधी नहीं रुक सकती।"

जगधर—"तो भाई, उसे पीसकर पी जाओ, मैं कब कहता हूँ कि मैं उसे बचा लूँगा। हाँ, मैं उसे पीसने में तुम्हारी मदद न करूँगा।" [ ३६३ ]
भैरो तो उधर गया, इधर वही स्वार्थो, लोभी, ईर्ष्यालु, कुटिल जगधर उसके गवाहों को फोड़ने का प्रयत्न करने लगा। उसे सूरदास से इतनी भक्ति न थी, जितनी भैरो से ईर्ष्या। भैरो अगर किसी सत्कर्म में भी उसकी सहायता माँगता, तो भी वह इतनी ही तत्परता से उसकी उपेक्षा करता।

उसने बजरंगो के पास जाकर कहा-"क्यों बजरंगी, तुम भी भैरो की गवाही कर रहे हो?"

बजरंगी-"हाँ, जाता तो हूँ।"

जगधर-"तुमने अपनी आँखों कुछ देखा है?"

बजरंगी-"कैसी बातें करते हो, रोज ही देखता हूँ, कोई बात छिपी थोड़े ही है।"

जगधर-"क्या देखते हो? यही न कि सुभागी सूरदास के झोपड़े में रहती है अगर कोई एक अनाथ औरत का पालन करे, तो बुराई है? अंधे आदमी के जीवट का बखान तो न करोगे कि जो काम किसी से न हो सका, वह उसने कर दिखाया, उल्टे उससे और बैर साधते हो। जानते हो, सूरदास उसे घर से निकाल देगा, तो उसकी क्या गत होगी? मुहल्ले की आबरू पुतलीघर के मजदूरों के हाथ बिकेगी। देख लेना। मेरा कहना मानो, गवाही-साखी के फेर में न पड़ो, भलाई के बदले बुराई हो जायगी। भैरो तो सुभागी से इसलिए जल रहा है कि उसने उसके चुराये हुए रुपये सूरदास को क्यों लौटा दिये। बस, सारी जलन इसी की है। हम बिना जाने-बूझे क्यों किसी की बुराई करें। हाँ, गवाही देने ही जाते हो, तो पहले खूब पता लगा लो कि दोनों कैसे रहते हैं......"

बजरंगी—(जमुनी की तरफ इशारा करके) "इसी से पूछो, यही अंतरजामी है, इसी ने मुझे मजबूर किया है।"

जमुनी—"हाँ। किया तो है, क्या अब भी दिल काँप रहा है?"

जगधर—“अदालत में जाकर गवाही देना क्या तुमने हँसी समझ ली है? गंगाजली उठानी पड़ती है, तुलसी-दल लेना पड़ता है, बेटे के सिर पर हाथ रखना पड़ता है। इसी से बाल-बच्चेवाले डरते हैं कि और कुछ!"

जमुनी—"सच कहो, ये सब कसमें भी खानी पड़ती हैं?"

जगधर—"बिना कसम खाये तो गवाही होती ही नहीं।"

जमुनी—"तो भैया, बाज आई ऐसी गवाही से, कान पकड़ती हूँ। चूल्हे में जाय सूरा और भाड़ में जाय भैरो, कोई बुरे दिन काम न आयेगा। तुम रहने दो।"

बजरंगी—"सूरदास को लड़कपन से देख रहे हैं, ऐसी आदत तो उसमें न थी।"

जगधर—"न थी, न है और न होगी। उसकी बड़ाई नहीं करता, पर उसे लाख रुपये भी दो, तो बुराई में हाथ न डालेगा। कोई दूसरा होता, तो गया हुआ धन पाकर चुपके से रख लेता, किसी को कानोकान खबर भी न होती। नहीं तो जाकर सब रुपये दे आया। उसकी सफाई तो इतने ही से हो जाती है।" [ ३६४ ]
बजरंगी को तोड़कर जगवर ने ठाकुरदीन को घेरा। पूजा करके भोजन करने जा रहा था। जगधर को आवाज सुनकर बोला-"बैठो, खाना खाकर आता हूँ।”

जगधर-"मेरी बात सुन लो, तो खाने बैठो। खाना कहीं भागा नहीं जाता है। तुम भी भैरो की गवाही देने जा रहे हो?”

ठाकुरदीन-"हाँ, जाता हूँ। भैरो ने न कहा होता, तो आप ही जाता। मुझसे यह अनीत नहीं देखी जाती। जमाना दूसरा है, नहीं नवाबी होती, तो ऐसे आदमी का सिर काट लिया जाता। किसी की बहू-बेटी को निकाल ले जाना कोई हँसी-ठट्ठा है?"

जगधर-'जान पड़ता है, देवतों की पूजा करते-करते तुम भी अंतरजामी हो गये हो। पूछता हूँ, किस बात की गवाही दोगे?”

