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दूसरे दिन सवेरे से रिहर्सल खूब जोर-शोर से चलने लगा। गोपाल चाहता था कि चाहे जो कुछ भी हो, मंत्री महोदय के दिये हुए 'डेट' पर उनकी अध्यक्षता में नाटक का मंचन हो जाये। नियत दिन के बहुत पहले ही रिहर्सल पूरा कर नाटक को पक्का रूप देने के प्रयत्न होने लगे। पार्श्वगायक-गायिकाओं द्वारा गीतों का गोपाल ने 'प्री-रिकार्ड करवा लिया : फिल्मी जगत के एक संगीत निर्देशक ने गीतों की धुनें बनाकर बड़ा दिलकश अन्दाज़ पैदा किया था ।

नाटक ठीक कितने समय का होगा, इसका ठीक-ठीक पता लगाने के लिए 'फाइनल स्टेज रिहर्सल' का इन्तजाम एक स्थायी नाटक थियेटर में ही किया गया । गोपाल ने उसी दिन 'प्रेस प्रीव्यू' रखने का निश्चय किया।

नाटक के प्रथम मंचन और उसके बाद के प्रदर्शनों में 'हाउस फुल होने के लिए सभी पत्र-पत्रिकाओं में प्रशस्ति मूलक शब्द ही छपें-गोपाल ने इसकी भी पूरी व्यवस्था कर रखी थी।

इसके अलावा एक और योजना भी गोपाल के मन में उभर आयीं । मलेशिया के पिनांग से अब्दुब्ला नाम के एक धनी रसिक मद्रास आये हुए थे। वे वहाँ के प्रसिद्ध [ ७० ]व्यापारियों में से थे। उनका एक पैशा यह भी था कि भारत की नाटक-मंडलियों को अनुबंध द्वारा मलाया ले जाते और जगह-जगह नाटक का मंचन कर पैसे बनाते और बनवाते । गोपाल नाटक-मंडली के प्रथम नाटक 'प्रेम-एक नर्तकी का' जिसका प्रथम मंचन मंत्री महोदय की अध्यक्षता में होना था-उसी दिन पिनांग के अब्दुल्ला को नाटक में बुलाने का भी निर्णय हुआ । यह आशा की गयी कि नाटक देखने के बाद वह गोपाल और गोपाल की नाटक-मंडली को इस नाटक के मंचन हेतु कम-से-कम एक महीने के लिए मलाया-सिंगारपुर में अनुबंध पर बुलायेंगे। अतः नाटक-मंडलीवालों की यह कोशिश रही कि नाटक पूरी तरह सफल हो ताकि अब्दुल्ला भी इस अनुबंध के लिए बाध्य हो ।

नाटक नाटक के लिए सफल हो या न हो, दूसरे कई कारणों के लिए सफल हो-गोपाल का यह प्रयास मुत्तुकुमरन को नहीं भाया।

मंचन के प्रथम दिन 'जिल जिल' संपादक कनियळकु मुत्तुकुमरन् से भेंट करने के लिए आ गया । इस समय भेंट-वार्ता छपे तो बड़ा अच्छा रहेगा-गोपाल की योजना का इसके पीछे हाथ था। लेकिन मुत्तुकुमरन् ने जिल जिल पर ऐसी फबती कसी कि वह सकपका गया। उसके हर सवाल का जवाब टेढ़ा-मेढ़ा ही मिला।

उसके प्रति मुत्तुकुमरन का कोई आदर-भाव नहीं रहा ।

"मैंने कितने ही बड़े-बड़े लोगों से भेंट की है। त्यागराज भागवतर, पि० यु० चिन्नप्पा, टी० आर० राजकुमारी-सबको मैं अच्छी तरह जानता हूँ।"

"लेकिन मैं उतना बड़ा आदमी नहीं !"

"हमारे 'जिल जिल' में आपकी एक भेंट-वार्ता छप जाए तो आप अपने आप बड़े हो जायेंगे !"

"तो कहिए कि बड़े आदमी बनाने का काम आप बहुत दिनों से कर रहे हैं।"

"हमारे जिल जिल की यह नियामत है !"

"हाँ, जिल जिल भी तो एक नियामत है !"

"अच्छा, छोड़िये उन बातों को ! अब हम काम की बात करेंगे !"

"हाँ-हाँ ! कहिए, आपको क्या चाहिए?"

"आपने कला के जगत में कब पदार्पण किया?"

