मेरी प्रिय कहानियाँ/अम्बपालिका
अम्बालिका कहानी आचार्य ने सन् १९२८ में लिखी थी। हिन्दी में अम्बपालिका
से सम्बन्धित यह सर्वप्रथम ही कहानी है। इसके बाद अम्बपालिका को लेकर
अनेक कहानियां और उपन्यास भी लिखे गए तथा आचार्य ने आगे इसी आधार
पर अपनी अमर रचना 'वैशाली की नगरवधू' लिखी। जिस समय यह कहानी
लिखी गई थी उस समय लेखक की दृष्टि में कथा का आधार बहुत अग्पाट
था। उसका बाद में जो परिष्कार हुआ वह तो नगरवधू में व्यक्त है । परन्तु यह
कहानी बिना संशोधन किए वैसी की वैसी ही दी जा रही है। इसमें लेखक के
भीतर का उदीयमान साहित्यकार झांँक रहा है।
मुजफ्फरपुर से पश्चिम ओर जो पक्की सड़क जाती हैं, उसपर मुजफ्फरपुर से लगभग १८-२० मील पर 'बैसौढ़' नामक एक बिलकुल छोटा सा गांव है, जिसमें ३०-४० घर भूमिहार ब्राह्मणों के और कुछ घर क्षत्रियों के बच रहे हैं। इस गांव के चारों ओर कोसों तक खण्डहर, टीले और पुरानी टूटी-फूटी मूर्तियां ढेर की ढेर मिलती है, जो इस बात की स्मृति दिलाती है कि यहां कभी कोई बड़ा भारी समृद्धिशाली नगर बसा रहा होगा।
वास्तव में ढाई हजार वर्ष पूर्व यहां एक विशाल नगर बसा था, जिसका नाम वैशाली था, और जो प्रबल प्रतापी लिच्छविगण तन्म के शासन में था।
वैशाली लिच्छविगण तन्म की एक प्रधान नगरी और रियासत थी । नगर व्यापारियों, जौहरियों, शिल्पकारों और भिन्न-भिन्न प्रकार के देश-विदेश के यात्रियों से परिपूर्ण था। 'श्रेष्ठि चत्वर' नगर का प्रधान बाजार था, जहां जौह- रियों और बड़े-बड़े व्यापारियों की कोठियां थीं और जिनकी व्यापारिक शाखाएं समस्त उत्तर भारत में फैली हुई थीं। दुकानदार स्वच्छ परिधान धारण किए, पान कुचरते हंस-हंसकर ग्राहकों से बातें करते । जौहरी, पन्ना, लाल, मूंगा, मोती, पुखराज, हीरा और अन्य रत्नों की परीक्षा तथा लेन-देन में व्यस्त रहते थे। निपुण कारीगर अनगढ़ रत्नों को सान बढ़ाते, स्वर्ण-भरणों में रंगीन रत्त जड़ते और मोती गूंथते थे। गन्धी लोग केसर के थैले हिलाते थे। चन्दन के तेलों में भिन्न-भिन्न सुगन्ध मिलाकर इत्र बनाए जाते और नागरिक उनका खुला उपयोग करते थे । रेशम और बहुमूल्य महीन मलमल के व्यापारियो की दुकानों पर बगदाद और फ़ारस के व्यापारी लम्बे-लम्बे लबादे पहने, भीड़ की भीड़ पड़े रहते थे। नगर की गलियां सकरी और तंग थीं और उनमें गगन- चुम्बी अट्टालिकाएं खड़ी थीं, जिनके अन्धेरे तहखानों में इन धन-कुवरों का बड़ा भारी कोप और द्रव्य रखा रहता था।
सन्ध्या-समय सुन्दर श्वेत बैलो के रथों पर, जिनपर बढ़िया सुनहरा काम हुआ रहता था, नागरिक सैर करने राजपथ पर निकलते थे। इधर-उधर हाथी झूमते हुए बढा करते थे और उनपर उनके अधिपति रत्नाभरणों से सज्जित अपने दासों तथा शरीर-रक्षकों से घिरे हुए चला करते थे।
अभी दिन निकलने में देरी थी। पूर्व की ओर प्रकाश की आभा दिखाई पड़ रही थी, पर मार्ग में अंधेरा था। राजमहल के तोरण पर अभी तक प्रकाश जल रहा था। चारों ओर प्रतिहार पड़े सो रहे थे। उनमे से केवल एक भाला टेक्कर खड़ा नींद में झूम रहा था। तोरण के इधर-उधर कई कुत्ते पड़े सो रहे थे।