ठाकुरदीन-"कोई लुकी-छिपी बात है, सारा देस जानता है।"

जगधर-"सूरदास बड़ा गबरू जवान है, इसी से सुन्दरी का मन उस पर लोट-पोट हो गया होगा, या उसके घर रुपये-पैसे, गहने-जेवर के ढेर लगे हुए हैं, इसी से औरत लोभ में पड़ गई होगी। भगवान को देखा नहीं, लेकिन अकल से तो पहचानते हो। आखिर क्या देखकर सुभागी ने भैरो को छोड़ दिया और सूरे के घर पड़ गई?"

ठाकुरदीन-"कोई किसी के मन की बात क्या जाने, ओर औरत के मन की बात तो भगवान भी नहीं जानते, देवता लोग तक उससे त्राह-त्राह करते हैं!"

जगधर-“अच्छा, तो जाओ, मगर यह कहे देता हूँ कि इसका फल भोगना पड़ेगा। किसी गरीब पर झूठा अपराध लगाने से बड़ा दूसरा पाप नहीं होता।"

ठाकुरदीन-"झूठा अपराध है?"

जगधर-"झूठा है, सरासर झूठा; रत्तो-भर भी सच नहीं। बेकस की वह हाय पड़ेगी कि जिंदगानी भर याद करोगे। जो आदमी अपना गया हुआ धन पाकर लौटा दे, वह इतना नीच नहीं हो सकता।"

ठाकुरदीन-(हँसकर) “यही तो अंधे की चाल है। कैसी दूर की सूझी है कि जो सुने, चक्कर में आ जाय।"

जगधर-"मैंने जता दिया, आगे तुम जानो, तुम्हारा काम जाने। रखोगे सुभागी को अपने घर में? मैं उसे सूरे के घर से लिवाये लाता हूँ, अगर फिर कभी सूरे को उससे बातें करते देखना, तो जो चाहना, सो करना। रखोगे?"

ठाकुरदीन-"मैं क्यों रखने लगा!"

जगधर—"तो अगर शिवजी ने संसार-भर का बिस माथे चड़ा लिया, तो क्या बुरा किया! जिसके लिए कहीं ठिकाना नहीं था, उसे सूरे ने अपने घर में जगह दी। इस नेकी की उसे यह सजा मिलनी चाहिए? यही न्याय है? अगर तुम लोगों के दबाव में आकर सूरे ने सुभागी को घर से निकाल दिया और उसकी आबरू बिगड़ी, तो उसका पाप तुम्हारे सिर भी पड़ेगा। याद रखना।" [ ३६५ ]
ठाकुरदीन देवभीरु आत्मा था। दुविधा में पड़ गया। जगधर ने आसन पहचाना, इसी ढंग की दो-चार बातें और कीं। आखिर ठाकुरदीन गवाही देने से इनकार करने लगा। जगधर की ईर्ष्या किसी साधु के उपदेश का काम कर गई। संध्या होते-होते भैरो को मालूम हो गया कि मुहल्ले में कोई गवाह न मिलेगा। दाँत पीसकर रह गया। चिराग जल रहे थे। बाजार की और दूकानें बंद हो रहो थीं। ताड़ी की दूकान खोलने का समय आ रहा था। गाहक जमा होते जाते थे। बुढ़िया चिखौने के लिए मटर के दालमोट और चटपटे पकौड़े बना रही थी, और भैरो द्वार पर बैठा हुआ जगधर को, मुहल्लेवालों को और सारे संसार को चौपालियाँ सुना रहा था-"सब-के-सब नामरदे हैं, आँख के अंधे, जभी यह दुरदसा हो रही है। कहते हैं, सूखा क्यों पड़ता है, प्लेग क्यों आता है, हैजा क्यों फैलता है, जहाँ ऐसे-ऐसे बेईमान, पापो, दुस्ट बसेंगे, वहाँ और होगा ही क्या। भगवान इस देस को गारत क्यों नहीं कर देते, यही अचरज है। खैर, जिंदगानी है, तो हम और जगधर इसो जगह रहते हैं, देखी जायगी।"

क्रोध के आवेश में अपनी नेकियाँ बहुत याद आती हैं। भैरो उन उपकारों का वर्णन करने लगा, जो उसने जगवर के साथ किये थे-"इसकी घरवाली मर रही थी। किसी ने बता दिया, ताजी ताड़ी पिये, तो बच जाय। मुँह-अवेरे पेड़ पर चढ़ता था और ताजी ताड़ी उतारकर उसे पिलाता था। कोई पाँच रुपये भी देता, तो उतने सबेरे पेड़ पर न चढ़ता। मटकों ताड़ी पिला दी होगी। तमाखू पीना होता है, तो यहीं आता है। रुपये-पैसे का काम लगता है, तो मैं ही काम आता हूँ, ओर मेरे साथ यह घाट! जमाना ही ऐसा है।"

जगधर का घर मिला हुआ था। यह सब सुन रहा था ओर मुंह न खोलता था। वह सामने से वार करने में नहीं, पीछे से वार करने में कुशल था।

