नई दिल्ली: साहित्य अकादमी, पृष्ठ २६ से – ३४ तक

 

चार
 

'प्रिय मुत्तुकुमरन्

बुरा न मानना। साथ के रुपयों को अपनी जेब-खर्च के लिए रखता । आवश्य- कता पड़ने पर, मैं शहर में रहूँ या न रहूँ, खर्च के लिए पैसों की जरूरत पड़े तो इस नये शहर में तुम किससे मांगोगे और कैसे मांगोगे ? तुम्हें तकलीफ़ न हो—इसी सद्भावना से इसे मैं तुम्हारे पास भेज रहा हूँ !"

इतना लिखकर गोपाल ने अपना दस्तखत भी किया था।

उस पुर्जे को पढ़ने और उत्त रुपयों को देखने पर मुत्तुकुमरन् असमंजस में पड़ गया कि अपने मित्र के इस कृत्य पर गुस्सा जताए या स्नेह ? अपनी माली हालत जताने के लिए उसने इस तरह पैसा भेजा है. एक ओर यह विचार उठकर उसका गुस्साबढ़ाता तो दूसरी ओर दूसरा विचार हावी हो जाता नहीं । बेचारा तुम्हारा इतना ख्याल रखता है ताकि पैसे की तंगी से तुम जरा-सी भी तकलीफ़ में न पड़ जाओ।

'ठहरले को जगह, खाने को भाजन और लिखने की सुविधा--इन सारी
व्यवस्थाओं के बाद मुझे पैसे की क्या ज़रूरत पड़ेगी ? पैसा बयों न लौटा दिया जाये ?'-इस विचार को त्रियान्वित करते हुए भी उसका जी हिचका । ऐसा करने पर मित्र के दिल को चोट पहुंचे तो क्या हो ?

उसने उस लिफ़ाफ़े को रुपयों की गड्डी और उस पुर्जे को, दराज में इस तरह घुसेड़ दिया, मानो कोई बेकार का बण्डल हो।

उस विचार को दूर ढकेलकर उसने अपना जी नाटक रचना की ओर लगाया। मद्रास जैसे बड़े महानगर में गोपाल जैसे सुप्रसिद्ध अभिनेता द्वारा खेले जानेवाला नाटक का प्रणेता होकर नाम-यश लूटने का उसे अच्छा-खासा मौका हाथ लगा है। इससे ख ब फ़ायदा उठाना है--इस निर्णय तक पहुँचने पर उसके मन में यह बात आयी कि मदुरै कन्दस्वामी नायुडु की सभा के लिए लिखे हुए बाल विनोद नाटकों और अब गोपाल के लिए लिखे जानेवाले नाटक में कौन-सा मौलिक भेद होना चाहिए। ताकि तकनीक, रूप-विधान, संवाद, घटना- खला, हास्य आदि हरेक पहलू तथा स्थान और काल की दृष्टि से भी नाटक विश्वसनीय लगे।

वार-बार उसका ध्यान नाटक-लेखन के विषय में जिस तरह सोचने लगा था, उसका कारण यह नहीं कि उसे नाटक, संवाद या गीत लिखना नहीं आता था। इस कला में तो वह निपुण और सिद्धहस्त था ही। उसे एक नये संसार में अपनी कला का प्रदर्शन कर कामयाबी हासिल करनी थी। इतने सोच-विचार, असमंजस और संकोच के पीछे यही विचार घर किये हुए था।

मद्रास में कदम रखते-न-रखते, उसने यह आशा नहीं की थी कि उसके मित्र के द्वारा ही उसे ऐसा एक मौका मिलेगा। इस मौके का फायदा उठाकर सफल कदम रखने की ओर उसका ध्यान एकाग्र हुआ । वह मन-ही-मन उस पर योजनाओं की इमारत खड़ी करने लगा।

सबेरे नौ बजे छोकरा नायर इडली और कॉफी ले आया और बोला, "सर, आपका नाश्ता तैयार है।"

"साहब हैं या स्टूडियो चले गये?" मुत्तुकुमरन् "अभी नहीं गये । दस मिनट में जाएँगे !" उत्तर में लड़के ने यह भी जोड़ा कि साहब का हुक्म है कि आपकी हर जरूरत का ख्याल रखा जाये।

मुत्तुकुमरन् नाश्ता कर कॉफी पी रहा था कि टेलिफ़ोन की घंटी बजी।

बँगले से गोपाल बोल रहा था।

"मैं स्टूडियो जा रहा हूँ उस्ताद ! जो चाहो, लड़के से कहकर निस्संकोच मँगा लो ! बाद को स्टूडियो से फोन करूंगा। नाटक जरा जल्दी तैयार हो जाए तो अच्छा!"

