रंगभूमि/१७
[१७]
विनयसिंह छः महीने से कारागार में पड़े हुए हैं। न डाकुओं का कुछ पता मिलता है और न उन पर अभियोग चलाया जाता है। अधिकारियों को अब भी भ्रम है कि इन्हीं के इशारे से डाका पड़ा था। इसीलिए वे उन पर नाना प्रकार के अत्याचार किया करते हैं। जब इस नीति से काम नहीं चलता दिखाई देता, तो प्रलोभन से काम लेते हैं और फिर वही पुरानी नीति ग्रहण करने लगते हैं। विनयसिंह पहले अन्य कैदियों के राथ रखे गये थे, लेकिन जब उन्होंने अपराधियों को उनकी ओर बहुत आकृष्ट होते देखा, तो इस भय से कि कहीं जेल में उपद्रव न हो जाय, उन्हें सबसे अलग एक काल-कोठरी में बंद कर दिया। कोठरी बहुत तंग थी, एक भी खिड़की न थी, दोपहर को अँधेरा छाया रहता था, दुर्गन्ध इतनी कि नाक फटती थी। चौबीस घंटे में केवल एक बार द्वार खुलता, रक्षक भोजन रखकर फिर द्वार बंद कर देता। विनय को कष्ट सहने की बान पड़ गई थी, भूख-प्यास सह सकते थे, ओढ़न-बिछावन की उन्हें जरूरत न थी, इससे उन्हें कोई विशेष कष्ट न होता था; पर अंधकार और दुर्गन्ध उनके लिए बिलकुल नई सजा थी। भीतर उनका दम घुटने लगता था। निर्मल, स्वच्छ वायु में साँस लेने के लिए वह तड़प-तड़पकर रह जाते थे। ताजी हवा कितनी बहुमूल्य होती है, इसका अब उन्हें प्रत्यक्ष ज्ञान हो रहा था। किंतु दुर्व्यवहारों को सहते हुए भी वह दुःखी या भग्न-हृदय न होते थे। इन कठिन परीक्षाओं ही में उन्हें जाति का उद्धार दिखाई देता था। वह अपने मन में कहते थे-"यह कठिन व्रत निष्फल नहीं जा सकता। जब तक हम कठिनाइयाँ झेलना न सीखेंगे, जब तक हम भोग-विलास का परित्याग न करेंगे, हमसे देश का कुछ उपकार नहीं हो सकता।” यही विचार उन्हें धैर्य देता रहता था।
किंतु जब सोफिया की कलुषता की याद आ जाती, तो उनका सारा धैर्य, उत्साह और आत्मोत्सर्ग नैराश्य में विलीन हो जाता था। वह अपने को कितना ही समझाते कि सोफिया ने जो कुछ किया, विवश होकर किया होगा; पर इस युक्ति से उन्हें संतोष न होता था-"क्या सोफिया स्पष्ट नहीं कह सकती थी कि मैं विवाह नहीं करना चाहती? विवाह के विषय में माता-पिता की इच्छा हमारे यहाँ निश्चयात्मक है; लेकिन ईसाइयों में स्त्री की इच्छा ही प्रधान समझी जाती है। अगर सोफिया को क्लार्क से प्रेम न था, तो क्या वह उन्हें कोरा जवाब न दे सकती थी? यथार्थ में कोमल जाति का प्रेम-सूत्र भी कोमल होता है, जो जरा-से झटके से टूट जाता है। जब सोफिया-जैसी विचारशील, आन पर जान देनेवाली, सिद्धांत-प्रिय, उन्नत-हृदय युवती यों विचलित हो सकती है, तो दूसरी स्त्रियों से क्या आशा की जा सकती है। इस जाति पर विश्वास करना ही व्यर्थ है। सोफी ने मुझे सदा के लिए सचेत कर दिया, ऐसा पाठ हृदयंगम करा दिया, जो कभी न भूलेगा। जब सोफिया दगा कर सकती है, तो ऐसी कौन स्त्री
