यह गली बिकाऊ नहीं/2
"बारिश की वजह से बंगलोर का प्लेन आधा घंटा लेट है। इसलिए मालिक के आने में आधा घंटा और लगेगा!"
सबके चेहरे जैसे उस बिलम्ब-सूचना से खिल गये । उसके जाने के थोड़ी देर बाद लुंगी-बनियान पहने दूसरा व्यक्ति आया, जिसके कंधे पर मैला-सा अंगोछा था। उसके हाथ में एक बड़ा ट्रे था, जिसमें कॉफ़ी के दस-बारह गरमागरम प्याले थे। सबको कॉफ़ी मिली।
कॉफ़ी पीने के बाद एक युवती हिम्मत करके उठी और मुत्तुकुमरन् की बगल में मा बैठी । चंदन की खुशबू से उसकी देह महक रही थी। उसने पूछा, "क्या आप भी 'ट्रप' में सम्मिलित होने के लिए आये हैं ?" मुत्तुकुमरन् उसकी स्वर-माधुरी में इतना खो गया था कि प्रश्न पर ध्यान ही नहीं दिया उसने पूछा, "आपने क्या कहा ?"
उसने हँसते हुए अपना सवाल दुहराया।
"गोपाल को मैं अच्छी तरह से जानता हूँ। तब वह उन दिनों मेरे साथ बायस
कंपनी में स्त्री की भूमिका किया करता था। मैं तो बस यों ही उससे मिलने चला
आया!"
उसने देखा कि हाल में बैठे हुए सभी लोगों का ध्यान उन्हीं दोनों की तरफ़
लगा हुआ है । उसे यह भी लगा कि सभी लड़कियाँ उसके पास बैठी हुई लड़की को
ईर्ष्या की दृष्टि से देख रही हैं।
पास बैठी हुई लड़की ने पूछा, "क्या मैं आपका नाम जान सकती हूँ ?"
"मुत्तुकुमरन् !" "बड़ा प्यारा नाम है !"
"तो किसी से प्यार हो गया' के बदले आप 'नाम से प्यार हो गया' गा सकती हैं ?"
उसका चेहरा लाल हो गया । होंठों में मुस्कान लुका-छिपी-सी खेलने लगी। "मेरा मतलब है"
"मेरा भी मतलब है । क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ ?" माधवी!"
"आपका नाम भी तो बड़ा प्यारा है।"
माधवी के होठों में फिर से वहीं मुसकान खेल पायीं।
पोटिको में एक कार के बड़ी तेजी से आकर रुकाने की आवाज़ हुई । दरवाजे के खुलने और बंद होने की आवाज़ भी आयी।
वह उससे विदा लेकर अपनी पुरानी जगह पर चली गयी। हाल में असाधारण- सी चुप्पी फैल गयी। मुत्तुकुमरन् को यह समझते देर नहीं लगी कि गोपाल आ गया है।
हवाई अड्डे से आने वाले गोपाल को अंदर जाकर हाथ-मुँह धोने और कपड़े बदलने में दस मिनट लग गये। उन दस मिनटों में हाल में बैठा हुआ कोई किसी से कुछ नहीं बोला। सबकी आँखें एक ही तरफ़ लगी हुई थीं। सबने इस बात का ख्याल रखा था कि किस मुद्रा में गोपाल का ध्यान आकर्षित किया जा सकता है। एकदम मौन छाया हुआ था। तो भी हरेक व्यक्ति आनेवाले पल के अनुरूप अपने तन-मन को बदलने का उपक्रम कर रहा था। 'क्या बोलें, कैसे बोलें, कैसे हँसे, कैसे हाथ जोड़ें ?" हर कोई बारीकी से मन ही मन इस बात का भी रिहर्सल कर रहा था। भरे-पूरे दरबार में राजा के प्रवेश के इंतजार में जैसी शांति विराजेगी, वह 'हाल उसका नमूना पेश कर रहा था।
'हाल' का यह हाल देखकर मुत्तुकुमरन के मन में यह द्वंद्व मचा कि गोपाल जैसे मित्र से मिलने के लिए क्या मुझे भी ऐसी बनावटी मुद्रा ओड़नी पड़ेगी? नहीं, मित्र-मिलन में ऐसा आदर-भाव दर्शाने या उतावली दिखाने की कोई जरूरत नहीं।
वह इस नतीजे पर पहुंचा कि पहले मैं उसका व्यवहार देखूगा । बाद को उसके
मुताबिक अपना तरीका अख्तियार करूँगा।
नाट्य कंपनी में काम करते हुए जिन दिनों नाटक नहीं होते थे, दोनों-वह और ' गोपाल---रात को सिनेमा देखने चले जाते थे। आधी रात के बाद लौटकर एक ही चटाई पर सोते थे।
उन पुरानी रातों की याद आते ही, मुत्तुकुमरन् को यह शंका हुई कि क्या गोपाल अभी भी उतना ही धनिष्ठ, आत्मीय और मिलनसार होगा!
