युद्ध और अहिंसा/१/१३ हरेक अग्रेज़ के प्रति

युद्ध और अहिंसा
मोहनदास करमचंद गाँधी, संपादक सस्ता साहित्य मण्डल, अनुवादक सर्वोदय साहित्यमाला

नई दिल्ली: सस्ता साहित्य मण्डल, पृष्ठ ७९ से – ८४ तक

 
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हरेक अंग्रेज़ के प्रति

१८६६ में मैंने दक्षिण अफूीका में अग्रेजों के नाम एक अपील निकाली थी। वह अपील वहाँ के मजदूरों और व्यापारीवर्ग के हिन्दुस्तानियों की खातिर निकाली थी। उसका असर भी हुआ था। उस अपील का हेतु कितने ही महत्त्व का क्यों न रहा हो, मगर मेरी नजर में आज की इस अपील के हेतु के सामने वह तुच्छ था। मेरी हरेक अंग्रेज से-चाहे वह दुनिया के किसी भी हिस्से में हो यह प्रार्थना है कि वह राष्ट्रों के परस्पर के ताल्लुक़ात और दूसरे मामलों का फैसला करने के लिए युद्ध का मार्ग छोड़कर अहिंसा का मार्ग स्वीकार करें। आपके राजनेताओं ने यह घोषणा की है कि यह युद्ध प्रजातन्त्र के असूल की रक्षा के लिए लड़ा जा रहा है। युद्ध की न्याययुक्तता सिद्ध करने के लिए और भी बहुत-से ऐसे कारण दिये गये हैं। आप वह सब अच्छी तरह जानते हैं।

मैं आपसे यह कहता हूँ कि इस युद्ध के समाप्त होने पर जीत चाहे किसी भी पक्ष की हो, प्रजातन्त्र का कहीं नामोनिशान भी नहीं मिलेगा। यह युद्ध मनुष्यजाति पर एक अभिशाप और चेतावनी के रूप में उतरा है। यह युद्ध शापरूप है, क्योंकि आज तक कभी इन्सान इन्सानियत को इस क़दर नहीं भूला था, जितना कि वह इस युद्ध के असर के नीचे भूल रहा है। लड़नेवालों में आज फ़र्क ही नहीं किया जाता, कोई भी इन्सान या कोई भी चीज नहीं छोड़ी जाती। झूठ बोलने को एक कला बना दिया गया है। ब्रिटेन छोटे-छोटे राष्ट्रों की रक्षा करनेवाला कहा जाता था, पर एक-एक करके कम-से-कम आज तो वे सब राष्ट्र गायब हो चुके हैं। यह युद्ध एक चेतावनीरूप भी है। अगर लोग कुदरत की इस चेतावनी से जाग्रत न हुए, तो इन्सान बिल्कुल हैवान बन जायेगा। सच तो यह है कि आज इंसान की करतूतें हैवान को भी शर्मिदा कर रही हैं। मैं कुदरत की इस चेतावनी का अर्थ युद्ध छिड़ते ही समझ गया था। मगर मेरी यह हिम्मत नहीं थी। कि मैं आपसे कुछ कहूँ, किंतु आज ईश्वर ने मुझे हिम्मत दे दी है और मौका भी अभी हाथ से नहीं निकल गया है।

मेरी दरखवास्त है कि युद्ध बन्द किया जाये। इसलिए नहीं कि आप लोग लड़ने से थक गये हैं, बल्कि इसलिए कि युद्ध दरअसल बुरी चीज है। आपलोग नाजीवाद का नाश करना चाहते हैं, मगर आप नाजीवाद की कच्ची-पक्की नकल करके नाजीवाद का कभी नाश नहीं कर सकेंगे। आपके सिपाही भी आज जर्मन सिपाहियों की ही तरह सर्वनाश करने में लगे हुए हैं। फर्क सिर्फ इतना ही है कि शायद आपके सिपाही इतनी सम्पूर्णता से तबाही का काम नहीं करते, जितना कि जर्मन सिपाही। अगर यह सही है, तो शीघ्र ही, जर्मन सिपाहियों से ज्यादा नहीं तो उतनी ही सम्पूर्णता को श्राप लोग प्राप्त कर लेंगे। और किसी शर्त पर श्राप युद्ध में जीत नहीं सकते! दूसरे शब्दों में, आप लोगों को नाजियों से अधिक निर्दय बनना होगा। कोई भी हेतु, चाहे वह कितना ही न्याययुक्त क्यों न हो, आज प्रतिचाण जो अन्धाधुन्ध कत्लेआम हो रहा है, उसे जायज नहीं ठहराया जा सकता। में आपसे कहतृा हूँ कि यदि किसी हेतु से जिस तरह के जुल्म ढाये जा रहे हैं उनकी जरूरत पड़ती है, तो वह कभी न्याययुक्त नहीं कहा जा सकता।

