रंगभूमि
प्रेमचंद

सरस्वती प्रेस, पृष्ठ १४ से – २५ तक

 

[२]

सूरदास लाठी टेकता हुआ धीरे-धीरे घर चला। रास्ते में चलते-चलते सोचने लगा- "यह है बड़े आदमियों की स्वार्थपरता! पहले कैसे हेकड़ी दिखाते थे, मुझे कुत्ते से भी नीचा समझा; लेकिन ज्यों ही मालूम हुआ कि जमीन मेरी है, कैसी लल्लो-चप्पो करने लगे। इन्हें मैं अपनी जमीन दिये देता हूँ!५) दिखाते थे, मानों मैंने रुपये देखे ही नहीं। पाँच तो क्या, पाँच सौ भी दें, तो भी जमीन न दूँगा। मुहल्लेवालों को कौन मुँह दिखाऊँगा। इनके कारखाने के लिए बेचारी गउएँ मारी-मारी फिरें! ईसाइयों को तनिक भी दया-धर्म का विचार नहीं होता। बस, सबको ईसाई ही बनाते फिरते हैं। कुछ नहीं देना था, तो पहले ही दुत्कार देते। मील-भर दौड़ाकर कह दिया, चल हट। इन सबों में मालूम होता है, उसी लड़की का स्वभाव अच्छा है। उसी में दया धर्म है। बुढ़िया तो पूरी करकसा है, सीधे मुँह बात ही नहीं करती। इतना घमंड! जैसे यही विक्टोरिया हैं। राम-राम, थक गया। अभी तक दम फूल रहा है। ऐसा आज तक कभी न हुआ था कि इतना दौड़ाकर किसी ने कोरा जवाब दे दिया हो। भगवान् की यही इच्छा होगी। मन, इतने दुखी न हो। माँगना तुम्हारा काम है, देना दूसरों का काम है। अपना धन है, कोई नहीं देता, तो तुम्हें बुरा क्यों लगता है? लोगों से कह दूँ कि साहब जमीन माँगते थे? नहीं, सब घबरा जायँगे। मैंने जवाब तो दे ही दिया, अब दूसरों से कहने का परोजन ही क्या?”

यह सोचता हुआ वह अपने द्वार पर आया। बहुत ही सामान्य झोपड़ी थी। द्वार पर एक नीम का वृक्ष था। किवाड़ों की जगह बाँस की टहनियों की एक टट्टी लगी हुई थी। टट्टी हटाई। कमर से पैसों की छोटी-सी पोटली निकाली, जो आज दिन-भर की कमाई थी। तब झोपड़ी की छान से टटोलकर एक थैली निकाली, जो उसके जीवन का सर्वस्व थी। उसमें पैसों की पोटली बहुत धीरे से रखी कि किसी के कानों में भनक भी न पड़े। फिर थैली को छान में छिपाकर वह पड़ोस के एक घर से आग माँग लाया। पेड़ों के नीचे से कुछ सूखी टहनियाँ जमा कर रखी थीं, उनसे चूल्हा जलाया। झोपड़ी में हल्का-सा अस्थिर प्रकाश हुआ। कैसी विडंबना थी! कितना नैराश्य-पूर्ण दारिद्रय था! न खाट, न बिस्तर; न बरतन, न भाँड़े। एक कोने में एक मिट्टी का घड़ा था, जिसकी आयु का कुछ अनुमान उस पर जमी हुई काई से हो सकता था। चूल्हे के पास हाँडी थी। एक पुराना, चलनी की भाँति छिद्रों से भरा हुआ तवा, एक छोटी-सी कठौत और एक लोटा। बस, यही उस घर की सारी संपत्ति थी। मानव-लालसाओं का कितना संक्षिप्त स्वरूप! सूरदास ने आज जितना नाज पाया था, वह ज्यों-का-त्यों हाँडी में डाल दिया। कुछ जौ थे, कुछ गेहूँ, कुछ मटर, कुछ चने, थोड़ी-सी जुआर और मुट्ठी-भर चावल। ऊपर से थोड़ा सा नमक डाल दिया। किसकी रसना ने ऐसी खिचड़ी का मज़ा

चखा है? उसमें संतोष की मिठास थी, जिससे मीठी संसार में कोई वस्तु नहीं। हाँडी को चूल्हे पर चढ़ाकर वह घर से निकला, द्वार पर टट्टी लगाई, और सड़क पर जाकर एक बनिये की दूकान से थोड़ा-सा आटा और एक पैसे का गुड़ लाया। आटे को कठौती में गूँधा और तब आध घंटे तक चूल्हे के सामने खिचड़ी का मधुर आलाप सुनता रहा। उस धुँधले प्रकाश में उसका दुर्बल शरीर और उसका जीर्ण वस्त्र मनुष्य के जीवन-प्रेम का उपहास कर रहा था।