इतने में मिल का एक मिस्त्री, नीम-आस्तीन पहने, कोयले की भभूत लगाये और कोयले ही का-सा रंग, हाथ में हथौड़ा लिये, चमरौधा जूना डाटे, आकर बोला-"चलते हो दूकान पर कि इसी झंझट में पड़े रहोगे? देर हो रही है, अभी साहब के बँग ठे पर जाना है।"

भैरो-"अजी जाओ, तुम्हें दूकान की पड़ी हुई है। यहाँ ऐमा जी जल रहा है कि गाँव में आग लगा दूँ।”

मिस्त्री-"क्या है क्या? किस बात पर बिगड़ रहे हो, मैं भी सुनूँ।"

भैरो ने संक्षिप्त रूप से सारी कथा सुना दी और गाँववालों की कायरता और आम-जनता का दुखड़ा रोने लगा।

मिस्त्री-“गाँववालों को मारो गोली। तुम्हें कितने गवाह चाहिए? जितने गवाह कहो, दे दूँ, एक-दो, दस-बीस। भले आदमी, पहले ही क्यों न कहा? आज ही ठीक- ठाक किये देता हूँ। बस, सबों को भर-भर पेट पिला देना।" [ ३६६ ]
भैरो की बॉछे खिल गई, बोला-"ताड़ी की कौन बात है, दूकान तुम्हारी है, जितनी चाहो, पियो, पर जरा मोतबर गवाह दिलाना।"

मिस्त्री-"अजी, कहो तो बाबू लोगों को हाजिर कर दूँ। बस, ऐसी पिला देना कि सब यहीं से गिरते हुए घर पहुँचे।"

भैरो-“अजी, कहो तो इतनी पिला दूँ कि दो-चार लाशें उठ जायँ।" यों बातें करते हुए दोनों दूकान पहुँचे। वहाँ २०-२५ आदमी, जो इसी कारखाने के नौकर थे, बड़ी उत्कंठा से भैरो की राह देख रहे थे। भैरो ने तो पहुँचते ही ताड़ी नापनी शुरू की, और इधर मिस्त्री ने गवाहों को तैयार करना शुरू किया। कानों में बातें होने लगीं।

एक-मौका अच्छा है। अंधे के घर से निकलकर जायगी कहाँ! भैरो अब उसे न रखेगा।"

दूसरा-"आखिर हमारे दिल-बहलाव का भी तो कोई सामान होना चाहिए।"

तीसरा-"भगवान ने आप ही भेज दिया। बिल्ली के भागों छींका टूटा।" इधर तो यह मिसकोट हो रही थी, उधर सुभागी सूरदास से कह रही थी---"तुम्हारे ऊपर दावा हो रहा है।"

सूरदास ने घबराकर पूछा-"कैसा दावा?"

सुभागी-"मुझे भगा लाने का। गवाह ठीक किये जा रहे हैं। गाँव का तो कोई आदमी नहीं मिला, लेकिन पुतलीघर के बहुत-से मजूरे तैयार हैं। मुझसे अभी जगधर कह रहे थे, पहले गाँव के सब आदमी गवाही देने जा रहे थे।"

सूरदास-"फिर रुक कैसे गये?"

सुभागी-"जगधर ने सबको समझा-बुझाकर रोक लिया।"

सूरदास-"जगधर बड़ा भलामानुस है, मुझ पर बड़ी दया करता रहता है।"

सुभागी-"तो अब क्या होगा?"

सूरदास-"दावा करने दे, डरने की कोई बात नहीं। तू यही कह देना कि मैं भैरो के साथ न रहूँगी। कोई कारन पूछे, तो साफ-साफ कह देना, वह मुझे मारता है।”

सुभागी-"लेकिन इसमें तुम्हारी कितनी बदनामी होगी!”

सूरदास-"बदनामी की चिंता नहीं, जब तक वह तुझे रखने को राजी न होगा, मैं तुझे जाने ही न दूँगा।"

सुभागी-"वह राजी भी होगा, तो उसके घर न जाऊँगी। वह मन का बड़ा मैला आदमी है, इसकी कसर जरूर निकालेगा। तुम्हारे घर से भी चली जाऊँगी।"

सूरदास-"मेरे घर से क्यों चली जायगी? मैं तो तुझे नहीं निकालता।"

सुभागी-"मेरे कारन तुम्हारी कितनी जगहँसाई होगी। मुहल्लेवालों का तो मुझे कोई डर न था। मैं जानती थी कि किसी को तुम्हारे ऊपर संदेह न होगा, और होगा भी, तो छिन-भर में दूर हो जायगा। लेकिन ये पुतलीघर के उजड्ड मजूरे तुम्हें क्या जानें। [ ३६७ ]
भैरो के यहाँ सब-के-सब ताड़ी पीते हैं। वह उन्हें मिलावर तुम्हारी आबरू बिगाड़ देगा। मैं यहाँ न रहूँगी, तो उसका कलेजा ठंडा हो जायगा। बिस की गाँठ तो मैं हूँ।"

सूरदास-"जायगी कहाँ?"

