नई दिल्ली: साहित्य अकादमी, पृष्ठ १२९ से – १३८ तक

 

अठारह
 


ईप्पो में पहले दिन के नाटक की टिकट बिक्री काफ़ी अच्छी रही। दूसरे दिन भी वसूल में कोई कमी नहीं थी। फिर भी अब्दुल्ला की गोपाल से यह शिकायत थी कि पितांग का-सा वसूली ईप्पो में नहीं है । नाटक के दूसरे दिन तेज़ बरसात हो जाने से, गोपाल के हिसाब से वसूल में वह तेजी नहीं रही।

ईप्पो में रहते हुए दोनों दिन दोपहर के वक्त उन्होंने दर्शनीय स्थलों को देख लिया। नाटक-मंडली का अगला पड़ाव क्वालालम्पुर था । बीच में एक दिन आराम के लिए रह गया था।

अब्दुल्ला, उदयरेखा और गोपाल ने 'कैमरान हाईलैंड्स' नाम के पहाड़ी आरामगाह तक हो आना चाहा। लेकिन उस एक दिन के लिए सारी नाटक-मंडली को वे ले जाने को तैयार नहीं थे।

"तुम चाहो तो आ सकती हो !" गोपाल ने सिर्फ माधवी से कहा ।

"मैं नहीं आती !" माधवी ने संक्षेप में उत्तर देकर उससे पिंड छुड़ाना चाहा । लेकिन गोपाल ने यों ही नहीं छोड़ा। बोला, "उदयरेखा को भेजने के बाद भी, अब्दुल्ला तुम्हारी ही याद में घुले जा रहे हैं।"

"उसके लिए मैं क्या करूँ ? मैंने कह दिया कि मैं कैमरान हाईलैंड्स' नहीं आती। उसके बाद भी आप वही बात दुहरा रहे हैं। मेरे पास इसके सिवा दूसरा कोई जवाब नहीं है।"
"बात यह है कि अब्दुल्ला करोड़पति हैं। उनका दिल आ गया तो वह पाँवों पर करोड़ों रुपये लाकर उड़ेल देंगे।"

"जहाँ चाहे, उड़ेलें!"

"तुम बेकार ही बदल रही हो।"

"हाँ, बदल गयी ! आप समझ गये हों तो ठीक है।"

"उस्ताद ने तुमपर कौन-सा टोटका कर दिया है कि तुम उसपर इस तरह फिदा हो गयी हो।"

उसके कमरे में आकर गोपाल का लम्बी देर तक बातें करना माधवी को नहीं भाया। उसके मुंह से बू आ रही थी कि वह पीकर आया है। इधर वह उसे विदा करने की कोशिश में थी और उधर वह हिलने का नाम नहीं लेता था । बातें करते- करते गोपाल में अचानक एक हैवानी जोश पैदा हुआ और उसने झपटकर माधवी को अपनी बाँहों में कसने का प्रयत्न किया। माधवी को इस बात की आशा नहीं थी। अपने हाथों से पूरी तरह उसे झटकते हुए उसने उसे धक्का दिया और किवाड़ खोल- कर कमरे से बाहर भागी और सीधे मुत्तुकुमरन के कमरे में जाकर किवाड़ खट- खटाया । मुत्तुकुमरन ने किवाड़ खोला तो उसने माधवी को बड़ी परेशानी की हालत में देखा । उसने हैरानी से पूछा, "बात क्या है ? इस तरह क्यों काँप रही हो?"

"अन्दर आकर बताती हूँ।" कहकर वह उसके साथ अन्दर आ गयी।

किवाड़ पर चिटकनी लगाकर मुत्तुकुमरन् अन्दर आया और उससे बैठने को कहा । माधवी ने पीने को पानी मांगा। वह उठकर सुराही से पानी ले आया। माधवी ने पानी पीकर तनिक आश्वस्त होने के बाद, सारी बातें सुनायीं।

सब कुछ सुनने के बाद मुत्तुकुमरन ने ठंडी आहें भरीं। थोड़ी देर तक उसकी समझ में नहीं आया कि उसकी बातों का क्या जवाब दे? वह एकाएक फूट-फूटकर रोने लगी। यह देखकर उसका कलेजा मुंह को आ गया। उसके पास जाकर, उसके रेशम जैसे काले बाल सहलाते हुए उसने उसे अपने बाहु-पाश में भर लिया। उसमें माधवी ने सुरक्षा का अनुभव किया । लम्बे मौन के बाद वह उससे बोला :