हाँडी में कई बार उबाल आये, कई बार आग बुझी। बार-बार चूल्हा फूँकते-फूँकते सूरदास की आँखों से पानी बहने लगता था। आँखें चाहे देख न सकें, पर रो सकती हैं। यहाँ तक कि वह 'षड्रस' युक्त अवलेह तैयार हुआ। उसने उसे उतारकर नीचे रखा। तब तवा चढ़ाया और हाथों से रोटियाँ बनाकर सेकने लगा। कितना ठीक अंदाजा था। रोटियाँ सब समान थीं-न छोटी, न बड़ी; न सेवड़ी, न जली हुई। तवे से उतार-उतारकर रोटियों को चूल्हे में खिलाता था, और ज़मीन पर रखता जाता था। जब रोटियाँ बन गई तो उसने द्वार पर खड़े होकर ज़ोर से पुकारा-"मिट्ठू, मिट्ठू, आओ बेटा, खाना तैयार है।” किंतु जब मिट्ठू न आया, तो उसने फिर द्वार पर टट्टी लगाई, और नायकराम के बरामदे में जाकर 'मिट्ठू-मिट्ठू' पुकारने लगा। मिट्ठू वहीं पड़ा सो रहा था, आवाज़ सुनकर चौंका। बारह-तेरह वर्ग का सुंदर हँसमुख बालक था। भरा हुआ शरीर, सुडौल हाथ-पाँव। यह सूरदास के भाई का लड़का था। माँ-बाप दोनों प्लेग में मर चुके थे। तीन साल से उसके पालन-पोषण का भार सूरदास ही पर था। वह इस बालक को प्राणों से भी प्यारा समझता था। आप चाहे फाके करे, पर मिट्ठू को तीन बार अवश्य खिलाता था। आप मटर चबाकर रह जाता था, पर उसे शकर और रोटी, कभी घी और नमक के साथ रोटियाँ, खिलाता था। अगर कोई भिक्षा में मिठाई या गुड़ दे देता, तो उसे बड़े यत्न से अंगोछे के कोने में बाँध लेता, और मिट्ठू को ही देता। सबसे कहता, यह कमाई बुढ़ापे के लिए कर रहा हूँ। अभी तो हाथ-पैर चलते हैं, माँग- खाता हूँ; जब उठ-बैठ न सकूँगा, तो लोटा-भर पानी कौन देगा। मिट्ठू को सोते पाकर गोद में उठा लिया, और झोपड़ी के द्वार पर उतारा। तब द्वार खोला, लड़के का मुँह धुलवाया, और उसके सामने गुड़ और रोटियाँ रख दी। मिट्ठू ने रोटियाँ देखी, तो ठुनककर बोला-"मैं रोटी और गुड़ न खाऊँगा।" यह कहकर उठ खड़ा हुआ।

सूरदास—"बेटा, बहुत अच्छा गुड़ है, खाओ तो। देखो, कैसी नरम-नरम रोटियाँ हैं। गेहूँ की हैं।"

मिट्ठू—"मैं न खाऊँगा।"

सूरदास—"तो क्या खाओगे बेटा? इतनी रात गये और क्या मिटेगा?"

मिट्ठू—"मैं तो दूध-रोटी खाऊँगा।"

सूरदास—"बेटा, इस जून खा लो। सबेरे मैं दूध ला दूँगा।"

मिट्ठू रोगे लगा। सूरदास उसे बहलाकर हार गया, तो अपने भाग्य को रोता हुआ

उठा, लकड़ी सँभाली, और टटोलता हुआ बजरंगी अहीर के घर आया, जो उसके झोपड़े के पास ही था। बजरंगी खाट पर बैठा नारियल पी रहा था। उसकी स्त्री जमुनी खाना पकाती थी। आँगन में तीन भैंसें और चार-पाँच गायें चरनी पर बँधी हुई चारा खा रही थीं। बजरंगी ने कहा--"कैसे चले सूरे? आज बग्घी पर कौन लोग बैठे तुमसे बातें कर रहे थे।"

सूरदास-"वही गोदाम के साहब थे।”

बजरंगी-"तुम तो बहुत दूर तक गाड़ी के पीछे दौड़े, कुछ हाथ लगा?"

सूरदास-"पत्थर हाथ लगा। ईसाइयों में भी कहीं दया-धरम होता है। मेरी वही जमीन लेने को कहते थे।"

बजरंगी-"गोदाम के पीछेवाली न?"

सूरदास-"हाँ वही, बहुत लालच देते रहे, पर मैंने हामी नहीं भरी।"

सूरदास ने सोचा था, अभी किसी से यह बात न कहूँगा, पर इस समय दूध लेने के लिए कुछ खुशामद ज़रूरी थी। अपना त्याग दिखाकर सुखरू बनना चाहता था।

बजरंगी--"तुम हामी भी भरते, तो यहाँ कौन उसे छोड़े देता था। तीन-चार गाँवों के बीच में वही तो इतनी जमीन है। वह निकल जायगी, तो हमारी गाय और भैंसे कहाँ जायँगी?"

