युद्ध और अहिंसा/१/६ कसौटी पर
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कसौटी पर
कार्यसमिति के सदस्यों के साथ चर्चा करते हुए मैंने देखा कि अहिंसा शस्त्र से ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लड़ने के आगे, उनकी अहिंसा कभी नहीं गयी। मैंने इस विश्वास को दिल में जगह दे रखी थी कि संसार की सबसे बड़ी साम्राज्यवादी सत्ता के साथ लड़ने में गत बीस बरस के अहिंसा के अमल के तर्कपूर्ण परिणाम को कांग्रेसजनों ने पहचान लिया है। लेकिन अहिंसा के जैसे बड़े-बड़े प्रयोगों में कल्पित प्रश्नों के लिए मुश्किल से ही कोई गुंजायश होती है। ऐसे प्रश्नों के उत्तर में मैं खुद कहा करता था कि जब हम वस्तुतः स्वतंत्रता हासिल कर लेंगे तभी हमें यह मालूम होगा कि हम अपनी रक्षा अहिंसात्मक तरीके से कर सकते हैं या नहीं। लेकिन आज यह प्रश्न कल्पित नहीं है। ब्रिटिश सरकार हमारे मुआफिक कोई घोषणा करे या न करे, कांग्रेस को ऐसे किसी रास्ते का निर्णय करना ही पड़ेगा, जिसे कि वह भारत पर आक्रमण होने की हालत में अख्त्यािर करेगी। भले ही सरकार के साथ कोई समझौता न हो, तब भी कांग्रेस को अपनी नीति तो घोषित करनी ही होगी और उसे यह बतलाना पड़ेगा कि आक्रमण करनेवाले गिरोह का मुकाबिला वह हिंसात्मक साधनों से करेगी या अहिंसात्मक।
जहाँतक कि मैं कार्यसमिति के सदस्यों की मनोवृत्ति को खासी पूरी चर्चा के बाद, समझ सका हूँ, उसके सदस्यों का खयाल है कि अहिंसात्मक साधनों के जरिये सशस्र आक्रमण से देश की रक्षा करने के लिए वे तैयार नहीं है।
यह दु:खद प्रसंग है। निश्चय ही अपने घर से शत्रु को निकाल बाहर करने के लिए जो उपाय अख्तियार किये जाते हैं, वे उन उपायों से, जो कि उसे (शत्रु को) घर से बाहर रखने के लिए अख्तियार किये जायें, न्यूनाधिक रूप में मिलते-जुलते होने ही चाहिए। और यह पिछला (रक्षा का) उपाय ज्यादा आसान होना चाहिएँ। बहरहाल हकीकत यह है कि हमारी लड़ाई बलवान की अहिंसात्मक लड़ाई नहीं रही है। वह तो दुर्बल के निष्क्रिय प्रतिरोध की लड़ाई रही है। यही वजह है कि इस महत्त्व के क्षण में हमारे दिलों से अहिंसा की शक्ति में ज्वलंत श्रद्धा का कोई स्वेच्छापूर्ण उत्तर नहीं मिला है। इसलिए कार्य-समिति ने यह बुद्धिमानी की ही बात कही है कि वह इस तर्कपूर्ण कदम को उठाने के लिए तैयार नहीं है। इस स्थिति में दुःख की बात यह है कि काँग्रेस अगर उन लोगों के साथ शरीक हो जाती है, जो भारत की सशस्र रक्षा की आवश्यकता में विश्वास करते हैं, तो इसका यह अर्थ हुआ कि गत बीस बरस यों ही चले गये, कांग्रेसवादियों ने सशस्र युद्ध-विज्ञान सीखने के प्राथमिक कर्तव्य के प्रति भारी उपेक्षा दिखायी। और मुझे भय है कि इतिहास