पैसा मनुष्य और मनुष्य के बीच स्तर-भेद पैदा कर देता है । उसके साथ नाम- यश, रोब-दाब आदि मिल जाएँ तो यह खाई और बढ़ जाती है। यह भेद-भाव को शिखर पर चढ़ाता है और कुछ को गड्ढे में गिरा देता है । क्या शिखर पर खड़ा व्यक्ति गड्ढे में पड़े लोगों को कहीं बराबरी की दृष्टि से देखेगा?
भूकंप में समतल भूमि जैसे ऊँची हो जाती है और ऊँची भूमि नीचे दब जाती है, वैसे ही धन-दौलत का भूकंप आने पर कुछ चोटियाँ उग आती हैं । उन चोटियों की वजह से उनके आसपास की भूमि घाटियों में बदल जाती हैं । घाटियां बनायी नहीं जातीं । चोटियों के बनने पर, समतल भूमि भी घाटियों का-सा भ्रम पैदा करती हैं, बस !
चोटी और घाटी का स्वरूप चित्रण करते हुए उसका कवित्वसंपन्न स्वाभिमानी हृदय यह मानने को हिचका कि गोपाल चोटी पर है और वह घाटी में ।
धान के खेत में जैसे घास सिर उठाती है, वैसे कवित्व से पूर्ण उर्वर मनोभूमि में गर्व का सिर उठाना स्वाभाविक है। गर्व के दो प्रकार होते हैं। सुरम्य और कुरम्य । कवि हृदय में उत्पन्न होनेवाला गर्व सुरम्य होता है-
गुलाब की लाली सुरम्य और आँखों को आराम देनेवाली होती हैं । कनेर की लाली तो आँखों में चुभती है । सुकवि का गर्व गुलाब की लाली के समान होता है और कवित्वशून्य का गर्व कनेर पुष्प का-सा होता है।
मुत्तुकुमरन् के हृदय में यही सुरम्य गर्व विराजमान था। इसलिए वह अपने. मित्र गोपाल को अपने से भिन्न और अपने से बढ़कर ऊँचाई में रहनेवाला मानने: को तैयार नहीं था । अपनी बड़ाई को भूलना या घटाना भी उसे स्वीकार नहीं था।
वहाँ का वातावरण-~~-यानी वह 'हाल', उसका चमकता संगमरमर का फर्श, उस पर सुन्दर कालीन, करीने से लगे सोफे, उनपर सुन्दर परियों-सी बैठी युवतियाँ उनकी बहुरंगी वेश-भूषा और शरीर पर लगे इत्र की महक-यह सब मिलकर, उसके अंदर सोये हुए सुरम्य गर्व को उजागर करनेवाला ही सिद्ध हुआ। कली के अंदर संपुटित सुगंध की भाँति (ो जाने पर भी न मिलनेवाली उसकी गर्व-माधुरी विद्यमान थी।
गोपाल अभी हाल में नहीं आया था। पर किसी भी क्षण आने की संभावना थी। मुत्तुकुमरन् के मन में रह-रहकर गोपाल के विषय में पुरानी स्मृतियाँ लहरा रही थीं।
उन दिनों में, जब कभी कथानायक की भूमिका निभानेवाला गोपाल अपना पाट खेल नहीं पाता था, तब मुत्तुकुमरन् वह भूमिका स्वयं करता था। स्त्री के वेश में गोपाल कृत्रिम लज्जा दर्शाते हुए उसके सामने आ खड़ा होता था । उस गोपाल के साथ इस गोपाल की, जिसके आने की राह सारा हाल चुप बैठा तक रहा था, उसका मन काल्पनिक तुलना करने की कोशिश कर रहा था।
