रंगभूमि  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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जब तक सूरदास शहर में हाकिमों के अत्याचार को दुहाई देता रहा, उसके मुहल्ले-वाले जॉन सेवक के हितैषी होने पर भी उससे सहानुभूति करते रहे। निर्बलों के प्रति स्वभावतः करुणा उत्पन्न हो जाती है। लेकिन सूरदास की विजय होते ही यह सहानुभूति स्पर्धा के रूप में प्रकट हुई। यह शंका पैदा हुई कि सूरदास मन में हम लोगों को तुच्छ समझ रहा होगा। कहता होगा, जब मैंने राजा महेन्द्रकुमारसिंह-जैसों को नीचा दिखा दिया, उनका गर्व चूर-चूर कर दिया, तो ये लोग किस खेत की मूली हैं। सारा मुहल्ला उससे मन-ही-मन खार खाने लगा। केवल एक ठाकुरदीन था, जो अब भी उसके पास आया-जाया करता था। उसे अब यकीन हो गया था कि-"सूरदास को अवश्य किसी देवता का इष्ट है, उसने जरूर कोई मंत्र सिद्ध किया है, नहीं तो उसकी इतनी कहाँ मजाल कि ऐसे-ऐसे प्रतापी आदमियों का सिर झुका देता। लोग कहते हैं, जंत्र-मंत्र सब ढकोसला है। यह कौतुक देखकर भी उनकी आँखें नहीं खुलतीं।"

सूरदास के स्वभाव में भी अब कुछ परिवर्तन हुआ। धैर्यशील वह पहले ही से था; पर न्याय और धर्म के पक्ष में कभी-कभी उसे क्रोध आ जाता था। अब उसमें अग्नि का लेशांश भी न रहा; धूर था, जिस पर सभी कूड़े फेकते हैं। मुहल्लेवाले राह चलते उसे छेड़ते, आवाजें कसते, ताने मारते; पर वह किसी को जवाब न देता, सिर झुकाये भीख माँगने जाता और चुपके से अपनी झोपड़ी में आकर पड़ रहता। हाँ, मिठुआ के मिजाज न मिलते थे, किसी से सीधे मुंह बात न करता। कहता, यह कोई न समझे कि अंधा भीख माँगता है, अंधा बड़े-बड़ों की पीठ में धूल लगा देता है। बरबस लोगों को छेड़ता, भले आदमियों से बतबढ़ाव कर बैठता। अपने हमजोलियों से कहता, चाहूँ तो सारे मुहल्ले को बँधवा दूँ। किसानों के खेतों से बेधड़क चने, मटर, मूली, गाजर उखाड़ लाता; अगर कोई टोकता, तो उससे लड़ने को तैयार हो जाता था। सूरदास को नित्य उलहने मिलने लगे। वह अकेले में मिठुआ को समझाता; पर उस पर कुछ असर न होता था। अनर्थ यह था कि सूरदास की नम्रता और सहिष्णुता पर तो किसी की निगाह न जाती थी, मिठुआ की लनतरानियों और दुष्टताओं पर सभी को निगाह पड़ती थी। लोग यहाँ तक कह जाते थे कि सूरदास ने ही उसे सिर चढ़ा लिया है, बछवा खूटे ही के बल कूदता है। ईर्ष्या बाल-क्रीड़ाओं को भी कपट-नीति समझती है।

आजकल सोफिया मि. क्लार्क के साथ सूरदास से अक्सर मिला करती थी। वह नित्य उसे कुछ-न-कुछ देती और उसकी दिलजोई करती। पूछती रहती, मुहल्लेवाले या राजा साहब के आदमी तुम्हें दिक तो नहीं कर रहे हैं? सूरदास जवाब देता, मुझ पर सब लोग दया करते हैं, मुझे किसी से शिकायत नहीं हैं। मुहल्लेवाले समझते थे, यह बड़े साहब से हम लोगों की शिकायत करता है। अन्योक्तियों द्वारा यह भाव प्रकट भो
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करते—'सैयाँ भये कोतवाल, अब डर काहे का? प्यादे से फरजी भयो, टेढो-टेढ़ो जाय।" एक बार किसी चोरी के सम्बन्ध में नायकराम के घर में तलाशी हो गई। नायकराम को संदेह हुआ, सूरदास ने यह तीर मारा है। इसी भाँति एक बार भैरो से आबकारी के दारोगा ने जवाब तलब किया। भैरो ने शायद नियम के विरुद्ध आधी रात तक दूकान खुली रखी थी। भैरो का भी शुभा सूरदास ही पर हुआ, इसी ने यह चिनगारी छोड़ी है। इन लोगों के संदेह पर तो सूरदास को बहुत दुःख न हुआ, लेकिन जब सुभागी स्नुल्लमखुल्ला उसे लांछित करने लगी, तो उसे बहुत दुःख हुआ। उसे विश्वास था कि कम-से-कम सुभागी को मेरी नीयत का हाल मालूम है। उसे मुझको इन लोगों के अन्याय से बचाना चाहिए था, मगर उसका मन भी मुझसे फिर गया।

इस भाँति कई महीने गुजर गये। एक दिन रात को सूरदास खा-पीकर लेटा हुआ था कि किसी ने आकर चुपके से उसका हाथ पकड़ा। सूरदास चौंका, पर सुभागी की आवाज़ पहचानकर बोला-"क्या कहती है?"