"समाज का हर क्षेत्र आज एक लम्बी गली में बदल गया है। उनमें से कुछेक गलियों पर चलनेवालों के लिए रोशनी ज्यादा और सुरक्षा कम हो गयी है। समाज की अंधेरी गलियों के मुकाबले रोशन गलियों में अधिक चोरी-डाके पड़ते हैं । सच- मुच, प्रकाश तले ही अँधेरे का वास हैं। कला-जगत् नाम की गली जो रात-दिन रोशनी से जगमगाती है, कीर्ति की रोशनी, सुविधाओं की रोशनी आदि वहाँ कई रोशनियाँ हैं। पर वहाँ भी सच्चे हृदयों और ऊँचे विचारों का तनिक भी प्रकाश नहीं। उस गली की अंधी रोशनी में, न जाने कितनों के शारीरिक और मानसिक सौंदर्य को चुपचाप और गुमराह कर बलि के लिए बाध्य किया जा रहा है।"

"कहते हैं कि मद्रास जाने पर मुझ जैसी गधी को गरदनी देकर बाहर निकाल देंगे।"

"कौन ? गोपाल?"

"हाँ ! मैंने प्लेन में ईप्पो आने से इनकार कर दिया था न । उसके लिए ही चीख रहे थे।"

"कला एक लड़की के पेट और सुख-सुभीते का जितना ख्याल करती है, उतना उसके तन-मन की पवित्रता का ख्याल नहीं करती। यह कैसी विडंबना है।"

वह इसका कोई उत्तर नहीं दे सको । उसे देखने की भी हिम्मत उसमें नहीं रही । मुँह नीचा कर जमीन देखने लगी।

उदयरेखा के साथ अब्दुल्ला और गोपाल कैमरान हाईलैंड्स चले गये । यह तय हुना था कि उनके वहाँ से लौटने के बाद सब ईप्पो से क्वालालम्पुर चलेंगे। उस दिन माधवी और मुत्तुकुमरन् एक-दूसरे सह-अभिनेता को साथ लेकर, एक टैक्सी करके ईप्पो और ईप्पो के आस-पास के चुंग, चुंगे-चिप्पुट, कंधार आदि दर्शनीय स्थलों का परिदर्शन कर आये । चुंग चिप्पुट में सहकारिता की महिमा पर आधारित रबर का बगीचा और महात्मा गांधी के नाम पर संचालित गाँधी पाठ- शाला--दोनों ही उन दर्शनीय स्थलों में अविस्मरणीय थे। सड़क के दोनों ओर पर्वतीय स्थल ऐसा अनुपम दृश्य उपस्थित करते थे, मानो मोम की बत्तियाँ पिघल कर सुन्दर बेलबूटों का चित्रण करती हों। सभी स्थानों से धूम-धामकर वे साढ़े सात बजे के करीब लौट गये। लेकिन कैमरान हाईलैंड्स जानेवालों को लौटने में रात के दो बजे से भी अधिक बीत गये।

दूसरे दिन बड़े सवेरे गोपाल, अब्दुल्ला और उदयरेखा--तीनों हवाई जहाज से और बाकी सारे सदस्य कार से क्वालालम्पुर को चल पड़े। सीन-सेटिंग आदि को एक जगह से दूसरी जगह ले जाने के लिए अब्दुल्ला ने लॉरी की व्यवस्था करवा दी थी। अतः वे नियमित रूप से ठीक समय पर उन जगहों पर पहुँच जाया करती थी।

माधवी के विचार से अब्दुल्ला उदयरेखा को इसीलिए हवाई जहाज पर ले जा रहा था ताकि उसके बहकावे में आकर माधवी भी उसके रास्ते आ जायेगी । उसे बेचारे अब्दुल्ला पर तरस आ रहा था । उसने मुत्तुकुमरन से कहा, "किसी कोने में अबतक पड़ी उदयरेखा के भाग्य में मलेशिया आने पर कैसा भोग लिखा है, देखिये !"

. "क्यों, उसके भाग्य पर तुम्हें ईर्ष्या हो रही है क्या?"