"कला-जगत कहने का क्या मतलब है ?. पहले यह बताइये । बाद में मैं आपको जवाब दूंगा । मेरा जाना-माना जगत एक ही है। उसमें भूख-प्यास, अमीरी-गरीबी, तोष-रोष, सुख-दुख, शोक-संताप-सब सम्मिलित हैं । आप तो किसी दूसरी दुनिया की बात कर रहे हैं !"

"आप यह क्या कह रहे हैं ? कला की ही दुनिया में तो आप, मैं और गोपाल साहब रहते हैं !" [ ७१ ]
"वह कैसे ? आप और मैं मिलकर जिस किसी दुनिया में रह सकते हैं, वैसी कोई दुनिया रह ही नहीं सकती।"

"अजी साहब! हम दोनों इस तरह बोलते रहें तो भेंट-वार्ता की एक पंक्ति भी नहीं लिखी जा सकती!"


"चिंता मत कीजिए । आपको जो चाहिए, पूछिए, बता देता हूँ !"

"वह तो मैंने पूछ ही लिया ! आप ही ने अब तक कोई उत्तर नहीं दिया !

नहीं तो मैं एक काम करता हूँ ! मैं एक ऐसी भेट-वार्ता लिखकर लाता हूँ, जिसमें आप जवाब देते हैं और मैं सवाल करता हूँ। सवाल-जवाब मैं फिट कर लूंगा।

उसमें आप अपना दस्तखत भर कर दीजियेगा, बस !"

"पढ़कर दस्तखत करूँ, या बिना पढ़े ही कर दूं?"

"आपकी मर्जी ! पढ़ना चाहें तो पढ़ कर कीजिएगा।"

मुत्तुकुमरन् को यह सुनकर बड़ा गुस्सा आया लेकिन ' जिल जिल' जैसे चापलूस को एक आदमी मानकर, उसपर अपना क्रोध उतारने के विचार तक को वह मन में नहीं लाना चाहता था । पर 'जिल जिल' का मुंह खुलवाकर गप्पें लड़ाने की इच्छा जोर मार रही थी। उसके पहले, सवाल के जवाब में अपनी जन्म-तिथि, कुटुंब की गरिमा, मदुरै की बाय्स् कंपनी की नौकरी आदि का विवरण दिया और अगले सवाल की उससे प्रतीक्षा की। दूसरा सवाल करने के पहले ही जिलजिल' ने थके-हारे मन से जेब से सिगरेट की डिब्बी निकाली और एक सिगरेट निकालकर मुत्तुकूमरन् के आगे बढ़ायी । मुत्तुकुमरन ने इनकार करते हुए कहा, "नहीं, धन्यबाद ! बहुत दिनों तक यह आदत पाले रहा । अब कुछ दिनों से छोड़ दी है।"

"अरे, रे ! कला की दुनिया में जिन योग्यताओं की जरूरत होती है, उनमें एक भी आप में नहीं है !"

"मिस्टर जिल जिल ! अभी आपने जो कुछ कहा, उसका क्या मतलब है ?"

"सुधनी, पान-सुपारी, तम्बाकू, सिगरेट, शराब, औरत-इनमें एक भी न हो तो कोई कलाकार कैसे हो सकता है ?"

"कोई हो तो नहीं मानेंगे क्या?"

"नहीं, ऐसी बात नहीं है ! मेरा मतलब है ..." कहते हुए 'जिल जिल' ने सिगरेट सुलगायी।

उस' कूबड़ शरीर वाले 'जिल' जिल' को धुआँ निगलते-उगलते देखकर मुत्तुकुमरन को तमाशा-सा लगा । इस बीच' 'जिल जिल' ने अपना दूसरा सवाल 'शुरू किया, "आपका लिखा या खेला हुआ पहला नाटक कौन-सा है ?"

"इतना जरूर याद है कि मैंने कोई नाटक लिखा है और खेला है ! पर वह कौन-सा रहा होगा, यही याद नहीं आता !"

"सर, इस तरह के जवाब का हम क्या करेंगे? आपके सभी जवाब एक जैसे [ ७२ ]मालूम होते हैं । पाठकों को दिलचस्पी होनी चाहिए न?"

"निश्चय ही ऐसे जवाब नये होंगे, मिस्टर जिल जिल ! क्योंकि सभी भेंट--

वार्ताओं में एक ही. जैसे सवाल और जवाब' पढ़कर पाठक उकता गये होंगे !"