सुभागी—"कुछ नहीं, जरा मडैया में चलो, तुमसे कुछ कहना है।"

सूरदास उठा और सुभागी के साथ झोपड़ी में आकर बोला-"कह, क्या कहती है? अब तो तुझे भी मुझसे बैर हो गया है। गालियाँ देती फिरती है, चारों ओर बदनाम कर रही है। बतला, मैंने तेरे साथ कौन-सी बुराई की थी कि तूने मेरी बुराई पर कमर बाँध ली? और लोग मुझे भला-बुरा कहते हैं, मुझे रंज नहीं होता; लेकिन जब तुझे ताने देते सुनता हूँ, तो मुझे रोना आता है, कलेजे में पीड़ा-सी होने लगती है। जिस दिन भैरो की तलबी हुई थी, तूने मुझे कितना कोसा था। सच बता, क्या तुझे भी सक हुआ था कि मैंने ही दारोगाजी से सिकायत की है? क्या तू मुझे इतना नीच समझती है? बता।"

सुभागी ने करुणावरुद्ध कंठ से उत्तर दिया—"मैं तुम्हारा जितना आदर करती हूँ, उतना और किसी का नहीं। तुम अगर देवता होते, तो भी इतनी ही सिरधा से तुम्हारी पूजा करती।"

सूरदास—"मैं क्या घमंड करता हूँ? साहब से किसकी सिकायत करता हूँ? जब जमीन निकल गई थी, तब तो लोग मुझसे न चिढ़ते थे। अब जमीन छूट जाने से क्यों सब-के-सब मेरे दुसमन हो गये हैं? बता, मैं क्या घमंड करता हूँ? मेरी जमीन छूट गई है, तो कोई बादसाही मिल गई है कि घमंड करूँगा?"

सुभागी—"मेरे मन का हाल भगवान जानते होंगे।"

सूरदास—"तो मुझे क्यों जलाया करती है?"

सुभागी—"इसलिए।"

यह कहकर उसने एक छोटी-सी पोटली सूरदास के हाथ में रख दी। पोटली भारी थी। सूरदास ने उसे टटोला और पहचान गया। यह उसी की पोटली थी, जो चोरी गई थी। अनुमान से मालूम हुआ कि रुपये भी उतने ही हैं। विस्मित होकर बोला-"यह कहाँ मिली?" . [ २५३ ]सुभागी—"तुम्हारी मिहनत की कमाई है, तुम्हारे पास आ गई। अब जतन से रखना।"

सूरदास—"मैं न रखूँगा। इसे ले जा।"

सुभागी—"क्यों? अपनी चीज लेने में कोई हरज है?"

सूरदास—"यह मेरी चीज नहीं। भैरो की चीज है। इसी के लिए भैरो ने अपनी आत्मा बेची है, महँगा सौदा लिया है। मैं इसे कैसे ले लूँ?"

सुभागी—"मैं ये सब बातें नहीं जानती। तुम्हारी चीज है, तुम्हें लेनी पड़ेगी। इसके लिए मैंने अपने घरवालों से छल किया है। इतने दिनों से इसी के लिए माया रच रही हूँ। तुम न लोगे, तो इसे मैं क्या करूँगी?"

सूरदास—“भैरो को मालूम हो गया, तो तुम्हें जीता न छोड़ेगा।"

सुभागी—"उन्हें न मालूम होने पायेगा। मैंने इसका उपाय सोच लिया है।"

यह कहकर सुभागी चली गई। सूरदास को और तर्क-वितर्क करने का मौका न मिला। बड़े असमंजस में पड़ा-“ये रुपये लूँ या क्या करूँ? यह थैली मेरी है या नहीं? अगर भैरो ने इसे खर्च कर दिया होता, तो? क्या चोर के घर चोरी करना पाप नहीं? क्या मैं अपने रुपये के बदले उसके रुपये ले सकता हूँ? सुभागी मुझ पर कितनी दया करती है। वह इसीलिए मुझे ताने दिया करती थी कि यह भेद न खुलने पाये।"

वह इसी उधेड़बुन में पड़ा हुआ था कि एकाएक "चोर-चोर!” का शोर सुनाई दिया। पहली ही नींद थी। लोग गाफिल सो रहे थे। फिर आवाज आई।-"चोर-चोर!"

भैरो की आवाज थी। सूरदास समझ गया, सुभागी ने यह प्रपंच रचा है। अपने द्वार पर पड़ा रहा। इतने में बजरंगी की आवाज सुनाई दी-"किधर गया, किधर?" यह कहकर वह लाठी लिये अँधेरे में एक तरफ दौड़ा। नायकराम भी घर से निकले और किधर-किधर करते हुए दौड़े। रास्ते में बजरंगी से मुठभेड़ हो गई। दोनों ने एक दूसरे को चोर समझा। दोनों ने वार किया और दोनों चोट खाकर गिर पड़े। जरा देर में बहुत-से आदमी जमा हो गये। ठाकुरदीन ने पूछा-"क्या-क्या ले गया? अच्छी तरह देख लेना, कहीं छत में न चिमटा हुआ हो। चोर दीवार से ऐसा चिमट जाते हैं कि दिखाई नहीं देते।"

सुभागी—"हाय, मैं तो लुट गई। अभी तो बैठी-बैठी अम्माँ का पाँव दबा रही थी। इतने में न जाने मुआ कहाँ से आ पहुँचा।"

भैरो—(चिराग से देखकर) "सारी जमा-जथा लुट गई। हाय राम!"

