युद्ध और अहिंसा/३/७ अहिंसक की विडम्बना

[ २१० ]अहिंसक की विडम्बना बी० द लाइट नामक हालैण्ड के एक लेखक ने अहिंसासम्बन्धी विचारों के बारे में एक लम्बा पत्र कुछ महीने पहले लिखा था । लेखक यूरोप के अहिंसावादियों में से एक हैं और जुलू विद्रोह और बोअर युद्ध में गांधीजी ने जो भाग लिया था उसके और पिछले युद्ध के समय जो रंगरूटों की भरती की थी उसके बारे में उन्होंने कड़ी आलोचना की थी । अब उन्होंने गांधीजी को दूसरा पत्र लिखा है । उसका सार नीचे दिया जाता है । गांधीजी ने ‘यंगइंडिया' में जो उत्तर दिया वह भी इसीके साथ दिया जाता है । पत्र इस प्रकार है "पूज्य गांधीजी आपके अहिंसा-सम्बन्धी विचारों पर मैं जैसे-जैसे विचार करता जाता हूँ वैसे-वैसे मुझे ऐसा लगता है कि आपने अपने देश की दृष्टि से ही इस सम्बन्ध में विचार किया है, सारी दुनिया की दृष्टि से विचार नहीं किया है। उदाहरण के लिए नेहरू-रिपोर्ट को आप स्वीकार करते हैं । उसमें जो विधान [ २११ ]२०२ युद्ध और अहिंसा बनाया गया है उसको आपने कबूल किया है और उसके अन्तर्गत देश की रचा की व्यवस्था भी आपने स्वीकार की है । डोमी. नियन स्टेटस की यह सारी रचना ही ऐसी है कि इसमें आपके देश के गरीबों का ही शोषण होनेवाला है; क्योंकि अगर ऊपर के वर्ग के हाथ में राजसत्ता आये तो वह वर्ग ऊपर के वर्ग के विदेशियों के साथ रहकर अपनी शासन-पद्धति तय करेगा । आपके देश को भी अपनी रक्षा के लिए जल, स्थल और वायु-सेना की आवसश्यकता होगी ऐसा जब आप कहते हैं तब तो हो चुका । दूसरे देशों में आपस में शस्त्रास्त्र की जो प्रतियोगिता चल रही है उसे आपका देश भी उत्तेजन देगा । मुझे ऐसा लगता है कि ऐसी हालत में टॉलस्टॉय ने, जिनके कि अहिंसा के विचार आपको पसंद हैं, अलग ही रास्ता लिया होता । लड़ाई ऐसी भयानक वस्तु है कि उसका उपयोग राष्ट्ररक्षा के लिए ही नहीं बल्कि समाज-रक्षा के लिए भी बन्द होना ही चाहिए । आज तो ऐसी स्थिति आ गई है कि प्रत्येक देश के अहिंसावादी स्त्री-पुरुषों की अपनी यह प्रतिज्ञा प्रकट करनी चाहिए कि “हम किसी भी अवस्था में युद्ध के किसी भी साधन को तैयार करने में या उपयोग में लाने में भाग न लेंगे और् ऐसा प्रयत्न करेंगे कि ऐसे साधनों की उत्पत्ति और उपयोग बन्द होते जायें । सच पूछिए तो लड़ाई और हिंसा के साधनों से हमारे देश की स्वतंत्रता मिले इसकी अपेक्षा [ २१२ ]अहिंसक की विडंबना २०३ वह स्वतंत्रता-जो कि दिन पर दिन केवल नाम मात्र की ही होती जाती है-खो देना ज्यादा पसंद करेंगे । आपका देश “डोमीनियन स्टेटस' प्राप्त करेंगा-इसका यह अर्थ हुआ कि उसे साम्राज्य के अन्तर्गत रहना पड़ेगा । और वह सशस्त्र होगा यानी उसके लिए उसे विदेशी धन, विदेशी बैंका अदि के ऊपर आधार रखना पड़ेगा और परदेशी धनिक आज विश्व का साम्राज्य प्राप्त करने को जूझ रहे हैं यह आप जानते ही हैं ? यानी आज राष्ट्रीयता का आदर्श रखने और संपादन