"छिः ! कैसी बातें करते हैं आप? मैंने इस संयोग की बात कही तो इसका यह मतलब नहीं कि मुझे उस पर ईर्ष्या हो रही है। उसी के आने से तो मैं बच पायी । इसका मुझे उसका आभार मानना चाहिए।"

"नहीं तो!"
"••••••"

माधवी ने कोई उत्तर नहीं दिया ।

मुत्तुकुमरन् ने भी महसूस किया कि उसके प्रति ऐसी कड़ी बातें मुंह में नहीं लाना चाहिए। जब कभी वह उसके साथ इस तरह पेश आता तो वह चुप्पी साध लेती थी। उसे उसपर बड़ा तरल हो आया। निहत्थे और निर्बल विपक्षी पर हथियार चलाकर अपना शौर्य दिखाने-जैसा लगा।

क्वालालम्पुर में उसे और माधवी को अप्रत्याशित रूप से एक सुयोग हाथ लगा। अब्दुल्ला, उदयरेखा और गोपाल के लिए 'मेरीलिन होटल' नाम के शान- दार होटल में ठहरने की व्यवस्था की गयी। बाकी लोगों के लिए एक दूसरी जगह पर 'स्ट्रेथिट्स होटल' नाम का साधारण-सा होटल चुना गया । व्यवस्था करने के पहले गोपाल ने माधवी से कहा, "तुम्हें कोई आपत्ति न हो तो हमारे साथ 'मेरी-- लिन होटल में ठहर सकती हो। लेकिन उस्ताद के लिए वहाँ कोई बंदोबस्त नहीं हो सकता।"

"कोई जरूरत नहीं । मैं यहाँ नहीं ठहरूँगी । वहीं ठहरूँगी, जहाँ वे ठहरे हैं।" माधवी ने दो-टूक जवाब दे दिया।

ऊँचे-ऊँचे मकान, और स्थान-स्थान पर लगे चीनी, मलेशियन और अंग्रेज़ी अक्षरों में चमाचम चमकते नियान साइन और उनकी रोशनी से जगमगाते बोर्ड पंग-पग पर यह बता रहे थे कि वे बिलकुल एक नये देश में आये हैं। सड़कें साफ़- सुथरी और रौनक भरी थीं। वहाँ किस्म-किस्म की छोटी-बड़ी नयी-नयी कारों की भरमार-सी थी । भद्रास में उनका नमूना भी शायद ही देखने को मिले। चीनी कौन हैं और कोन मलायी-शुरू-शुरू में उनका फ़र्क करना भी बड़ा मुश्किल लगा।

जिस दिन वे वहाँ पहुँचे थे, उसके दूसरे दिन वहाँ के एक तमिळ दैनिक में गोपाल से एक साक्षात्कार छपा था। उसमें एक प्रश्न यह पूछा गया था, "आप यहाँ जो नाटक खेलनेवाले हैं-'प्रेम एक नर्तकी का', उसके बारे में अपने मलाया- वासी तमिळ भाइयों को बतायेंगे कि उसका बीजांकुर कैसे पड़ा?"

"मलायाधासी तमिळ भाइयों को ध्यान में रखकर ही इस नाटक की पूरी योजना मैंने स्वयं बनायी है। इसकी सफलता को मैं अपनी सफलता मानूंगा।" उस सवाल का गोपाल ने यों जवाब दिया था।

उसे पढ़कर माधवी और मुत्तुकुमरन् को बड़ा गुस्सा आया । माधवी ने अपने मन की यों रखी, "औपचारिकता-निर्वाह के लिए ही सही, नाटककार के रूप में उसने आपका नाम तक नहीं लिया। ऐसा उत्तर देते हुए वह कितना मदान्ध है ?"

"तुम्हारा कहना गलत है, माधवी ! उसमें मद-वद कुछ नहीं। वह स्वभाव से ही बड़ा कायर है । बस, ऊपरी तौर पर बड़ा धीर-वीर होने का नाटक करता है । मेरे
ख्याल से यह भेंट दूसरे ढंग से हुई होगी। पत्रकारों को अब्दुल्ला ने ही मेरीलिन बुलाया होगा । भेंट में वे भी साथ रहे हैं । इसका सबूत चाहिये तो यह चित्र देखो ! एक ओर गोपाल, बीच में उदयरेखा और दूसरी ओर अब्दुल्ला खड़े हैं । अब्दुल्ला के डर से उसने मेरा या तुम्हारा नाम नहीं लिया होगा। अगर लिया भी होगा तो अब्दुल्ला ने मना कर दिया होगा।"