सुभागी—"हाय, मैंने उसकी परछाई देखी, तो समझी यही होंगे। जब उसने संदूक पर हाथ बढ़ाया, तो समझी यही होंगे।"

ठाकुरदीन—"खपरैल पर चढ़कर आया होगा। मेरे यहाँ जो चोरी हुई थी, उसमें भी चोर सब खपरैल पर चढ़कर आये थे।" [ २५४ ]
इतने में बजरंगी आया। सिर से रुधिर बह रहा था, बोला-"मैंने उसे भागते देखा। लाठी चलाई। उसने भी वार किया। मैं तो चक्कर खाकर गिर पड़ा; पर उस पर भी ऐसा हाथ पड़ा है कि सिर खुल गया होगा।"

सहसा नायकराम हाय-हाय करते आये और जमीन पर गिर पड़े। सारी देह खून से तर थी।

ठाकुरदीन-“पण्डाजी, क्या तुमसे भी उसका सामना हो गया क्या?”

नायकराम की निगाह बजरंगी की ओर गई। बजरंगो ने नायकराम की ओर देखा। नायकराम ने दिल में कहा-पानी का दूध बनाकर बेचते हो; अब यह ढंग निकाला है। बजरंगी ने दिल में कहा-जात्रियों को लूटते हो, अब मुहल्लेवालों ही पर हाथ साफ करने लगे।

नायकराम-"हाँ भई, यहीं गली में तो मिला। बड़ा भारी जवान था।"

ठाकुरदीन-"तभी तो अकेले दो आदमियों को घायल कर गया। मेरे घर में जो चोर पैठे थे, वे सब देव मालूम होते थे। ऐसे डील-डौल के तो आदमी हो नहीं देखे। मालूम होता है, तुम्हारे ऊपर उसका भरपूर हाथ पड़ा।”

नायकराम-"हाथ मेरा भी भरपूर पड़ा है। मैंने उसे गिरते देखा। सिर जरूर फट गया होगा। जब तक पक-पक, निकल गया।"

बजरंगी-"हाथ तो मेरा भी ऐसा पड़ा है कि बच्चा को छठी का दूध याद आ गया होगा। चारों खाने चित गिरा था।"

ठाकुरदीन-"किसी जाने हुए आदमी का काम है। घर के भेदिये बिना कभी चोरी नहीं होतो। मेरे यहाँ सबों ने मेरी छोटी लड़की को मिठाई देकर नहीं घर का सारा भेद पूछ लिया था?"

बजरंगी-"थाने में जरूर रपट करना।”

भैरो-"रसट ही करके थोड़े ही रह जाऊँगा। बचा से चक्की न पिसवाऊँ, तो कहना। चाहे बिक जाऊँ, पर उन्हें भी पीस डालूँगा। मुझे सब मालूम है।"

ठाकुरदीन-"माल-का-माल ले गया, दो आदमियों को चुटैल कर गया। इसी से मैं चोरों के नगीच नहीं गया था। दूर ही से लेना-लेना करता रहा। जान सलामत रहे, तो माल फिर आ जाता है।"

भैरो को बजरंगो पर शुभा न था, न नायकराम पर; उसे जगधर पर शुभा था। शुभा ही नहीं, पूरा विश्वास था। जगधर के सिवा किसी को न मालूम था कि रुपये कहाँ रखे हुए हैं। जगधर लठैत भी अच्छा था। वह पड़ोसी होकर भी घटनास्थल पर सबसे पीछे पहुँचा था। ये सब कारण उसके संदेह को पुष्ट करते थे।

यहाँ से लोग चले, तो रास्ते में बातें होने लगी। ठाकुरदीन ने कहा-"कुछ अपनी कमाई के रुपये तो थे नहीं, वही सूरदास के रुपये थे।"

नायकराम--"पराया माल अपने घर आकर अपना हो जाता है।" [ २५५ ]ठाकुरदीन—“पाप का डंड जरूर भोगना पड़ता है, चाहे जल्दी हो, चाहे देर।"

बजरंगी—"तुम्हारे चोरों को कुछ डंड न मिला।”

ठाकुरदीन—"मुझे कौन किसी देवता का इष्ट था। सूरदास को इष्ट है, उसकी एक कौड़ी भी किसी को हजम नहीं हो सकती, चाहे कितना ही चूरन खाये। मैं तो बद-बदकर कहता हूँ, अभी उसके घर की तलासी ली जाय, तो सारा माल बरामद हो जाय। दूसरे दिन मुँह-अँधेरे भैरो ने कोतवाली में इत्तिला की। दोपहर तक दारोगाजी तहकीकात करने आ पहुँचे। जगधर की खानातलाशी हुई, कुछ न निकला। भैरो ने समझा, इसने माल कहीं छिपा दिया। उस दिन से भैरो के सिर एक भूत-सा सवार हो गया। वह सवेरे ही दारोगाजी के घर पहुँच जाता, दिन-भर उनकी सेवा-टहल किया करता, चिलम भरता, पैर दबाता, घोड़े के लिए घास छील लाता, थाने के चौकीदारों की खुशामद करता, अपनी दूकान पर बैठा हुआ सारे दिन इसी चोरी की चर्चा किया करता-"क्या कहूँ, मुझे कभी ऐसी नींद न आती थी, उस दिन न जाने कैसे सो गया। मगर बँधवा न दूँ, तो नाम नहीं। दारोगाजी ताक में हैं। उसमें सब रुपये ही नहीं हैं, असर-फियाँ भी हैं। जहाँ बिकेंगी, बेचनेवाला तुरन्त पकड़ जायगा।"