है, जिस पर विश्वास किया जा सके। आह! क्या जानता था कि इतना त्याग, इतनी सरलता, इतनी सदाकांक्षा भी अंत में स्वार्थ के सामने सिर झुका देगी। अब जीवन पर्यंत स्त्री की ओर आँख उठाकर भी न देखूँगा उससे यो दूर रहूँगा, जैसे काली नागिन से। उससे यों बचकर चलूँगा, जैसे काँटे से। किसी से घृणा करना सज्जनता और औचित्य के विरुद्ध है; मगर अब इस जाति से घुणा करूँगा।"
इस नैराश्य, शोक और चिंता में पड़े-पड़े कभी-कभी वह इतना व्यग्र हो जाते कि जी में आता-"चलकर उस वज्र-हृदया के सामने दीवार से सिर टकराकर प्राण दे दूँ, जिसमें उसे भी ग्लानि हो। मैं यहाँ अनिकुंड में जल रहा हूँ, हृदय में फफोले पड़े हुए हैं, वहाँ किसी को खबर भी नहीं, आमोद-प्रमोद का आनंद उठाया जा रहा है। उसकी आँखों के सम्मुख एड़ियाँ रगड़-रगड़कर प्राण देता, तो उसे भी अपनी कुटिलता और निर्दयता पर लज्जा आती। भगवन्, मुझे इन दुश्चिताओं के लिए क्षमा करना। मैं दुखी हूँ, वह भी मेरे सदृश नैराश्य की आग में जलती! क्लार्क उसके साथ उसी भाँति दगा करता, जैसे उसने मेरे साथ की है! अगर मेरी अहित-कामना में सत्य का कुछ भी अंश है और प्रेम-मार्ग से विमुख होने का कुछ भी दंड है, तो एक दिन अवश्य उसे भी शोक और व्यथा के आँसू बहाते देखूँगा। यह असंभव है कि खूने-नाहक रंग न लाये।"
लेकिन यह नैराश्य सर्वथा व्यथाकारक ही न था, उसमें आत्मपरिष्कार के अंकुर भी छिपे हुए थे। विनय के हृदय में फिर वह सद्भाव जाग्रत हो गया, जिसे प्रेम की कल्पनाओं ने निर्जीव बना डाला था। नैराश्य ने स्वार्थ का संहार कर दिया।
एक दिन विनयसिंह रात के समय लेटे सोच रहे थे कि न जाने मेरे साथियों पर क्या गुजरी, मेरी ही तरह वे भी तो विपत्ति में नहीं फँस गये, किसी की कुछ खबर ही नहीं कि सहसा उन्हें अपने सिरहाने की ओर एक धमाके की आवाज सुनाई दी। वह चौंक पड़े, और कान लगाकर सुनने लगे। मालूम हुआ की कुछ लोग दीवार खोद रहे हैं। दीवार पत्थर की थी; मगर बहुत पुरानी थी। पत्थरों के जोड़ों में लोनी लग गई थी। पत्थर की सिलें आसानी से अपनी जगह छोड़ती जाती थी। विनय को आश्चर्य हुआ-“ये कौन लोग हैं? अगर चोर हैं, तो जेल की दीवार तोड़ने से इन्हें क्या मिलेगा? शायद समझते हैं, जेल के दारोगा का यही मकान है।"वह इसी हैस-चैस में थे कि अंदर प्रकाश की एक झलक आई। मालूम हो गया कि चोरों ने अपना काम पूरा कर लिया। सेंद के सामने जाकर बोले— "तुम कौन हो? यह दीवार क्यों खोद रहे हो?"