सुभागी-“जहाँ उसके मुँह में कालिख लगा सकूँ, जहाँ उसकी छाती पर मूँगदल सकू।"

सूरदास-"उसके मुँह में कालिख लगेगी, तो मेरे मुँह में पहले ही न लग जायगी, तू मेरी बहन ही तो है?"

सुभागी-"नहीं, मैं तुम्हारी कोई नहीं हूँ। मुझे बहन-बेटी न बनाओ।"

सूरदास-"मैं कहे देता हूँ, इस घर से न जाना।"

सुभागी-"मैं अब तुम्हारे साथ रहकर तुम्हें बदनाम न करूँगी।"

सूरदास-"मुझे बदनामी कबूल है, लेकिन जब तक यह न मालूम हो जाय कि तू कहाँ जायगी, तब तक मैं तुझे जाने ही न दूँगा।"

भैरो ने रात तो किसी तरह काटी। प्रातःकाल कचहरी दौड़ा। वहाँ अभी द्वार बंद थे, मेहतर झाड़ लगा रहे थे, अतएव वह एक वृक्ष के नीचे ध्यान लगाकर बैठ गया। नौ बजे से अमले, बरते बगल में दबाये, आने लगे और भैरों दौड़-दौड़कर उन्हें सलाम करने लगा। ग्यारह बजे राजा साहब इजलास पर आये और भैरो ने मुहरि से लिखाकर अपना इस्तगासा दायर कर दिया। संध्या-समय घर आया, तो बफलने लगा--"अब देखता हूँ, कौन माई का लाल इनकी हिमायत करता है। दोनों के मुँह में कालिख लगवाकर यहाँ से निकाल न दिया, तो बाप का नहीं।

पाँचवें दिन सूरदास और सुभागी के नाम सम्मन आ गया। तारीख पड़ गई। ज्यों-ज्यों पेशी का दिन निकट आता जाता था, सुभागी के होश उड़े जाते थे। बार-बार सूरदास से उलझती-"तुम्हीं यह सब करा रहे हो, अपनी मिट्टी खराब कर रहे हो और अपने साथ मुझे भी घसीट रहे हो। मुझे चली जाने दिया होता, तो कोई तुमसे क्यों बैर ठानता? वहाँ भरी कचहरी में जाना, सबके सामने खड़ी होना मुझे जहर ही-सा लग रहा है। मैं उसका मुँह न देखूगी, चाहे अदालत मुझे मार ही डाले।”

आखिर पेशी की नियत तिथि आ गई। मुहल्ले में इस मुकदमे की इतनी धूम थी कि लोगों ने अपने-अपने काम बंद कर दिये और अदालत में जा पहुंचे। मिल के श्रमजीवी सैकड़ों की संख्या में गये। शहर में सूरदास को कितने ही आदमी जान गये थे। उनकी दृष्टि में सूरदास निरपराध था। हजारों आदमी कुतूहल-वश अदालत में आये; प्रभु सेवक पहले ही पहुँच चुके थे, इंदु रानी और इंद्रदत्त भी मुकद्दमा पेश होते-होते आ पहुँचे। अदालत में यों ही क्या कम भीड़ रहती है, और स्त्री का आना तो मंडर में बधू का आना है। अदालत में एक बाजार-सा लगा हुआ था। इजलास पर दो महाशय विराजमान थे-एक तो चतारी के राजा साहब, दूसरे एक मुसलमान, जिन्होंने
[ ३६८ ]
योरपीय महासमर में रंगरूट भरती करने में बड़ा उत्साह दिखाया था। भैरो को तरफ से एक वकील भी था।

भैरो का बयान हुआ। गवाहों का बयान हुआ। तब उसके वकील ने उनसे अपना पक्ष-समर्थन करने के लिए जिरह की।

तब सूरदास का बयान हुआ। उसने कहा—"मेरे साथ इधर कुछ दिनों से भैरो की घरवाली रहती है। मैं किसी को क्या खिलाऊँ-पिलाऊँगा, पालनेवाला भगवान् है। वह मेरे घर में रहती है, अगर भैरो उसे रखना चाहे और वह रहना चाहे, तो आज चली जाय, यही तो मैं चाहता हूँ। इसीलिए मैंने उसे अपने यहाँ रखा है, नहीं तो न जाने कहाँ होती।"

भैरो के वकील ने मुस्किराकर कहा—"सूरदास, तुम बड़े उदार मालूम होते हो; लेकिन युवती सुंदरियों के प्रति उदारता का कोई महत्त्व नहीं रहता।"

सूरदास—"इसी से न यह मुकदमा चला है। मैंने कोई बुराई नहीं की। हाँ, संसार जो चाहे, समझे। मैं तो भगवान् को जानता हूँ। वही सबकी करनी को देखनेवाला है। अगर भैरो उसे अपने घर न रखेगा और न सरकार कोई ऐसी जगह बतावेगी, जहाँ यह औरत इजत-आबरू के साथ रह सके, तो मैं उसे अपने घर से निकलने न दूँगा। वह निकलना भी चाहेगी, तो न जाने दूँगा। इसने तो जब से इस मुकदमे की खबर सुनी है, यही कहा करती है कि मुझे जाने दो, पर मैं उसे जाने नहीं देता।"