शनैः-शनैः भैरो को मुहल्ले-भर पर संदेह होने लगा। और, जलते तो लोग उससे पहले ही थे, अब सारा मुहल्ला उसका दुश्मन हो गया। यहाँ तक कि अंत में वह अपने घरवालों ही पर अपना क्रोध उतारने लगा। सुभागी पर फिर मार पड़ने लगो-"तूने ही मुझे चौपट किया, तू इतनी बेखबर न सोती, तो चोर कैसे घर में घुस आता। मैं तो दिन-भर दौरी-दूकान करता हूँ, थककर सो गया। तू घर में पड़े-पड़े क्या किया करती है? अब जहाँ से बने, मेरे रुपये ला, नहीं तो जीता न छोड़ूँगा।" अब तक उसने अपनी माँ का हमेशा अदब किया था, पर अब उसकी भी ले-दोमचाता-"तू कहा करती है, मुझे रात को नींद ही नहीं आती, रात-भर जागती रहती हूँ। उस दिन तुझे कैसे नींद आ गई?” सारांश यह कि उसके दिल में किसी की इज्जत, किसी का विश्वास, किसी का स्नेह न रहा। धन के साथ सद्भाव भी उसके दिल से निकल गये। जगधर को देखकर तो उसकी आँखों में खून उतर आता था। उसे बार-बार छेड़ता कि यह गरम पड़े, तो खबर लूँ; पर जगधर उससे बचता रहता था। वह खुली चोटें करने की अपेक्षा छिपे वार करने में अधिक कुशल था।

एक दिन संध्या-समय जगधर ताहिरअली के पास आकर खड़ा हो गया। ताहिर--अली ने पूछा-"कैसे चले जी।?"

जगधर—"आपसे एक बात कहने आया हूँ। आबकारी के दारोगा अभी मुझसे मिले थे। पूछते थे-भैरो गोदाम पर दूकान रखता है कि नहीं? मैंने कहा-साहब, मुझे नहीं मालूम। तब चले गये, पर आजकल में वह इसकी तहकीकात करने जरूर आयेंगे। मैंने सोचा, कहीं आपकी भी सिकायत न कर दें, इसलिए दौड़ा आया।"

ताहिरअली ने दूसरे ही दिन भैरो को वहाँ से भगा दिया। [ २५६ ]इसके कई दिन बाद एक दिन रात के समय सूरदास बैठा भोजन बना रहा था कि जगधर ने आकर कहा—"क्यों सूरे, तुम्हारी अमानत तो तुम्हें मिल गई न?"

सूरदास ने अज्ञात भाव से कहा—"कैसी अमानत?”

जगधर—"वही रुपये, जो तुम्हारी झोपड़ी से उठ गये थे।”

सूरदास-मेरे पास रुपये कहाँ थे?"

जगधर—"अब मुझसे न उड़ो, रत्ती-रत्ती बात जानता हूँ, और खुस हूँ कि किसो तरह तुम्हारी चीज उस पापी के चंगुल से निकल आई। सुभागी अपनी बात की पक्की औरत है।"

सूरदास—"जगधर, मुझे इस झमेले में न घसीटो, गरीब आदमी हूँ। भैरो के कान में जरा भी भनक पड़ गई, तो मेरी जान तो पीछे लेगा, पहले सुभागी का गला घोट देगा।"

जगधर—"मैं उससे कहने थोड़े ही जाता हूँ; पर बात हुई मेरे मन की। बचा ने इतने दिनों तक हलवाई की दुकान पर खूब दादे का फातिहा पढ़ा, धरती पर पाँव ही न रखता था, अब होश ठिकाने आ जायेंगे।"

"सूरदास—"तुम नाहक मेरी जान के पीछे पड़े हो।"

जगधर—“एक बार खिलखिलाकर हँस दो, तो मैं चला जाऊँ। अपनी गई हुई चीज पाकर लोग फूले नहीं समाते। मैं तुम्हारी जगह होता, तो नाचता-कूदता, गाता-बजाता, थोड़ी देर के लिए पागल हो जाता। इतना हँसता, इतना हँसता कि पेट में बावगोला पड़ जाता; और तुम सोंठ बने बैठे हो, ले, हँसो तो।"

सूरदास—"इस बखत हँसी नहीं आती।”

जगधर--"हँसी क्यों न आयेगी, मैं तो हँसा दूँगा।"

यह कहकर उसने सूरदास को गुदगुदाना शुरू किया। सूरदास विनोदशील आदमी था। ठट्टे मारने लगा। ईर्ष्यामय परिहास का विचित्र दृश्य था। दोनों रंगशाला के नटों की भाँति हँस रहे थे और यह खबर न थी कि इस हँसी का परिणाम क्या होगा। शामत को मारी सुभागो इसी वक्त बनिये को दूकान से जिंस लिये आ रही थी। सूरदास के घर से अट्टहास की आकाशभेदो ध्वनि सुनी, तो चकराई। अंधे कुए में पानी कैसा? आकर द्वार पर खड़ा हो गई और सूरदास से बोली- आज क्या मिल गया है सूरदास, जो फूले नहीं समाते?"

सूरदास ने हँसी रोककर कहा—"मेरी थैली मिल गई। चोर के घर में छिछोर पैठा।"

सुभागी—"तो सब माल अकेले हजम कर जाओगे?"