धीरे-धीरे दिन का प्रकाश फैलने लगा। राजवर्गी इधर से उधर आने-जाने लगे। प्रतिहाररक्षी सेना का एक नवीन दल तोरण पर आ पहुंचा। उसमें से एक दण्डधर ने आगे बढ़कर भाले के सहारे खड़े-खड़े ऊंघते मनुष्य को पुकारकर कहा-महानामन ! सावधान होओ और घर जाकर विश्राम करो। महानामन ने सजग होकर अपने दीर्घ काय का और भी विस्तार करके एक जोर की अग- डाई ली और यह कहकर कि — तुम्हारा कल्याण हो, वह अपना भाला धरती पर टेकता हुआ तीसरे तोरण की ओर बढ़ गया। पश्चिम की ओर पुराना प्रासाद और राजमहल का उपवन था, जिसकी देख-रेख महानामन के सुपुर्द थी। यही उसकी छोटी सी कुटिया थी, जहा वह अपनी प्रौढ़ा पत्नी के साथ १७ वर्ष से एकरस-आंधी-पानी, सर्दी-गर्मी में रहता था ।
वह नींद में झूमता हुआ ऊंघ रहा था। अब भी प्रभात का प्रकाश धुंधला था। उसने अपनी कुटी के पास एक कदली वृक्ष के नीचे, आम्रकुंज में एक श्वेत वस्तु पड़ी रहने का भान किया। निकट जाकर देखा, एक नवजात शिशु स्वच्छ वस्त्रों में लिपटा अपना अंगूठा चूस रहा है । आश्चर्य-चकित होकर महानामन ने शिशु को उठा लिया । देखा, कन्या है। उसने अपनी स्त्री को पुकारकर उसे वह कन्या देकर कहा- देखो, आज इस प्रकार अपने जीवन की पुरानी साथ मिटी।
वह कन्या-उस दरिद्र लिच्छवि महानामन के उस दरिद्रावास में शशिकला की भांति बढ़ने लगी। उसका नाम रखा गया अम्बपालिका।
वैशाली से उत्तर-पश्चिम २५ कोस पर, एक छोटे से गांव में, एक किनारे पर एक साधारण घर था। उसके द्वार पर एक वृद्ध प्रातःकाल बैठा दातुन कर रहा था। पूर्व के द्वार पर से पैर की आहट सुनकर उसने पीछे को देखा, एक चम्पक पुष्प की कली के समान एकादशवर्षीया, अति सुन्दरी बालिका, जिसके धुंघराले बाल लहलहा रहे थे, दौड़ती-दौड़ती बाहर आई और वृद्ध को देख उससे लिपटने को लपकी, पर पैर फिसलने से गिर गई। वह गिरकर रोने लगी। वृद्ध ने दातुन फेंक, दौड़कर बालिका उठाया, उसकी धूल झाड़ी; बालिका ने रोना रोककर कहा-बाबा, घर में आटा बिलकुल नहीं है, हम लोग क्या खाएंगे ? वृद्ध ने उसे गोद में उठाते हुए कहा कुछ चिन्ता नहीं, मैं अभी गेहूं पिसवाने की व्यवस्था करता हूं। बालिका ने कहा-गेहूं का भी तो दाना नहीं है । वृद्ध क्षण भर अवाक रहा । उसने कहा-तब ठहर, मैं अभी शिकार मार लाता हूं। बालिका ने रोककर कहा-नहीं नहीं, मैं पक्षी का मांस नही खाऊंगी।
वृद्ध महानामन लिच्छवि था और कन्या थी अम्बपालिका । वृद्ध की पत्नी का स्वर्गवास हुए ८ साल व्यतीत हो गए थे। उसके बाद कन्या की परिचर्या मे वाधा पड़ती देख, महानामन ने राज-सेवा छोड़कर अपने ग्राम में आकर बालिका की सेवा-शुश्रूषा अबाधरूप से करने का निश्चय कर लिया था। वह गत आठ वर्षों से इसी गांव में रहता था। अम्बपालिका को उसने इस तरह पाला जैसे पक्षी चुग्गा दे-देकर अपने शिशु पक्षी को पालता है। परन्तु खेद है, धीरे- धीरे उसकी छोटी सी कमाई की क्षुद्र पूंजी, यत्न से खर्च करने पर भी