नई दिल्ली: साहित्य अकादमी, पृष्ठ १११ से – १२० तक

 

सोलह
 

इप्पो के हवाई अड्डे पर अब्दुल्ला के साथ उतरा हुआ गोपाल वापस विमान के अन्दर लौट आया। उसने माधवी को बुलाया, “माधवी ! तुम एक मिनट आकर अपना मुंह तो दिखा आओ। अरे; आजकल सिर्फ मर्द जाए तो कौन रसिक कद्र करने को तैयार होता है ? पूछता है, आपकी मंडली में कोई अभिनेत्री नहीं है ?"

"मैं नहीं आती ! मुझे बड़ा सिर-दर्द हो रहा है।"

"प्लीज ! बहुत-से लोग हाथों में माला लिये खड़े हैं !"

माधवी असमंजस में पड़कर मुत्तुकुमरन को यों देखती रही मानो वह बाहर
जाने या न जाने की अनुमति मांग रही हो।

"हो आओ न ! माला के साथ आये सज्जनों को निराश न करो !" मुत्तुकुमरन् ने आदेश दिया।

माधवी अनिच्छा से उठकर गयी । मुत्तुकुमरन् ने काँच के झरोखे से बाहर की भीड़ को देखा। चार-पाँच मिनट में दोनों-माधवी और अब्दुल्ला जहाज पर लौट आये।

जहाज फिर उड़ने लगा। पलक झपकते-न-झपकते पिनांग आ गया। पिनांग के हवाई अड्डे में भी दर्शकों की भीड़ उमड़ी पड़ी थी। बड़े ठाठ-बाट से उनका स्वागत हुआ । माधवी और गोपाल ने सबको मुत्तुकुमरन् का परिचय दिया। अब्दुल्ला ने जैसे उसकी परवाह ही नहीं की। मुत्तुकुमरन ने भी अब्दुल्ला की परवाह कहाँ की ? फिर भी उसे इस बात का दुख अवश्य हो रहा था कि अब्दुल्ला अपने देश में आये हुए मेहमान कलाकारों का मेज़बान होकर भी उदासीनता वरत रहा है।

हवाई अड्डे से पिनांग के शहर में जाते हुए काफ़ी अँधेरा हो चला था। उस रात अब्दुल्ला ने 'पिनांग हिल' के अपने बंगले पर उन्हें ठहराने की व्यवस्था की थी। इसलिए हवाई अड्डे से निकली कारें सीधे पिनांग हिल जाने वाली रेल गाड़ी पकड़ने के लिए स्टेशन पर आ रुकीं । उस छोटी-सी रेलगाड़ी को सीधे पहाड़ पर चढ़ते देखकर उन्हें बड़े उत्साह का अनुभव हो रहा था। उस रेल के डिब्बे में माधवी और मुत्तुकुमरन् पास-पास बैठे थे। नीचे मुड़कर देखा तो रेलवे स्टेशन और नगर के कुछ इलाकों की बत्तियाँ उस धुंधलके में-~~ रोशनी की नन्हीं-नन्हीं बूंदें बनकर झिलमिला रही थीं।

पहाड़ी पर चढ़ने पर अब्दुल्ला के बँगले की ओर जानेवाले रास्ते से नीचे देखने पर समुद्र और पिनांय के बंदरगाह दीख पड़े। पिनांग से पिरै और पिर से पिनांग आने-जानेवाली फेरी-सर्विस की रोशनियाँ टिमटिमा रही थीं। शहर की रंग- बिरंगी बत्तियों और नियान साइन दृश्यों से आँखें आनंद से चमक रही थीं। पिनांग के हिल पार्क में थोड़ी देर बैठे रहने के बाद, वे अब्दुल्ला के बँगले में गये । अब्दुल्ला का बँगला पहाड़ी के शिखर पर बनी फिर भी शांत बस्ती में स्थित था । बँगले की ऊपरी मंजिल पर हरेक को अलग-अलग और सुविधाजनक कमरे दिये गये।