जमुनी-“मैं तो इन्हीं के द्वार पर सबों को बाँध आती।"

सूरदास--"मेरी जान निकल जाय, तब तो बेचूँ ही नहीं, हज़ार-पाँच सौ की क्या गिनती! भौजी, एक घूट दूध हो तो दे दे। मिठुआ खाने बैठा है। रोटी और गुड़ छूता ही नहीं, बस, दूध-दूध की रट लगाये हुए है। जो चीज़ घर में नहीं होती, उसी के लिए जिद करता। दूध न पायेगा तो बिना खाये ही सो रहेगा।"

बजरंगी-"ले जाओ, दूध का कौन अकाल है। अभी दुहा है। घीसू की माँ, एक कुल्हिया दूध दे दे सूरे को।

जमुनी-"जरा बैठ जाओ सूरे, हाथ खाली हो, तो दूँ।"

बजरंगी-"वहाँ मिठुआ खाने बैठा है, तैं कहती है, हाथ खाली हो तो दूँ। तुझसे न उठा जाय, तो मैं आऊँ।"

जमुनी जानती थी कि यह बुद्धू दास उठेंगे, तो पाव के बदले आध सेर दे डालेंगे। चटपट रसोई से निकल आई। एक कुल्हिया में आधा पानी लिया, ऊपर से दूध डालकर सूरदास के पास आई, और विषाक्त हितैषिता से बोली-“यह लो, इस लौंडे की जीभ तुमने ऐसी बिगाड़ दी है कि बिना दूध के कौर ही नहीं उठाता। बाप जीता था, तो भर-पेट चने भी न मिलते थे, अब दूध के बिना खाने ही नहीं उठता।"

सूरदास-"क्या करूँ भाभी, रोने लगता है, तो तरस आता है।"

जमुनी-"अभी इस तरह पाल-पोस रहे हो कि एक दिन काम आयेगा, मगर देख

लेना, जो चुल्लू-भर पानी को भी पूछे। मेरी बात गाँठ बाँध लो। पराया लड़का कभी अपना नहीं होता। हाथ-पाँव हुए, और तुम्हें दुत्कारकर अलग हो जायगा। तुम अपने लिए साँप पाल रहे हो।"

सूरदास-"जो कुछ मेरा धरम, किये देता हूँ। आदमी होगा, तो कहाँ तक जस न मानेगा। हाँ, अपनी तकदीर ही खोटी हुई, तो कोई क्या करेगा। अपने ही लड़के क्या बड़े होकर मुँह नहीं फेर लेते?"

जमुनी-"क्यों नहीं कह देते, मेरी भैंसे चरा लाया करे। जवान तो हुआ, क्या जनम-भर नन्हाँ ही बना रहेगा? घीसू ही का जोड़ी-पारी तो है। मेरी बात गाँठ बाँध लो। अभी से किसी काम में न लगाया, तो खिलाड़ी हो जायगा। फिर किसी काम में उसका जी न लगेगा। सारी उमर तुम्हारे ही सिर फुलौरियाँ खाता रहेगा।"

सूरदास ने इसका कुछ जवाब न दिया। दूध की कुल्हिया ली, और लाठी से टटोलता हुआ घर चला।मिट्ठू जमीन पर सो रहा था। उसे फिर उठाया, और दूध में रोटियाँ भिगोकर उसे अपने हाथ से खिलाने लगा। मिट्ठू नींद से गिरा पड़ता था, पर कौर सामने आते ही उसका मुँह आप-ही-आप खुल जाता। जब वह सारी रोटियाँ खा चुका, तो सूरदास ने उसे चटाई पर लिटा दिया, और हाँडी से अपनी पँचमेल खिचड़ी निकालकर खाई। पेट न भरा, तो हाँडी धोकर पी गया। तब फिर मिट्ठू को गोद में उठाकर बाहर आया, द्वार पर टट्टी लगाई और मंदिर की ओर चला।

यह मंदिर ठाकुरजी का था, बस्ती के दूसरे सिरे पर। ऊँची कुरसी थी। मंदिर के चारों तरफ तीन-चार गज का चौड़ा चबूतरा था। यही मुहल्ले की चौपाल थी। सारे दिन दस-पाँच आदमी यहाँ लेटे या बैठे रहते थे। एक पका कुआँ भी था, जिस पर जगधर नाम का एक खोंचेवाला बैठा करता था। तेल की मिठाइयाँ, मूँगफली, रामदाने के लड्ड आदि रखता था। राहगीर आते, उससे मिठाइयाँ लेते, पानी निकाल-कर-पीते, और अपनी राह चले जाते। मन्दिर के पुजारी का नाम दयागिरि था, जो इसी मंदिर के समीप एक कुटिया में रहते थे। सगुण ईश्वर के उपासक थे, भजन-कीर्तन को मुक्ति का मार्ग समझते थे, और निर्गुण को ढोंग कहते थे। शहर के पुराने रईस कुँअर भरतसिंह के यहाँ से मासिक वृत्ति बँधी हुई थी। इसी से ठाकुरजी का भोग लगता था। बस्ती से भी कुछ-न-कुछ मिल ही जाता था। निःस्पृह आदमी था, लोभ छू भी नहीं गया था, सन्तोष और धीरज का पुतला था। सारे दिन भगवत्-भजन में मग्न रहता था। मंदिर में एक छोटी-सी संगत थी। आठ-नौ बजे रात को, दिन-भर के काम-धन्धे से निवृत्त होकर, कुछ भक्तजन जमा हो जाते थे, और घंटे-दो-घंटे भजन गाकर चले जाते थे। ठाकुरदीन ढोल बजाने में निपुण था, बजरंगी करताल बजाता था, जगधर को तबूरे में कमाल था, नायकराम और दयागिरि सारंगी बजाते थे। मजीरे-वालों की संख्या घटती-बढ़ती रहती थी। जो और कुछ न कर सकता, वह मजीरा ही बजाता था। सूरदास इस संगत का प्राण था। वह ढोल, मजीरे, करताल, सारंगी, तँबूरा