करने में एक बडा भारी जोखिम हैं । आज तो सारी पीड़ित प्रजा और कौमों का संगठन करके पीड़क प्रजा के पंजे मे से उसे मुक्त करने की लड़ाई लड़नी चाहिए । लेकिन पूज्य गांधीजी, आज तो आप केवल अपने ही देश का विचार कर रहे हैं । आपका देश गुलामी के बन्धन में से मुक्त हो यह तो हम भी चाहते है; क्योंकि हमारे राज्य ने काले लोगों पर जो अत्याचार किये हैं उससे काले लोग मुक्त हों यह हम चाहते ही हैं । परन्तु विदेशी-राज्य के पंजे से छूटने के लिए आप भी जब ऐसे साधनों का उपयोग करें कि जिनके दुरुपयोग होने की पूरी संभावना है, तब तो हमें भी उसका विरोध करना पड़ता है । आप कहते हैं कि आज तक भारत को जबर्दस्ती दूसरे देशों को लूटनेवाली कई लडाइयों में भाग लेना पड़ा है । तब आपसे यह कहने की इच्छा होती है कि “नहीं, आप भर इसके लिए जिम्मेदार हैं । आप अगर इन लड़ाइयों से दूर रहना चाहते तो रह सकते थे ।” [ २१३ ]२०४ युद्ध और अहिंसा हमें आप कहते हैं कि लड़ाई चलाने के लिए लिये जानेवाले टैक्स को देना भी लड़ाई में भाग लेने के बराबर है । आपकी बात सत्य है । हम लड़ाई में प्रत्यक्ष भाग न लेने का आंदोलन तो करते हैं पर कर न देने जितने अंश तक नहीं जा पाये हैं । यद्यपि हममें से कुछ ने तो कर देना भी बंद किया है । लेकिन कर न दें तो सरकार हमारी जायदाद जब्त कर सकती है इस कारण यह रीति कोई बहुत कार्यसाधक तो नहीं ही है। चाहे जो हो, गोरे लोग काले लोगों को जिस प्रकार लूट रहे हैं उसमें से कालों को छुडाने की आपकी इस लड़ाई में तो हम आपके साथ ही हैं । चूहे और बिल्ली का जैसा सम्बन्ध तो सारे देश में बन्द ही होना चाहिए। लेकिन चूहा -चूहा मिटकर कुता बने और बिल्ली के ऊपर सिरजोरी करे यह भी कोई ऐसी स्थिति नहीं है जिसे पसन्द किया जाये । इसीलिए हम अपने ही लोगों से नहीं बल्कि दूसरे लोगों को भी हिंसा मात्र से दूर रहने के लिए कहते हैं । अहिंसा के व्यावहारिक उपयोग समझाने में आपने कुछ कम भाग नहीं लिया है । ग्रेट ब्रिटेन का हृदय परिवर्तन करने की आप आशा रखते हों तो आज की कहे जानेवाली समाजवादी ब्रिटिश सरकार के साथ सहयोग करके आप ऐसा नहीं कर सकेंगे । ब्रिटेन के युद्ध-विरोधी मंडलों के साथ सहयोग करके ही आप ऐसा कर सकेंगे । मैकडोनल्ढ के मंत्रिमंडल ने आपने ही देश के लोगों को सताने में क्या कसर रखी है ? आपके सामने भले ही वे दिखावटी तौर पर विनय-विवेक [ २१४ ]अहिंसक की विडंबना २०५ से काम लें, आपको शोभा-स्वरूप उपदेश दें पर तत्त्व की चीज कुछ न देंगे । आपने हमेशा मुझे आपकी आलोचना करने की छूट दी है इसलिए इतना लिखने की धृष्टता करता हूँ। चाहे जो हो आज् विश्वजीवन इतना अखंड हो गया है कि राष्ट्र के हित की दृष्टि से भले विचार न करें पर विश्व की दृष्टि से तो जरूर विचार किया जा सकता है ।' रेवरेएड बी० द लाइट का पत्र पाठकों के पढ़ने योग्य है । अहिंसा के शोधक और् साधक को ऐसे पत्र