रात के भोजन के बाद हॉल में बैठे बातें करते हुए अब्दुल्ला ने कहा, 'मिस्टर गोपाल ! 'कॉकटेल मिक्स' करने में इस मलेशियन 'एट्रयिट्स' भर में मैं 'एक्स्पर्ट' माना जाता हूँ । अनेक प्रांतों के सुलतान अपना जन्म-दिन मनाते हुए 'कॉकटेल 'मिक्स' करने के लिए मुझे विशेष रूप से आमंत्रित करते हैं।"

“वह सौभाग्य मेहरबानी करके हमें भी प्रदान करें।"-गोपाल ने उनसे अनुनय किया ! माधवी और मुत्तुकूमरन् ने मुह नहीं खोला तो अब्दुल्ला ने अपनी
बात जारी रखी, “आप जो कह रहे हैं, ठीक है । पर माधवी जी कुछ बोलती नहीं !

इस प्रॉबिन्स बेलसली से कितने ही करोड़पति मेरे हाथ का 'कॉकटेल' सेवन करने के लिए लगभग रोज़ ही यहाँ आते रहते हैं। न जाने क्यों, माधवीजी मुंह नहीं खोल रहीं ?"

"उसे इसकी आदत नहीं ! मेरे ख्याल में, उस्ताद तो साथ देंगे"-गोपाल ने मुत्तुकुमरन की ओर इशारा किया। पर अब्दुल्ला तो माधवी के पीछे ही पड़े हुए थे।

"सो कैसे ? इतने दिनों से माधवीजी फिल्म-जगत् में काम कर रही हैं। यह सुनते हुए यकीन नहीं होता है कि अभी आदत नहीं पड़ी ?"

माधवी ने इसका भी कोई उत्तर नहीं दिया। इस बीच अब्दुल्ला का नौकर 'कॉकटेल' बनाने के लिए तरह-तरह की शराब की बोतलें और प्याले मेज़ पर रख गया। विभिन्न चमकीले रंगों में, विभिन्न आकारों वाली वे बोतलें और प्यालियाँ इतनी सुन्दर थीं कि उन्हें चूमने को जी करता था। सुनहरी रेखाओं से बेल-बूटे कढ़ी प्यालियों पर से आँखें हटाना असंभव- सा था।

अब्दुल्ला उठे और मेज के पास जाकर कॉकटेल मिक्स करने लगे। गोपाल भी उठा और माधवी के पास जाकर बोला, "प्लीज! कीप कंपनी! आज एक दिन के लिए मेरी बात मानो। अब्दुल्ला का दिल न तोड़ो !" गोपाल अपनी बातों पर जितना अड़ा था, उससे रत्ती भर भी माधवी की जिद कम नहीं थी। अब्दुल्ला तो बात-बात पर माधवी का ही नाम संकीर्तन करते जा रहे थे। गोपाल अब्दुल्ला का दिल रखना चाहता था। पर माधवी हा ठाने हुए थी। गोपाल को उसके हठ पर क्रोध आ रहा था। असल में क्रोध उसके हठ पर भी नहीं, उस हछ को हवा देनेवाले व्यक्ति पर था ! मुत्तुकुमरन् जैसे आत्माभिमानी और हठी व्यक्ति की संगति में आने पर ही तो वह इतना बदल गयी थी ! मुत्तुकुमरन् जैसा मर्द उसके जीवन में नहीं आया होता तो माधवी झक मारकर उसकी बातें मानती चली जाती; उंगलियों पर नाचती-फिरती। इसीलिए गोपाल का क्रोध माधवी पर न जाकर मुत्तुकुमरन् पर गया। वह मन-ही-मन भुनभुनाया कि इस पापी कलमुहे. उस्ताद की वजह से ही तो माधवी में मानाभिमान और रोष का भाव इस तरह सवार है।