सभी में समान रूप से अभ्यस्त था, और गाने में तो आस-पास के कई मुहल्लों में उसका जबाब न था। ठुमरी-गजल से उसे रुचि न थी। कबीर, मीरा, दादू, कमाल, पलटू आदि सन्तों के भजन गाता था। उस समय उसका नेत्र-हीन मुख अति आनन्द से प्रफुल्लित हो जाता था। गाते-गाते मस्त हो जाता, तन-बदन की सुधि न रहती। सारी चिन्ताएँ, सारे क्लेश भक्ति सागर में विलीन हो जाते थे।

सूरदास मिट्ठू को लिये हुए पहुँचा, तो संगत बैठ चुकी थी। सभासद आ गये थे, केवल सभापति की कमी थी। उसे देखते ही नायकराम ने कहा-"तुमने बड़ी देर कर दी, आध घण्टे से तुम्हारी राह देख रहे हैं। यह लौंडा बेतरह तुम्हारे गले पड़ा है। "क्यों नहीं इसे हमारे ही घर से कुछ माँगकर खिला दिया करते।”

दयागिरि--"यहाँ चला आया करे, तो ठाकुरजी के प्रसाद ही से पेट भर जाय।"

सूरदास-"तुम्हीं लोगों का दिया खाता है, या और किसी का? मैं तो बनाने-भर को हूँ।"

जगधर-"लड़कों को इतना सिर चढ़ाना अच्छा नहीं। गोद में लादे फिरते हो, जैसे नन्हाँ-सा बालक हो। मेरा विद्याधर इससे दो साल छोटा है। मैं उसे कभी गोद में लेकर नहीं फिरता।"

सूरदास-"बिना माँ-बाप के लड़के हठी हो जाते हैं। हाँ, क्या होगा?"

दयागिरि-"पहले रामायण की एक चौपाई हो जाय।”

लोगों ने अपने-अपने साज सँभाले। सुर मिला, और आध घंटे तक रामायण हुई।

नायकराम-“वाह सूरदास, वाह! अब तुम्हारे ही दम का जलूसा है।"

बजरंगी--"मेरी तो कोई दोनों आँखें ले ले, और यह हुनर मुझे दे दे, तो मैं खुशी से बदल लूँ।"

जगधर—"अभी भैरो नहीं आया, उसके बिना रंग नहीं जमता।"

बजरंगी—"ताड़ी बेचता होगा। पैसे का लोभ बुरा होता है। घर में एक मेहरिया है, और एक बुढ़िया माँ। मुदा रात-दिन हाय-हाय पड़ी रहती है। काम करने को तो दिन है ही, भला रात को तो भगवान् का भजन हो जाय।"

जगधर—"सूरे का दम उखड़ जाता है, उसका दम नहीं उखड़ता।"

बजरंगी—"तुम अपना खोंचा बेचो, तुम्हें क्या मालूम, दम किसे कहते हैं। सूरदास जितना दम बाँधते हैं, उतना दूसरा बाँधे, तो कलेजा फट जाय। हँसी-खेल नहीं है।"

जगधर—"अच्छा भैया, सूरदास के बराबर दुनिया में कोई दम नहीं बाँध सकता। अब खुश हुए?"

सूरदास—"भैया, इसमें झगड़ा काहे का? मैं कब कहता हूँ कि मुझे गाना आता है। तुम लोगों का हुक्म पाकर, जैसा भला-बुरा बनता है, सुना देता हूँ।"

इतने में भैरो भी आकर बैठ गया। बजरंगी ने व्यंग्य करके कहा—“क्या अब कोई ताड़ी पीनेवाला नहीं था? इतनी जल्दी क्यों दूकान बढ़ा दी?" ठाकुरदीन-"मालूम नहीं, हाथ-पैर भी धोये हैं या वहाँ से सीधे ठाकुरजी के मंदिर में चले आये। अब सफाई तो कहीं रह ही नहीं गई।"

भैरो-"क्या मेरी देह में ताड़ी पुती हुई है?"

ठाकुरदीन-"भगवान् के दरबार में इस तरह न आना चाहिए। जात चाहे ऊँची हो या नीची; पर सफाई चाहिए जरूर।”

भैरो-“तुम यहाँ नित्य नहाकर आते हो?”

ठाकुरदीन-"पान बेचना कोई नीच काम नहीं है।"

भैरो-"जैसे पान, वैसे ताड़ी। पान बेचना कोई ऊँचा काम नहीं है।"

ठाकुरदीन-"पान भगवान् के भोग के साथ रखा जाता है। बड़े-बड़े जनेऊधारी मेरे हाथ का पान खाते हैं। तुम्हारे हाथ का तो कोई पानी नहीं पीता।"

नायकराम-"ठाकुरदीन, यह बात तो तुमने बड़ी खरी कही। सच तो है, पासी से कोई घड़ा तक नहीं छुआता।"

भैरो-"हमारी दूकान पर एक दिन आकर बैठ जाओ, तो दिखा दूँ, कैसे-कैसे धर्मात्मा और तिलकधारी आते हैं। जोगी-जती लोगों को भी किसी ने पान खाते देखा है। ताड़ी, गाँजा, चरस पीते चाहे जब देख लो। एक-से-एक महात्मा आकर खुशामद करते हैं।"