समाप्त हो ही गई । और फिर धीरे-धीरे पत्नी के स्मृति-रूप दो-चार क्षुद्र आभूषण भी सदर-गुहा में पहुंच चुके । अव आज क्या किया जाय ? अब तो आटा भी नहीं एक दाना गेहूं भी नहीं । वृद्ध की प्राणों की पुतली इस प्रश्न पर चिन्तित हो रही है। यह और भी कष्ट का प्रश्न था । पर वृद्ध ने हंसकर कहा-अच्छा, अच्छा, मैं अभी गेहूं लिए आता हूं । इतना कहकर वृद्ध ने बालिका के तड़ातड़ ३-४ चुम्बन लिए और उसे गोद से उतारते-उतारते दो बूंद आंसू गिरा दिए । बालिका भीतर गई और दृद्ध चिन्तामग्न बैठ गया। अन्ततः उसने एक बार फिर महाराज की सेवा मे उपस्थित होकर पुरानी नौकरी की याचना करने का निश्चय किया। उसके बाहु का पौरुष तो थक चुका था। परन्तु क्या किया जाय, कन्या का विचार सर्वोपरि था। फिर भी वृद्ध के अति गम्भीर होने का यही मात्र कारण न था। लाख वृद्ध होने पर भी उसकी भुजा में बल था : बहुत था। पर उसकी चिन्ता थी : बालिका का अप्रतिम सौन्दर्य । सहस्राधिक बालिकाए भी क्या उस पारिजात-कुसुम-तुल्य कुन्द-कलिका के समान थीं? किस पुष्प में उतनी गन्ध, कोमलता और सौन्दर्य था ? उसे भय था कि राज-नियमानुसार वह विवाह से वंचित करके कहीं नगर-वेश्या न बना दी जाय; क्योंकि लिच्छ- विगण तन्म में यह कानून था कि राज्य की जो कन्या अत्यधिक सुन्दरी होती थी, उसे किसी एक पुरुष की पत्नी न होने दिया जाकर नागरिकों के लिए सुरक्षित रक्खा जाया करता था। वास्तव में इसी भय से महानामन राजधानी छोड़कर भागा था, जिससे किसीकी दृष्टि उस बालिका पर न पड़े। पर अब उपाय न था । महानामन ने राजधानी में एक बार जाने का निश्चय किया !
वैशाली की ओर जाने वाली सड़क पर वर्षा के कारण बड़ी कीचड़ हो रही थी । कहीं-कहीं तो नालों का पानी कच्ची सड़क को तोड़कर सड़क पर नदी की तरह बह रहा था। अभी वर्षा हो चुकी थी। वृद्ध और उसकी पुत्री दोनों भीग गए थे, पर धीरे-धीरे बढ़े चले जा रहे थे। हवा बन्द थी, गर्मी बढ़ गई थी और दूरस्थ पर्वतों की चोटियों में अस्त होते हुए सूर्य को देख-देखकर वृद्ध डर रहा था । निकट किसी बस्ती के चिह्न न थे। यदि यहीं चौपट में अधेरा हो गया तो कहां रात कटेगी, बच्ची खाएगी क्या, यही वृद्ध के भय का कारण था। वह लाठी टेकता-टेकता धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा था। वह स्वयं बहुत थक गया था और बालिका तो क्षण-क्षण में विश्राम की इच्छा प्रकट कर रही थी। बालिका ने कहा पिता। अब मैं पौर नहीं चल सकती मेरे पैरों में देखो लोहू बह रहा है, वे फट गए हैं। वृद्ध ने स्नेह से उसे चुमकारकर कहा-बस, अब थोड़ी दूर और; निकट ही कहीं गांव या बस्ती मिलने पर ठहरने में सुभीता रहेगा। पर बालिका और कुछ पग चलकर मार्ग में ही एक ऊंची जगह पर बैठ गई । वृद्ध भी निरुपाय हो, पास ही बैठ गया। अन्धकार ने चारों ओर से उन्हें घेर लिया।