"हो सकता है कि आपका कथन ठीक हो । पर यह सरासर अन्याय है । नाटक लिखने और इसे निर्देशित करने का पूरा भार तो केवल आपका रहा है। आपको भूलना बड़ा पाप है । वह उन्हें यों ही नहीं छोड़ेगा।"

"दुनिया में पाप-पुण्य देखनेवाले आज कौन हैं ?" विरक्त स्वर में मुत्तुकुमरन् ने कहा।

वे जिस स्ट्रेयिट्स होटल में ठहरे थे, वहाँ चीनी और कांटिनेंटल भोजन की ही व्यवस्था थी। इसलिए सुबह के जलपान और दोपहर के भोजन के लिए अंबांग स्ट्रीट के एक हिन्दुस्तानी होटलवाले के यहाँ प्रबन्ध किया गया था। कॉफ़ी, कोल्ड ड्रिक्स और आइस-क्रीम आदि का इंतजाम उन्होंने अपने ही होटल में करवा लिया था।

जिस दिन वे यहाँ ठहरने आये थे, उस दिन रात को वे कहीं बाहर नहीं गये। दूसरे दिन सवेरे वे महामारियम्पन के मंदिर और दसगिरि हो आये । दसगिरि में, संयोग से रुद्रपति रेड्डियार नाम के एक व्यापारी मिले, जो कई साल पहले मदुरै में डबल रोटी का व्यापार करते थे। दोनों ने एक-दूसरे को देखते ही पहचान लिया। उन्होंने कहा कि यहाँ पेट्टा लिंग जया में मैंने एक डबल रोटी की दुकान खोल रखी है और हर दूसरे वर्ष छ: महीनों के लिए स्वदेशा हो आता हूँ।

नये देश में अप्रत्याशित रूप से एक परिचित व्यक्ति से मिलकर मुत्तुकुमरन् बहुत खुश हुआ। उसने माधबी का उनसे परिचय कराया और मद्रास में आकर गोपाल की नाटक-मंडली में सम्मिलित होने की बात भी बतायी।

"सिनेमा के लिए भी कुछ लिखना शुरू कर दो ! फ़िल्मों से ही मुट्ठी गरम होती है।" सब' की तरह रैड्डियार के मुँह से भी वही बात सुनकर मुत्तुकुमरन् को हँसी आयी। उसने कहा, "सिनेमा भी दूर कहाँ है ? उसे भी मुट्ठी में करके छोड़ेंगे।"

"अच्छा ! कल दोपहर को तुम दोनों हमारे घर में भोजन करने आ जाओ। पेट्टालिंग जया-यह पता याद रखो । हाँ, तुमने यह नहीं बताया कि ठहरे हुए हो?"

"स्ट्रेयिट्स होटल में । नाश्ता और भोजन अंबाग स्ट्रीट से आ जाते हैं।"

"हमारे ही घर में आकर ठहर जाओ न ।' उहोंने आग्रह किया। "यह संभव नहीं होगा। क्योंकि हम नाटक-मंडली के दूसरे लोगों के साथ दोनों कहाँ ठहरे हुए हैं। उन्हें छोड़कर आना ठीक नहीं । वे भी हमें नहीं छोड़ेंगे।"

"अच्छा ! स्ट्रेयिट्स होटल को मैं कल दोपहर को गाड़ी भेज दूंगा।" कहकर रुद्रप्प रेड्डियरर विदा हुए।

उनके जाने के बाद उनके बारे में मुत्तुकुमरन् ने माधवी को बताया कि उससे उनका परिचय कब हुआ और कैसे हुआ तथा उनमें क्या-क्या खूबियाँ हैं।

दसगिरि से जब वे होटल को लौट आये, तब गोपाल भी अप्रत्याशित रूप से वहाँ आया था।

'कहो, उस्ताद ! इस होटल की सुख-सुविधाएँ कैसी हैं ? किसी चीज़ की जरूरत हो तो बताओ ! मैं तो किसी दूसरी जगह ठहर गया हूँ, इसलिए अपनी तकलीफ़ों को छिपाये न रखो।" गोपाल यों बोल रहा था, मानो किसी ट्रेड यूनियन के लीडर से कारखाने का कोई मालिक शिकायतें पूछना हो।

सच्चे प्रेम से कोसों दूर और औपचारिक ढंग से पूछी जानेवाली इन बातों को मुत्तुकुमरन ने जरा भी महत्व नहीं दिया और चुप्पी साधे रहा।