गोपाल को लगा कि माधवी के एक इशारे पर अब्दुल्ला जैसा व्यक्ति अपनी दौलत का सारा खजाना लुटा देगा। अब्दुल्ला की हर बात और हर नज़र पर जिद- भरी हवस का रंग चढ़ा हुआ था । बात जो भी हो, वह यही पूछते नजर आते कि माधवी जी भी आ रही हैं न? माधवीजी क्या कहती हैं? माधवी जी क्या चाहती हैं? लेकिन माधवी कुछ ऐसी निकली कि किसी को आँख उठाकर देखना हो या
किसी पर मुस्कान फेरनी हो तो वह मुत्तुकुमरन् की आज्ञा चाहेगी। हो, बिना उसकी आज्ञा के माधवी लता का अब एक पत्ता भी नहीं हिलता।

गोपाल ने देखा कि ऐन मौका हाथ से निकला जा रहा है। उसे इस बात की पहले आशा नहीं थी कि वातावरण कुछ इस तरह करवट लेगा। उसे इस बात की तनिक बू तक लगी होती तो मुत्तुकुमरन् को इस सफ़र में साथ लाया ही नहीं होता।

शुरू में ही मुझे मना कर देना चाहिए था। मैंने बड़ी भूल कर दी ! अब पछताने से क्या फ़ायदा?' गोपाल विचारों में खो गया।

'कॉकटेल-मिक्स' करके, एक में चार गिलास उठाये जब अब्दुल्ला ने मुड़कर देखा तो पाया कि वहाँ गोपाल के सिवा कोई तीसरा नहीं था।

"वे कहाँ हैं ? मैंने तो चार गिलास मिला लिये हैं।"

"न जाने, कहाँ नीचे उतर गये ! शायद टहलने गये हों।"

"आप जरा जोर डालते तो बे रुक जाते, मिस्टर गोपाल ! वह नाटककार बड़ा ढीठ है और हमेशा उसी के पीछे लगा रहता है। उसे एक गिलास देकर दो चूंट पिला देते तो माधवी आप ही वश में आ जाती।"

गोपाल ने कोई उत्तर नहीं दिया। अब्दुल्ला बोलते चले गये--- "ऐसे 'ट्रिपों में ऐसे झक्की आदमी हों तो 'ट्रिप' का मजा ही किरकिरा हो जाता है । कंपनी देने के लिए आदमी चाहिए न कि बिगाड़ने के लिए। ऐसे ढीठ और सरफिरों को तरजीह देना ठीक नहीं।"

"क्या करें? सगुन के डर से बिल्ली को गोद में लाने जैसी बात हो गयी ! इस मनहूस को साथ लाने के पाप का फल भुगतना ही पड़ेगा ।"

दोनों आमने-सामने बैठकर 'कॉकटेल' में डूब गये।

बातों की दिशा बंदलकर गोपाल ने पिनांग शहर की सुन्दरता और स्वच्छता पर विस्मय प्रकट किया।

"इसकी वजह क्या है, मालूम है ? इस शहर को संवारने का काम अंग्रेजों ने किया है। वे इसे 'जॉर्ज टाउन' मानते हैं।"

"हमारे तमिळ भाइयों के अलावा यहाँ और कौन बसे हुए हैं ?" "चीनी हैं । सेनयीन नाम से मेरे एक दोस्त हैं। उनके घर हम कल 'लंच के लिए जा रहे हैं। बड़े भारी टिम्बर मर्चेन्ट हैं वे। हांगकांग में भी उनका 'बिजनस' चलता है। बड़े मिलनसार आदमी हैं।"

"हमारे नाटकों में सिर्फ तमिळ दर्शक आते हैं या चीनी और मलेशियन आदि भी आते हैं ?"

"सब आते हैं। पर नाटकों में विशेष रुचि लेनेवाले तो तमिळ ही अधिक हैं। नांच या 'ओरियंटल डान्स' जैसा कुछ हो तो चीनी और मलेशियन अधिक तादाद
में आते हैं। आपका नाम तो सिने-संसार में भी काफी फैला है, इसलिए अच्छी कमाई होगी । पिनांग की ही बात लीजिए तो पहले के दो दिनों तक खेले जानेवाले नाटक तो अभी से हाउसफुल' हो गये हैं।"

"अच्छा ! दूसरे शहरों के इंतजाम कैसे होंगे?"