सहसा बालिका ने चौंककर कहा--पिताजी, देखो, घोड़ों की टाप का शब्द सुनाई दे रहा है ! बुड्ढे ने उठकर दूर तक दृष्टि करके देखा। सड़क के निकट एक धना सेमल का वृक्ष था, जिसके नीचे घोर अन्धकार था। वृद्ध कन्या का हाथ पकड़, वहीं जा छिपा । आकाश में अब भी बादल घिर रहे थे और फिर जोर की वर्षा होने के रंग-ढंग दीख पड़ते थे। बीच-बीच में बिजली भी चमक जाती थी। थोड़ी देर बाद बहुत से सवार वहां तक जा पहुंचे। वर्षा भी शुरू हो गई । सवारों ने निश्चय किया कि उस वृक्ष के नीचे आश्रय लें।
वृद्ध भय से बालिका को छाती में छिपाए वृक्ष की जड़ में चिपककर बैठ गया। सहसा बिजली की चमक मे अश्वारोहियों ने वृक्ष के निकट मनुष्य-मूर्ति देखकर कहा- अरे ! वृक्ष के निकट यह कौन है ? वृद्ध वहां से हटकर चुपचाप खेत में जाने लगा। तत्क्षण एक वर्छा आकर उसकी छाती को विदीर्ण कर गया । वृद्ध एक चीत्कार करके धरती पर गिर गया। बालिका जोर से चिल्ला उठी।
अश्वारोही दल ने निकट जाकर देखा-मृत पुरुष वृद्ध और निरस्त्र है। पर कन्या को देखते ही वर्छा फेंकने वाले सवार ने कहा-बाह ! बूड़े को मार- कर रत्न मिला ! इसमें किसीका साझा नहीं है ?
बालिका भय और शोक से चिल्ला उठी । अश्वारोही ने उसकी परवा न कर, उसे उठाकर घोड़े पर रख लिया और वे आगे बढ़े।
वैभवशालिनी वैशाली का जो 'श्रेष्ठि-चत्वर' नामक बाजार था। उसके उत्तर कोण पर एक विशाल प्रासाद, जिसके गुम्बजों का प्रकाश रात्रि को गङ्गा पार से भी दीखता था। बाहर का सिंहहार विशाल पत्थरों का बनाया गया था, जिसे उठाना और जोड़ना दैत्यों का ही काम हो सकता था। इन पत्थरों पर स्थापत्यकला और शिल्प को सूक्ष्म बुद्धि खर्च की गई थी। ड्योढ़ी पर गहरा हरा रंग किया हुआ था और ऊंचे महावदार फाटक पर फूलों की गुथी हुई सुन्दर मालाएं लटक रही थीं। पहले आंगन में प्रवेश करने पर श्वेत अट्टालि- काओं की पंक्ति दीख पड़ती थी। उनकी दीवारों पर कांच की तरह चमकदार श्वेत पलस्तर किया गया था। सीढ़ियों पर भिन्न-भिन्न प्रकार के खुदरग बहुमूल्य पत्थर लगे थे, और खिड़कियों में बिल्लौर के किवाड़ थे, जिनमें श्रेष्ठि- चत्वर की बहार बैठे ही बैठे दीख पड़ती थी। दूसरे आंगन में गाड़ी, बैल, घोड़े हाथी बंधे थे और महावत उन्हें चावल-घी खिला रहे थे। तीसरे आंगन मे अतिथि-शाला तथा आगत जनों के ठहरने का प्रबन्ध था। यहांँ बहुत सुन्दर विशाल पत्थरों के खम्भो पर महराव खड़े हुए थे। चौथे आंगन में नाट्यशाला और गायनभवन था। पांचवें आंगन में भिन्न-भिन्न प्रकार के शिल्पकार और जौहरी लोग नाना प्रकार के आभूषण बना और रत्नों को घिस रहे थे। छठे आंगन में भिन्न-भिन्न देश के पशु-पक्षियों का अद्भत संग्रह था। सातवां आंगन बिलकुल श्वेत पत्थर का बना था, और उसमें सुनहरा काम हो रहा था। इसमें दो भीमकाय सिंह स्वर्ण की मेखलाओं से दृढ़तापूर्वक बंधे थे और चांदी के पात्रों में पानी भरा उनके निकट धरा था। गृह-स्वामिनी अम्बालिका इसी कक्ष में विराजती थी।