कहकर मुत्तुकुमरन् ने अपनी आवाज़ धीमी कर पूछा, "अब तक तो ये सवाल और जवाब दोनों आप ही के लिखे हुए होते हैं न ?"

"हाँ, बात तो सच है !"

"कागज़ पर कुछ लिख लेने के बाद 'जिल जिल' ने अगला सवाल किया, "आपके पसंद के नाटककार कौन हैं ?"

"क्यों ? मैं खुद हूँ !

"ऐसा कहेंगे तो क्या होगा ? जवाब जरा नम्र हो तो अच्छा होगा।"

"मुझी को मैं पसंद नहीं आया तो और किसको पसंद आऊंगा?"

"अच्छा, छोड़िए ! अगला सवाल सुनिए ! क्या आप यह बता सकते हैं कि कला के क्षेत्र में आपके क्या आदर्श हैं ?"

"आदर्श तो बहुत बड़ा शब्द है ! आपके मुँह से इतनी सहजता और धैर्य के साथ इस शब्द का प्रयोग देखकर मुझे भय हो रहा है, मिस्टर जिल जिल ! मुझे इस बात का संदेह है कि इस शब्द का उच्चारण तक करने की योग्यता रखने- वाला व्यक्ति आज के कला के क्षेत्र में कोई होगा भी या नहीं !"

मुत्तुकुमरन और 'जिल जिल' इन बातों में उलझे थे कि माधवी वहाँ आयी ।

"आप आती हैं तो सचमुच बहार ले आती हैं !" कहकर 'जिल जिल' हँसा।

किसी फोड़े की तरह उसका थोबड़ा उभर आया। यह देखकर मुत्तुकुमरन् को उबकाई आयी।

"अच्छा ! अगला सवाल है मेरा ! कहिए, आपने अभी तक शादी क्यों नहीं की?"

"किसी मर्द से इस तरह के सवाल पूछने और जवाब छापने से आप किसी भी तरह पाठकों को बाँध नहीं सकते, मिस्टर जिल जिल!"

"परवाह नहीं, आप जवाब दीजिये !"

"जबाब दूं?"

"हां, दीजिये !"

.." माधवी की ओर इशारा कर, मुत्तुकुमरन् बोला, "कोई बहार आयें तो शादी करने का विचार है।

"ऐसा ही लिख लूं ?"

"ऐसा ही का क्या मायने?".

"माधवी जैसी सर्वांग-सुन्दरी मिले तो शादी करूंगा।'नाटककार मुत्तुकुमरन् की यह प्रतिज्ञा है।•••लिख लूँ ?" [ ७३ ]
"यह इच्छा मात्र है । इच्छा और प्रतिज्ञा अलग-अलग हैं । इसे प्रतिज्ञा कहना गलत है !"

"पत्रिका की भाषा में हम ऐसा ही कहते हैं !"

"पत्रिका की इस भाषा को भाड़ में झोंकिए !"

"गुस्सा मत कीजिये !"

"छि:-छि: ! यह कोई गुस्सा है ? मैं सचमुच गुस्सा करूँ तो थरथरा जायेंगे आप?"

"मेहरबानी करके मेरे अगले सवाल का, बिना गुस्सा किये जवाब दीजियेगा।

आपकी अगली योजना क्या है ?"

"वह तो मेरा भविष्य ही जाने ! मैं क्या जानूँ ?"

"आप भी खूब मजाकिया बातें करते हैं।"

"मजाकिया?"

"हाँ, हास्य की।"

"इसमें कौन-सा बड़ा हास्य हो गया?"

मुत्तुकुमरन् माधवी की ओर देखकर मुस्कराया । जिल जिल झुककर कुछ लिखने लगा।

“एक मिनट इधर, अंदर आइए !" माधवी ने मुत्तुकुमरन को आउट हाउस के बरामदे से अंदर बुलाया तो वह उसके साथ अंदर चला गया ।"

"इस आदमी के सामने ऐसी बातें क्यों की ?"

"कैसी बातें?"

"इनकी तरह कोई बहार आये तो शादी करने का विचार है !"

"तो कहो कि तुम्हारे ख़याल से मुझे यह कहना चाहिए कि शादी करूँ तो मैं 'इसी से शादी करूंगा । मेरी ग़लती माफ़ कर दो !"

"मेरे कहने का मतलब वह नहीं !"

"तो फिर क्या ?"

"उन्होंने यह लिख लिया है कि माधवी-जैसी मनोहर सुन्दरी मिले तो शादी करूंगा।' 'नाटककार मुत्तुकुमरन् की यह प्रतिज्ञा है । अब इसे गोपाल साहब पढ़ेंगे तो क्या समझेंगे?"

