युद्ध और अहिंसा/३/९ व्यवसाय में अहिंसा

युद्ध और अहिंसा
मोहनदास करमचंद गाँधी, संपादक सस्ता साहित्य मण्डल, अनुवादक सर्वोदय साहित्यमाला

नई दिल्ली: सस्ता साहित्य मण्डल, पृष्ठ २२८ से – २२९ तक

 

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                         व्यवसाय में अहिंसा

यह अच्छी बात है कि अहिंसा के पुजारी बहुत सूक्ष्म प्रश्न खड़े करते हैं। यह आदत तारीफ़ के लायक है । इसीसे आदमी आगे बढ़ता है। लेकिन एक शर्त है । ऐसा न होना चाहिए कि दूध में पड़े कण के कारण दूध तो फेंक दें और हर घड़ी जो ज़हर पीते रहें उसकी परवाह तक न करें । ऐसे प्रश्नों से वे ही फ़ायदा उठा सकते हैं जो बड़ी बातों में सावधान रहते हैं; और भली भाँति सिद्धान्त को अमल में लाते हैं ।

   सूक्ष्म प्रश्न यह है कि जिस खादी भंडार में कम्बल बिकते हैं वहाँ से फौज़ के सिपाहियों के लिए कम्बल खरीदे गये । मुझसे भंडारवालों ने पूछा “क्या इस तरह कम्बल बेच सकते हैं ?” मैंने उत्तर दिया “बेच सकते हैं ।” अगर ऐसा कर सकते हैं तो हम अहिंसक लोग हिंसक-युद्ध में सहायता नहीं देते ? एक तरह केवल सिद्धान्त से देखें तो उत्तर देना पड़ेगा कि “सहायता देते हैं।” और ऐसा उत्तर दें तो हम हिन्दुस्तान में या जिस मुल्क में युद्ध चलता हो वहाँ रह ही नहीं सकते; क्योंकि हम जो खाते हैं उससे भी लड़ाई में मदद देते हैं। रेल के सफ़र से भी देते हैं । डाक भेजते हैं तो भी देते हैं । शायद ही कोई ऐसा काम हो जिससे हम ऐसी मदद देने से बच सकें। सरकारी सिक्के के इस्तेमाल में भी मदद होती है । बात यह है कि अहिंसा जैसे ২২০                          युद्ध और अहिंसा


बुलन्द सिद्धान्त का सम्पूर्ण पालन कोई देहधारी कर ही नहीं सकता । यूक्लिड की रेखा लीजिए । उसकी हस्ती कल्पना में ही है। सूक्ष्म रेखा भी काग़ज़ पर खींचे तो भी उसमें कुछ न कुछ चौड़ाई होगी ही । इसलिए व्यवहार में सूक्ष्म रेखा खींचकर हम अपना काम चलाते हैं। सब सीधी दीवारें यूक्लिड के सिद्धान्त के मुताबिक टेढ़ी हैं । लेकिन हज़ारों वर्ष खड़ी रहती हैं ।

               ठीक यही बात अहिंसा के सिद्धान्त की है । जहाँ तक हो सके हम उसे अमल में लावें ।
     कम्बल बेचने की मनाही करना मेरे लिए आसान था ! लाखों की बिक्री में कुछ हज़ार की बिक्री की क्या कीमत हो सकती है ? लेकिन मेरी मनाही मेरे लिए शर्म की बात हो जाती; क्योंकि अपनी सच्ची राय को छिपाकर ही मैं मनाही कर सकता था ! मैं कहाँ-कहाँ मनाही की हद बाँधूँ ? मैं चावल-दाल का व्यापारी होकर, सिपाहियों को चावल-दाल न बेचूँ ? गंधी होकर, कुनैन या अन्य दवाइयाँ न बेचूँ ? न बेचूँ तो क्यों नहीं ? मेरी अहिंसा मुझे ऐसे व्यापार के लिए बाध्य करती है ? मैं ग्राहक की जातपाँत खोजकर मर्यादा बाधूँ ? उत्तर है कि मेरा व्यापार अगर समाज का पांपक है, हिंसक नहीं है, तो मुझे उसे करने में ग्राहकों की जात-पाँत की खोज करने का अधिकार नही है । अर्थान सिपाही को भी अपने व्यापार की वस्तु बेचना मेरा धर्म है। 

सेवाग्राम में, १८-६-४१ (चर्खा-द्वादशी)