"क्वालालम्पुर, ईप्यो, मलाया, सिंगापुर-सभी जगहों में प्रोग्राम अच्छा ही रहेगा। सभी शहरों में आपके चाहनेवाले वड़ी तादाद में हैं।"

गोपाल 'कॉकटेल' का दूसरा प्याला भी गटक गया। अब्दुल्ला ने नौकर को बुलाकर माधवी और मुत्नुकुमरन् के बारे में पूछताछ की । पिनांग हिल पर अब्दुल्ला के बँगले के पास ही एक पार्क था। नौकर ने कहा कि दोनों उसी ओर गये होंगे। गोपाल जरा ज्यादा ही थक गया था। नशा भी चढ़ रहा था। इसलिए लड़खड़ाते पैरों अपने कमरे में गया और बिस्तर पर गिर गया।

अब्दुल्ला नाइट गाउन पहनकर हाथ में पाइप लिये आये और द्वार पर कमरे के अन्दर सोफ़ा लगवाकर बैठ गये। उनके मुख से पाइप का गोलाकार धुआँ सिर पर गुम्बद-सा बनाता और मिटाता जा रहा था ।

उनके मन से माधवी की याद मिटी ही नहीं। सच पूछा जाएं तो नशे-पर-नशा चढ़ा था । पिनांग शहर में ही उनका एक बैंगला था। उसमें घर के लोग रहते थे। इसीलिए वे 'हिल' वाले बँगले पर आये थे। उन्हें इस बात की तकलीफ़ हो रही थी कि यहाँ आकर भी हम माधवी को वश में नहीं कर पाये। अब वे इसी ताक में उसके लौटने की राह पर बैठे थे कि कोई-न-कोई व्यूह बनाकर किसी-न-किसी तरह, माधवी को वश में कर लें।

द्वार के बाहर कोहरा धुएँ की तरह छाया हुआ था। धीरे-धीरे सरदी भी बढ़ने लग गयी थी।

नीचे समुद्र में उस पार से पिनांग द्वीप को जोड़नेवाले फेरी बोट आते 'साइरन बजा रहे थे। उनकी मंद-मंद ध्वनि कानों में सुनायी दे रही थी। उस पार के, पिरै की बत्तियाँ धुंधली दिखायी दे रही थीं। समुद्र के जल में प्रकाश में धुली-मिली छाया लहरा रही थी।

बड़ी लम्बी प्रतीक्षा के बाद माधवी और मुत्तुकुमरन् हाथ-में-हाथ लिये आ पहुँचे। सामने अब्दुल्ला को बैठे देखकर दोनों के हाथ अलग हो गये। ऐसा लगा कि अपनी प्राकृतिक घनिष्ठता को अस्वाभाविक ढंग से काटकर दोनों एक-दूसरे से विलग होकर आ रहे हैं।

माधवी के जूड़े में पिनांग हिल पार्क में खिले सफेद रंग के गुलाबों में से एक, दो पत्तों सहित तोड़कर खोसा हुआ था। अब्दुल्ला ने जब यह देखा तो उन्हें याद आया कि यहाँ से जाते हुए उसके बालों पर कोई फूल न था। उन्होंने मुत्तुकुमरन् पर ईर्ष्या भरी तिरछी दृष्टि यों फेरी, मानो कोई हाथी झुकी आँखों से नीचे देखता हो।

"एकाएक कहाँ गुम हो गये? कॉकटेल मिक्स करके देखा तो तुम दोनों अचानक गायब हो गये थे। पार्क गये थे क्या?"