"सो तो ठीक है लेकिन लिफ़ाफ़े में जो कुछ भेजा हैं, समझ में नहीं आता कि उसका क्या मतलब है. ! क्या तुम मुझे यह दिखाना चाहते हो कि वह तुम्हारे पास बहुत अधिक पैसा है ?"

"नहीं-नहीं, ऐसा मत कहो । यों ही जेब-खर्च के लिए रखना अपने पास !" "कोरा काग़ज़ हो तो उसपर कविता लिखी जा सकती है। यह तो छपे हुए रुपयों का नोट है ! यह मेरे किस काम का ?"

मुत्तुकुमरन् की बात सुनकर दूसरी ओर से गोपाल खिलखिलाकर हँस पड़ा और बातें पूरी कर शूटिंग के लिए चल पड़ा।

मुत्तुकुमरन् के अहंकार से परिचित होने के कारण ही गोपाल ने लिहाज़ की दृष्टि से भी स्टूडियो देखने या शूटिंग देखने को उसे नहीं बुलाया । वह यह भी जानता था कि बाहर से पहली बार मद्रास आनेवाले लोग स्टूडियो देखने के प्रति जितना उत्साह दिखाते हैं, उतना मुत्तुकुमरन् नहीं दिखायेगा।

दोपहर के बारह बजने के पहले माधवी ने चार-पाँच बार, बात बेबात पर मुत्तुकुमरन् को फ़ोन कर दिया था।

मदुरै रहते हुए मुत्तुकुमरन् इस बात से वाकिफ नहीं था कि टेलीफ़ोन इतना सुविधाजनक और आवश्यक साधन है । आधुनिक जीवन में मद्रास जैसे शहर में अब उसे भली-भाँति पता चल गया कि यह कितना जरूरी साधन है। जीवन की रफ्तार में भी मदुरै और मद्रास के बीच बड़ा फ़र्क था।

पगडंडी पर चलने का आदी, एकाएक कारों और लारियों से खचाखच भरे महानगरके चौराहे पर आ जाए तो जैसे लड़खड़ा जाएगा वैसे ही उसे अपने को सँभालना पड़ रहा था। आमने-सामने बातें करते हुए जो स्वाभाविक बोली बोली जाती है, रोष या हँसी-खुशी प्रकट की जाती है, टेलीफ़ोन में उसे वैसी बात करना नहीं आया । तस्वीर खिंचवाते हुए जो कृत्रिमता आ जाती है, टेलिफ़ोन में बातें करते हुए भी वैसी ही कृत्रिमता आ जाती थी। लेकिन गोपाल या माधवी के बोलने में बड़ी स्वाभाविकता नजर आयी। उनकी तरह बोलने का उसका मन कर रहा था। अनेक बातों में वह गर्व से चूर था तो क्या ! मद्रास के वातावरण में कुछ बातों में उसका गर्व चूर हो रहा था।

काफी सोच-विचार के बाद भी वह यह निर्णय कर नहीं पाया कि क्या लिखा जाए ? नहाकर कपड़ा बदला और दोपहर का भोजन भी समाप्त किया।

गोपाल ने स्टूडियो से फ़ोन किया, "उस्ताद ! तीन बजे तैयार रहो । हमारे नये नाटक के संबंध में बात करने के लिए शाम को चार-साढ़े चार बजे मैंने सारे प्रेस रिपोर्टरों को बुलाया है । एक छोटी-सी चाय-पार्टी भी है। बाद में, सभी तुमसे नये नाटक के विषय में अनौपचारिक बात करेंगे। कुछ सवाल भी करेंगे। तुम्ही को जवाब देना होगा। समझे ?"

"अभी नाटक तैयार ही नहीं हुआ है। उसके पहले इन सब बातों की क्या जरूरत है ?
"इस शहर में यह रिवाज-सा है । अग्निम प्रचार है और क्या ? गाली भी दो तो भी नाश्ता-कॉफ़ी और चाय-पान के साथ लोग सुन लेंगे !"