बाहर से आवाज आई—"हम आपके पुराने सेवक हैं। हमारा नाम वीरपाल-सिंह है।"
विनय ने तिरस्कार के भाव से कहा—"क्या तुम्हारे लिए किसी खजाने की दीवारें नहीं हैं, जो जेल की दीवार खोद रहे हो? यहाँ से चले जाओ, नहीं तो मैं शोर मचा दूँगा।" वीरपाल—"महाराज, हमसे उस दिन बड़ा अपराध हुआ, क्षमा कीजिए। हमें न मालूम था कि केवल एक क्षण हमारे साथ रहने के कारण आपको यह कष्ट भोगना पड़ेगा, नहीं तो हम सरकारी खजाना न लूटते। हमको रात-दिन यही चिंता लगी हुई थी कि किसी भाँति आपके दर्शन करें और आपको इस संकट से निकालें। आइए, आपके लिए घोड़ा हाजिर है।"
विनय—"मैं अधर्मियों के हाथों अपनी रक्षा नहीं कराना चाहता। अगर तुम समझते हो कि मैं इतना बड़ा अपराध सिर पर रखे हुए जेल से भागकर अपनी जान बचाऊँगा, तो तुम धोखे में हो। मुझे अपनी जान इतनी प्यारी नहीं है।”
वीरपाल—"अपराधी तो हम हैं, आप तो सर्वथा निरपराध हैं, आपके ऊपर तो अधिकारियों ने यह घोर अन्याय किया है। ऐसी दशा में आपको यहाँ से निकल जाने में कुछ पसोपेश न करना चाहिए।"
विनय—"जब तक न्यायालय मुझे मुक्त न करे, मैं यहाँ से किसी तरह नहीं जा सकता।
वीरपाल—“यहाँ के न्यायालयों से न्याय की आशा रखना चिड़िया से दूध निकालना है। हम सब-के-सब इन्हीं अदालतों के मारे हुए हैं। मैंने कोई अपराध नहीं किया था, मैं अपने गाँव का मुखिया था; किंतु मेरी सारी जायदाद केवल इसलिए जब्त कर ली गई कि मैंने एक असहाय युवती को इलाकेदार के हाथों से बचाया था। उसके घर में वृद्धा माता के सिवा और कोई न था। हाल में विधवा हो गई थी। इलाकेदार की कुदृष्टि उस पर पड़ गई और वह युवती को उसके घर से निकाल ले जाने का प्रयास करने लगा। मुझे टोह मिल गई। रात को ज्यों ही इलाकेदार के आदमियों ने वृद्धा के घर में घुसना चाहा, मैं अपने कई मित्रों को साथ लेकर वहाँ जा पहुँचा और उन दुष्टों को मारकर घर से निकाल दिया। बस, इलाकेदार उसी दिन से मेरा जानी दुश्मन हो गया। मुझ पर चोरी का अभियोग लगाकर कैद करा दिया। अदालत अंधी थी, जैसा इलाकेदार ने कहा, वैसा न्यायाधीश ने किया। ऐसी अदालतों से आप व्यर्थ न्याय की आशा रखते हैं।"
विनय—"तुम लोग उस दिन मुझसे बातें करते-करते बंदूक की आवाज सुनकर ऐसे भागे कि मुझे तुम पर अब विश्वास ही नहीं आता।"