उन दिनों वेश में न होने पर भी वह लजाता-सकुचाता ही उसके सामने पेश आता था । यही नहीं, पति-परायणा पत्नी की भाँति आज्ञा पालन में भी कोई कसर नहीं रखता था।
"अगर तुम सचमुच औरत होते तो इस मुत्तुकुमार वाधार ही से शादी कर सकते थे !" नाटक सभा के मालिक नायुडू 'ग्रीन रूम' में आकर कभी-कभी गोपाल की खिल्ली भी उड़ाते थे।
वह स्त्री की भूमिका में सुन्दरियों से सुन्दर दीखता था। बिना देश के साधारण हालत में रहते हुए दोनों के बीच ऐसी ही नोंक-झोंक चलती थी-
"देवी ! क्या आज रात को हम चल-चित्र देखने चलें ?" मुत्तुकुमरन् पूछता।
"नाथ ! जैसी आपकी इच्छा ! "गोपाल उत्तर देता ।
'अरे ! उन सारी बातों को सोचने से अब क्या फ़ायदा? यह तो भूखे आदमी का, किसी पुरानी दावतं की याद करने जैसा हुआ !' अंतर्मन ने मुत्तुकुमरन को टोका ।
किसी अजीब ‘सेंट' की महक पहले ही गोपाल के आने की सूचना दे गयी और बाद में रेशमी कुरता और पाजामा पहने गोपाल आया। उपस्थित सभी लोगों पर उसकी सरसरी नज़र पड़ी। युवतियों ने लंजाते हुए और मुस्कराते हुए हाथ जोड़े। युवकों ने प्रसन्नवदन होकर हाथ जोड़े । केबल मुत्तुकुमरन ही ऐसा था, जो गंभीर मुद्रा में पैर पर पैर धरे बैठा रहा। गोपाल के हाथ जोड़ने के पहले, वह उठने या हाथ जोड़ने को तैयार नहीं था। गोपाल की नजर उस पर पड़ी तो उसका चेहरा आश्चर्य से खिल उठा।
"कौन, मुत्तुकुमार वाधार ? अरे, यह क्या ? बिना किसी सूचना के आकर तुमने तो आश्चर्य में डाल दिया ?"
मुत्तुकुमरन की बाँ, खिल गयीं । उसे इस बात की खुशी हुई कि गोपाल के व्यवहार में कहीं कोई फ़र्क नहीं है।
"अच्छी तरह तो हो, गोपाल ? सूरत-शकल बदल गयी! मोटे भी हो गये हो ! अब तुम स्त्री की भूमिका करोंगे तो औरत-जात को बड़ी फजीहत होगी।"
"धाते न आते आपने ताना मारना शुरू कर दिया !"
"अच्छा तो फिर क्या कहूँ, अभिनेता सम्राट ?".
"छोडो यार ! इन लोगों को इन्टरव्यू के लिए बुलाया था ! वह पूरा कर लूँ
या कल आने को कहूँ ? जैसा तुम कहोगे, वैसा करूँगा।"
"अरे नहीं, ये लोग बड़ी देर से बैठे हैं । इनके काम से निबट लो । मुझे कोई जल्दी नहीं है ! " मुत्तुकुमरन ने कहा।
"अच्छा, तुम कब आये और कहाँ ठहरे हो ?' "हमारी बात बाद को होगी। पहले इन लोगों से मिल लो !"