"धीरे-धीरे मुझे मद्रास के जीवन के लिए तैयार करना चाहते हो ! है न ?"

"हाँ, किसी न किसी दिन तैयार तो होना ही है !"

"यह सब तो एक नाटक लगता है।"

"हाँ, नाटक ही तो है !"

"कौन-कौन आएँगे?"

"सिनेमा के संवाददाता, मशहूर कथाकार, संवाद-लेखक, निर्देशक, हमारी नाटक मंडली के लिए चुने गये लोग और अभिनेता तथा अभिनेत्रियों में से भी कुछेक आएँगे !"

"मुझसे भी कुछ पूछेगे ? क्या पूछेगे ?"

"क्या पूछेगे? यही कि नाटक का कथानक क्या है, कब तैयार होगा और . कैसे तैयार होगा ? कह देना कि यह तमिळ प्रदेश के महत्त्वपूर्ण स्वर्णिम युग को चित्रित करनेवाला महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक नाटक होगा । ऐसा नाटक तमिळ प्रदेश में ही नहीं, समूचे भारत में भी तैयार नहीं हुआ होगा !"

"सवाल और सवाल का जवाब तुम्हीं ने मुझे सिखा दिया ! है न बात सच्ची ?"

"हाँ, तुम जो भी जवाब दो, महत्त्वपूर्ण शब्द जरूर जोड़ देना, बस !"

"अच्छा, तो यह कहो कि महत्त्वपूर्ण गोपाल नाटक मंडली का महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक नाटक 'महत्त्वपूर्ण ढंग से प्रस्तुत होगा।"

"दिल्लगी छोड़ो ! मैं सीरियसली कह रहा हूँ।

'यहाँ तो दोनों में कोई फ़र्क मालूम नहीं होता। पता ही नहीं लग पाता कि कौन-सी बात गम्भीर है और हल्ली-फुल्की बातें भी कैसी गम्भीरता से कही जाती है।"

"अच्छा, छोड़ो उन बातों को ! तुम तैयार रहो । मैं तीन बजे आ जाता हूँ !

माधवी को भी जरा जल्दी आने के लिए फ़ोन किया है।" गोपाल ने बात पूरी की।

मुत्तुकुमरन को गोपाल पर आश्चर्य हो रहा था-- मद्रास आने पर गोपाल ने जीवन को कितनी तेजी से पढ़ा है ! ऐसी दुनिया-

दारी उसने कब सीखी और कहाँ से सीखी? इसने समयोचित ज्ञान किससे सीखा और कैसे सीखा ? समय के अनुसार सारा प्रबन्ध करने की राजनैतिक चाणक्य- वृत्ति को कला-जीवन में भी उतारना कोई ऐसा-वैसा काम नहीं है ! गोपाल इसमें सच ही बड़ा निष्णात है !

सबेरे नाटक लिखने को कहना और शाम को पत्रकारों को बुलाकर विज्ञापन के लिए रास्ता निकालना, उसे लगा कि शहरी जीवन में कामयाबी हासिल करने के

लिए यह सामर्थ्य और फुर्ती ज़रूरी है। गोपाल की कार्य-चातुरी देखकर उसने
30 / यह गली बिकाऊ नहीं
 


महसूस किया कि किसी योग्य कार्य को निपटाना मात्र काफी नहीं, चार जनों को बुलाकर दावत खिलाना और झख मारकर यह मनबाना भी जरूरी है कि मैंने जो किया, वही श्रेष्ठ है !

दोपहर के दो बजे से पौने तीन बजे तक वह बिस्तर पर करवटें बदलता रहा। नींद नहीं आयी। छोकरा नायर जो अखबार छोड़ गया था, उसे पढ़ने में वह समय बीत गया।

तीन बजे के आस-पास उठकर उसने हाथ-मुँह धोया और कपड़ा बदलकर तैयार हो गया। किसी ने कमरे के दरवाजे पर धीमी-सी दस्तक दी।

मृत्तकृमरन ने किवाड़ खोला तो वेले की भीनी महक ने उसे सहलाया। माधवी आयी थी, खूब सज-धजकर । होंठों पर लिपस्टिक लगाकर शायद हल्के से उन्हें पोंछ भी लिया था।

मुत्तुकुमरन् ने मुस्कराहट के साथ उसका स्वागत किया, "मैंने समझा कि तुम्हीं होगी।"

"कैसे?"