वीरपाल—"महाराज, कुछ न पूछिए, बंदूक की आवाज सुनते ही हमें उन्माद-सा हो गया। हमें जब रियासत से बदला लेने का कोई अवसर मिलता है, तो हम अपने को भूल जाते हैं। हमारे ऊपर कोई भूत सवार हो जाता है। रियासत ने हमारा सर्वनाश कर दिया है। हमारे पुरखों ने अपने रक्त से इस राज्य की बुनियाद डाली थी, आज यह राज्य हमारे रक्त का प्यासा हो रहा है। हम आपके पास से भागे, तो थोड़ी ही दूर पर अपने गोल के कई आदमियों को रियासत के सिपाहियों से लड़ते पाया। हम पहुँचते ही सरकारी आदमियों पर टूट पड़े, उनकी बंदूकें छीन ली, एक आदमी को मार गिराया और रुपयों की थैलियाँ घोड़ों पर लादकर भाग निकले। जब से सुना है कि आप हमारी सहायता
करने के संदेह में गिरफ्तार किये गये हैं, तब से इसी दौड़-धूप में हैं कि आपको यहाँ से निकाल ले जायँ। यह जगह आप-जैसे धर्मपरायण, निर्भीक और स्वाधीन पुरुषों के लिए उपयुक्त नहीं है। यहाँ उसी का निबाह है, जो पल्ले दर्जे का घाघ, कपटी, पाखंडी और दुरात्मा हो, अपना काम निकालने के लिए बुरे-से-बुरा काम करने से भी न हिचके।”
विनयसिंह ने बड़े गर्व से उत्तर दिया-"अगर तुम्हारी बातें अक्षरशः सत्य हो, तो भी मैं कोई ऐसा काम न करूँगा, जिससे रियासत को बदनामी हो। मुझे अपने भाइयों के साथ में विष का प्याला पीना मंजूर है; पर रोकर उनको संकट में डालना मंजूर नहीं। इस राज्य को हम लोगों ने सदैव गौरव की दृष्टि से देखा है, महाराजा साहब को आज भी हम उसी श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं। वह उन्हीं साँगा और प्रताप के वंशज हैं, जिन्होंने हिन्दू-जाति की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। हम महाराजा को अपना रक्षक, अपना हितैषी, क्षत्रिय-कुल-तिलक समझते हैं। उनके कर्मचारी सब हमारे भाई-बन्द हैं। फिर यहाँ की अदालत पर क्यों न विश्वास करें? वे हमारे साथ अन्याय भी करें, तो भी हम जबान न खोलेंगे। राज्य पर दोषारोपण करके हम अपने को उस महान् वस्तु के अयोग्य सिद्ध करते हैं, जो हमारे जीवन का लक्ष्य और इष्ट है।"
"धोखा खाइएगा।"
"इसकी कोई चिन्ता नहीं।"
"मेरे सिर से कलंक कैसे उतरेगा?"
"अपने सत्कार्यों से।"
वीरपाल समझ गया कि यह अपने सिद्धान्त से विचलित न होंगे। पाँचो आदर्मी घोड़ों पर सवार हो गये. और एक क्षण में हेमन्त के घने कुहिर ने उन्हें अपने परदे में छिपा लिया। घोड़ों की टाप की ध्वनि कुछ देर तक कानों में आती रही, फिर वह भी गायब हो गई।