सन्ध्या हो गई थी। परिचारक और परिचारिकाएं दौड़-धूप कर रही थीं, कोई सुगन्धित जल प्रागन में छिड़क रही थी, कोई धूप जलाकर भवन को सुवा- सित कर रही थी, कोई सहस्र दीप-गुच्छ में सुगन्धित तेल डालकर प्रकाशित करने में व्यस्त थी। बहुत से माली तोरण और अलिन्द पर ताजे पुष्पों के गुलदस्ते और मालाओं को सजा रहे थे। अलिन्द में दण्डधर अपने-अपने स्थानों पर भाला टेके स्थिर भाव से खड़े थे। द्वारपाल तोरण पर अपने द्वार-रक्षक दल के साथ सशस्त्र उपस्थित था।
क्षण भर बाद प्रासाद भांति-भांति के रंगीन प्रकाशों से जगमगा उठा। भांति-भांति के रंगीन फब्बारे चलने लगे और ऊन पर प्रकाश का प्रतिबिम्ब इन्द्र-धनुष की बहार दिखाने लगा। धीरे-धीरे प्रतिष्ठित नागरिक कोई पालकी में, कोई रथ पर और कोई हाथी पर चढ़कर प्रथम तोरण पारकर आने लगे। परिचारक-गण दौड़-दौड़कर अतिथियों को सादर उतारकर भीतरी अलिन्द में पहुचाने तथा उनकी सवारियों की व्यवस्था करने लगे। हाथी-घोड़े, रथ, पालकी आदि वाहनों का तांता लग गया। उनकी भीड़ से बाहर का विशाल प्राङ्गण भर गया।
सातवें तोरण के भीतर श्वेत पत्थर के एक विशाल सभा-भवन में अम्ब- पालिका नागरिक युवकों की अभ्यर्थना कर रही थी। यह भवन एक टुकड़े के ६४ हरे रंग के पत्थर के खम्भों पर निर्मित हुआ था, और इसपर रंगीन रत्नों को जड़कर फूल-पत्ती, पक्षी तथा वन के दृश्य बनाए गए थे। छत पर स्वर्ण का पत्तर मढ़ा था, जहां पर बारीक खुदाई और रंगीन मीना का काम हो रहा था। इस विशाल भवन में दुग्ध-फेन के समान उज्ज्वल वर्ण का अति मुलायम और बहुमूल्य विछावन बिछा था। थोड़े-थोड़े अन्तर से बहुत सी वेदियां पृथक-पृथक बनी थीं, जहां कोमल उपाधान, मद्य के स्वर्ण-पात्र और प्यालियां, जुआ खेलने के पासे तथा अन्य विनोद-सामग्री, भिन्न-भिन्न प्रकार के ग्रंथ, बहुमूल्य चित्र तथा अन्य बहुत सी मनोरंजन की सामग्री थी।
महाप्रतिहार अलिन्द तक अतिथि युवकों को लाता, वहां से प्रधान परि- चारिका उसे कक्ष तक ले पाती । कक्ष-द्वार पर स्वयं अम्बपालिका साक्षात् रति के समान आगत जनों का हाथ पकड़कर स्वागत करती, एक वेदी पर ले जाकर बैठाती, सुगन्ध और पुष्प-मालाओं से सरकार करती तथा अपने हाथ से मद्य ढालकर पिलाती थी। उस स्वर्ग-सदन में, रूप-यौवन और जीवन के आलोक में, अर्द्ध रात्रि तक नित्य ही माधुर्य और आनन्द का प्रवाह बहता था। सैकड़ों दासियां दौड़-धूप करके याचित वस्तु तत्काल जुटा देतीं। फिर कुछ टहरकर संगीत-लहरी उटती । कोमल तन्तु-बाद्य गम्भीर मृदंग के साथ वैशाली के श्रेष्ठ पुत्रों, राजगियों और कुमारों के हृदयों को मसोस डालता था । वाद्य की ताल पर मोम की पुतली के समान कुमारियां मधुर स्वर में स्वर-नाल और मूर्च्छनामय संगीत-गान करतीं, और नर्तकियां ठुमककर नाचती थीं। उस स्वप्न-सौन्दर्य के दृश्य को युवक सुगन्धित मद्य के चूंट के साथ पीकर अपने जन्म को धन्य मानते थे।
अम्बपालिका अब २० वर्ष की पूर्ण युवती थी। उसका यौवन और सौन्दर्य मध्याकाश में था। और लिच्छविगण तन्म के राजा ही नहीं, मगध, कोशल और विदेश के महाराजा तक उसके लिए सदैव अभिलाषी बने रहते थे। इन सभी महानृपतियों की ओर से रत्न, वस्त्र, हाथी आदि भेट में आते रहते थे और अम्बपालिका अपनी कृपा और प्रेम के चिह्न-स्वरूप कभी-कभी ताजे फूलों की एकाध माला तथा कुछ गन्ध द्रव्य उन्हे प्रदान कर दिया करती थी।