नायकराम-"ठाकुरदीन, अब इसका जवाब दो। भैरो पढ़ा-लिखा होता, तो वकीलों के कान काटता।"

भैरो-"मैं तो बात सच्ची कहता हूँ, जैसे ताड़ी वैसे पान; बल्कि परात की ताड़ी को तो लोग दवा की तरह पीते हैं।"

जगधर-“यारो, दो-एक भजन होने दो। मान क्यों नहीं जाते ठाकुरदीन? तुम्ही हारे, भैरो जीता, चलो छुट्टी हुई।"

नायकराम—"वाह, हार क्यों मान लें। सासतरार्थ है कि दिल्लगी। हाँ ठाकुरदीन, कोई जवाब सोच निकालो।"

ठाकुरदीन—"मेरी दूकान पर खड़े हो जाओ, जो खुश हो जाता है। केवड़े और गुलाब की सुगन्ध उड़ती है। इसकी दूकान पर कोई खड़ा हो जाय, तो बदबू के मारे नाक फटने लगती है। खड़ा नहीं रहा जाता। परनाले में भी इतनी दुर्गन्ध नहीं होती।"

बजरंगी—“मुझे तो घंटे-भर के लिये राज मिल जाता, तो सबसे पहले शहर-भर की ताड़ी की दूकानों में आग लगवा देता।"

नायकराम—"अब बताओ भैरो, इसका जवाब दो। दुर्गन्ध तो सचमुच उड़ती है, है कोई जवाब?”

भैरो—"जवाब एक नहीं, सैकड़ों हैं। पान सड़ जाता है, तो कोई मिट्टी के मोल भी नहीं पूछता। यहाँ ताड़ी जितनी ही सड़ती है, उतना ही उसका मोल बढ़ता है। सिरका बन जाता है, तो रुपये बोतल बिकता है, और बडे-बड़े जनेऊधारी लोग खाते हैं।" नायकराम-"क्या बात कही है कि जी खुश हो गया। मेरा अख्तियार होता, तो इसी घड़ी तुमको वकालत की सनद दे देता। ठाकुरदीन, अब हार मान जाओ, भैरो से पेश न पा सकोगे।"

जगधर-"भैरो, तुम चुप क्यों नहीं हो जाते? पंडाजी को तो जानते हो, दूसरों को लड़ाकर तमाशा देखना इनका काम है। इतना कह देने में कौन-सी मरजादा घटी जाती है कि बाबा, तुम जीते और मैं हारा।"

भैरो--"क्यों इतना कह दूँ? बात करने में किसी से कम हूँ क्या?"

जगधर---"तो ठाकुरदीन, तुम्हीं चुप हो जाओ।"

ठाकुरदीन-"हाँ जी, चुप न हो जाऊँगा, तो क्या करूँगा। यहाँ आये थे कि कुछ भजन-कीर्तन होगा, सो व्यर्थ का झगड़ा करने लगे। पंडाजी को क्या, इन्हें तो बेहाथ-पैर हिलाये अमिर्तियाँ और लड्डु खाने को मिलते हैं, इन्हें इसी तरह की दिल्लगी सूझती है। यहाँ तो पहर रात से उठकर फिर चक्की में जुतना है।"

जगधर-"मेरी तो अबकी भगवान् से भेंट होगी, तो कहूँगा, किसी पंडे के घर जनम देना।”

नायकराम-"भैया, मुझ पर हाथ न उठाओ, दुबला-पतला आदमी हूँ। मैं तो चाहता हूँ, जल-पान के लिये तुम्हारे ही खोंचे से मिठाइयाँ लिया करूँ, मगर उस पर इतनी मक्खियाँ उड़ती हैं, ऊपर इतना मैल जमा रहता है कि खाने को जी नहीं चाहता।"

जगधर-(चिढ़कर)"तुम्हारे न लेने से मेरी मिठाइयाँ सड़ तो नहीं जातीं कि भूखों मरता हूँ? दिन-भर में रुपया-बीस आने पैसे बना ही लेता हूँ। जिस संत-मेत में रसगुल्ले मिल जायँ, वह मेरी मिठाइयाँ क्यों लेगा?"

ठाकुरदीन-"पंडाजी की आमदनी का कोई ठिकाना है, जितना रोज मिल जाय, थोड़ा ही है; ऊपर से भोजन घाते में। कोई आँख का अन्धा, गाँठ का पूरा फँस गया; तो हाथी-घोड़े, जगह-जमीन, सब दे गया। ऐसा भागवान् और कौन होगा?"

दयागिरि-“कहीं नहीं ठाकुरदीन, अपनी मेहनत की कमाई सबसे अच्छी। पंडों को यात्रियों के पीछे दौड़ते नहीं देखा है?"