अब विनय सोचने लगे-प्रातःकाल जब लोग यह सेंद देखेंगे, तो दिल में क्या खयाल करेंगे? उन्हें निश्चय हो जायगा कि मैं डाकुओं से मिला हुआ हूँ और गुप्त रीति से भागने की चेष्टा कर रहा हूँ। लेकिन नहीं, जब देखेंगे कि मैं भागने का अवसर पाकर भी न भागा, तो उनका दिल मेरी तरफ से साफ हो जायगा। यह सोचते हुए उन्होंने पत्थर के टुकड़े चुनकर सेंद को बन्द करना शुरू किया। उनके पास केवल एक हल्का-सा कम्बल था, और हेमन्त की तुषार-सिक्त वायु इस सूराख की राह से सन-सन आ रही थी। खुले मैदान में शायद उन्हें कभी इतनी ठण्ड न लगी थी। हवा सुई की भाँति रोम-रोम में चुभ रही थी। सेंद बन्द करने के बाद वह लेट गये।
प्रातःकाल जेलखाने में हलचल मच गई। नाजिम, इलाकेदार, सभी घटनास्थल पर पहुँच गये। तहकीकात होने लगी। विनयसिंह ने सम्पूर्ण वृत्तांत कह सुनाया! अधिकाकारियों को बड़ी चिन्ता हुई कि कहीं वे ही डाकू इन्हें निकाल न ले जाय। उनके हाथों
में हथकड़ियाँ और पैरों में बेड़ियाँ डाल दी गई। निश्चय हो गया कि इन पर आज ही अभियोग चलाया जाय। सशस्त्र पुलिस उन्हें अदालत की ओर ले चली। हजारों आदमियों की भीड़ साथ हो गई। सब लोग यही कह रहे थे-"हुक्काम ऐसे सज्जन, सहृदय और परोपकारी पुरुष पर अभियोग चलाते हैं, बुरा करते हैं। बेचारे ने न जाने किस बुरी साइत में यहाँ कदम रखे थे। हम तो अभागे हैं ही, अपने पिछले कर्मों का फल भोग रहे हैं; हमें अपने हाल पर छोड़ देते, व्यर्थ इस आग में कूदे।” कितने
ही लोग रो रहे थे। सबको निश्चय था कि न्यायाधीश इन्हें कड़ी सजा देगा। प्रतिक्षण दर्शकों की संख्या बढ़ती जाती थी और पुलिस को भय हो रहा था कि कहीं ये लोग बिगड़ न जायँ। सहसा एक मोटर आई और शोफर ने उतरकर पुलिस अफसर को एक पत्र दिया। सब लोग ध्यान से देख रहे थे कि देखें, अब क्या होता है। इतने में विनयसिंह मोटर पर सवार कराये गये और मोटर हवा हो गई। सब लोग ताकते रह गये।
जब मोटर कुछ दूर चली गई, तो विनय ने शोफर से पूछा- "मुझे कहाँ लिये जाते हो?"
शोफर ने कहा—"आपको दीवान साहब ने बुलाया है।"
विनय ने और कुछ न पूछा। उन्हें इस समय भय के बदले हर्ष हुआ कि दीवान से मिलने का यह अच्छा अवसर मिला। अब उनसे यहाँ की स्थिति पर बातें होंगी। सुना है, विद्वान् आदमी हैं। देखूँ, इम नीति का क्योंकर समर्थन करते हैं।
एकाएक सोफर बोला—“यह दीवान एक ही पाजी है। दया करना तो जानता ही नहीं। एक दिन बचा को इसी मोटर से ऐसा गिराऊँगा कि हड्डी-पसली का पता न लगेगा।"
विनय—"जरूर गिराओ, ऐसे अत्याचारियों की यही सजा है।"
शोफर ने कुतूहल-पूर्ण नेत्रों से विनय को देखा। उसे अपने कानों पर विश्वास न हुआ। विनय के मुँह से ऐसी बात सुनने की उसे आशा न थी। उसने सुना था कि वह देवोपम गुणों के आगार हैं, उनका हृदय पवित्र है। बोला-"आपकी भी यही इच्छा है?"