मुत्तुकुमरन की इस मेहरबानी का एहसान जताते हुए मछली की तरह आँखों वाली कई युवतियाँ इस तरह देखने लगीं मानो उसे निगल ही जाएँगी एक साथ सभी युवतियों को आकर्षित करने से उसका हृदय गर्व से और भी भर उठा।
नाटक मंडली के लिए अभिनेता-अभिनेत्रियों का चुनाब शुरू हुआ। मुत्तुकुमरन जरा दूर से सोफे पर बैठकर 'इन्टरव्यू' का तमाशा देखने लगा। पाश्चात्य देशों की तरह यद्यपि गोपाल ने उनके वक्षस्थल, कटि प्रदेश और लंबाई-मोटाई की नाप नहीं ली; लेकिन अपनी लोलुप दृष्टि से इन्हें नाप रहा था । कुछ अति सुन्दर लड़किय को विभिन्न कोणों में खड़ाकर गोपाल मजे लूट रहा था, मानो किसी विशेष अभिनय के लिए उन्हें 'पोज' देने के लिए कह रहा हो । वे लड़कियाँ भी बिना किसी आनाकानी के, उसकी आज्ञा का पालन कर रही थीं। मर्दो की इन्टरव्यू में कुछ अधिक समय नहीं लगा। कुछ सवाल-जवाब में मर्दो की इन्टरव्यू खत्म हो गयी। . डाक से सूचना देने का आश्वासन देकर उसने सबको विदा किया। फिर मुत्तुकुमरन् के पास जाकर ऐसी मर्यादा से बैठा, जैसे कोई सुशीला पत्नी पति के पास जाकर बैठती हो।
"क्यों, गोपाल ! तुम सचमुच नाटक कंपनी चलाने वाले हो या इस बहाने इन लड़कियों के चेहरे-मोहरे देखने का ढोंग रच रहे हो ? कहीं इस बात का बदला तो नहीं ले रहे कि उन दिनों स्त्री का पार्ट करने के लिए लड़कियाँ तैयार नहीं होती थीं और उनका 'पार्ट' तुमको अदा करना पड़ता था !"
"तब का नखरा, अब भी ज्यों का त्यों तुम में मौजूद है गुरु ..! अच्छा, अभी तक तुमने यह नहीं बताया कि तुम कहाँ ठहरे हो ?"
मुत्तुकुमरन् ने एल्डंबूर के उस लॉज का नाम बताया, जिसमें वह ठहरा हुआ था।
"मैं अपने ड्राइवर को भेजकर, लॉज का हिसाब चुकता कर तुम्हारा बोरिया- बिस्तर यहीं लाने को कहता हूँ। यहाँ एक. 'आउट हाउस' है। वहाँ ठहर सकोगे न?"
"हाँ, एक शर्त पर !"
"कौन-सी?"
"नाथ ! जैसी आपकी इच्छा-यह वाक्य- एक बार स्त्रियों की-सी
गोपाल ड्राइवर को
आवाज़ में कहो तो मैं मान जाऊँगा।"
गोपाल ने बोलने का उपक्रम किया । लेकिन कंठ ने साथ नहीं दिया तो बीच ही में रुक गया।
"अरे गोपाल !तुम्हारी तो आवाज मुटिया गयी।"
"आवाज ही क्यों, मैं भी तो मोटा हो गया हूँ"~-कहते हुए बुलाने बाहर गया। उसका पीछा करते हुए मुत्तुकुमरन् बोला, "कमरे को अच्छी तरह से देखभाल कर मेरी सारी सम्पत्ति ले आने को कहना ! निघंटु, छंद-शास्त्र आदि वहीं पड़े हैं। कुछ छूट न पाये !"
"चिंता छोड़ो, यार ! सारी चीजें सही सलामत आ जाएँगी !"
"लॉज का भाड़ा भी तो देना है।"
"क्या तुम्हीं को देना है ? मैं चुका दूंगा तो क्या हर्ज है ?"
मुत्तुकुमरन् ने कोई उत्तर नहीं दिया । गोपाल का ड्राइवर छोटी कार लेकर ए@बूर गया। उसे, भेजकर गोपाल लौटा और मुत्तुकुमरन् से बड़े प्यार से बोला, "बहुत दिनों के बाद आये हो । हमें आज साथ-साथ डिनर खाना चाहिये। बोलो, रात को क्या-क्या बनाने को कहूँ ? तकल्लुफ़ मत करो!"
"दाल की चटनी, मेंथी का सांबार, आम का अचार..."
"छि: ! लगता है कि अगले जन्म में भी तुम वायस् कंपनी की उस चालू 'मेनु' को नहीं भूलोगे । नायुडु हमें ऐसा परहेज़ी खाना खिलाता रहा कि कहीं मनुष्य के स्वाभाविक गुण–प्रेम, शोक, वीरता आदि हममें उत्पन्न न हो जायें।"
"वह खाना खाने पर ही तो तुम नायुडु के खिलाफ आवाज उठा नहीं पाये कि हमें अच्छा खाना खिलाओ।"
"अच्छा, तो इसीलिए उसने हमें ऐसा खाना खिलाया था!".