नायकराम-"बाबा, अगर कोई कमाई पसीने की है, तो वह हमारी कमाई है। हमारी कमाई का हाल बजरंगी से पूछो।"

बजरंगी-"औरों की कमाई पसीने की होती होगी, तुम्हारी कमाई तो खून की है। और लोग पसीना बहाते हैं, तुम खून बहाते हो। एक-एक जजमान के पीछे लोह की नदी बह जाती है। जो लोग खोचा सामने रखकर दिन-भर मक्खी मारा करते हैं। वे क्या जानें, तुम्हारी कमाई कैसी होती है? एक दिन मोरचा थामना पड़े, तो भागने को जगह न मिले।”

जगधर-"चलो भी, आये हो मुँहदेखी कहने, सेर-भर दूध के ढाई सेर बनाते

हो, उस पर भगवान् के भगत बनते हो।”

बजरंगी-“अगर कोई माई का लाल मेरे दूध में एक बूंद पानी निकाल दे, तो उसकी टाँग की राह निकल जाऊँ। यहाँ दूध में पानी मिलाना गऊ-हत्या समझते हैं। तुम्हारी तरह नहीं कि तेल की मिठाई को घी की कहकर बेचें, और भोले-भाले बच्चों को ठगें।"

जगधर-“अच्छा भाई, तुम जीते, मैं हारा। तुम सच्चे, तुम्हारा दूध सच्चा। बस, हम खराब, हमारी मिठाइयाँ खराब। चलो छुट्टी हुई।”

बजरंगी-“मेरे मिजाज को तुम नहीं जानते, चेता देता हूँ। पद कहकर कोई सौ जूते मार ले, लेकिन झूठी बात सुनकर मेरे बदन में आग लग जाती है।"

भैरो-"बजरंगी, बहुत बढ़कर बातें न करो, अपने मुँह मियाँ मिट्ठू बनने से कुछ नहीं होता। बस, मुँह न खुलवाओ, मैंने भी तुम्हारे यहाँ का दूध पिया है। उससे तो मेरी ताड़ी ही अच्छी।"

ठाकुरदीन-"भाई, मुँह से जो चाहे ईमानदार बन ले; पर अब दूध सपना हो गया। सारा दूध जल जाता है, मलाई का नाम नहीं। दूध जब मिलता था, तब मिलता था, एक आँच में अंगुल-भर मोटी मलाई पड़ जाती थी।"

दयागिरि-“बच्चा, अभी अच्छा-बुरा कुछ मिल तो जाता है। वे दिन आ रहे हैं कि दूध आँखों में आँजने को भी न मिलेगा।"

भैरो-"हाल तो यह है कि घरवाली सेर के तीन सेर बनाती है, उस पर दावा यह कि हम सच्चा माल बेचते हैं। सच्चा माल बेचो, तो दिवाला निकल जाय। यह ठाट एक दिन न चले।"

बजरंगी-“पसीने की कमाई खानेवालों का दिवाला नहीं निकलता; दिवाला उनका निकलता है, जो दूसरों की कमाई खा-खाकर मोटे पड़ते हैं। भाग को सराहो कि सहर में हो; किसी गाँव में होते, तो मुँह में मक्खियाँ आती-जातीं। मैं तो उन सबों को पापी समझता हूँ, जो औने-पौने करके, इधर का सौदा उधर बेचकर, अपना पेट पालते हैं। सच्ची कमाई उन्हीं की है, जो छाती फाड़कर धरती से धन निकालते हैं।”

बजरंगी ने बात तो कही, लेकिन लजित हुआ। इस लपेट में वहाँ के सभी आदमी आ जाते थे। वह भैरो, जगधर और ठाकुरदीन को लक्ष्य करना चाहता था, पर सूरदास, नायकराम, दयागिरि, सभी पापियों की श्रेणी में आ गये।

नायकराम—"तब तो भैया, तुम हमें भी ले बीते। एक पापी तो मैं ही हूँ कि सारे दिन मटरगस्त करता हूँ, और वह भोजन करता हूँ कि बड़ों-बड़ों को मयस्सर न हो।"

ठाकुरदीन—“दूसरा पापी मैं हूँ कि शौक की चीज बेचकर रोटियाँ कमाता हूँ। संसार में तमोली न रहें, तो किसका नुकसान होगा?"

जगधर—"तीसरा पापी मैं हूँ कि दिन-भर औन-पौन करता रहता हूँ। सेव और खुमें खाने को न मिले, तो कोई मर न जायगा।" भैरो-“तुमसे बड़ा पानी मैं हूँ कि सबको नसा खिलाकर अपना पेट पालता हूँ। सच पूछो, तो इससे बुरा कोई काम नहीं। आठों पहर नसेबाजों का साथ, उन्हीं की बातें सुनना, उन्हीं के बीच में रहना। यह भी कोई जिंदगी है!"

दयागिरि-"क्यों बजरंगी, साधू-संत तो सबसे बड़े पापी होंगे कि वे कुछ नहीं करते?"

बजरंगी-"नहीं बाबा, भगवान् के भजन से बढ़कर और कौन उद्यम होगा? राम-नाम की खेती सब कामों से बढ़कर है।"

नायकराम-"तो यहाँ अकेले बजरंगी पुन्यात्मा हैं, और सब-के-सब पापी हैं?"