"तो फिर तुम्हारा छुटकारा नहीं होने का । तुम्हें गोपाल का डर लग रहा है ?"

"डर किस बात का? आप मेरी बात समझते नहीं !"

“समझता खूब हूँ ! शेरों से डरनेवाली हिरनियाँ मुझे पसन्द नहीं !"

"मुझे डरानेवाला शेर और कहीं नहीं, इधर है।" कहकर माधत्री ने मुस्कुराते हुए उसकी मीठी चुटकी ली। बदले में मुत्तुकुमरन् भी मुस्कुराया। पर उसे इस बात का पता था कि वह मन-ही-मन गोपाल से डर रही है। इसका फायदा उठाकर वह [ ७४ ]
हद से ज्यादा उसका इम्तहान लेना या डराना नहीं चाहता था। इसलिए हँसकर रह गया। माधवी भी उसके गांभीर्य के सामने अपने को डरपोक साबित करना नहीं चाहती थी। उसने अपनी वेबसी को हंसकर टाल दिया। जिल जिल ने और कुछ वेतुके और उबाऊ सवाल किये, मुंह-तोड़ जबाब पाये और अपनी भेटवार्ता पूरी कर चल पड़ा।

उस रात को नारद गान सभा के मंच पर स्टेज़-रिहर्सल हुआ, जो बड़ा सफल रहा । रात के ग्यारह बज गये। नाटक आठ बजे शुरू हुआ और ठीक ग्यारह बजे खत्म हुआ।

नाटक तीन घंटे का ही रहे या ढाई घंटे का बनाया जाए ? गोपाल ने मुत्तकुमरन्, माधवी और अन्य कुछ मिन्नों से सलाह-मशविरा किया।

"जो लोग तीन या साढ़े तीन घंटे बैठकर सिनेमा देखते हैं, वे अच्छे सुरुचिपूर्ण नाटक देखने में आना-कानी नहीं करेंगे। किसी भी दृश्य को काटना नहीं चाहिए। नाटक जैसे का तैसा रहे। कहीं कैंची चली तो वह अपना प्रभाव - खोकर हल्का- .. फुल्का हो जाएगा !" मुत्तुकुमरन् अपनी बात पर अड़ा रहा तो गोपाल को लाचार होकर चुप हो जाना पड़ा।

दूसरे दिन शाम को मन्त्री महोदय की अध्यक्षता में नाटक का मंचन होना था। इसलिए सबको जल्दी घर जाकर इस रिहर्तल की रात को थकान सोकर उतारनी भी थी। उन्हें कहा गया कि अगले दिन शाम को पांच बजे अण्णामलै मन्ड्रम में हाजिर हो जाना चाहिए। ठीक छः बजे नाटक शुरू होगा। मंत्री महोदय अंतिम दृश्य के पहले अध्यक्ष का आसन ग्रहण कर नाटक की प्रशंसा में कुछ कहेंगे। अगली रात का सारा कार्यक्रम पूरा होते-होते रात के दस बज ही जायेंगे।

नाटक देखने के लिए शहर के कई प्रमुख व्यक्ति, अन्य नाटक-मंडलियों के सदस्य, पिनांग के अब्दुल्ला आदि विशेष रूप से निमंत्रित थे।

इसलिए स्टेज-रिहर्सल के पूरे होने की रात या दूसरे दिन की सुबह नाटक को घटाने-बढ़ाने या परिमार्जित करने के विषय में सोचने तक को किसी को समय नहीं मिला। स्टेज-रिहर्सल देखने वालों में सिर्फ 'जिल जिल' ही ऐसा था जो सबसे यही कहते हुए नजर आया, "नाटक में हास्य कम है। थोड़ा ज्यादा होता तो अच्छा होता।"

"मेरे विचार से पर्याप्त हास्य है । अगर कहीं कमी-बेशी नज़र आयेगी तो दर्शकों की गैलरी से आपको बुला लेंगे !" मुत्तुकुमरन् ने उसे टोका तो 'जिल जिल' का मुंह आप ही आप बंद हो गया।

दूसरी शाम को अण्णामले मण्ड्रम 'हाउस फूल' हो गया। अनेक व्यक्तियों को टिकट नहीं मिला-फलतः निराश होकर घर लौटना पड़ गया। नाटक ठीक छ:: बजे शुरू हुआ। मंत्री महोदय और पिनांग के व्यापारी अब्दुल्ला पौने छः बजे. [ ७५ ]ही आ गये थे।