विनय—"क्या किया जाय, ऐसे आदमियों पर और किसी बात का तो असर ही नहीं होता।"
शोफर—"अब तक मुझे यही शंका होती थी कि लोग मुझे हत्यारा कहेंगे, लेकिन जब आप-जैसे देव-पुरुष की यह इच्छा है, तो मुझे क्या डर? बचा बहुत रात को घूमने निकला करते हैं। एक ठोकर में तो काम तमाम हो जायगा।"
विनय यह सुनकर ऐसा चौंके, मानों कोई भयंकर स्वप्न देखा हो। उन्हें ज्ञात हुआ कि मैंने एक द्वेषात्मक भाव का समर्थन करके कितना बड़ा अनर्थ किया। अब उनकी समझ में आया कि विशिष्ट पुरुषों को कितनी सावधानी से मुँह खोलना चाहिए, क्योंकि उनका एक-एक शब्द प्रेरणा-शक्ति से परिपूर्ण रहता है। वह मन में पछता रहे थे कि मेरे
मुँह से ऐसी बात निकली ही क्यों, और किसी भाँति कमान से निकले हुए तीर को फेर लाने का उपाय सोच रहे थे कि इतने में दीवान साहब का भवन आ गया। विशाल फाटक पर दो सशस्त्र सिपाही खड़े थे और फाटक से थोड़ी दूर पर पीतल की दो तोपें रखी हुई थीं। फाटक पर मोटर रुक गई और दोनों सिपाही विनयसिंह को अंदर ले चले। दीवान साहब दीवानखास में विराजमान थे। खबर पाते ही विनय को बुला लिया।
दीवान साहब का डील ऊँचा, शरीर सुगठित और वर्ण गौर था। अधेड़ हो जाने पर भी उनकी मुख-श्री किसी खिले हुए फूल के समान थी। तनी हुई मुँछे थीं, सिर पर रंग-बिरंगी उदयपुरी पगिया, देह पर एक चुस्त शिकारी कोट, नीचे उदयपुरी पाजामा, ऊपर एक भारी ओवरकोट। छाती पर कई तमगे और सम्मान-सूचक चिह्न शोभा दे रहे थे। उदयपुरी रिसाले के साथ योरपीय महासमर में सम्मिलित हुए थे और वहाँ कई कठिन अवसरों पर अपने असाधारण पुरुषार्थ से सेना-नायकों को चकित कर दिया। यह उसी सुकीर्ति का फल था कि वह इस पद पर नियुक्त हुए थे। सरदार नीलकंठसिंह नाम था। ऐसा तेजस्वी पुरुष विनय की निगाहों से कभी न गुजरा था।
दीवान साहब ने विनय को देखते ही मुस्किराकर उन्हें एक कुर्सी पर बैठने को संकेत किया और बोले—“ये आभूषण तो आपकी देह पर बहुत शोभा नहीं देते; किंतु जनता की दृष्टि में इनका जितना आदर है, उतना मेरे इन तमगों और पट्टियों का कदापि नहीं है। यह देखकर मुझे आप से डाह हो, तो कुछ अनुचित है?"
विनय ने समझा था, दीवान साहब जाते-ही-जाते गरज पड़ेंगे, लाल-पीली आँखें दिखायेंगे। वह उस बर्ताव के लिए तैयार थे। अब जो दीवान साहब की सहृदयता-पूर्ण बातें सुनीं, तो संकोच में पड़ गये। उस कठोर उत्तर के लिए यहाँ कोई स्थान न था, जिसे उन्होंने मन में सोच रखा था। बोले-“यह तो कोई ऐसी दुर्लभ वस्तु नहीं है, जिसके लिए आप को डाह करना पड़े।"
दीवान साहब—(हँसकर) "आपके लिए दुर्लभ नहीं है; पर मेरे लिए तो दुर्लभ है। मुझमें वह सत्साहस, सदुत्साह नहीं है, जिसके उपहार-स्वरूप ये सब चीजें मिलती हैं। मुझे आज मालूम हुआ कि आप कुँवर भरतसिंह के सुपुत्र हैं। उनसे मेरा पुराना परिचय है। अब वह शायद मुझे भूल गये हों। कुछ तो इस नाते से कि आप मेरे एक पुराने मित्र के बेटे हैं और कुछ इस नाते से कि आपने इस युवावस्था में विषय-वासनाओं को त्यागकर लोक-सेवा का व्रत धारण किया है, मेरे दिल में आपके प्रति विशेष प्रेम और सम्मान है। व्यक्तिगत रूप से मैं आपकी सेवाओं को स्वीकार करता हूँ और इस थोड़े-से समय में आपने रियासत का जो कल्याण किया है, उसके लिए आपका कृतज्ञ हूँ। मुझे खूब मालूम है कि आप निरपराध हैं और डाकुओं से आपका कोई सम्बन्ध नहीं हो सकता। इसका मुझे गुमान तक नहीं है। महाराजा साहब से भी आपके सम्बन्ध में घंटे-भर बातें हुई। वह भी मुक्त कंठ से आपकी प्रशंसा करते हैं। लेकिन परिस्थितियाँ हमें आपसे यह याचना करने के लिए मजबूर कर रही हैं कि