"किवाड़ पर लगी हल्की दस्तक से ही, जिसको ध्वनि तबले से भी मीठी थी।" "चूड़ियों की झनकार भी सुन पड़ी होगी।"

हाँ कहें या ना—मुत्तुकुमरन् एक क्षण रुका और उसे निराश न करने का निर्णय कर बोला, "हाँ, हाँ! सुन पड़ी थी।"

"कहते हैं कि स्त्रियों की चूड़ियों की झनकार सुनकर कवियों की कल्पना उमगती है। आपको कोई कल्पना नहीं सूझी क्या ?" . इस ढीठ प्रश्न से मुत्तुकुमरन् तनिक अकचका गया और संभलकर बोला, "जब स्वयं कविता ही प्रत्यक्ष हो गयी तो कल्पना की क्या ज़रूरत है माधवी ?"

माधवी उसे आँखों आँखों में देखकर मुस्करायी। अपने साज-शृगार से वह धन-मोहिनी की तरह उसका मन मोह रही थी। मुत्तुकुमरन् भी उसे कुछ इस तरह देख रहा था, मानो आँखों से ही पी जाएगा।

"क्या देख रहे हैं ?"

"देख रहा हूँ कि हमारी कथा-नायिका कैसी है।"

यह सुनकर उसका गुलाबी चेहरा लाल हो गया। द्वार पर किसी के वखारने की आवाज़ आयी। दोनों ने मुड़कर देखा तो गोपाल सिता खड़ा था।

"क्या मैं अंदर आ सकता हूँ।"

"पूछतें क्या हो ? आओ ना !"

"बात यह है कि तुम दोनों बड़ी प्रसन्न मुद्रा में कुछ बातें कर रहे हो ! पता नहीं, इसमें तीसरा भी सम्मिलित हो सकता है कि नहीं। या कि यह दोनों तक ही सीमित है ?"

"दो के बदले तीन ! इसमें क्या फ़र्क पड़ता है ?"

"एक चीज़ में फ़र्क पड़ता है।"

"किसमें?"

"प्रेमियों के वार्तालाप में !"

गोपाल की इस बात को माधवी कहीं बुरा न मान जाए, यह देखने के लिए मुत्तुकुमरन् ने धीरे-धीरे उसके चेहरे को ताका 1 वह हँस रही थी-शरारत भरी हँसी ! लगा कि गोपाल की बात पर वह मन-ही-मन खुश हो रही थी।

गोपाल तो अविवाहित था ही, माधवी भी अविवाहिता धी और स्वयं मुत्तुकुमरन् भी अविवाहित था : तीनों खुल्लमखुल्ला बड़े धैर्य के साथ प्रेम भरी बातें कर रहे थे. प्रेम का नाता जोड़ना चाहते थे। असम्भव को सम्भव बना रहा था, मद्रास का यह कला जगत ! मुत्तुकुमरन् को लगा कि माना सचमुच बहुत आगे बढ़ गया है। पर उसके अनुकूल अपने को ढालने की वह जुर्रत नहीं कर पा रहा था। उसे सब कुछ सपना-सा-लगा।

साढ़े तीन बजे वह, गोपाल और माधवी तीनों बाहर बगीचे में आये । वहाँ चाय-पार्टी के लिए भेजें और कुर्सियाँ लगी थीं । मेजों पर सफेद मेजपोश बिछ थे। उनपर फूलदान और गिलास कलापूर्ण ढंग से बड़े करीने से रखे हुए थे।

एक-एक कर लोग आने लगे । गोपाल ने मुत्तुकुमरन को उनसे परिचय कराया । माधवी मुत्तुकुमरन् के इर्द-गिर्द हँसती-मुस्कराती खड़ी रही । महिला- मेहमान आती तो वह उन्हें लिवा लाती और मुत्तुकुमरन् से परिचय कराती थी। पार्टी में आये हुए एक संवाद-लेखक ने मुत्तुकुमरन को नीचा दिखाने के लहजे में पूछा, "यही आपका पहला नाटक है या इसके पहले भी कुछ लिखा है ?"

मुत्तुकुमरन् ने उसकी अनसुनी कर चुप्पी साधी । पर उसने बड़ी बेपरवाही से अपना वही सवाल दुहराया।

मुत्तू कुमरन ने उसे टोकने के विचार से पूछा, "आपने अपना क्या नाम 1 - - बताया ? .