हर दृश्य में संवाद, अभिनय और गीत-प्रस्तुति के लिए तालियाँ बजती रहीं।

मध्यांतर में पिनांग के व्यापारी अब्दुल्ला ने 'ग्रीन रूम' जाकर गोपाल से कहा-"जनवरी में तमिऴों का त्योहार है। पोंगल के समय आप मलेशिया आ जाइए और एक महीने के लिए विभिन्न स्थानों पर यही नाटक खेलिए। दो लाख रुपये का 'कांट्रेक्ट' है। आने-जाने का खर्च, ठहरने की व्यवस्था—यह सब हमारे जिम्मे है। उम्मीद करूँ कि आप हमारी गुज़ारिश पर ज़रूर आयेंगे?"

यह सुनकर गोपाल फूला न समाया। अपनी इच्छा को पूरा होते हुए देखकर उसका दिल बल्लियों उछलने लगा।

मध्यांतर के बाद नाटक ने नाटकीय मोड़ लिया और उसमें और भी चमकभरी गति आयी। माधवी के नृत्य, अभिनय और गान को सुनकर ऐसी करतल ध्वनि हुई कि सभा भवन हिल उठा।

अंतिम दृश्य के समापन के पूर्व मंत्री महोदय और अब्दुल्ला मंच पर आये। मंत्री के सामने 'माइक' रखी गयी। हार पहनाया गया। इसके बाद वे बोले, "तमिळ समुदाय के स्वर्णिम युग का यह नाटक यह प्रतिपादन करता है कि इसके पहले हमें ऐसा कोई नाटक देखने को नहीं मिला। भविष्य में भी इसकी ओई आशा नहीं कि मिलेगा। 'न भूतो न भविष्यति' की सूक्ति को यह नाटक चरितार्थ करता है। वीर्य, शौर्य और प्रेम से परिप्लावित इस दृश्य-काव्य के प्रणेता का मैं हृदय से अभिनंदन करता हूँ। भूमिका में उतरे पात्रों को साधुवाद देता हूँ। और अंत में, आज के दर्शकों और भविष्य के दर्शकों के भाग्य की सराहना करता हूँ।"

इस संस्तुति-माला पहनाने के साथ ही मंत्री महोदय ने गोपाल को फूल-माला पहनायी। गोपाल को तत्काल मुत्तुकुमरन् का ख़याल हो आया। कहीं मुत्तुकुमरन् बुरा न मान जाए-इस डर से दर्शकों की गैलरी में पहली पंक्ति में सामने बैठे हुए मुत्तुकुमरन् को मंच पर बुलवाया और पिनांग के अब्दुल्ला के हाथ में एक माला देकर उसे पहनाने की प्रार्थना की।

मुत्तुकुमरन् ने भी मंच पर आकर तालियों की गड़गड़ाहट के बीच अब्दुल्ला के हाथों माला स्वीकार की।

इतने से ही संतोष कर नाटक का अन्तिम दृश्य आरंभ हो गया होता तो अच्छा होता। 'तुम भी दो शब्द बोलो उस्ताद'-कहकर गोपाल ने मुत्तुकुमरन् के आगे माइक बढ़ायी।

मुत्तुकुमरन् उस समय घमंड के नशे से चूर था। उसके भाषण में भी वह नशा खूब उभर आया-

"मुझे अभी-अभी यह माला पहनायी गयी। पता नहीं क्यों, मुझे-हमेशा ही माला पहनाने की बात से नफ़रत-सी होती रही है। क्योंकि माला पहनते हुए माला [ ७६ ]पहनानेवाले के आगे, एक पल के लिए ही सही, सिर झुकाना पड़ता है। मेरा सिर झुकवाकर कोई मेरा आदर-सत्कार करे-इसे मैं कतई पसन्द नहीं करता। मैं सिर तानकर रहना ही पसंद करता हूँ। मेरे गले में माला पहनाने के बहाने साधारण से साधारण व्यक्ति भी अपने सामने मेरा सिर झुकवाने की हैसियत रखे, यह कैसी विडंबना है! धन्यवाद!"

मुत्तुकुमरन् के भाषण से पिनांग के अब्दुल्ला का मुँह जरा-सा हो गया। गोपाल सकपका गया।

मुत्तकुमरन किसी बात की चिंता किये बिना, सिंह की चाल से मंच से उतरकर अपने आसन की ओर बढ़ा।