उसके जाने के 'बाद, माधवी ने मुत्तुकुमरन् से कहा, "देख लिया न, पूछ-ताछ करने का तौर-तरीका ! बातें दिल से नहीं, होंठों से फूट रही थीं।"

"छोड़ो, उसकी बातों को ! उसे शायद यह डर लग गया होगा कि हम उसके बारे में कैसी बातें कर रहे हैं । उसी डर से वह एक बार हमें देख जाने के लिए आया होगा।"

"उदयरेखा तो इस तरफ़ एकदम आयी ही नहीं। अब्दुल्ला के साथ ही चिपककर रह गयी।

"कैसे आती ? अब्दुल्ला छोड़े, तब न ?"

सुनकर माधवी हँस पड़ी। मुत्तुकुमरत् ने अपनी बात जारी रखी-"अब्दुल्ला उसे छोड़ेगा नहीं। और वह भी कौन-सा मह लेकर हमें देखने आयेगी? शरम नहीं लगती होगी उसे ?"

"इसमें शरम की क्या बात है ? गोपाल के पास आने से पहले, वह हैदराबाद में जैसी थी, वैसी ही अब भी है।"

"नाहक़ दूसरों को दोष न दो। बेचारी पर दोष मढ़ना ठीक नहीं। मेरे ख्याल से पहले-पहल कोई लफंगा-लुच्चा ही उसे इस लाइन में खींचकर लाया होगा। पेट की भूख भला-बुरा नहीं पहचानती! सच पूछो माधवी तो मुझे ऐसे लोगों से हम- दर्दी ही होती है।"

उसने उदयरेखा के बारे में बोलता वहीं से बन्द कर दिया। और थोड़ी देर तक उसकी बातें करती रहती तो उसे डर था कि अंततः वह बात उसी पर केन्द्रित हो जाएगी।
मुत्तुकुमरन् ने अपनी बातों के दौरान इस बात पर जोर दिया था कि मेरे ख्याल से पहले-पहल कोई लफंगा-लुच्चा ही उसे इस लाइन में खींच लाया होगा ! माधवी ने कभी मुत्तुकुमरन् से बातें करते हुए कहा था कि मुझे इस लाइन में लातेवाले गोपाल ही हैं । इस पर तुरन्त भुत्तुकुमरन् ने उसपर ज़हर उगलते हुए कुरेदा था कि लाइन माने क्या होता है ? इस बात के साथ ही, उसे पिछली बात की याद हो आयी। ठीक उसी तरह आज मुत्तुकुमरन् ने 'लाइन' शब्द का इस्तेमाल किया था। उसने यों ही उस शब्द का इस्तेमाल किया था या किसी गूढार्थ से उसका इस्तेमाल किया था. यह समझ न पाने से वह दिल ही दिल में कुढ़ गयी । इस हालत में जब उदय रेखा के चरित्र को लेकर बात बढ़ी तो उसे डर लगने लगा था कि सौमनस्य और शांति से युक्त वातावरण में कहीं खलल न पड़े।


'क्वालालम्पुर में नाटक के प्रथम प्रदर्शन में अच्छी-खासी वसूली हुई । अब्दुल्ला बता रहे थे कि हर दिन के नाटक के लिए 'हैवी बुकिंग' है । दूसरे दिन दोपहर को रुद्रपति रेड्डियार की कार स्ट्रेयिड्स होटल में आयी और मुत्तुकुमरन और माधवी को दावत के लिए ले गयी।

रुद्रपति रेड्डियार जिस पेट्टालिंग जया. इलाके में रहते थे, वहाँ एक नयी कॉलोनी बसी हुई थी, जिसमें एक से बढ़कर एक नये मकान बने हुए थे। रुद्रपति रेड्डियार के ड्राइवर ने कहा कि क्वालालम्पुर भर में यह बिल्कुल नया बेजोड़ “एक्सटेन्शन' हैं । मलाया आकर रुद्रपति रेड्डियार बड़े धनी-मानी व्यक्ति हो गए 'थे। उनके यहाँ उच्च-स्तरीय पांडिय-शैली का शाकाहारी स्वादिष्ट भोजन पाकर वे बहुत प्रसन्न हुए।

भोजन के बाद रेड्डियार की तरफ से भेंट के तौर पर माधवी को सोने की एक "चन और मुत्तुकुमरन को एक बढ़िया 'सीको' की घड़ी उपहार में मिली । पान- सुपारी की तश्तरी में रखकर सोने की वह 'चेन' रेड्डियार ने माधवी के सामने बढ़ायी तो वह सोच में पड़ गयी कि उसे ले या न ले ? मुत्तुकृमरन् क्या समझेगा ?