मुझे ही, लड़ाई के सेनापति के रूप में, इस दुःखजनक बात के लिए जिम्मेदार ठहरायेगा। भविष्य का इतिहासकार कहेगा कि यह तो मुझे पहले ही देख लेना चाहिए था कि राष्ट्र बलवान की अहिंसा नहीं बल्कि केवल निर्बल का अहिंसात्मक निष्क्रिय प्रतिरोध सीग्व रहा है, और इसलिए, इतिहासकार के कथनानुसार, कांग्रेसजनों के लिए सैनिक शिक्ता मुझे मुहैया कर देनी चाहिए थी।
इस विचार को रखते हुए कि किसी-न-किसी तरह भारत सच्ची अहिंसा सीख लेगा, मुझे यह नहीं हुआ कि सशस्र रच्ता के लिए अपने सहकर्मियों से ऐसा शिक्षण लेने को कहूँ। इसके विपरीत, मैं तो तलवार की सारी कला को और मजबूत लाठियों के प्रदर्शन को अनुत्साहित ही करता रहा। और बीते के लिए मुझे आज भी पछतावा नहीं है। मेरी आज भी वही ज्वलंत श्रद्धा है कि संसार के समस्त देशों में भारत ही एक ऐसा देश है जो अहिंसा की कला सीख सकता है, और अगर अब भी वह इस कसौटी पर कसा जाये, तो संभवतः ऐसे हजारों स्री-पुरुष मिल जायेंगे, जो अपने उत्पीड़कों के प्रति कोई द्वेषभाव रखे बिना, खुशी से मरने के लिए तैयार हो जायेंगे। मैंने हज़ारों की उपस्थिति में बार-बार जोर दे-देकर कहा है कि बहुत संभव है कि उन्हें ज्यादा-से-जयादा तकलीफें झेलनी पड़े, यहाँ तक कि गोलियों का भी शिकार होना पड़े। नमक-सत्याग्रह के ज़माने में क्या हजारों पुरुषों और स्रियों ने किसी भी सेना के सैनिकों के ही समान बहादुरी से तरह-तरह की मुसीबतें नहीं फैली थीं? हिन्दुस्तान में जो सैनिक योग्यता अहिंसात्मक लड़ाई में लोग दिखा चुके हैं उससे भिन्न प्रकार की योग्यता किसी आक्रमाणकारी के खिलाफ लड़ने के लिए आवश्यक नहीं हैं--सिर्फ उसका प्रयोग एक वृहतर पैमाने पर करना होगा।
एक चीज नहीं भूलनी चाहिए। नि:शस्त्र भारत के लिए यह ज़रूरी नहीं कि उसे ज़ह्ररीली गैसों या बमों से ध्वस्त होना पड़े। मजिनेट लाइन ने सिगफ्रडे की जरूरी बना दिया है। मौजूदा परिस्थितियों में हिन्दुस्तान की रकशा इसलिए जरूरी हो गयी है कि वह आज ब्रिटेन का एक अंग है। स्वतंत्र भारत का कोई शत्रु नहींॱ हो सकता। और यदि भारतवासी दृढ़तापूर्वक सिर न झुकाने की कला सीख लें और उसपर पूरा अमल करने लगें, तो मैं यह कहने की जुरत करूँगा कि हिन्दुस्तान पर कोई आक्रमण करना नहींॱ चाहेगा। हमारी अर्थनीति इस प्रकार की होगी कि शोषकों के लिए वह कोई प्रलोभन की वस्तु सिद्ध नहीं होगी।
लेकिन कुछ कांग्रेसजन कहेंगे कि, “ब्रिटिश की बात को दरकिनार कर दिया जाये, तब भी हिन्दुस्तान स्तान में उसके सीमान्तों पर बहुत-सी सैनिक जातियाँ रहती हैं। वे मुल्क की रकशा के लिए जो उनका भी उतना ही है जितना कि हमारा, युद्ध करेंगी।” यह बिल्कुल सत्य है। इसलिए इस शण में केवल कांग्रेसजनों की ही बात कह रहा हूँ। आक्रमण की हालत में वे क्या करेंगे? जब तक कि हम अपने सिद्धान्त पर मर-मिटने के लिए तैयार न हो जायेंगे, हम सारे हिन्दुस्तान को अपने मत का नहीं बना सकेंगे।