विधाता ने मानो उसे स्वर्ण से बनाया था। उसका रंग गोरा ही न था, उसपर सुनहरी प्रभा थी-- जैसी चम्पे की अविकसित कली में होती है। उसके शरीर की लचक, अङ्गों की सुडौलता वर्णन से बाहर की बात थी। उस सौन्दर्य में विशेषता यह थी कि समय का अत्याचार भी उस सौन्दर्य को नष्ट न कर सकता था। जैसे मोती का पर्त उतार देने से भीतर से नई आभा, नया पानी दमकने लगता है, उसी प्रकार अम्बपालिका का शरीर प्रतिवर्ष निखार पाता था । उसका कद कुछ लम्बा, देह मांसल और कुच पीन थे। तिसपर उसकी कमर इतनी पतली थी कि उसे कटिबन्धन वांधने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग चैतन्य थे, मानो प्रकृति ने उन्हें नृत्य करने और आनन्द-भोग करने को बनाया था।
उसके नेत्रों में सूक्ष्म लालसा की झलक और दृष्टि में गज़ब की मदिरा भर रही थी। उसका स्वभाव सतेज था, चितवन में दृढता, निर्भीकता, विनोद और स्वेच्छाचारिता साफ झलकती थी। उसे देखते ही आमोद-प्रमोद की अभि- लाषा प्रत्येक पुरुष के हृदय में उत्पन्न हो जाती थी।
जैसा कहा जा चुका है, उसकी रंगत पर एक मुनहरी झलक थी ; गाल कोमल और गुलाबी थे ; ओठ लाल और उत्फुल्ल थे, मानो कोई पका हुआ रसीला फल चमक रहा हो। उसके दांत हीरे की तरह स्वच्छ, चमकदार और अनार की पंक्ति की तरह सुडौल, कुच पीन तथा अनीदार थे । नाक पतली, गर्दन हंस जैसी, कन्धे सुडौल, बाहु मृणाल जैसी थी ! सिर के बाल काले, लम्बे और धुंघराले तथा रेशम से भी मुलायम थे । आंखें काली और कंटीली, उंगलिया पतली और मुलायम थीं। उनपर उसके गुलाबी नाखूनों की बड़ी बहार थी। पैर छोटे और सुन्दर थे। जब वह टसक के साथ उठकर खड़ी हो जाती तो लोग उसे एकटक देखते रह जाते थे। उसकी भुजाओं और देह का पूर्व भाग सदा खुला रहता था।
वैशाली में बड़ी भारी बैचैनी फैल गई ! अश्वारोही दल के दल नगर के तोरण से होकर नगर से बाहर निकल रहे थे। प्रतिहार लोग और किसीको न आदि वाहनों का तांता लग गया। उनकी भीड़ से बाहर का विशाल प्राङ्गण मर गया। सातवें तोरण के भीतर श्वेत पत्थर के एक विशाल सभा भवन में अम्ब- पालिका नागरिक युवकों की अभ्यर्थना कर रही थी। यह भवन एक टुकड़े के ६४ हरे रंग के पत्थर के खम्भों पर निर्मित हुआ था, और इसपर रंगीन रत्नों को जड़कर फूल-पत्ती, पक्षी तथा वन के दृश्य बनाए गए थे। छत पर स्वर्ण का पत्तर मढ़ा था, जहां पर बारीक खुदाई और रंगीन मीना का काम हो रहा था। इस विशाल भवन में दुग्ध-फेन के समान उज्ज्वल वर्ण का अति मुलायम और बहुमूल्य विछावन बिछा था । थोड़े-थोड़े अन्तर से बहुत सी वेदियां पृथक्-पृथक् बनी थीं, जहां कोमल उपाधान, मद्य के स्वर्ण-पात्र और प्यालियां, जुया खेलने के पासे तथा अन्य विनोद सामग्री, भिन्न-भिन्न प्रकार के ग्रंथ, बहुमूल्य चित्र तथा अन्य बहुत सी मनोरंजन की सामग्री थी।