"हाँ, ये जरा टहलने को साथ बुला रहे थे तो चल पड़े।" माधवी ने जान- बूझकर 'ये' पर ज़ोर देकर कहा ।

मुत्तुकुमरन् तो उनके सामने ठहरना नहीं चाहता था ।वह तेजी से डग भरता हाल में चला गया।

माधवी को रोकने के विचार से अब्दुल्ला ने बात जारी की-"पार्क जाने की बात कही होती तो हम भी आये होते।"

"आप और गोपाल साहब कॉकटेल में काफी गहरे डूबे थे; इसलिए साथ आयेंगे या नहीं आयेंगे-सोचकर हम चले गये।"

"कहा होता तो किसी को साथ भेजा होता।"

"जब लेखक साथ रहे तो और किसी को व्यर्थ में साथ करने की क्या जरूरत थी?"

"आपको कोई अच्छी 'सेंट' चाहिए तो कहिये ! मेरे पास बढ़िया-से-बढ़िया सेंट हैं ।" उनकी बातों में इन की बु नहीं; वासना की बू थी। माधवी ने कोई उत्तर नहीं दिया। उसके मन की जानकर मन-ही-मन में हँस पड़ी।

"चानल नंबर फ़ाइव, चादरा, इवनिंग इन पेरिस-जो चाहिए, कहिए। दूंगा। मुझे मालूम हैं, गोपाल साहब ने बताया है कि आपको सुगंधित चीजें बहुत पसंद हैं।"

"जी नहीं ! अब मुझे किसी की कोई जरूरत नहीं। जरूरत पड़ी तो अवश्य मांग लूंगी; जरा भी संकोच नहीं करूंगी।" माधवी ने कहा। उसका जी अब्दुल्ला की बातों और दृष्टि से बचकर भागने का कर रहा था।

वह जल्दी-से-जल्दी अपने कमरे में जाकर सोना चाहती थी। अब्दुल्ला तो मानो उससे गिड़गिड़ाने ही लग गये, “थोड़ी देर बैठो न माधवी ! अभी से ही नींद आ गयी है क्या ?"

"हाँ, सवेरे मिल लेंगे! गुड नाइट !" कहकर माधवी अपने कमरे में गयी और छिटकनी लगाकर उसने चैन की सांस ली।

सबेरे उठकर 'ब्रेक फास्ट' से निवृत्त होकर वे सब पिनरंग हिल से नीचे उतर पड़े। उसी दिन, मद्रास से जहाज पर चले कलाकार, कर्मचारी और सीन-सेटिंग जैसे नाटक के सामान पिनांग के बंदरगाह के किनारे लगनेवाले थे। उन्हें लिवा लाने के लिए उन्हें जाना था। पिनांग हिल से लौटने के बाद से अब्दुल्ला मुत्तुकुमरन् की बड़ी उपेक्षा करने खामखाह नफ़रत का जहर उगलने लग गये थे। और गोपाल उनका विरोध मोल लेना नहीं चाहता था। इसलिए देखकर भी अनदेखा कर चुप्पी साध गया।

माधवी बड़े धर्म-संकट में पड़ गयी । उसकी वेदना और ग्लानि का पारावार नहीं रहा। उसे यह समझने में कोई कठिनाई नहीं कि अब्दुल्ला मुत्तुकुमरन् की इतनी उपेक्षा क्यों कर रहा है और उसपर घृणा की आग क्यों उगल रहा है ?

मुत्तुकुमरन् और गोपाल' भी इस बात को खूब ताड़ चुके थे। गोपाल न तो अब्दुल्ला का विरोध-भाजन बनना चाहता था और न मुत्तुकुमरन का । पर अन्दर- ही अन्दर वह भी मुत्तुकुमरन् पर उमड़-घुमड़ रहा था।

माधवी यद्यपि सबसे हँसती-बोलती थी, लेकिन मन ही मन गोपाल और अब्दुल्ला पर आग-बबूला हो रही थी।

मुत्तुकुमरन् के विचार तो यों दौड़ने लगे थे कि दोस्त की बात मानकर मैंने पहला गलत काम यह किया कि इस यात्रा में सम्मिलित होने की सम्मति दे दी। अदरख के व्यापारी का जहाज़ के व्यापार से क्या सरोकार ? पर हाँ, सिर्फ मित्र की बात मानकर मैं कहाँ आया? माधवी का साथ ही इसके पीछे बलवती रहा है ? वस्तुतः मूल कारण की तह में जाने पर माधवी का नया और सच्चा प्रेम ही उभर आता है। नहीं तो इस विलायती यात्रा के लिए मैं राजी ही क्यों होता?