मुत्तुकुमरन के मन की जानने के लिए, उसने आँखों से जिज्ञासा व्यक्त की। मुत्तुकुमरन ने उसके मन के भय पढ़कर हँसते हुए कहा-"ले लो ! रेड्डियारजी तो हमारे भैया हैं। इनमें और हममें फ़र्क नहीं मानना चाहिए !"

माधवी ने चेन रख लिया। रेड्डियार ने अपने हाथों से मुत्तुकुमरन् के हाथ में घड़ी बाँधी।

"भगवान की कृपा से समुद्र पार इस देश में आकर हम काफ़ी खुशहाल हैं ।

खुशहाली में हमें अपनों को नहीं भूलना चाहिए !"-- रेड्डियार ने कहा।

"माधवी ! यह न समझना कि रेड्डियार अभी ऐसे हैं । मदुरै में रहते हुए भी हम दोनों बड़े दोस्त थे । कविराज के कुटुंब में पैदा होने से मेरे प्रति इनका अपार प्रेम हैं। उन दिनों ये हमारी नाटक मंडली के नायुडु के दाहिने हाथ रहे थे।

"तो ये गोपाल जी को भी अच्छी तरह जानते होंगे !"

"हाँ, जानता हूँ ! लेकिन वे अब आसमान पर चढ़े हुए हैं । इस देश के बहुत बड़े जौहरी अब्दुल्ला के 'गेस्ट' बने हुए हैं। पता नहीं, हम जैसों को वे कितना मानेंगे और सराहेंगे । फिर वे मेरीलिन होटल में ठहरे हुए हैं। मुझे मेरीलिन होटल जाते हुए ही डर लगता है। वहाँ 'दरबान से लेकर वेटर तक' अंग्रेजी में बातें करते हैं। अंग्रेजी से मेरा छत्तीस का वास्ता है ! न तो बोलना आता है और न समझना !"

"यानी कि आप मेरे जैसे हैं ! मुत्तुकुमरन् ने कहा। "यह कोई बड़ी बात नहीं; आदत पड़ने पर आप ही आप यह समझ आ जाती है।"

"बात वह नहीं । एक दफे की बात है। मुझे अपने व्यापार के सिलसिले में हांगकांग जाना था। प्लेन का टिकट खरीदने के लिए मैं मेरी लिन गया था। बी० ए० ओ० सी० कंपनी का दफ्तर मेरीलिन के 'ग्राउंड फ्लोर पर है। वहां रिसेप्शन में एक चीनी युवती थी। वह अंग्रेज़ी चुहियाने लगी तो मेरी समझ में कुछ नहीं आया। मैं थोड़ी बहुत मलय और चीनी भाषा जानता हूँ । धैर्य से चीनी में बोला तो वह लड़की भी हँसती हुए चीनी में बोली। मैं टिकट लेकर आ गया । मैं मानता हूँ कि अंग्रेजी जानना ज़रूरी है। पर न जाननेवालों से जब कोई ज़बरदस्ती उस जुबान में बोलकर' संकट में डालता है तो बड़ा दुख होता है !"

"माधवी को वह संकट नहीं है, रेड्डियार जी ! उसे अंग्रेजी, मलयालम, तमिल आदि अच्छी तरह से बोलना भी आता है और लिखना भी आता है।"

"हाँ, केरल में तो सभी अंग्रेजी पढ़े-लिखे होंगे !"

रेड्डियार से विदा लेते हुए दोपहर के साढ़े तीन बज गए। शाम के नाश्ता- कॉफ़ी के बाद ही वे पेट्टालिंग जया से रवाना हुए। चलते समय रेड्डियार ने बड़ी आत्मीयता से कहा था 'देखो, मुत्तुकुमरन् ! जबतक यहाँ रहते हो, मुझसे जो भी मदद चाहो निस्संकोच ले सकते हो। बाहर आने-जाने के लिए कार की जरूरत पड़े तो फोन करना !"