"दीवाना !"

"अब तक कितने फिल्मों के लिए आपने संवाद लिखा है ?"

'चालीसेक !"

"शायद इसीलिए जनाब यह सवाल कर रहे हैं !"

मुत्तुकुमरन् की बात से वह सकपका गया। उसके बाद वह मुत्तुकुमरन् के सवालों का डरते-डरते वैसे ही जवाब देने लगा, जैसे शिक्षक के सामने छात्र । यह देखकर माधवी पुलकित हो रही थी।
मुत्तुकुमरन के अंहकार और गर्व पर वह फूली न समायी । वह उसपर जान देने को तैयार हो गयी।

चाय-पार्टी के बाद गोपाल उठा और मेहमानों को मुत्तुकुमरन् का परिचय देते हुए बोला-

"मुत्तुकुमरन् और मैं वायस् कंपनी के समय से ही अभिन्न मित्र हैं । मेरा जाना-पहचाना पहला कवि मुत्तुकुमरन ही है । उन दिनों 'बायस् कंपनी के दिनों में हम दोनों एक चटाई पर सोते रहे । मैं उसे 'उस्ताद' के नाम से पुकारता था । अब भी कई बातों में वह मेरा उस्ताद है । उसके सहयोग से मैंने यह नाटक मंडली शुरू की है । मैं यकीन दिलाता हूँ कि यह कई महत्वपूर्ण सफल नाटक प्रस्तुत कर दर्शकों के दिलों में स्थान पायेगा । इसके लिए आप लोगों का पूर्ण सहयोग और प्रेम चाहिए ,

बस !"

उसके इस परिचय-भाषण के बाद कुछ पत्रकारों ने गोपाल और मुत्तुकुमरन को एक साथ खड़ा किया और फ़्लैश फोटो खींचा।

इस प्रकार, उन्हें तस्वीरें उतारते देखकर मुत्तुकुमरन ने जरा परे खड़ी माधवी को बुलाकर उसके कानों में कहा, "लगता है, इस तरह हम दोनों को साथ खड़ाकर कोई फ़ोटो नहीं लेगा!"

"तो क्या, हम खुद ही खिचवा लेंगे !"---कहकर माधवी हँसी।

उसका यह उत्तर मुत्तुकुमरन को बहुत अच्छा लगा।

वाद को गोपाल ने मुत्तुकुमरन् से विनती की कि वह भी मेहमानों को कुछ सुनाये।

मुत्तुकुमरन् बात-बात पर मेहमानों को हँसाता हुआ बोला । दो-तीन मिनट में ... ही वे उसके वशीभूत हो गये । उसको हँसी-मजाक भरी बातों से श्रोताओं का बड़ा मनोरंजन हुआ।

"मैं मद्रास के लिए नया हूँ!"-इन शब्दों से उसका भाषण शुरू हुआ और आधे घंटे तक जारी रहा । मेहमान मंत्र-मुग्ध-से रह गये । पार्टी के अंत में माधवी ने एक गाना गाया: 'मेरी आँखों से मेरे मन में समा जाओ।'

मुत्तुकुमरन् को लगा कि वह उसी के स्वागत में ये पंक्तियाँ गा रही है। उसने पाया कि उसे गाने गाना भी अच्छी तरह आता है। मधुर स्वर में दिल को जीत लेने वाले गीत को सुनकर वह उसपर मुग्ध हो गया।

पार्टी के बाद विदा लेते हुए सब लोग पहले गोपाल और बाद को मुत्तुकुमरन् से हाथ मिलाकर विदा हुए। मुत्तुकुमरन् से विदा लेते हुए कोई भी उसके भाषण की तारीफ करना नहीं भूला। मुत्तुकुमरन को इतनी जल्दी लोगों के दिल में स्थान मिल गया, यह देखकर गोपाल फूला नहीं समाया।

सबके जाने के बाद मुत्तुकुमरन् ने माधवी से कहा, "वाह ! तुम तो बहुत खूब
यह गली बिकाऊ नहीं / 33
 


गाती हो ! मैं तो सुनकर अवाक रह गया !"