का स्वागत करना चाहिए । इसपर आदरपूर्वक विचार करना चाहिए। मित्रभाव से ऐसी चर्चा करने से अहिंसा की शक्ति और मर्यादाओं का अधिक स्पष्ट ध्यान आ सकता है। मनुष्य चाहे जितने तटस्थ-भाव से विचार करने का प्रयत्न करे तो भी वह अपने वर्तमान वातावरण और पूर्व संस्कार से एक दम अलग रहकर विचार नहीं कर सकता । दो जुदी-जुदी स्थिति में रहते हुए व्यक्तियों की अहिंसा बाह्य रीति से एक ही स्वरूप की न होगी । उदाहरणार्थ क्रोधी पिता के सामने बालक पिता की हिंसा को ध्यानपूर्वक सहन करने ही अपनी अहिंसा बता सकता है । परन्तु बालक ने क्रोध किया हो तो पिता बालक के समान नहीं बरतेंगे । ऐसे बरताव का कोई अर्थ ही नहीं होगा । पिता तो बालक को अपनी छाती से लगाकर बालक की हिंसा को एक दम निष्फल कर देगा । दोनों प्रसंगों के बारे में मान लिया गया है कि दोनों का बाह्य कृत्य अपनी आंतरिक इच्छा का प्रतिबिंब है। इसके विरुद्ध [ २१५ ]२O६ युद्ध और अहिंसा कोई मनुष्य अपने हृदय में बैर रखकर केवल वणिक-बुद्धि से सामनेवाले की हिंसा के वश हो जाये तो वह सञ्चा अहिंसक नहीं कहा जा सकता । और अगर वह अपना इरादा गुप्त रखे तो दंभी भी कहा जायेगा । फिर यह भी याद रखना चाहिए कि अहिंसा का प्रयोग तो तभी हो सकता है जबउसे हिंसा का मुकाबिला करना हो । प्रतिहिंसा की जहाँ हस्ती ही नहीं है वहाँ अहिंसक रहने वाला अपनी अहिंसक निष्चेष्टता के लिए यश प्राप्त नहीं कर सकता; क्योंकि जहाँ सामने हिंसा खड़ी न हो वहाँ अहिंसा की परीक्षा कैसे हो सकती है ? ‘डोमीनियन स्टेटस' की तो बात ही अब उड़ गई है, इसलिए उससे पैदा होनेवाले मुद्दों पर चर्चा करने की कोई जरूरत नहीं है । हाँ, इतना कह सकते हैं कि अगर भारत ने सच्चा ‘डोमीनियन स्टेटस' प्राप्त किया होता तो साम्राज्य के अधीन रहने के बदले समान यानी संख्या बढ़ने के कारण एक बड़े भागीदार जैसा भागीदार बनता और ग्रेट ब्रिटेन की विदेशी नीति तय करने में वह प्रधान हिस्सा लेता । नेहरू-रिपोर्ट को मैंने सामान्य रूप में हृदय से स्वीकार किया है इससे यह नहीं मान लेना चाहिए कि उसके प्रत्येक शब्द को मैंने स्वीकार किया है। भावी स्वतंत्र भारत की रक्षा के लिए जो व्यवस्था होगी उस सबको मेरी सहमति होगी यह मान लेने की भी जरूरत नहीं है। भारत जिस दिन स्वतंत्र होगा [ २१६ ] अहिंसक की विडंबना २०७ उस समय जो प्रश्न पैदा होंगे उसके बारे तो आज से ही अपने देशभाइयों के साथ लड़ाई करने के लिए मेरे अन्दर की अहिंसा मुझे रोक रही है । भविष्य के बर्ताव के बारे में आज चर्चा करना निरर्थक है। ऐसा करने में व्यर्थ के मतभेद पैदा होंगे, जहर बढ़ेगा और उतने अंश में अहिंसा को भी धक्का लगेगा । यह भी बहुत सम्भव है कि आज़ादी की लड़ाई समाप्त होने बाद भी अगर मैं जीता रहा तो मुझे अपने देशभाइयों के साथ भी कई प्रसंगों पर अहिंसक लड़ाई लड़नी पड़े। और जैसी आज मैं लड़ रहा हूँ वैसी ही भयंकर हो । परन्तु यदि इच्छापूर्वक आहिंसक साधनों की खोज करके उनका उपयोग करने से हमने स्वराज्य प्राप्त किया है यह सिद्ध हो जाये तो आज बड़े-बड़े नेता लोग जो फौजी योजनाएँ तैयार कर रहे हैं वे उनको एक दम अनावश्यक लगेंगी ऐसा बहुत सम्भव है । आज तो अपने देशबन्धुओं से मेरा सहयोग गुलामी की बेड़ियाँ तोड़ने तक ही सीमित है। वह बेड़ी तोड़ने के बाद हमारी कैसी दशा होगी और हम क्या करेंगे इसकी बात न मैं ही कुछ कर सकता हूँ न वे ही । मेरी जगह टॉल्स्टॉय दूसरी तरह बरसते या नहीं इसका तर्क करना निरर्थक है। मैं तो आज अपने यूरोपियन मित्रों को इतना ही विश्वास दिला सकता हूँ और वह काफी है कि मैंने अपने किसी भी कृत्य से जान-बूझकर हिंसा का समर्थन नहीं किया और अपने अहिंसा-धर्म को कालिख नहीं लगाई। [ २१७ ]२०८ युद्ध और अहिंसा बोअर युद्ध में और जुलु बलवे के समय ब्रिटेन के साथ रहकर जो मैंने हिंसा का स्पष्ट अङ्गीकार किया था वह भी सिर पर आ पड़ी हुई अनिवार्य स्थिति में अहिंसा के लिए ही किया था । परन्तु यह भी संभव है कि वह अङ्गीकार या सहयोग अपनी कमजोरी के कारण अथवा अहिंसा के विश्वधर्मस्व के अपने अज्ञान के कारण मैंने किया हो । हालाँकि मेरी आत्मा ऐसा नहीं कहती कि उस समय या आज भी किसी कमजोरी या अज्ञान के वश होकर मैंने ऐसा किया था । अगर हिंसा के ऊपर आधार रखनेवाले किसी तंत्र के आधीन अनिच्छापूर्वक होना पड़े तो उसमें परोक्ष भाग लेने के बदले प्रत्यक्ष भाग लेना ही अहिंसावादी पसन्द करेगा । अमुक अंश में हिंसा पर आधार रखनेवाले जगत में मैं रहा हूँः अगर मेरे पड़ोसियों का संहार करने के लिए जो सेना रखी जाती है उसके लिए कर देने या सेना में भरती होने इन दो बातों में से अगर मुझे एक चुनना हो तो हिंसा की ताकत पर अंकुश प्राप्त करने के लिए और अपने साथियों का हृदय-परिवर्तन करने की आशा में मैं सेना में भरती होना ज्यादा पसन्द करूँगा, बल्कि ऐसा किये बिना मेरी कोई गति नहीं । और ऐसा करते हुए मैं नहीं मानता कि मेरे अहिंसा-धर्म में कोई बाधा आती है । राष्ट्रीय स्वतंत्रता कोई आकाश-कुसुम नहीं है, व्यक्तिगत स्वतंत्रता जितनी ही वह भी आवश्यक है । पर अगर दोनों अहिंसा पर अवलम्बित हों तो दूसरे राष्ट्र अथवा दूसरे व्यक्ति की [ २१८ ]अहिंसक की विडंबना २०९ इतनी ही स्वतंत्रता के लिए वह नुकसानदेह साबित न होंगे । और जो व्यक्तिगत और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के बारे में है वही अन्तर्राष्ट्रीय स्वतन्त्रता के बारे में भी है। कानून का एक सूत्र है कि अपनी स्वतंत्रता का इस प्रकार उपभोग करो कि जिससे दूसरे की स्वतंत्रता को नुकसान न पहुँचे। यह सूत्र नीति के सूत्र-जैसा ही है । ‘यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे’ यह नियम भी शाश्वत है । पिंड के लिए तो एक नियम है और ब्रह्माण्ड के लिए दूसरा, ऐसी बात नहीं है। नवजीवन : २ फरवरी, १९३०