बहुत अच्छा हो, अगर आप......अगर आप प्रजा से अपने को अलग रखें। मुझे आपसे यह कहते हुए बहुत खेद हो रहा है कि अब यह रियासता आरका सत्कार करने का आनंद नहीं उठा सकती।”
विनय ने अपने उठते हुए क्रोध को दबाकर कहा—“आपने मेरे विषय में जो सद्भाव प्रकट किये हैं, उनके लिए आपका कृतज्ञ हूँ। पर खेद है कि मैं आपकी आज्ञा का पालन नहीं कर सकता। समाज की सेवा करना ही मेरे जीवन का मुख्य उद्देश्य है और समाज से पृथक् होकर मैं अपना व्रत भंग करने में असमर्थ हूँ।"
दीवान साहब-"अगर आपके जीवन का मुख्य उद्देश्य यही है, तो आपको किसी रियासत में आना उचित न था। रियासतों को आप सरकार की महलसरा समझिए, जहाँ सूर्य के प्रकाश का भी गुजर नहीं हो सकता। हम सब इस हरमसरा के हब्शी ख्वाजासरा हैं। हम किसी की प्रेम-रस-पूर्ण दृष्टि को इधर उठने न देंगे, कोई मनचला जवान इधर कदम रखने का साहस नहीं कर सकता। अगर ऐसा है, तो हम अपने पद के अयोग्य समझे जायँ। हमारा रसीला बादशाह, इच्छानुसार मनोविनोद के लिए, कभी-कभी यहाँ "पदार्पण करता है। हरमसरा के सोये भाग्य उस दिन जग जाते हैं। आप जानते हैं, बेगमों की सारी मनोकामनाएँ उनकी छबि-माधुरी, हाव-भाव और बनाव-सिंगार पर ही निर्भर होती हैं, नहीं तो रसीला बादशाह उनकी ओर आँख उठाकर भी न देखे। हमारे रसीले बादशाह पूर्वीय राग-रस के प्रेमी हैं; उनका हुक्म है कि बेगमों का वस्त्राभूषण पूर्वीय हो, शृंगार पूर्वीय हो, रीति-नीति पूर्वीय हो, उनकी आँखें लजा-पूर्ण हो, पश्चिम की चंचलता उनमें न आने पाये, उनकी गति मरालों की गति की भाँति मंद हो, पश्चिम की ललनाओं की भाँति उछलती-कूदती न चलें, वे ही परिचारिकाएँ हों, वे ही हरम की दारोगा, वे ही हब्शी गुलाम, वे ही ऊँची चहारदीवारी, जिसके अंदर चिड़िया भी न पर मार सके। आपने इस हरमसरा में घुस आने का दुस्साहस किया है, यह हमारे रसीले बादशाह को एक आँख नहीं भाता, और आप अकेले नहीं हैं, आपके साथ समाज-सेवकों का एक जत्था है। इस जत्थे के सम्बन्ध में भाँति-भाँति की शंकाएँ हो रही हैं। नादिरशाही हुक्म है कि जिवती जल्द हो सके, यह जत्था हरमसरा से दूर हटा देया जाय। यह देखिए, पोलिटिकल रेजिडेंट ने आपके सहयोगियों के कृत्यों की गाथा लिख भेजी है। कोई कोर्ट में कृषकों की सभाएं बनाता फिरता है; कोई बीकानेर म बेगार की जड़ खोदने पर तत्पर हो रहा है; कोई मारवाड़ में रियासत के उन करों का विरोध कर रहा है, जो परंपरा से वसूल होते चले आये हैं। आप लोग साम्यवाद का डंका बजाते फिरते हैं। आपका कथन है, प्राणी-मात्र को खाने-पहनने और शांति से जोगन व्यतीत करने का समाम स्वत्व है। इस हरमसरा में इन सिद्धांतों और विचारों का प्रचार करके आप हमारी सरकार को बदगुमान कर देंगे, और उसकी आँखें फिर गई, तो हमारा संसार में कहीं ठिकाना नहीं है। हम आपको अपने प्रेम-कुंज में आग न लगाने देंगे!"