सूरदास—"नहीं, तुझे भी एक कंठो ला दूँगा, ठाकुरजो का भजन करना।"

सुभागो—"अपनी कंठो घर रखो, मुझे एक सोने का कंठा बनवा देना।"

सूरदास-"तब तो तू धरती पर पाँव ही न रखेगो!" [ २५७ ]जगधर—"इसे चाहे कंठा बनवाना या न बनवाना, इसकी बुढ़िया को एक नथ जरूर बनवा देना। पोपले मुँह पर नथ खूब खिलेगी, जैसे कोई बँदरिया नथ पहने हो।”

इस पर तीनों ने ठट्ठा मारा। संयोग से भैरो भी उसी वक्त थाने से चला आ रहा था। ठट्ठे की आवाज सुनी, तो झोपड़ी के अंदर झाँका, ये आज कैसे गुलछरें उड़ रहे हैं। यह तिगड्डम देखा, तो आँखों में खून उतर आया, जैसे किसी ने कलेजे पर गरम लोहा रख दिया हो। क्रोध से उन्मत्त हो उठा। कठोर-से-कठोर, अश्लील-से-अश्लील दुर्वचन कहे, जैसे कोई सूरमा अपनी जान बचाने के लिए अपने शस्त्रां का घातक-से-घातक प्रयोग करे-"तू कुलटा है, मेरे दुसमनों के साथ हँसती है, फाहसा कहीं की, टके-टके पर अपनी आबरू बेचती है। खबरदार, जो आज से मेरे घर में कदम रखा, खून चूस लूँगा। अगर अपनी कुशल चाहती है, तो इस अंधे से कह दे, फिर मुझे अपनी सूरत न दिखाये; नहीं तो इसको और तेरी गरदन एक हो गँड़ास से काहूँगा। मैं तो इधर-उधर मारा-मारा फिरूँ, और यह कल मुँही यारों के साथ नोक-झोंक करे! पापी अंधे को मौत भी नहीं आती कि मुहल्ला साफ हो जाता, न जाने इसके करम में क्या-क्या दुख भोगना लिखा है। सायद जेहल में चकी पीसकर मरेगा।"

यह कहता हुआ वह चला गया। सुभागी के काटो तो बदन में खून नहीं। मालूम हुआ, सिर पर बिजली गिर पड़ी। जगवर दिल में खुश हो रहा था, जैसे कोई शिकारी हरिन को तड़पते देखकर खुश हो। कैसा बौखला रहा है! लेकिन सूरदास? आह! उसकी वही दशा थी, जो किसी सती की अपना सतोत्व खो देने के पश्चात् होतो है। तीनों थोड़ी देर तक स्तंभित खड़े रहे। अंत में जगधर ने कहा-"सुभागी, अब तू कहाँ जायगी?"

सुभागी ने उसकी ओर विषाक्त नेत्रों से देखकर कहा-"अपने घर जाऊँगी! और कहाँ?"

जगधर-"बिगड़ा हुआ है, प्रान लेकर छोड़ेगा।"

सुभागी-"चाहे मारे, चाहे जिलाये, घर तो मेरा वही है।"

जगधर-“कहीं और क्यों नहीं पड़ रहतो, गुस्सा उतर जाय, तो चली जाना।"

सुभागी-"तुम्हारे घर चलती हूँ, रहने दोगे?"

जगधर—“मेरे घर! मुझसे तो वह यों हो जलता है, फिर तो खून ही कर डालेगा।"

सुभागो-"तुम्हें अपनी जान इतनी प्यारी है, तो दूसरा कौन उससे बैर मोल लेगा?"

यह कहकर सुभागी तुरंत अपने घर को ओर चली गई। सूरदास ने हाँ नहीं कुछ न कहा। उसके चले जाने के बाद जगवर बोला-"सूरे, तुम आज मेरे घर चलकर सो रहो। मुझे डर लग रहा है कि भैरो रात को कोई उपद्रव न मचाये। बदमाश आदमो है, उसका कौन ठिकाना, मार-पोट करने लगे।" [ २५८ ]सूरदास-"भैरो को जितना नादान समझते हो, उतना वह नहीं है। तुमसे कुछ न बोलेगा; हाँ, सुभागी को जी-भर मारेगा।"

जगधर-"नशे में उसे अपनी सुध-बुध नहीं रहती।"

सूरदास-"मैं कहता हूँ, तुमसे कुछ न बोलेगा। तुमसे अपने दिल की कोई बात नहीं छिपाई है, तुमसे लड़ाई करने की उसे हिम्मत न पड़ेगी।"