वकील—"साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि मैंने उसे रख लिया है।"

सूरदास—"हाँ, रख लिया है, जैसे भाई अपनी बहन को रख लेता है, बाप बेटी को रख लेता है। अगर सरकार ने उसे जबरजस्ती मेरे घर से निकाल दिया, तो उसकी आबरू की जिम्मेदारी उसी के सिर होगी।"

सुभागी का बयान हुआ—"भैरो मुझे बेकसूर मारता है, गालियाँ देता है। मैं उसके साथ न रहूँगी। सूरदास भला आदमी है, इसीलिए उसके पास रहती हूँ। भैरो यह नहीं देख सकता, सूरदास के घर से मुझे निकालना चाहता है।"

वकील—"तू पहले भी सूरदास के घर जाती थी?"

सुभागी—"जभी अपने घर मार खाती थी, तभी जान बचाकर उसके घर भाग जाती थी। वह मेरे आड़े आ जाता था। मेरे कारन उसके घर में आग लगी, मार पड़ी, कौन-कौन-सी दुर्गत नहीं हुई। अदालत की कसर थी, वह भी पूरी हो गई।"

राजा—"भैरो, तुम अपनी औरत को रखोगे?"

भैरो—"हाँ सरकार, रखूँगा।"

राजा—"मारोगे तो नहीं?"

भैरो—"कुचाल न चलेगी, तो क्यों मारूगा।"

राजा—"सुभागी, तू अपने आदमी के घर क्यों नहीं जाती? वह तो कह रहा है, न मारूँगा।" [ ३६९ ]सुभागी—“उस पर मुझे विश्वास नहीं। आज ही मार मारकर बेहाल कर देगा।"

वकील—"हजूर, मुआमला साफ है, अब मजीद-सबूत की ज़रूरत नहीं रही। सूरदास पर जुर्म साबित हो गया।"

अदालत ने फैसला सुना दिया—"सूरदास पर २००) जुर्माना और जुर्माना न अदा करे, तो ६ महीने की कड़ी कैद। सुभागी पर १००) जुर्माना, जुर्माना न दे सकने पर ३ महीने की कड़ी कैद। रुपये वसूल हों, तो भैरो को दिये जायँ।”

दर्शकों में इस फैसले पर आलोचनाएँ होने लगी।

एक—"मुझे तो सूरदास बेकसूर मालूम होता है।"

दूसरा—“सब राजा साहब की करामात है। सूरदास ने जमीन के बारे में उन्हें बदनाम किया था न! यह उसी की कसर निकाली गई है। ये हमारे यश-मान-भोगी लीडरों के कृत्य हैं।"

तीसरा—"औरत चरबाँक नहीं मालूम होती।"

चौथा—"भरी अदालत में बातें कर रही है, चरवाँक नहीं, तो और क्या है?"

पाँचवाँ—"वह तो यही कहती है कि मैं भैरो के पास न रहूँगी।"

सहसा सूरदास ने उच्च स्वर से कहा—"मैं इस फैसले की अपील करूँगा।"

वकील—"इस फैसले की अपील नहीं हो सकती।"

सूरदास—“मेरी अपील पंचों से होगी। एक आदमी के कहने से मैं अपराधी नहीं हो सकता, चाहे वह कितना ही बड़ा आदमी हो। हाकिम ने सजा दे दो, सजा काट लूँगा; पर पंचों का फैसला भी सुन लेना चाहता हूँ।"

यह कहकर उसने दर्शकों की ओर मुँह फेरा और मर्मस्पर्शी शब्दों में कहा—“दुहाई है पंचो, आप इतने आदमी जमा हैं। आप लोगों ने भैरो और उसके गवाहों के बयान सुने, मेरा और सुभागी का बयान सुना, हाकिम का फैसला भी सुन लिया। आप लोगों से मेरी बिनती है कि क्या आप भी मुझे अपराधी समझते हैं? क्या आपको विस्वास आ गया कि मैंने सुभागी को बहकाया और अब अपनी स्त्री बनाकर रखे हुए हूँ? अगर आपको बिस्वास आ गया है, तो मैं इसी मैदान में सिर झुकाकर बैठता हूँ, आप लोग मुझे पाँच-पाँच लात मारें। अगर मैं लात खाते-खाते मर भी जाऊँ, तो मुझे दुःख न होगा। ऐसे पापी का यही दंड है। कैद से क्या होगा! और अगर आपकी समझ में बेकसूर हूँ, तो पुकारकर कह दीजिए, हम तुझे निरपराध समझते हैं। फिर मैं कड़ी-से-कड़ी कैद भी हँसकर काट लूँगा।"

