युद्ध और अहिंसा/३/३ युद्ध के विरोध में युद्ध

युद्ध और अहिंसा
मोहनदास करमचंद गाँधी, संपादक सस्ता साहित्य मण्डल, अनुवादक सर्वोदय साहित्यमाला

नई दिल्ली: सस्ता साहित्य मण्डल, पृष्ठ १८८ से – १९१ तक

 

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             युद्ध के विरोध में युद्ध

एक सज्जन लिखते हैं : “यह पत्र लिखने का कारण यह है कि सत्य और अहिंसा के पुजारी होते हुए युद्ध के प्रति आपकी वृत्तिविषयक “आत्मकथा’ का अध्याय (‘धर्म को समस्या'; आत्मकथा : खण्ड ४; अध्याय ३६) पढ़कर बहुतों के मन में खलबली मच गये है । मुझसे अधिक शक्तिवाले लोग आपको उस बारे में लिखेंगे । मुझे जो थोड़ी बातें सूझती है वे आपको बताना चाहता हूँ ।

    सत्य और अहिंसा का सञ्चा पुजारी स्वयं बुरी वस्तुओं का विरोध न कर सकता हो तो भी उनका संग तो कभी नहीं कर सकता क्या यह उसके आचरण का मूलभूत सिद्धान्त नहीं है ? कुछ लोगों के कहे अनुसार युद्ध एक आवश्यक बुराई है । परन्तु उसके समाप्त होने के बाद जगत को उसकी दुष्टता का अधिक भान होगा, ऐसी आशा रखकर उसमें मदद देना चाहिए-यह बहाना ठीक नहीं है,न हो सकता है। बल्कि होता तो यह है कि मनुष्य की निष्ठुरता और भी जोरदार हो जाती है, और जीवन के प्रति पवित्रता की लगन मिट जाती है। १८०              युद्ध और अहिंसा

जैसे आप दलील करते हैं और कहते हैं वैसे ही हिंसावादी भी कह सकते हैं कि हम यूरोपियनों के हमले और अत्याचार को रोक नहीं सकते । समुदाय-बल से भी नहीं रोक सकते । परन्तु अगर हम उनके ही शस्त्रों से उनका सामना करके उन शस्त्रों की खराबी उन्हें बतावें तो वे अपनी नीति को बेवकूफी को समझेंगे और हम स्वतंत्र हो जायेंगे तथा अत्याचार से जगत को बचा लेंगे । जहाँतक हमारे राज्यकर्ता हिंसा-बल का उपयोग करते हैं और हमें अत्याचार से तिरस्कार है वहाँतक यह शस्त्र हमसे ही न चिपक जाये इतना ध्यान रखकर उनका उपयोग करते रहने में क्या हानि है ?

यूरोपीय महायुद्ध ने प्रजाश्रों का और ख़ास करके विजेताओं का कुछ भी भला किया है ? युद्ध चाहे जैसा “धम्र्य" हो फिर भी किसी युद्ध में से कोई भी अच्छाई पैदा हो सकती है ? उसमें सक्रिय या निष्क्रिय रूप से भाग लेने की कैसी भी अनुमति देने के बदले उसका विरोध ही करना और इस प्रकार सिद्धान्त पालन करते हुए जो दुःख आवे सो उठा लेना क्या हमारा फर्ज नहीं है ? सक्रिय रूप से लड़ाई में भाग लेनेवाले की बनिस्बत उससे दूर रहनेवाले शान्तिवादी अधिक सिद्धान्त-सेवा करते हैं, क्या ऐसा आप नहीं मानते ? सन् १२१४ में जब आपकी अग्रेजों की न्यायबुद्धि में श्रद्धा थी तब की आपकी मनोवृत्ति आप जैसी कहते हैं वैसी होगी । पर क्या आज वह आपको उचित लगती है? मान लें कि कल लड़ाई शुरू हो तो क्या आप इस आशा में कि लड़ाई बंद हो जाने पर वस्तुस्थिति अधिकसुधयुद्ध के विरोध में युद्ध १८१ रेगी, इंग्लैंड की मदद करने को तैयार हो जायेंगे ? यह मैं जानता हूँ कि मुझे जो कहना है वह सब उत्तम रीति से नहीं कह सका हूँ, परन्तु मेरे कहने का मर्म आप समभ सकेंगे । इसका उत्तर मिलेगा तो मुझे खुशी होगी ।' मुझे भी ऐसा लगता है कि पत्र-लेखक अपनी चीज उत्तम रीति से पेश नहीं कर सके हैं । पाठकों में एक ऐसा वर्ग होता है जो गम्भीर लेखों को भी ध्यानपूर्वक नहीं पढ़ते, केवल इसीलिए कि वे साप्ताहिक पत्र में आते हैं । पत्र लिखनेवाले भाई भी ऐसे ही वर्ग के मालूम होते हैं। उनके जैसे पाठक अगर फिर से उस अध्याय को पढ़ेगे तो उसमें से बहुत सी बातें समझ सकेंगे। (१) मैने सेवा का यह काम इसलिए नहीं लिया कि मैं युद्ध में विश्वास रखता हूं । कम से कम अप्रत्यच्त रूप से उसमें भाग लेने से बचे रहना असम्भव था । (२) युद्ध में भाग लेना या विरोध करने का मुझे अधिकार नहीं था । (३) जिस प्रकार मैं यह नहीं मानता कि पाप में हिस्सा लेने से पाप दूर हो सकता है । उसी प्रकार यह भी मैं नहीं मानता कि युद्ध में भाग लेने से युद्ध-निषेध हो सकता है । परन्तु जिसे हम पापयुक्त या अनिष्ट समझते हैं ऐसी अनेक वस्तुओं में हमें सचमुच लाचारी से हिस्सा लेना पड़ता है, यह दूसरी बात है । इसे यहाँ समभने की जरूरत है । (४) हिंसावादी समझते-बूझते चाह करके और पहले से ही १८२ युद्ध ओर अहिम्स निश्चय करके अत्यचारि नीति में पड़ते हैं, इसलिए इसकी दलील प्रस्तुत है । (५) कहा जानेवाले विजेताओ को युद्ध से कोई फ़ायदा नहीं हुआ। (६) जिन शान्तिवादियों ने अपने विरोध के कारण जैसी यातना भोगी उन्होंने शान्ति-स्थापना में अवश्य् सहायता की । (७) अगर कल कोई दूसरा युद्ध शुरू हो तो वर्तमान सरकार के बारे में आज के अप्ने विचारो के अनुसार मैं उसे किसी भी रूप में मदद नहीं कर सकता । उलटे अपनी शक्ति भर मैं दूसरों को मदद करने से रोकने का प्रयत्न करूँगा। ओर सम्भव हुआ तो सारे अहिम्स्य् साधनों का उपयोग करके उसकी हार हो ऐसा प्रयत्न करुँगा । 'नवजीवन' ८ मार्च, १ & २८