इस सिलसिले में उसका ध्यान एक दूसरी ओर भी गया।

मद्रास में पहले-पहल जब वह अब्दुल्ला से मिला था, तभी अब्दुल्ला और उसके बीच मनोमालिन्य का बीज पड़ गया था। कितने ही कटु प्रसंगों ने खाद बनकर उसके पनपने में हाथ बँटाया । अब तो धृणा और उपेक्षा की हद हो गयी है !

पिनांग की धरती पर आकर मुत्तुकुमरन ने विचार किया तो मुत्तुकुमरन को पता चला कि पहले घटी घटनाओं और अब घट रही घटनाओं के बीच सम्बन्ध है। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि उसी मूल घृणा से यह घृणा पैदा हुई होगी और उन उपेक्षाओं से इन उपेक्षाओं को उत्तेजना मिली होगी।

दूसरे कलाकारों को बंदरगाह से लाने के लिए जब चलने लगे, तब अब्दुल्ला या गोपाल ने मुत्तुकुमरन् की इस तरह उपेक्षा की कि न तो उसे साथ चलने को बुलाया और न साथ न आने को कहा। पर माधवी को साथ चलने को बार-बार बुला रहे थे।

माधवी को लगा कि अब्दुल्ला और गोपाल दोनों मिलकर मुतुकुमरन् की अवज्ञा और उपेक्षा करने की कोशिश कर रहे हैं। वह यह भी जानती थी कि मुत्तुंकुमरन् का आत्माभिमान जग जाये और रोष फूट जाये तो ये दोनों उसके सामने टिक नहीं सकेंगे। लेकिन मुत्तुकुमरन् को, अपने स्वभाव के विरुद्ध, संयम और शांति बरतते देखकर उसे आश्चर्य हुआ। नयी जगह पर, जहाँ बातचीत तक करने के लिए भी कोई नहीं, मुत्तुकुमरन् को अकेले छोड़कर, जहाज से आनेवाले कलाकारों को लिवा लाने के लिए वह नहीं जाना चाहती थी। उसने सिर-दर्द का बहाना कर इनकार कर दिया । अब्दुल्ला और गोपाल ने कितना ही कहा। पर उसने सुना नहीं। आखिर उन दोनों को लाचार होकर माधवी के बिना बंदरगाह जाना पड़ा। घर में केवल माधवी और मुत्तुकुमरन् रह गये थे। उस एकांत में माधवी की समझ में नहीं आया कि वार्तालाप कैसे शुरू करे, कहाँ से शुरू करे और किन शब्दों से करे? दोनों के बीच थोड़ी देर मौन छाया रहा ।

"मेरे ही कारण आपको ये सारे कष्ट सहने पड़ रहे हैं ! मुझे भी नहीं आना चाहिए था और आपको भी लाकर व्यर्थ कष्ट में डालना नहीं चाहिए था !"

मुत्तुकुमरन् ने कोई उत्तर नहीं दिया। वह किसी गहरे सोच में पड़ा था । उस का हर पल का वह मौन माधवी को संकट में डाल रहा था ! आखिर वह मौन तोड़कर बोला, "कष्ट-वष्ट कुछ नहीं । मुझे कष्ट देनेवाला कोई मनुष्य अभी पैदा नहीं हुआ। लेकिन तुम जैसी एक युवती से प्रेम करके, वह सच्चा प्रेम अखंड होकर, जब विपक्ष से वापस मिलता है, तब मुझे अपने मानाभिमान, रोष-तोष, कोप-ताप सबको दिल-ही-दिल में रखना पड़ता है। प्रेम की ख़ातिर इतने बड़े-बड़े अधि- कारों को त्यागना पड़ेगा-आज ही मैं समझ पा रहा हूँ। यही बात मुझे आश्चर्य में डाल रही है।".