उनके इस प्रेम-भाव से मुत्तुकुमरन् विस्मय और आनन्द. से विभोर हो गया । जब वे स्ट्रायिट्स होटल में वापस पहुँचे तो दिल को हिला देनेवाली एक ख़बर मिली।

उस दिन दोपहर के वक्त भी गोपाल ने बेहद पी रखी थी। वह बाथ रूम जाते हुए फिसल पड़ा था। घुटने में हल्का-सा फेक्चर हो गया था। इसलिए उसे अस्पताल में भरती किया गया था। मंडली के दूसरे सभी कलाकार उसे देखने के लाल गए हुए थे।
सारा समाचार स्ट्रेयिट्स होटल के स्वागत कक्ष में ही मिल गया था।

रिसेप्शनिस्ट से सारी बातों का पता लगाकर, गोपाल किस प्राइवेट नसिंग होम में में भरती है, वहाँ का पता-ठिकाना लेकर दोनों रेड्डियार की ही कार में उस अस्पताल को चल पड़े।

नर्सिंग होम माऊंटबेटन रोड पर था। जब वे वहां पहुंचे, तब मंडली के अन्य ‘कलाकार और कर्मचारी झुंड के झुंड लौट रहे थे। उस दिन शाम को नाटक हो कि न हो वे सब इसी अधेड़बुन में पड़े थे। वे आपस में यही कहते हुए सुनायी दे रहे थे कि गोपाल के पैर में 'फ्रेक्चर' हो जाने से उस दिन का ही नहीं, दूसरे दिनों के नाटक भी रद्द कर दिये जायेंगे। साथ ही टिकट खिड़की पर खासी वसूली होने और बाद के टिकटों की बिक्री तथा थियेटर के किराये पर लेने से अब अब्दुल्ला फ़िक्र में पड़े थे कि नाटकों का मंचन रद्द किये जाने पर उसे बहुत धाटा उठाना पड़ेगा !

गोपाल के पैर पर मरहम और पट्टी लगाकर उसे बिस्तर पर लिटा दिया गया था । नींद की गोली देने से वह गहरी नींद में था।

"छोटा-सा फ्रेक्चर है ! एक हफ्ते में ठीक हो जायेगा । फ़िक्र की कोई बात नहीं है !" डॉक्टर अब्दुल्ला को बता रहे थे। अब्दुल्ला और उदयरेखा चिंतित खड़े थे।

"इसने सारा गुड़-गोबर कर दिया ! ईप्यो में ही मुझे भारी घाटा उठाना पड़ा है। मैंने सोचा कि क्यालालम्पुर में उसे 'मेक अप' कर लेंगे। सातों दिन की हैवीं बुकिंग है यहाँ !" अब्दुल्ला ने रुआंसा होकर माधवी से कहा ।

चोट खाए हुए पर बिना किसी हमदर्दी के, उसका इस तरह बकना माधवी और मुत्तुकुमरन् को अच्छा ही नहीं लगा । मुत्तुकुमरन् को तो गुस्सा ही आ गया। "अपने पैसों का रोना क्यों रोते हो? नाटक मुख्य है। उसकी फ़िक्र तुम न करो। ठीक समय पर मंचन शुरू होगा। छः बजे थियेटर में आ जाना । अब जाओ !" मुत्तुकुमरन् ने धीर-गंभीर शब्दों में कहा ।

"वह कैसे होगा भला?" अब्दुल्ला ने शंका प्रकट की।

"अपना रोना-धोना बन्द करों । नाटक होगा, जरूर होगा। तुम सीधे थियेटर आ जाना ! पर इस बात का ख्याल रखना कि आज शाम के किसी भी अखबार में यह छाने न पावे कि गोपाल का पैर जख्मी हो गया है !" मुत्तुकुमरन् ने ऊँचे स्वर में कहा तो अब्दुल्ला की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी।

माधवी समझ गयी कि मुत्तु कुमरन् की क्या योजना है ? उसे इस बात की खुशी हो रही थी कि अब मुत्तुकुमरन् कथानायक की भूमिका करने वाला है। मुत्तुकुमरन् इस बात से खुश हो रहा था कि माधवी के साथ भूमिका करने का उसे सुयोग मिल रहा है।

माधवी उसकी समयोचित बुद्धि और धैर्य से स्थिति पर नियंत्रण की सामर्थ्य की कायल हो गयी । ऐसी ही धीरता की वजह से वह उसके प्रति आकर्षित हुई थी और धीरे-धीरे अपना हृदय हार बैठी थी।