बजरंगी-सच पूछो, तो सबसे बड़ा पापी मैं हूँ कि गउओं का पेट काटकर, उनके बछड़ों को भूखों मारकर, अपना पेट पालता हूँ।”

सूरदास-"भाई, खेती सबसे उत्तम है, बान उससे मद्धिम है; बस, इतना ही फरक है। बान को पाप क्यों कहते हो, और क्यों पापी बनते हो? हाँ, सेवा निरधिन है, और चाहो, तो उसे पाप कहो। अब तक तो तुम्हारे ऊपर भगवान् की दया है, अपना-अपना काम करते हो, मगर ऐसे बुरे दिन आ रहे हैं, जब तुम्हें सेवा और टहल करके पेट पालना पड़ेगा, जब तुम अपने नौकर नहीं, पराये के नौकर हो जाओगे, जब तुममें नीति-धरम का निसान भी न रहेगा।"

सूरदास ने ये बातें बड़े गंभीर भाव से कहीं, जैसे कोई ऋषि भविष्यवाणी कर रहा हो। सब लोग सन्नाटे में आ गये। ठाकुरदीन ने चिंतित होकर पूछा-"क्यों सूरे, कोई बिपत आनेवाली है क्या? मुझे तो तुम्हारी बातें सुनकर डर लग रहा है। कोई नई मुसीबत तो नहीं आ रही है?"

सूरदास-"हाँ, लच्छन तो दिखाई देते हैं, चमड़े के गोदाम बाला साहब यहाँ एक तमा का कारखाना खोलने जा रहा है। मेरो जमीन माँग रहा है। कारखाने का खुलना ही हमारे ऊपर बिपत का आना है।"

ठाकुरदीन-"तो जब यह जानते ही हो, तो क्यों अपनी जमीन देते हो?"

सूरदास-"मेरे देने पर थोड़े ही है भाई, मैं दूँ, तो भी जमीन निकल जायगी, न दूँ, तो भी निकल जायगी। रुपयेवाले सब कुछ कर सकते हैं।"

बजरंगी-"साहब रुपयेवाले होंगे, अपने घर के होंगे। हमारी जमोन क्या खाकर ले लेंगे? माथे गिर जायँगे, माथे! ठट्ठा नहीं है।"

अभी ये ही बातें हो रही थीं कि सैयद ताहिरअली आकर खड़े हो गये, और नायकराम से बोले-“पण्डाजी, मुझे आपसे कुछ कहना है, जरा इधर चले आइए।"

बजरंगी—“उसी जमीन के बारे में कुछ बातचीत करनी है न? वह जमीन न बिकेगी।"

ताहिर—"मैं तुमसे थोड़े ही पूछता हूँ। तुम उस जमीन के मालिक-मुख्तार नहीं हो।" बजरंगी—"कह तो दिया, वह जमीन न बिकेगी, मालिक-मुख्तार कोई हो।"

ताहिर—"आइए पण्डाजी, आइए, इन्हें बकने दीजिए।”

नायकराम—"आपको जो कुछ कहना हो, कहिए; ये सब लोग अपने ही हैं, किसी से परदा नहीं है। सुनेंगे, तो सब सुनेंगे, और जो बात तय होगी, सबकी सलाह से होगी। कहिए, क्या कहते हैं?"

ताहिर—"उसी जमीन के बारे में बातचीत करनी थी।"

नायकराम—"तो उस जमीन का मालिक तो आपके सामने बैठा हुआ है; जो कुछ कहना है, उसी से क्यों नहीं कहते? मुझे बीच में दलाली नहीं खानी है। जब सूरदास ने साहब के सामने इनकार कर दिया, तो फिर कौन-सी बात बाकी रह गई?"

बजरंगी—"इन्होंने सोचा होगा कि पण्डाजी को बीच में डालकर काम निकाल लेंगे। साहब से कह देना, यहाँ साहबी न चलेगी।"

ताहिर-"तुम अहीर हो न, तभी इतने गर्म हो रहे हो। अभी साहब को जानते नहीं हो, तभी बढ़-बढ़कर बातें कर रहे हो। जिस वक्त साहब जमीन लेने पर आ जायँगे, ले ही लेंगे, तुम्हारे रोके न रुकेंगे। जानते हो, शहर के हाकिमों से उनका कितना रब्तजन्त है? उनकी लड़की की मँगनी हाकिम-जिला से होनेवाली है। उनकी बात को कौन टाल सकता है? सीधे से, रजामंदी के साथ दे दोगे, तो अच्छे दाम पा जाओगे; शरारत करोगे, तो जमीन भी निकल जायगी, कौड़ी भी हाथ न लगेगी। रेलों के मालिक क्या जमीन अपने साथ लाये थे? हमारी ही जमीन तो ली है? क्या उसी कायदे से यह जमीन नहीं निकल सकती?"

बजरंगी—"तुम्हें भी कुछ तय-कराई मिलनेवाली होगी, तभी इतनी खैरखाही कर रहे हो।"

जगधर—"उनसे जो कुछ मिलनेवाला हो, वह हमीं से ले लीजिए, और उनसे कह दीजिए, जमीन न मिलेगी। आप लोग झाँसेबाज हैं, ऐसा झाँसा दीजिए कि साहब की अकिल गुम हो जाय।"

ताहिर-खैरख्वाही रुपये के लालच से नहीं है। अपने मालिक की आँख बचाकर एक कौड़ी लेना भी हराम समझता हूँ। खैरख्वाही इसलिए करता हूँ कि उनका नमक खाता हूँ।"

जगधर—"अच्छा साहब, भूल हुई, माफ कीजिए। मैंने तो संसार के चलन की बात कही थी।"

ताहिर—"तो सूरदास; मैं साहब से जाकर क्या कह दूँ?"