"इस मामले में अब्दुल्ला घोर असभ्य और जंगली निकलेगा-इसका मुझे ख्याल तक नहीं आया।"

"तुम्हें ख्याल नहीं आया तो उसके लिए दूसरा कोई क्या करे? असभ्यता ही आज पचहत्तर प्रतिशत लोगों में घर किये हुए है। सभ्यता तो एक ओढ़नी मात्र है। जब चाहे. मनुष्य निकालकर ओढ़ लेता है, बस !"-~-मुत्तुकुमरन् ने विरक्ति से उत्तर दिया।

जहाज पर आनेवालों ने आवास पर पहुँचकर दोपहर तक विश्राम किया। तीसरे पहर को, सब अलग-अलग कारों पर सवार होकर पिनांग नगर का पर्यटन करने चल पड़े । सभी सहस्र बुद्ध का पगोडा, साँपों का मन्दिर, पिनांग के पर्वत- प्रदेश और समुद्र-तट की सैर को गये।

माधवी मन-ही-मन डर रही थी कि पिछली रात और सुबह की अवज्ञा और उपेक्षा का ख्याल करके, मुत्तुकुमरल धूमने आने से कहीं इनकार कर दे तो क्या हो ? लेकिन वह वैसी कोई ज़िद न पकड़कर शांतचित्त से चलने को तैयार हो गया तो उसे आश्चर्य हुआ।

वे जहाँ-जहाँ गये, कलाकारों को देखने के लिए लोगों की बड़ी भीड़ लग गयी। ऑटोग्राफ़ और फोटोग्राफ़ के लिए लोग पिल पड़े।

सहल बुद्ध का पगोडा पहाड़ पर एक अटारी जैसा खड़ा था। उस पहाड़ के चारों ओर जिधर देखो, बुद्ध मन्दिर थे। सारा मन्दिर परिसर अगर बत्तियों की महक उठा था। कहीं-कहीं लाठी और मूसल जैसी दानवाकार अगर- बत्तियाँ लगी थीं।

फोटो खिचवाने और चित्र चाहनेवालों को चित्र बेचने के लिए चीनी 'विक्रेतागण बड़ी फुर्ती से दौड़-दौड़कर ग्राहक खोज रहे थे।

मदुरै के नये मंडप की दुकानों की भाँति और पलनि के पहाड़ पर चढ़ने की पगडंडी की भाँति, बुद्ध-मन्दिर जानेवाली सीढ़ियों में भी दोनों तरफ़ चीनियों की 'घनी दुकानें थीं। खिलौनों से लेकर तरह-तरह के उपयोगी और केवल सजावटी सामान उन दुकानों में बिक रहे थे। वे चीनियों की मेहनत और कारीगरी का उत्तम नमूना पेश करते थे।

सहस्र बुद्ध के पगोडे की सीढ़ियां चढ़ते हुए एक जगह पर माधवी की साँस चढ़ गयी । उसके पीछे सीढ़ियाँ चढ़ते हुए मुत्तुकुनरन् ने देखा कि वह लड़खड़ा रही है तो उसने लपककर हाथों का सहारा दिया।

"कहीं गिरकर मर हो न जाना ! तुम्हारे लिए मैं जो साधना कर रहा हूँ, उसका क्या होगा ?" उसने उसकी कमर को जोर से भींचते हुए उसके कानों में कहा तो माधवी पर मधुवर्षा-सी हुई।