मैं नहीं चाहता कि ब्रिटेन हारे। मगर मैं यह भी नहीं चाहता कि वह पाशविक बल की परीन्ना में जीते, भले ही वह पशूबल बाहुबल के रूप में प्रदर्शित किया जाये या बुद्धिबल के रूप में। आपका बाहुबल तो जगत्प्रसिद्ध है। क्या आपको यह प्रदर्शन करने की जरूरत है कि आपका बुद्धिबल भी तबाही करने में सबसे ज्यादा शक्तिशाली है? मुझे आशा है कि आप लोग नाजियों के साथ इस किस्म के मुकाबले में उतरना अपनी बेइज्जती समझेंगे। मैं आप लोगों के सामने एक बहुत ज्यादा बहादुरी और बहुत ज्यादा शराफ़त का तरीका रखता हूँ। यह तरीका बहादुर-से-बहादुर सिपाही की शान के लायक है। मैं चाहता हूँ कि आप नाजियों का सामना बिना हथियारों के करें, या फौजी भाषा में कहा जाये तो अहिंसा के हथियार से मुकाबला। करें। मैं चाहता हूँ कि आप अपनी और मनुष्यजाति की रचा के लिए मौजूदा हथियारों को निकम्मा समझकर फेंक दें। आप हेर हिटलर और सिन्योर मुसोलिनी को बुलायें कि आइए हमारे इस कई खूबसूरत इमारतोंवाले सुन्दर द्वीप पर आप कब्जा कर लीजिए। आप यह सब उन्हें दे देंगे, मगर अपना दिल और आत्मा उन लोगों को हर्गिज नहीं देंगे। ये साहबान आपके घर पर कब्जा करना चाहें, तो आप अपने घरों को खाली कर देंगे। अगर वे लोग आपको बाहर भी न जाने दें, तो आप सब-के-सब मर्द, औरत और बच्चे, कट जायेंगे, मगर उनकी अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे। इस तरीके को मैंने अहिंसक असहयोग का नाम दिया है, और हिन्दुस्तान में यह तरीका काफ़ी हदतक सफल भी हुआ है। हिन्दुस्तान में श्रापके नुमाइन्दे मेरे इस दावे से इन्कार कर सकते हैं। अगर वे ऐसा करेंगे, तो मुझे उनपर दया आयेगी। वे आपसे कह सकते हैं कि हमारा असहयोग पूरी तरह अहिंसात्मक नहीं था; उसकी जड़ में द्वष था। अगर वे लोग यह गवाही देंगे, तो मैं इससे इन्कार नहीं करूंगा। अगर हमारा असहयोग पूरी तरह हिंसात्मक रहता, अगर तमाम असहयोगियों के मन में आपके प्रति प्रेम भरा रहता, तो मैं दावे से कहता हूँ कि आप लोग जिस हिन्दस्तान के आज स्वामी हैं, उसके शिष्य होते, आप हम लोगों की अपेक्षा बहुत ज्यादा कुशलता से इस हथियार को सम्पूर्ण बनाते और जर्मनी, इटली और उनके साथियों का इसके द्वारा सामना करते। तब यूरोप का पिछले चन्द महीने का इतिहास दूसरी ही तरह लिखा गया होता। यूरोप की भूमि पर निर्दोष रक्त की नदियाँ न बहतीं, इतने छोटे-छोटे राष्ट्रों की हत्या न होती और द्वेष से यूरोप के लोग आज अन्घे न बन जाते। यह एक ऐसे आदमी की अपील है, जो अपने काम को अच्छी तरह जानता है। मैं पचास वर्ष से लगातार एक वैज्ञानिक की बारीकी से अहिंसा के प्रयोग और उसकी छिपी हुई शक्तियों की शोधने का प्रयत्न कर रहा हूँ। मैंने जीवन के हरेक क्षेत्र में अहिंसा का प्रयोग किया है। घर में संस्थाओं में, आर्थिक और राजनैतिक क्षेत्र में, एक भी ऐसे मौक़े का मुझे स्मरण नहीं है कि जहाँ अहिंसा निष्फल हुई हो। जहाँपर कभी निष्फलता सी देखने में आई, मैंने उसका कारण अपनी अपूर्णता को समझा है। मैंने अपने लिए कभी सम्पूर्णता का दावा नहीं किया। मगर मैं यह दावा करता हूँ कि मुझे सत्य, जिसका दूसरा नाम ईश्वर है, के शोध की लगन लगी रही है। इस शोध के सिलसिले में अहिंसा मेरे हाथ आई। इसका प्रचार मेरे जीवन का उद्देश्य है। मुझे अगर जिन्दा रहने में कोई रस है, तो वह सिर्फ़ इस उद्देश को पूरा करने के लिए ही है।

मैं दावा करता हूँ कि मैं ब्रिटेन का आजीवन और नि:स्वार्थ मित्र रहा हूँ। एक वक्त ऐसा था कि मैं आपके साम्राज्य पर भी मुग्ध था। मैं समझता था कि आपका राज्य हिन्दुस्तान को फायदा पहुँचा रहा है। मगर जब मैंने देखा कि वस्तु-स्थिति तो दूसरी ही है, इस रास्ते से हिन्दुस्तान का भला नहीं हो सकता, तब मैंने अहिंसक तरीके से साम्राज्यवाद का सामना करना शुरू किया और आज भी कर रहा हूँ। मेरे देश की क्रिस्मत में आखिर कुछ भी लिखा हो, आप लोगों के प्रति मेरा प्रेम वैसा ही कायग है और रहेगा। मेरी अहिंसा सारे जगत् के प्रति प्रेम माँगती है और आप उस जगत् का कोई छोटा हिस्सा नहीं है। आप लोगों के प्रति मेरे इस प्रेम ने ही मुभ से यह निवेदन लिखवाया है। ईश्वर मेरे एक-एक शब्द की शक्ति दे। उसीके नाम से मैंने यह लिखना शुरू किया था और उसी के नाम से बन्द करता हूँ। ईश्वर श्रापके राजनेताओं को समभ और हिम्मत दे कि वे मेरी प्रार्थना का उचित प्रतिफल दे सकें। मैंने वाइसराय साहब से कहा है कि अगर ब्रिटिश सरकार को ऐसा लगे कि मेरी इस अपील के हेतु को आगे बढ़ाने के लिए मेरी मदद उन्हें उपयोगी होगी, तो मेरी सेवायें उनके आगे हाजिर हैं।

'हरिजन सेवक': १३ जुलाई १९४०