सूरदास—"बस, यही कह दीजिए कि जमीन न बिकेगी।”

ताहिर—"मैं फिर कहता हूँ, धोखा खाओगे। साहब जमीन लेकर ही छोड़ेंगे।"

सूरदास—"मेरे जीते-जी तो जमीन न मिलेगी। हाँ, मर जाऊँ, तो भले ही मिल जाए।" ताहिरअली चले गये, तो भैरो बोला—"दुनिया अपना ही फायदा देखती है। अपना कल्यान हो, दूसरे जियें या मरें। बजरंगी, तुम्हारी तो गायें चरती हैं, इसलिए तुम्हारी भलाई तो इसी में है कि जमीन बनी रहे। मेरी कौन गाय चरती है? कारखाना खुला, तो मेरी बिक्री चौगुनी हो जायगी। यह बात तुम्हारे ध्यान में क्यों नहीं आई? तुम सबकी तरफ से वकालत करनेवाले कौन हो? सूरे की जमीन है, वह बेचे या रखे, तुम कौन होते हो, बीच में कूदनेवाले?"

नायकराम—"हाँ बजरंगी, जब तुमसे कोई वास्ता-सरोकार नहीं, तो तुम कौन होते हो बीच में कूदनेवाले? बोलो, भैरो को जबाब दो।"

बजरंगी—"वास्ता-सरोकार कैसे नहीं? दस गाँवों और मुहल्लों के जानवर यहाँ चरने आते हैं। वे कहाँ जायँगे? साहब के घर कि भैरो के? इन्हें तो अपनी दूकान की हाय-हाय पड़ी हुई है। किसी के घर सेंद क्यों नहीं मारते? जल्दी से धनवान हो जाओगे।"

भैरो—"सेंद मारो तुम, यहाँ दूध में पानी नहीं मिलाते।”

दयागिरि—"भैरो, तुम सचमुच बड़े झगड़ालू हो। जब तुम्हें प्रिय बचन बोलना नहीं आता, तो चुप क्यों नहीं रहते? बहुत बातें करना बुद्धिमानी का लक्षण नहीं, मूर्खता का लक्षण है।"

भैरो—"ठाकुरजी के भोग के बहाने से रोज छाछ पा जाते हो न? बजरङ्गी की जय क्यों न मनाओगे?"

नायकराम—“पठ्ठा बात बेलाग कहता है कि एक बार सुनकर फिर किसी की जबान नहीं जुलती।"

ठाकुरदीन—"अब भजन-भाव हो चुका। ढोल-मजीरा उठाकर रख दो।"

दयागिरि—“तुम कल से यहाँ न आया करो, भैरो!”

भैरो—"क्यों न आया करें? मन्दिर तुम्हारा बनवाया नहीं है। मन्दिर भगवान् का है, तुम किसी को भगवान् के दरबार में आने से रोक दोगे?"

नायकराम—"लो बाबाजी, और लोगे, अभी पेट भरा कि नहीं?

"जगधर—"बाबाजी, तुम्हीं गम खा जाओ, इससे साधू-सन्तों की महिमा नहीं घटती। भैरो, साधू-सन्तों की बात का तुम्हें बुरा न मानना चाहिए।"

भैरो—"तुम खुशामद करो, क्योंकि खुशामद की रोटियाँ खाते हो। यहाँ किसी के दबैल नहीं हैं।"

बजरंगी—"ले अब चुप ही रहना— भैरो, बहुत हो चुका। छोटा मुँह, बड़ी बात।"

नायकराम—"तो भैरो को धमकाते क्या हो? क्या कोई भगोड़ा समझ लिया है? तुमने जब दंगल मारे थे, तब मारे थे, अब तुम वह नहीं हो। आजकल भैरो की दुहाई है।"

भैरो नायकराम के व्यंग्य-हास्य पर झल्लाया नहीं, हँस पड़ा। व्यंग्य में विष नहीं था, रस था। संखिया मरकर रस हो जाती है।
भैरो का हँसना था कि लोगों ने अपने-अपने साज सँभाले, और भजन होने लगा। सूरदास की सुरीली तान आकाश-मण्डल में यों नृत्य करती हुई मालूम होती थी, जैसे प्रकाश-ज्योति जल के अन्तस्तल में नृत्य करती है—

"झीनी-झीनी बीनी चदरिया।
काहे कै ताना, काहे कै भरनी, कौन तार से बीनी चदरिया?
इँगला-पिंगला ताना-भरनी, सुखमन तार से बीनी चदरिया।
आठ कँवल-दल-चरखा डोले, पाँच तत्त, गुन तीनी चदरिया;
साई को सियत मास दस लागै, ठोक-ठोक के बीनी चदरिया।
सो चादर सुर-नर-मुनि ओ, ओढिकै मैली कीनी चदरिया;
दास कबीर जतन से ओढ़ी ज्यों-की-त्यों धर दीनी चदरिया।"

बातों में रात अधिक जा चुकी थी। ग्यारह का घंटा सुनाई दिया। लोगों ने ढोल-मजीरे समेट दिये। सभा विसर्जित हुई। सूरदास ने मिट्ठू को फिर गोद में उठाया, और अपनी झोपड़ी में लाकर टाट पर सुला दिया। आप ज़मीन पर लेट रहा।