अदालत के कमरे में सन्नाटा छा गया। राजा साहब, वकील, अमले, दर्शक, सब-के-सब चकित हो गये। किसी को होश न रहा कि इस समय क्या करना चाहिए। सिपाही दर्जनों थे, पर चित्र-लिखित-से खड़े थे। परिस्थिति ने एक विचित्र रूप धारण कर लिया था, जिसकी अदालत के इतिहास में कोई उपमा न थी। शत्रु ने ऐसा छापा मारा था कि उससे प्रतिपक्षी सेना का पूर्व-निश्चित क्रम भंग हो गया। [ ३७० ]
सबसे पहले राजा साहब सँभले। हुक्म दिया, इसे बाहर ले जाओ। सिपाहियों ने दोनों अभियुक्तों को घेर लिया और अदालत के बाहर ले चले। हजारों दर्शक पीछे-पीछे चले।

कुछ दूर चलकर सूरदास जमीन पर बैठ गया और बोला-"मैं पंचों का हुकुम सुनकर तभी आगे जाऊँगा।"

अदालत के बाहर आदलत की मर्यादा-भंग होने का भय न था। कई हजार कंठों से ध्वनि उठी--"तुम बेकसूर हो, हम सब तुम्हें बेकसूर समझते हैं।"

इंद्रदत्त-"अदालत बेईमान है!”

कई हजार आवाजों ने दुहराया-"हाँ, अदालत बेईमान है!" इंद्रदत्त-"अदालत नहीं है, दीनों को बलि-वेदी है।" कई हजार कंठों से प्रतिध्वनि निकली-“अमीरों के हाथ में अत्याचार का यंत्र है।"

चौकीदारों ने देखा, प्रतिक्षण भीड़ बढ़ती और लोग उत्तेजित होते जाते हैं, तो 'लपककर एक बग्घीवाले को पकड़ा और दोनों को उसमें बैठाकर ले चले। लोगों ने कुछ दूर तक तो गाड़ी का पीछा किया, उसके बाद अपने-अपने घर लौट गये।

इधर भैरो अपने गवाहों के साथ घर चला, तो राह में अदालत के अरदली ने घेरा। उसे दो रुपये निकालकर दिये। दूकान में पहुँचते ही मटके खुल गये और ताड़ी के दौर चलने लगे। बुढ़िया पकौड़ियाँ और पूरियाँ पकाने लगी।

एक बोला-“भैरो, यह बात ठीक नहीं, तुम भी बैठो, पियो और पिलाओ। हम-तुम बद-बदकर पियें।"

दूसरा-"आज इतनी पियूँगा कि चाहे यहीं ढेर हो जाऊँ। भैरो, यह कुल्हड़ भर-भर क्या देते हो, हाँडी ही बढ़ा दो।"

भैरो-"अजी, मटके में मुँह डाल दो, हाँडी-कुल्हड़ की क्या बिसात है! आज मुद्दई का सिर नीचा हुआ है।"

तीसरा-"दोनों हिरासत में पड़े रो रहे होंगे। मगर भई, सूरदास को सजा हो गई, तो क्या, वह है बेकसूर।"

भैरो-"आ गये तुम भी उसके धोखे में। इसो स्वाँग की तो वह रोटी खाता है। देखो, बात-की-बात में कैसा हजारों आदमियों का मन फेर दिया।"

चौथा-"उसे किसी देवता का इष्ट है।"

भैरो-"इष्ट तो तब जानें कि जेहल से निकल आये।"

पहला-"मैं बदकर कहता हूँ, वह कल जरूर जेहल से निकल आयेग्ग।"

दूसरा-"बुढ़िया, पकौड़ियाँ ला।"

तीसरा-"अबे, बहुत न पो, नहीं मर जायगा। है कोई घर पर रोनेवाला?"

चौथा-"कुछ गाना हो, उतारो ढोल-मँजोरा।" सबों ने ढोल-मँजीरा सँभाला, और खडे होकर गाने लगे-
[ ३७१ ]
"छत्तीसी, क्या नैना झमकावे!"

थोड़ी देर में एक बुड्ढा मिस्त्री उठकर नाचने लगा। बुढ़िया से अब न रहा गया। उसने भी घूँघट निकाल लिया और नाचने लगी। शूद्रों में नृत्य और गान स्वाभाविक गुण हैं, सीखने की जरूरत नहीं। बुड्ढा और बुढ़िया, दोनों अश्लील भाव से कमर हिला-हिलाकर थिरकने लगे। उनके अंगों की चपलता आश्चर्यजनक थी।

भैरो—"मुहल्लेवाले समझते थे, मुझे गवाह ही न मिलेंगे।"

एक—"सब गीदड़ हैं, गीदड़।"

भैरो—"चलो, जरा सत्रों के मुँह में कालिख लगा आयें।"