जगधर का भय शांत तो न हुआ; पर सूरदास की ओर से निराश होकर चला गया। सूरदास सारी रात जागता रहा। इतने बड़े लांछन के बाद उसे अब यहाँ रहना लजाजनक जान पड़ता था। अब मुँह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाने के सिवा उसे और उपाय न सूझता था-"मैंने तो कभी किसी की बुराई नहीं की, भगवान मुझे क्यों यह डंड दे रहे हैं? यह किन पापों का प्रायश्चित्त करना पड़ रहा है? तीरथ-यात्रा से चाहे यह पाप उतर जाय। कल कहीं चल देना चाहिए। पहले भी भैरौ ने मुझ पर यही पाप लगाया था। लेकिन तब सारे मुहल्ले के लोग मुझे मानते थे, उसकी यह बात हसी में उड़ गई। उलटे लोगों ने उसी को डाँटा। अवकी तो सारा मुहल्ला मेरा दुसमन है, लोग सहज ही में बिसवास कर लेंगे, मुँह में कालिख लग जायगी। नहीं, अब यहाँ से भाग जाने ही में कुसल है। देवतों की सरन लूँ, वह अब मेरी रच्छा कर सकते हैं। पर बेचारी सुभागी का क्या हाल होगा? भैरो अबकी उसे जरूर छोड़ देगा। इधर मैं भी चला जाऊँगा, तो बेचारी कैसे रहेगी? उसके नैहर में भी तो कोई नहीं है, जवान औरत है, मिहनत-मजूरी कर नहीं सकती। न जाने कैसी पड़े, कैसी न पड़े। चल-कर एक बार भैरो से अकेले में सारी बातें साफ-साफ कह दूँ। भैरो से मेरी कभी सफाई से बातचीत नहीं हुई। उसके मन में गाँठ पड़ी हुई है। मन में मैल रहने हो से उसे मेरी ओर से ऐसा भरम होता है। जब तक उसका मन साफ न हो जाय, मेरा यहाँ से जाना उचित नहीं। लोग कहेंगे, काम किया था, तभी तो डरकर भागा, न करता, तो डरता क्यों? ये रुपये भी उसे फेर दूँ। मगर जो उसने पूछा कि ये रुपये कहाँ मिले, तो? सुभागी का नाम न बताऊँगा, कह दूँगा, मुझे झोपड़ी में रखे हुए मिले। इतना ना छिपाये बिना सुभागी की जान न बचेगी। लेकिन परदा रखने से सफाई कैसे होगी? छिपाने का काम नहीं है। सब कुछ आदि से अंत तक सच-सच कह दूँगा। तभी उसका मन साफ होगा।"

इस विचार से उसे बड़ी शांति मिली, जैसे किसी कवि को उलझी हुई समस्या की पूर्ति से होती है।

वह तड़के ही उठा और जाकर भैरो के दरवाजे पर आवाज दी। भैरो सोया हुआ था। सुभागी बैठी रो रही थी। भैरो ने उसके घर पहुँचते हो उसकी यथाविधि ताड़ना की थी। सुभागी ने सूरदास की आवाज पहचानी । चौंकी कि यह इतने तड़के कैसे आ गया! कहीं दोनों में लड़ाई न हो जाय। सूरदास कितना बलिष्ठ है, यह बात उससे छिपी न थी। डरी कि "सूरदास रात की बातों का बदला लेने न आया हो। यों तो बड़ा,
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सहनसील है, पर आदमी ही है, क्रोध आ गया होगा। झूठा इलजाम सुनकर क्रोध आता ही है। कहीं गुस्से में आकर इन्हें मार न बैठे। पकड़ पायेगा, तो प्रान ही लेकर छोड़ेगा।" सुभागी भैरो की मार खाती थी, घर से निकाली जाती थी, लेकिन यह मजाल न थी कि कोई बाहरी आदमी भैरो को कुछ कहकर निकल जाय। उसका मुँह नोच लेती। उसने भैरो को जगाया नहीं, द्वार खोलकर पूछा-"क्या है सूरे, क्या कहते हो?"

सूरदास के मन में बड़ी प्रबल उत्कंठा हुई कि इससे पूछू, रात तुझ पर क्या बीती; लेकिन जब्त कर गया-मुझे इससे वास्ता? उसकी स्त्री है। चाहे मारे, चाहे दुलारे। मैं कौन होता हूँ पूछनेवाला बोला-“भैरो क्या अभी सोते हैं? जरा जगा दे, उनसे कुछ बातें करनी हैं।"

सुभागी-"कौन बात है, मैं भी सुनूँ।"

सूरदास--"ऐसी ही एक बात है, जरा जगा तो दे।”

सुभागी-"इस बखत जाओ, फिर कभी आकर कह देना।"

सूरदास-"दूसरा कौन बखत आयेगा। मैं सड़क पर जा बौठूँगा कि नहीं। देर न लगेगी।"

सुभागी-“और कभी तो इतने तड़के न आते थे, आज ऐसी कौन-सी बात है?"

सूरदास ने चिढ़कर कहा-"उसी से कहूँगा, तुझसे कहने की बात नहीं है।" सुभागी को पूरा विश्वास हो गया कि यह इस समय आपे में नहीं है। जरूर मार पीट करेगा। बोली-“मुझे मारा-पीटा थोड़े ही था; बस वहीं जो कुछ कहा-सुना, वही कह-सुनकर रह गये।"

सूरदास-"चल, तेरे चिल्लाने की आवाज मैंने अपने कानों सुनी।"

सुभागी-"मारने को धमकाता था; बस, मैं जोर से चिल्लाने लगी।"

सूरदास-"न मारा होगा। मारता भी, तो मुझे क्या, तू उसकी घरवाली है, जो चाहे, करे, तू जाकर उसे भेज दे। मुझे एक बात कहनी है।" जब अब भी सुभागी न गई, तो सूरदास ने भैरो का नाम लेकर जोर-जोर से पुकारना शुरू किया। कई हाँकों के बाद भैरो की आवाज सुनाई दी-"कौन है, बैठो, आता हूँ।"

सुभागी यह सुनते ही भीतर गई और बोली-“जाते हो, तो एक डंडा लेते जाओ, सूरदास है, कहीं लड़ने न आया हो।"

भैरो—"चल बैठ, लड़ाई करने आया है! मुझसे तिरिया-चरित्तर मत खेल।"

सुभागी—“मुझे उसकी त्योरियाँ बदली हुई मालूम होती हैं, इसी से कहती हूँ।"

भैरो—“यह क्यों नहीं कहती कि तू उसे चढ़ाकर लाई है। वह तो इतना कीना नहीं रखता। उसके मन में कभो मैल नहीं रहता।"

यह कह भैरो ने अपनी लाठी उठाई और बाहर आया। अंधा शेर भी हो, तो उसका क्या भय १ एक बच्चा भी उसे मार गिरायेगा।

१७ [ २६० ]सूरदास ने भैरो से कहा-"यहाँ और कोई तो नहीं है? मुझे तुमसे एक भेद की बात कहनी है।"

भैरो-"कोई नहीं है, कहो, क्या बात कहते हो?"