"तो फिर किसलिए? उसने इस बात का बड़ा ख्याल रखा कि उसका खाना खाकर उसके विरुद्ध झंडा उठाने की ताकत हममें न आ जाए. !"
"जो भी हो, उसका खाना खाकर ही तो हम जीते रहे। एक या दो दिन नहीं; बारह सालों से भी अधिक ! दाल की चटनी, मेंथी का सांबार, आम का अचार"
उस तरह वहाँ बारह साल बिताने पर ही तो हम आज यहाँ इस स्थिति तक "सो तो ठीक है । मैं अभी उसे भूला नहीं हूँ ! अच्छी तरह याद है।"
गोपाल के मुंह से यह सुनते हुए मुत्तुकुमरन् ने उसके चेहरे का भाव पढ़ा। मुत्तकुमरन् ने यह जानना चाहा कि उसकी आँखों में कैसी चमक झिलमिला रही है। कृतज्ञता और पुरानी स्मृतियों पर ही बात कितनी देर चल सकती है ? बात का सिलसिला आगे बढ़ाने के लिए कोई विशेष विषय न रह जाने के कारण दोनों के बीच थोड़ी देर के लिए मौन छाया रहा।
उस मौन के बीच गोपाल उठकर अंदर गया और रसोई के लिए 'मेनु' बताकर आया।
"हॉल' के पास के कमरे में किसी ने रेडियो लगाया। 'मधुर गीत' कार्यक्रम के प्रारंभ के पहले यह सूचना प्रसारित हुई कि यह आकाशवाणी केंद्र के कलाकारों की प्रस्तुति है, मानो वे अनादि अनाम तत्व के अभिन्न अंग हैं। जिनका कोई अपना अस्तित्व नहीं है।
"जानते हो, यार? हमारे बायस् कंपनी में 'कायात कातकम् (उन दिनों के नाटक का प्रसिद्ध गीत) गाकर जो कृष्णप्प भागवतर वाहवाही लूट रहे थे, वे अब आकाशवाणी केंद्र के कलाकार हो गये हैं।"
लगता है कि आकाशवाणी उन कलाकारों के लिए अब, 'कष्ट निवारण केंद्र हो गयी है, जो कि किसी ज़माने में रियासतों, मठालयों और नाटक कंपनियों के आश्रय पर जीते थे।"
"मैं भी एक नाटक कंपनी शुरू करनेवाला हूँ। मुझ पर निर्भर रहनेवालों को खाना-कपड़ा देने के लिए कुछ-न-कुछ करना चाहिए न?"
"अब भी जो 'इन्टरव्यू' हुई थी, उसी के लिए न?"
"हाँ, इस ऐन मौके पर 'उस्ताद' का मद्रास आना बड़े भाग्य की बात है, मानो भगवान प्रसन्न होकर स्वयं भक्त के यहाँ पधारे हों!"
"सो तो ठीक है। लेकिन नाटक कंपनी का नाम क्या रख रहे हो?" "तुम्हीं कोई अच्छा-सा नाम सुझाओ न !"
"क्यों 'ऐया' को याने द्राविड़ कळकम् के संस्थापक पेरियार ई० के० रामस्वामी नायकर को बुलाकर नामकरण नहीं करते?"
"हाय ! वह तो हमारे बस की बात नहीं । बच्चे के नामकरण के लिए भी उन्होंने अपनी फ़ीस बढ़ा दी है।"
"भगवान का नाम आ सकता है न?"
“जहाँ तक हो सके, विवेक (पहुत्तरितु) की कसौटी पर खरा उतरे तो अच्छा रहे।"
"क्यों ? मद्रास में उसी 'लेबल' पर तुम्हारी ज़िन्दगी चलती है क्या ?"
"मज़ाक छोड़ो, यार !"
‘पहुत्तरितु चेम्मल' की उपाधि जो दी है. !"