"मरूँ ? वह भी आपके साथ रहते हुए ? ना बाबा, ना !" यह कहते हुए माधवी के मुख पर जो मुस्कान खिली, वह अमरत्व की बेल बो गयी ! उस मुस्कान को फिर से देखने का उसका मन लालायित हो उठा। इस एक मुस्कान के लिए, उसे 'लगा कि अब्दुल्ला की अवज्ञा, गोपाल की उपेक्षा आदि सभी कुछ सहे जा सकते हैं।

सहस्र बुद्ध पगोडे से वे सीधे साँपों के मन्दिर में गए। उस मन्दिर के किवाड़ों 'पर, झरोखों के सीखचों पर, जहाँ देखो वहाँ हरे-हरे साँप रेंग रहे थे। बरामदे पर रखे गमलों पर, ग्रोटन्स के पौधों पर और छत की बुजियों पर भी सांप लटक रहे थे। पहले ही से परिचित व्यक्ति तो निडर होकर आते-जाते रहते थे। पर नवागंतुक तो डर रहे थे। कुछ हिम्मतकर लोग उन साँपों को हाथों में लिये या गले में माला की तरह पहने हुए 'फ़ोटो' के लिए 'पोज' भी दे रहे थे। ऐसे चित्र उतारने के लिए कुछ चीनी वहां पहले से ही मौजूद थे। वे पर्यटकों से कह रहेथे कि आप अपना स्थायी पता और रुपये दे जायें तो फोटो आपको खोजते हुए आपके घर आ जायेंगे।

गोपाल उर के मारे मन्दिर के बाहर ही रह गया। माधवी भी क्रम डरपोक नहीं थी। पर मुत्नुकुमरन् धैर्य के साथ अंदर चला गया तो वह भी उसका पीछा किये बिना नहीं रह सकी। "हमारे इर्द-गिर्द मँडराने बालों में कितने ही ऐसे हैं, जो इन विषधर नागों से कम क्रूर नहीं हैं। जब हम उनसे ही नहीं डरते तो इन बेचारे बेजुबान प्राणियों से क्यों डरें?"-मुत्तुकुमरन् ने पूछा।

"किसी आदत की वजह से इस मन्दिर में लागातार साँप आते रहते हैं। यदि लोग उन्हें न सतायें तो वे भी नहीं काटते।" मार्ग-दर्शक के रूप में अब्दुल्ला द्वारा भेजे हुए आदमी ने कहा।

साँपों के मन्दिर से वे पिनांग नगर की बीथियों से चलकर एक बुद्ध मन्दिर में गए । शयनासन में बुद्ध की एक बड़ी प्रतिमा उस मन्दिर में थी । एक पहाड़ी पर चढ़ते हुए उन्होंने रास्ते में एक पुराना हिन्दु मन्दिर भी देखा।

पहाड़ पर एक जगह कारें खड़ी करके मार्ग-दर्शक ने उन्हें डोरियान, रम्बुत्तान, जैसे फल खरीदकर चखने को दिए। डोरियान फल की बू से माधवी को उबकायी आयी। मुत्तुकुमरन् ने तो उस फल की फाँक खाकर कहा कि उसका स्वाद मधु- मधुर है । माधवी भी नाक पकड़कर उस फल के पिलपिले गूदे को एक झटके में निगल गयी। डोरियान कटहल की फाँक से भी सफ़ेद और सख़्त था। पर वह बहुत मीठा था। भगवान ने न जाने क्यों, उस मीठे और जायकेदार फल में ऐसी बदबू भर रखी थी!

वे पहाड़ी सड़कों से गुजरते हुए पिनांग द्वीप की सभी दिशाओं में हो आए। गोपाल यद्यपि उनके साथ गया, फिर भी अपनी हैसियत और बड़ाई की धाक जमाने के लिए उनसे दूर ही रहा। किसी से ज्यादा मिला-जुला नहीं। सिर्फ़ उसके उपयोग के वास्ते अब्दुल्ला ने एक 'कॅडिलक्' स्पेशल कस्टम की कार का प्रबंध कर रखा था। सभी जगहों में वही कार आगे-आगे गयी और बाकी सब कारें पीछे- पीछे।