सूरदास-"तुम्हारे चोर का पता मिल गया।"

भैरो-"सच, जवानी कसम?"

सूरदास-"हाँ, सच कहता हूँ। वह मेरे पास आकर तुम्हारे रुपये रख गया। और तो कोई चीज नहीं गई थी?"

भैरो-"मुझे जलाने आये हो, अभी मन नहीं भरा?"

सूरदास-"नहीं, भगवान् से कहता हूँ, तुम्हारी थैली मेरे घर में ज्यों-की-त्यों पड़ी मिली।"

भैरो-"बड़ा पागल था, फिर चोरी काहे को की थी?"

सूरदास-"हाँ, पागल ही था और क्या।"

भैरो-“कहाँ है, जरा देखू तो।"

सूरदास ने थैली कमर से निकालकर भैरो को दिखाई। भैरो ने लपककर थैली ले ली। ज्यों-की-त्यों बंद थी।

सूरदास-“गिन लो, पूरे हैं कि नहीं।"

भैरो-“हैं, पूरे हैं, सच बताओ, किसने चुराया था?"

भैरो को रुपये मिलने की उतनी खुशी न थी, जितनी चोर का नाम जानने की उत्सुकता। वह यह देखना चाहता था कि मैंने जिस पर शक किया था, वही है कि कोई और।

सूरदास-"नाम जानकर क्या करोगे? तुम्हें अपने माल से मतलब है कि चोर के नाम से?"

भैरो-"नहीं, तुम्हें कसम है, बता दो, है इसी मुहल्ले का न?"

सूरदास-"हाँ, है तो मुहल्ले ही का; पर नाम न बताऊँगा।"

भैरो-“जवानी की कसम खाता हूँ, उससे कुछ न कहूँगा।"

सूरदास-“मैं उसको वचन दे चुका हूँ कि नाम न बताऊँगा। नाम बता दूँँ, और तुम अभी दंगा करने लगो, तब?"

भैरो-"विसवास मानो, मैं किसी से न बोलूँँगा। जो कसम कहो, खा जाऊँ। अगर जबान खोलूँ, तो समझ लेना इसके असल में फरक है। बात और बाप एक है। अब और कौन कसम लेना चाहते हो?"

सूरदास-"अगर फिर गये, तो यहीं तुम्हारे द्वार पर सिर पटककर जान दे दूँँगा।"

भैरो-"अपनी जान क्यों दे दोगे, मेरी जान ले लेना; चूँ न करूँगा।"

सूरदास-“मेरे घर में एक बार चोरी हुई थी, तुम्हें याद है न! चोर को ऐसा सुभा हुआ होगा कि तुमने मेरे रुपये लिये हैं। इसी से उसने तुम्हारे यहाँ चोरी की,
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और मुझे रुपये लाकर दे दिये। बस, उसने मेरी गरीबी पर दया की, और कुछ नहीं। उससे मेरा और कोई नाता नहीं है।"

भैरो-"अच्छा, यह सब तो सुन चुका, नाम तो बताओ।"

सूरदास-"देखो, तुमने कसम खाई है।"

भैरो-"हाँ भाई, कसम से मुकरता थोड़ा ही हूँ।"

सूरदास-"तुम्हारी घरवाली और मेरी बहन सुभागी।"

इतना सुनना था कि भैरो जैसे पागल हो गया। घर में दौड़ा हुआ गया और माँ से बोला-"अम्माँ, इसी डाइन ने मेरे रुपये चुराये थे। सूरदास अपने मुँह से कह रहा है। इस तरह मेरा घर मूसकर यह चुडैल अपने धींगड़ों का घर भरती है। उस पर मुझसे उड़ती थी। देख तो, तेरी क्या गत बनाता हूँ। बता, सूरदास झूठ कहता है कि सच?"

सुभागी ने सिर झुकाकर कहा-"सूरदास झूठ बोलते हैं।"

उसके मुँह से बात पूरी न निकलने पाई थी कि भैरो ने लकड़ी खींचकर मारी। वार खाली गया। इससे भैरो का क्रोध और भी बढ़ा। वह सुभागी के पीछे दौड़ा। सुभागी ने एक कोठरी में घुसकर भीतर से द्वार बंद कर लिया। भैरो ने द्वार पीटना शुरू किया। सारे मुहल्ले में हुल्लड़ मच गया, भैरो सुभागी को मारे डालता है। लोग दौड़ ‘पड़े। ठाकुरदीन ने भीतर जाकर पूछा-"क्या है भैरो, क्यों किवाड़ तोड़े डालते हो? भले आदमी, कोई घर के आदमी पर इतना गुस्सा करता है!" भैरो-“कैसा घर का आदमी जी! ऐसे घर के आदमी का सिर काट लेना चाहिए, जो दूसरों से हँसे। आखिर मैं काना हूँ, कतरा हूँ, लूला हूँ, लँगड़ा हूँ, मुझमें क्या ऐब है, जो यह दूसरों से हँसती है? मैं इसकी नाक काटकर तभी छोड़ेगा। मेरे घर जो चोरी हुई थी, वह इसी चुडैल की करतूत थी। इसी ने रुपये चुराकर सूरदास को दिये थे।"

ठाकुरदीन-"सूरदास को!"