"यह बात छोड़ो, यार ! कोई अच्छा-सा नाम ढूंढो ।"
"गोपाल नाटक मंडली' नाम रख दो। आज के ज़माने में ईश-वन्दना नहीं
चलती । क्योंकि हर कोई अपने को ही देवता मानने लग गया है । आईने में अपनी
ही सूरत को हाथ जोड़ता है।"
"मेरे नाम पर 'गोपाल नाटक मंडली' नाम रखना मुझे मंजूर है । पर एक बात
सेनटरी से पूछनी पड़ेगी कि आयकर विभाग से कोई टंटा तो उठ खड़ा नहीं होगा।
सच पूछो तो आयकर विभाग के उत्पातों से बचने के लिए ही मैं नाटक मंडली
खोलने की बात सोच रहा हूँ। खोलने पर अगर यह लफड़ा घटने के बदले बढ़
जाए तो क्या फायदा?"
"फिर तो यह कहो कि किसी महान कला के पीछे इतनी कलाहीन या घटिया बातों पर भी सोच-विचार करना पड़ता है !"
"कला-वला की बात छोड़ो, यार ! मैं तो यह कहूँगा कि होम करते कहीं हाथ न जल जाये-इस बात का ख्याल करना ही बड़ी कला है !"
"अरे, गोपाल ! मैं तो अभी-अभी ये नयी-नयी बातें सुन ही रहा हूँ !"
करोड़पतियों और अभिनेताओं का सिरमौर हो जाने से गोपाल को मुत्तुकुमरन् की इतनी अंतरंग और लंगोटिया यारी खटकी। उसकी जबान से वह अपने प्रति आदरसूचक बातें सुनना चाहता था । पर उससे कहे तो कैसे कहे ? मुत्तुकुमरन् के गर्व, आत्माभिमान और हठ से वह परिचित था। इसलिए उसे हिम्मत नहीं हुई। मन-ही-मन कुढ़ने के सिवा वह और कुछ नहीं कर सका। मुत्तुकुमरन् के साथ स्त्री की भूमिका करते हुए ‘नाथ ! जैसी आपकी इच्छा !' वाली स्थिति ही अब भी जारी रही । लाख कोशिश करने पर भी उस भ्रम से वह अपने को छुड़ा नहीं पाया ! सामने पैर पर पैर रखे आत्माभिमान और कवि के स्वाभाविक दर्प के साथ गंभीरता से बैठे मुत्तुकुमरन् के सामने करोड़पति गोपाल रत्ती भर भी अपना रोब नहीं जमा पाया।
ड्राइवर ने आकर सूचना दी कि वह लॉज के कमरे को खाली करके लॉज से सामान ले लाया है।
"ले जाकर 'आउट हाउस' में रखो। छोकरे नायर से कहो कि 'आउट हाउस' के बाथरूम में तौलिया-साबुन' आदि रखे और इनके आराम का सारा बंदोबस्त करें।" ड्राइवर हामी भरकर चला तो गोपाल ने उसे फिर से बुलाया, मानो कोई बात याद आ गयी हो।
"सुनो ! 'आउट हाउस' में गरम पानी की कोई व्यवस्था नहीं हो तो 'होम नीड्स' को फोन कर फ़ौरन एक 'गीज़र' लगाने को कहो !" "अभी फ़ोन किये देता हूँ, सर !"
ड्राइबर के जाने के बाद गोपाल ने बात जारी रखी। "उस्ताद ! अपने पहले नाटक के लिए तुम्हें ही कथा-संवाद, गीत आदि सब कुछ रचना होगा ?"
"मुझे ? क्या कह रहे हो यार ? मद्रास में तो कितने ही बड़े-बड़े मशहूर नाटककार हैं। मुझे तो यहां कोई जानता तक नहीं । मेरे नाम से कुछ फ़ायदा या प्रचार नहीं होगा। ऐसी हालत में मुझसे लिखवाना चाहते हो?" -गोपाल के मन की बात ताड़ने के लिए मुत्तुकुमरन् ने पूछा।
"वह जिम्मा मुझ पर छोड़ दो। तुम चाहे जो भी लिखो-नाम-धाम दिलाना मेरा काम है !"-गोपाल ने कहा ।
"तो...? इसका भी कोई मतलब है ?" मुत्तुकुमरन ने सन्देह के साथ पूछा।