सब-के-सब चिल्ला उठे-“हाँ-हाँ, नाच होता चले।" एक क्षण में जुलूस चला। सब-के-सब नाचते गाते, ढोल पीटते, ऊल-जठूल बकते, हू-हा करते, लड़खड़ाते हुए चले। पहले बजरंगी का घर मिला। यहाँ सब रुक गये, और गाया-

"ग्वालिन की गैया हिरानी, तब दूध मिलावै पानी।"

रात ज्यादा भीग चुकी थी, बजरंगी के द्वार बंद थे। लोग यहाँ से ठाकुरदीन के द्वार पर पहुँचे और गाया-

"तमोलिन के नैना रसीले, यारों से नजर मिलावै।"

ठाकुरदीन भोजन कर रहा था, पर डर के मारे बाहर न निकला। जुलूस आगे बढ़ा, तो सूरदास की झोपड़ी मिली।

भैरो बोला--"बस, यहीं डट जाओ।"

"ढोल ढीली पड़ गई।"

“संको, सेंको। झोपड़े में से फूस ले लो।"

एक आदमी ने थोड़ा-सा फूस निकाला, दूसरे ने और ज्यादा निकाला, तीसरे ने एक बोझ खींच लिया। फिर क्या था, नशे की सनक मशहूर ही है, एक ने जलता हुआ फूस झोपड़ी पर डाल दिय और बोला—"होली है, होली है!" कई आदमियों ने कहा- "होली है, होली है!"

भैरो“यारो, यह तुम लोगों ने बुरा किया। भाग चलो, नहीं तो धर लिये जाओगे।"

भय नशे में भी हमारा पीछा नहीं छोड़ता। सब-के-सब भागे।

उधर ज्वाला प्रचंड हुई, तो मुहल्ले के लोग दौड़ पड़े। लेकिन फूस की आग किसके वश की थी। झोपड़ा जल रहा था और लोग खड़े दुःख और क्रोध की बातें कर रहे थे।

ठाकुरदीन—"मैं तो भोजन पर बैठा, तभी सबों को आते देखा।"

बजरंगी—"ऐसा जी चाहता है कि जाकर भैरो को मारते-मारते बेदम कर दूँ" [ ३७२ ]जगधर-"जब तक एक दफे अच्छी तरह मार न खा जायगा, इसके सिर से भूत न उतरेगा।"

बजरंगी-"हाँ, अब यही होगा। घिसुआ, जरा लाटी तो निकाल ला। आज दो-चार खून हो जायेंगे, तभी आग बुझेगी!”

जमुनी-“तुम्हें क्या पड़ी है, चलकर लेटो। जो जैसा करेगा, उसका फल आप भगवान से पायेगा।"

बजरंगी-"भगवान चाहे फल दें या न दें, पर मैं तो अब नहीं मानता, जैसे देह में आग लगी हुई है।"

जगधर-"आग लगने की बात ही है। ऐसे पानी का तो सिर काट लेना भी पाप नहीं है।"

ठाकुरदीन-"जगधर, आग पर तेल छिड़कना अच्छी बात नहीं। अगर तुमको भैरो से बैर है, तो आप जाकर उसे क्यों नहीं ललकारते, दूसरों को क्यों उकसाते हो? यही चाहते हो कि ये दोनों लड़ मरे और मैं तमासा देखू। हो बड़े नीच!"

जगधर-“अगर कोई बात कहना उकसाना है, तो लो, चुप रहूँगा।"

ठाकुरदीन-"हाँ, चुप रहना ही अच्छा है। तुम भी जाकर सोओ बजरंगी! भगवान आप पापी को दंड देंगे। उन्होंने तो रावन-जैसे प्रतापी को न छोड़ा, यह किस खेत की मूली है! यह अंधेर उनसे भी न देखा जायगा।"

बजरंगी-"मारे घमंड के पागल हो गया है। चलो जगधर, जरा इन सबों से दो-दो बातें कर लें।"

जगधर--"न भैया, मुझे साथ न ले जाओ। कौन जाने, वहाँ मार-पीट हो जाय, तो सारा इलजाम मेरे सिर जाय कि इसी ने लड़ा दिया। मैं तो आप झगड़े से कोसों दूर रहता हूँ।

इतने में मिठुआ दौड़ा हुआ आया। बजरंगी ने पूछा-“कहाँ सोया था रे?"

मिट्ठू-"पण्डाजी की दालान में तो। अरे, यह तो मेरी झोपड़ी जल रही है! किसने आग लगाई?"