भैरो—"हाँ-हाँ, सूरदास को। बाहर तो खड़ा है, पूछते क्यों नहीं। उसने जब देखा कि अब चोरी न पचेगी, तो लाकर सब रुपये मुझे दे गया है।"

बजरंगी—"अच्छा, तो रुपये सुभागी ने चुराये थे!"

लोगों ने भैरो को ठंडा किया और बाहर खींच लाये। यहाँ सूरदास पर टिप्पणियाँ होने लगों। किसी की हिम्मत न पड़ती थी कि साफ-साफ कहे। सब-के-सब डर रहे थे कि कहीं मेम साहब से शिकायत न कर दे। पर अन्योक्तियों द्वारा सभी अपने मनोविचार प्रकट कर रहे थे। सूरदास को आज मालूम हुआ कि पहले कोई मुझसे डरता न था, पर दिल में सब इज्जत करते थे; अब सब-के-सब मुझसे डरते हैं, पर मेरी सच्चो इज्जत किसी के दिल में नहीं है। उसे इतनी ग्लानि हो रही थी कि आकाश से वज्र गिरे और मैं यहीं जल-भुन जाऊँ।

ठाकुरदीन में धीरे से कहा—"सूरे तो कभी ऐसा न था। आज से नहीं, लड़कपन से देखते हैं।" [ २६२ ]नायकराम—"पहले नहीं था, अब हो गया है। अब तो किसी को कुछ समझता ही नहीं।"

ठाकुरदीन—"प्रभुता पाकर सभी को मद हो जाता है, पर सूरे में तो मुझे कोई ऐसी बात नहीं दिखाई देती।"

नायकराम—"छिपा रुस्तम है! बजरंगी, मुझे तुम्हारे ऊपर सक था।"

बजरंगी—(हँसकर) “पण्डाजी, भगवान से कहता हूँ, मुझे तुम्हारे ऊपर सक था।"

भैरो—"और मुझसे जो सच पूछो, तो जगधर पर सक था।"

सूरदास सिर झुकाये चारों ओर के ताने और लताड़ें सुन रहा था। पछता रहा था——"मैंने ऐसे कमीने आदमी से यह बात बताई ही क्यों। मैंने तो समझा था, साफ-साफ कह देने से इसका दिल साफ हो जायगा। उसका यह फल मिला! मेरे मुँह में तो कालिख लग ही गई, उस बेचारी का न जाने क्या हाल होगा। भगवान अब कहाँ गये, क्या कथा-पुरानों ही में अपने सेवकों को उबारने आते थे, अब क्यों नहीं आकास से कोई दूत आकर कहता कि यह अंधा बेकसूर है।"

जब भैरो के द्वार पर यह अभिनय होते हुए आध घंटे से अधिक हो गया, तो सूरदास के धैर्य का प्याला छलक पड़ा। अब मौन बने रहना उसके विचार में कायरता थी, नीचता थी। एक सती पर इतना कलंक थोपा जा रहा है और मैं चुपचाप खड़ा सुनता हूँ। यह महापाप है। वह तनकर खड़ा हो गया, और फटी हुई आँखें फाड़कर बोला-यारो, क्यों बिपत के मारे हुए दुखियों पर यह कीचड़ फेक रहे हो, ये छुरियाँ चला रहे हो? कुछ तो भगवान से डरो। क्या संसार में कहीं इंसाफ नहीं रहा? मैंने तो भलमनसी की कि भैरो के रुपये उसे लौटा दिये। उसका मुझे यह फल मिल रहा है! सुभागी ने क्यों यह काम किया और क्यों मुझे रुपये दिये, यह मैं न बताऊँगा, लेकिन भगवान मेरी इससे भी ज्यादा दुर्गत करें, अगर मैंने सुभागी को अपनी छोटी बहन के सिवा कभी कुछ और समझा हो। मेरा कसूर इतना ही है कि वह रात को मेरी झोपड़ी में आई थी। उस बखत जगधर वहाँ बैठा था। उससे पूछो कि हम लोगों में कौन-सी बातें हो रही थीं। अब इस मुहल्ले में मुझ-जैसे अंधे-अपाहिज आदमी का निबाह नहीं हो सकता। जाता हूँ; पर इतना कहे जाता हूँ कि सुभागो पर जो कलक लगायेगा, उसका भला न होगा। वह सती है, सती को पाप लगाकर कोई सुख की नींद नहीं सो सकता। मेरा कौन कोई रोनेवाला बैठा हुआ है; जिसके द्वार पर खड़ा हो जाऊँगा, वह चुटकी-भर आटा दे देगा। अब यहाँ से दाना-पानी उठता है। पर एक दिन आवेगा, जब तुम लोगों को सब बातें मालूम हो जायेंगी, और तब तुम जानोगे कि अंधा निरपराध था।"

यह कहकर सूरदास अपनी झोपड़ी की तरफ चला गया।