मुझे तो विरुद्ध रास्ता अपील करता है। सेना में पहले से ही उत्तर हिन्दुस्तान के मुसलमानों, सिक्खों और गोरखों की बहुत बड़ी संख्या है। अगर दन्तिण और मध्यभारत के जनसाधारण कांग्रेस का सैनिकीकरण कर देना चाहते हैं, जो उनका प्रतिनिधित्व करती है, तो उन्हें उनकी (मुसलमान, सिक्ख वगैरा की) प्रतिस्पर्धा में आना पड़ेगा। कांग्रेस को तब सेना का एक भारी बजट बनाने में भागीदार बनना पड़ेगा। ये सब चीजें कांग्रेस की सहमति लिए वगैर सम्भवत: हो जायें। सारे संसार में तब यह चर्चा का बिषय बन जायगा कि कांग्रेस ऐसी चीजों में शरीक है या नहीं। संसार तो आज हिन्दुस्तान से कुछ नई और अपूर्व चीज देखने की प्रतीकशा में है। कांग्रेस ने भी अगर वही पुराना जीर्ण-शीर्ण कवच धारण कर लिया, जिसे कि संसार आज धारण किये हुए हैं, तो उसे उस भीड़भड़क्के में कोई नहीं पहचानेगा। कांग्रेस का नाम तो आज इसलिए है कि वह सर्वोत्तम राजनीतिक शस्त्र के रूप में अहिंसा का प्रतिनिधित्व करती है। कांग्रेस अगर मित्रराष्ट्रों को इस रूप में मदद देती है कि उसमें अहिंसा का प्रतिनिधि बनने की शमता है, तो वह मित्रराष्ट्रों के उद्देश्य को एक ऐसी प्रतिष्ठा और शक्ति प्रदान करेगी, जो युद्ध का अन्तिम भाग्यनिर्णय करने में अनमोल सिद्ध होगी। किन्तु कार्यसमिति के सदस्यों ने जो इस प्रकार की अहिंसा का इजहार नहीं किया, इसमें उन्होंने ईमानदारी और बहादुरी ही दिखाई है।
इसलिए मेरी स्थिति अकेले मुझतक ही सीमित है। मुझे अब यह देखना पड़ेगा कि इस एकान्त पथ में मेरा कोई दूसरा सहयात्री है या नहीं। अगर में अपने को बिलकुल अकेला पाता हूँ तो मुझे दूसरों को अपने मत में मिलाने का प्रयत्न करना ही चाहिये। अकेला होऊँ, या अनेक साथ हो, मैं अपने इस विश्वास को अवश्य घोषित करूँगा कि हिन्दुस्तान के लिए यह बेहतर है कि वह अपने सीमान्तों की रकशा के लिए भी हिंसात्मक साधनों का सर्वथा परित्याग करदे। शस्त्रीकरण की दौड़ में शामिल होना हिन्दुस्तान के लिए अपना आत्मघात करना है। भारत अगर अहिंसा को गँवा देता है, तो संसार की अन्तिम आशा पर पानी फिर जाता है। जिस सिद्धान्त का गत आधी सदी से में दावा करता आ रहा हूँ उस पर मैं जरूर अमल करूंगा और आखिरी सॉस तक यह आशा रखूंगा कि हिन्दुस्तान अहिंसा को एक दिन अपना जीवनसिद्धान्त बनायेगा, मानवजाति के गौरव की रच्ता करेगा और जिस स्थिति से मनुष्यने अपने को ऊँचा उठाया खयाल किया जाता है उसमें लौटने से उसे रोकेगा।
'इरिजन-सेवक' : १४ श्रक्तूबर, १६३६