"गाना ही नहीं, भरत-नाट्यम् भी इसे बहुत अच्छा आता है !" गोपाल ने कहा।

यह सुनकर माधवी कुछ इस तरह झेंप गयी, मानो भरत-नाट्यम् की किसी मुद्रा में खड़ी हो।

मुत्तुकुमरन् उसकी हर अदा पर मंत्र-मुग्ध हो गया । जहाँ वह बिना किसी झिझक के बातें करते हुए सुन्दर लगती थी, शरमाती हुई भी सुन्दर लगी। गाते हुए सुन्दर थी, मौन रहते हुए भी सुन्दर थी। हाँ, हर बात पर वह सुन्दरता की पुतली थी!

"आज आपका भाषण बहुत अच्छा रहा !" माधवी भी उसकी तारीफ़ बाँधने में लगी तो मुत्तुकुमरन् ने गर्व में भरकर कहा, "मेरा भाषण हमेशा अच्छा ही होता है।"

"पर मैंने तो आज ही सुना !"

"तुम्हारे इशारे पर तो जब चाहो मैं भाषण झाड़ने को तैयार बैठा हूँ।"

वह हँसी । उसकी चमकीली दंत-पंक्तियों की आभा देखकर वह अपना आपा खो बैठा। स्त्री-सौंदर्य का ऐसा अनुपम चमत्कार उसने देखा नहीं था, केवल काव्यों के वर्णनों में ही पड़ा था।

गोपाल उसके पास आया और बोला, "नाटक अब सौ फीसदी सफल होकर रहेगा!"

"अभी से कैसे कहा जा सकता है ?"

"माये हुए लोग कह रहे हैं ! मैं कहाँ कहता हूँ ?"

"वह कैसे?"

"अगर आदमी पसंद आ गया तो समझो कि उसका सब कुछ पसंद आ गया !

आदमी पसन्द नहीं आया तो उसकी अच्छी-सी अच्छी चीज़ में भी दोष निकालना इस शहर की पुरानी आदत है उस्ताद !" -गोपाल ने कहा।

मुत्तुकुमरन् को यह बात कुछ अजीब-सी लगी। लेकिन उसपर उसने गोपाल से तर्क करना नहीं चाहा। उसी दिन शाम को गोपाल, मुत्तुकुमरन और माधवी को साथ लेकर एक अंग्रेजी फिल्म देखने गया।

थियेटर वाले को पहले ही फोन कर 'न्यूज़ रील' के लगने के बाद वे अपने लिए आरक्षित बालकनी में जा बैठे और अंतिम दृश्य खत्म होने के पहले ही उठ आये । नहीं तो भीड़ गोपाल को घेरकर खड़ी हो जाती और उसे फ़िल्म देखने ही नहीं देती। गोपाल की इस हालत पर मुत्तुकुमरन् को बड़ा ताज्जुब हुआ । सार्व- जनिक स्थानों में भी आजादी से चलने-फिरने न देनेवाली कीर्ति की यह रोशनी मुत्तुकुमरन् को ज़रा भी स्वीकार नहीं थी। मुत्तुकुमरन् उस कोति से घृणा करता था. जो । मनुष्य को अपनी कैद में रखे ! पर गोपाल तो खुश नजर आ रहा था ।

मुन्नुकुम रन् ने गुस्से में भरकर पूछा, "यह कीर्ति किस काम की, जो मनुष्य को स्वेच्छा से चलने न दे ?"

गोपाल के उत्तर देने के पहले कार बँगले' पर पहुँच गयी। तीनों कार से उतरे। भोजन के उपरांत मुत्तुकुमरन् अपने 'आउट हाउस' की ओर बढ़ा।

"इन्हें पहुँचाकर आती हूँ !"-माधवी गोपाल से अनुमति लेकर मुत्तुकुमरन् के साथ चली । उस ठंडी-ठंडी रात में माधवी के साथ 'आउट हाउस' चलते हुए मुनुकुमरन् का मन उत्साह से भर गया । उसकी चूड़ियों की झनकार उसके दिल में गूंज उठी । उसको मुस्कान और खिलखिलाहट उसके हृदय को गुदगुदाने लगी। ठंडे बगीचे में रात के द्वितीय पहर में 'रात रानी' की एक लता सफ़ेद फूलों से ऐसी लदी थी, जैसे नीले आकाश में तारे बिखरे हों। उनकी भीनी-भीनी खुशबू और सर्द रात की नुनक में उसका हृदय अनुराग भरा गीत गाने लगा।