ठाकुरदीन—“इतनी देर में जागे हो। सुन नहीं रहे हो, गाना-बजाना हो रहा है

मिट्ठू-"भैरौ ने लगाई है क्या? अच्छा बचा, समझूँगा।"

जब लोग अपने-अपने घर लौट गये, तो मिठुआ धीरे-धीरे भैरो की दूकान की तरफ गया। महफिल उठ चुकी थी। अँधेरा छाया हुआ था। जाड़े की रात, पत्ता तक न खड़कता था। दूकान के द्वार पर उपले जल रहे थे। ताड़ीखानों में आग कभी नहीं बुझती, पारसी पुरोहित भी इतनी सावधानी से आग की रक्षा न करता होगा। मिठुआ ने एक जलता हुआ उपला उठाया और दूकान के छप्पर पर फेक दिया। छप्पर में आग लग गई, तो मिठुआ बगटुट भागा और पण्डाजी की दालान में मुँह ढाँपकर सो
[ ३७३ ]
रहा, मानों उसे कुछ खबर ही नहीं। जरा देर में ज्याला प्रचड हुई, सारा मुहल्ला आलोकित हो गया, चिड़ियाँ वृक्षों पर से उड़-उड़कर भागने लगीं, पेड़ों की झलें हिलने लगी, तालाब का पानी सुनहरा हो गया और बाँसों की गाँठं जोर-जोर से चिटकने लगीं। आध घंटे तक लंकादहन होता रहा, पर यह सारा शोर वन्य रोदन के सदृश था। दूकान बस्ती से हटकर थी। भैरो नशे में बेसुध पड़ा था, बुढ़िया नाचते-नाचते थक गई थी। और कौन था, जो इस वक्त आग बुझाने जाता? अग्नि ने निर्विघ्न अपना काम समाप्त किया। मटके टूट गये, ताड़ी बह गई। जब जरा आग ठंडी हुई, तो कई कुत्तों ने आकर वहाँ विश्राम किया।

प्रातःकाल भैरो उठा, तो दूकान सामने न दिखाई दी। दूकान और उसके घर के बीच में दो फरलाँग का अंतर था, पर कोई वृक्ष न होने के कारण दूकान साफ नजर आती थी। उसे विस्मय हुआ, दूकान कहाँ गई! जरा और आगे बढ़ा, तो राख का ढेर दिखाई दिया। पाँव-तले से मिट्टी निकल गई। दौड़ा। दूकान में ताड़ी के सिवा बिक्री के रुपये भी थे। ढोल-मँजीरा भी वहीं रखा रहता था। प्रत्येक वस्तु जलकर राख हो गई। मुहल्ले के लोग उधर तालाब में मुँह-हाथ धोने जाया करते थे। सब आ पहुँचे। दूकान सड़क पर थी। पथिक भी खड़े हो गये। मेला लग गया।

भैरो ने रोकर कहा-“मैं तो मिट्टी में मिल गया।"

ठाकुरदीन-"भगवान की लीला है। उधर वह तमासा दिखाया, इधर यह तमासा दिखाया। धन्य हो महाराज!"

बजरंगी-"किसी मिस्त्री की सरारत होगी। क्यों भैरो, किसी से अदावत तो नहीं थी?”

भैरो-“अदावत सारे मुहल्ले से है, किससे नहीं है। मैं जानता हूँ, जिसको यह बदमासी है। बँधवा न दिया, तो कहना। अभी एक को लिया है, अब दूसरे की पारी है।"

जगधर दूर ही से आनंद ले रहा था। निकट न आया कि कहीं भैरो कुछ कह बैठे, तो बात बढ़ जाय। ऐसा हार्दिक आनंद उसे अपने जीवन में कभी न प्राप्त हुआ था।

इतने में मिल के कई मजदूर आ गये। काला मिस्त्री बोला-भाई, कोई माने या न माने, मैं तो यही कहूँगा कि अंधे को किसी का इष्ट है।"

ठाकुरदीन—"इष्ट क्यों नहीं है। मैं बराबर यही कहता आता हूँ। उससे जिसने बैर ठाना, उसने नीचा देखा।”

भैरो—“उसके इष्ट को मैं जानता हूँ। जरा थानेदार आ जायँ, तो बता दूँ, कौन इष्ट है।"

बजरंगी जलकर बोला—"अपनी बेर कैसी सूझ रही है! क्या वह झोपड़ा न था, जिसमें पहले आग लगी। ईट का जबाब पत्थर मिलता ही है। जो किसी के लिए गढ़ा खोदेगा, उसके लिए कुआँ तैयार है। क्या उस झोपड़े में आग लगाते समय समझे थे कि सूरदास का कोई है हो नहीं?"

२४ [ ३७४ ]भैरो—"उसके झोपड़े में मैंने आग लगाई?"

बजरंगी—“और किसने लगाई?"

भैरो—"झूठे हो!"

ठाकुरदीन—“भैरो, क्यों सीनेजोरी करते हो! तुमने लगाई या तुम्हारे किसी यार ने लगाई, एक ही बात है। भगवान ने उसका बदला चुका दिया, तो रोते क्यों हो?"

भैरो—"सब किसी से समझूँगा।”

ठाकुरदीन—“यहाँ कोई तुम्हारा दबैल नहीं है।"

भैरो ओठ चबाता हुआ चला गया। मानव-चरित्र कितना रहस्यमय है! हम दूसरों का अहित करते हुए जरा भी नहीं झिझकते, किंतु जब दूसरों के हाथों हमें कोई हानि पहुँचती है, तो हमारा खून खौलने लगता है।