हम अपनी दुर्बलताओं को व्यंग्य की ओट में छिपाते हैं। दीवान साहब ने व्यंग्योक्ति
का प्रयोग करके विनय को सहानुभूति प्राप्त करनी चाही थी; पर विनय मनोविज्ञान से इतने अनभिज्ञ न थे, उनकी चाल भाँप गये और बोले—"हमारा अनुमान था कि हम अपनो निःस्वार्थ सेवा से आपको अपना हम-दर्द बना लेंगे।"
दीवान साहब—"इसमें आपको पूरी सफलता हुई है। हम को आपसे हार्दिक सहानुभूति है, लेकिन आप जानते ही हैं कि रेजिडेंट साहब की इच्छा के विरुद्ध हम तिनका तक नहीं हिला सकते। आप हमारे ऊपर दया कीजिए, हमें इसी दशा में छोड़ दीजिए, हम-जैसे पतितों का उद्धार करने में आपको यश के बदले अपयश ही मिलेगा।"
विनय—"आर रेजिडेंट के अनुचित हस्तक्षेप का विरोध क्यों नहीं करते?"
दीवान साहब—"इसलिए कि हम आपकी भाँति निःस्पृह और निःस्वार्थ नहीं हैं। सरकार की रक्षा में हम मनमाने कर वसूल करते हैं, मनमाने कानून बनाते हैं, मनमाने दंड लेते हैं, कोई चूँ नहीं कर सकता। यही हमारी कारगुजारी समझी जाती है, इसी के उपलक्ष्य में हमको बड़ी-बड़ी उपाधियाँ मिलती है; पद की उन्नति होती है। ऐसी दशा में हम उनका विरोध क्यों करें?"
दीवान साहब की इस निर्लज्जता पर झुंँझलाकर पिन यसिंह ने कहा—"इससे तो यह कहीं अच्छा था कि रियासतों का निशान ही न रहता।"
दीवान साहब—"इसीलिए तो हम आपसे विनय कर रहे हैं कि अब किसी और प्रांत की ओर अपनी दया-दृष्टि कीजिए।"
विनय—"अगर मैं जाने से इनकार करूँ?”
दीवान साहब—"तो मुझे बड़े दुःख के साथ आपको उसी न्यायालय के सिपुर्द करना पड़ेगा, जहाँ न्याय का खून होता है।"
विनय—"निरपराध?"
दीवान साहब—"आप पर डाकुओं की सहायता का अपराध लगा हुआ है।"
विनय—"अभी आपने कहा है कि आपको मेरे विषय में ऐसो शंका नहीं।"
दीवान साहब—"वह मेरी निजी राय थी, यह मेरी राजकीय सम्मति है।"
विनय—"आपको अख्तियार है।"
विनयसिंह फिर मोटर पर बैठे, तो सोचने लगे-जहाँ ऐसे-ऐसे निर्लज्ज, अपनी अपकीर्ति पर बगलें बजानेवाले कर्णधार हैं, उस नौका को ईश्वर ही पार लगाये, तो लगे। चलो, अच्छा ही हुआ। जेल में रहने से माताजो को तसकीन होगी। यहाँ से नान बचाकर भागता, तो वह मुझसे बिलकुल निराश हो जाती। अब उन्हें मालूम हो जायगा कि उनका पत्र निकाल नहीं हुआ। चलूँ, अब न्यायालय का स्वाँग भी देख लूँ।
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