महाप्रतिहार अलिन्द तक अतिथि युवकों को लाता, वहां से प्रधान परि- चारिका उसे कक्ष तक ले आती । कक्ष-द्वार पर स्वयं अम्बपालिका साक्षात् रति के समान आगत जनों का हाथ पकड़कर स्वागत करती, एक वेदी पर ले जाकर बैठाती, सुगन्ध और पुष्प-मालाओं से सत्कार करती तथा अपने हाथ से मद्य डालकर पिलाती थी। उस स्वर्ग-सदन में, रूप-यौवन और जीवन के आलोक में, अर्द्ध रात्रि तक नित्य ही माधुर्य और आनन्द का प्रवाह बहता था। सैकड़ों दासियां दौड़-धूप करके याचित वस्तु तत्काल जुटा देतीं। फिर कुछ ठहरकर संगीत-लहरी उठती । कोमल तन्तु-वाद्य गम्भीर मृदंग के साथ वैशाली के श्रेष्ठ पुत्रों, राजगियों और कुमारों के हृदयों को मसोस डालता था । वाद्य की ताल पर मोम की पुतली के समान कुमारियां मधुर स्वर में स्वर-ताल और मूर्छानामय संगीत-गान करतीं, और नर्तकियां ठुमककर नाचती थीं। उस स्वप्न-सौन्दर्य के दृश्य को युवक सुगन्धित मद्य के बूंट के साथ पीकर अपने जन्म को धन्य मानते थे।
अम्बपालिका अव २० वर्ष की पूर्ण युवती थी। उसका यौवन और सौन्दर्य मध्याकाश में था । और लिच्छविगण तन्म के राजा ही नहीं, मगध, कोशल और विदेश के महाराजा तक उसके लिए सदैव अभिलाषी बने रहते थे। इन सभी महानृपतियों की ओर से रत्न, वस्त्र, हाथी आदि भेंट में आते रहते थे और अम्बपालिका अपनी कृपा और प्रेम के चिह्न-स्वरूप कभी-कभी ताजे फूलों की एकाध माला तथा कुछ गन्ध द्रव्य उन्हें प्रदान कर दिया करती थी।
विधाता ने मानो उसे स्वर्ण से बनाया था। उसका रंग गोरा ही न था, उसपर सुनहरी प्रभा थी--जैसी चम्पे की अविकसित कली में होती है। उसके शरीर की लचक, अङ्गो की सुडौलता वर्णन से बाहर की बात थी। उस सौन्दर्य मे विशेषता यह थी कि समय का अत्याचार भी उस सीन्दर्य को नष्ट न कर सकता था। जैसे मोती का पर्त उतार देने से भीतर से नई आभा, नया पानी दमकने लगता है, उसी प्रकार अम्बपालिका का शरीर प्रतिवर्ष निखार पाता था । उसका कद कुछ लम्बा, देह मांसल और कुच पीन थे। तिसपर उसकी कमर इतनी पतली थी कि उसे कटिबन्धन बांधने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी। उसके अङ्ग-प्रत्यङ्ग चैतन्य थे, मानो प्रकृति ने उन्हें नृत्य करने और आनन्द-भोग करने को बनाया था।
उसके नेत्रों में मुक्ष्म लालसा की झलक और दृष्टि में गजब की मदिरा भर रही थी। उसका स्वभाव सतेज था, चितवन में हडता, निर्भीकता, विनोद और स्वेच्छाचारिता साफ झलकती थी। उसे देखते ही आमोद-प्रमोद की अभि- लाषा प्रत्येक पुरुष के हृदय में उत्पन्न हो जाती थी।
जैसा कहा जा चुका है, उसकी रंगत पर एक सुनहरी झलक थी ; गाल कोमल और गुलाबी थे ; श्रोठ लाल और उत्फुल्ल थे, मानो कोई पका हुआ रसीला फल चमक रहा हो। उसके दांत हीरे की तरह स्वच्छ, चमकदार और अनार की पंक्ति की तरह सुडौल, कुच पीन तथा अनीदार थे। नाक पतली, गर्दन हंस जैसी, कन्धे सुडौल, बाहु मृणाल जैसी थी। सिर के बाल काले, लम्बे और धुंधराले तथा रेशम से भी मुलायम थे । आँखें काली और कंटीली उंगलियां पतली और मुलायम थीं। उनपर उसके गुलाबी नाखूनों की बड़ी बहार थी। पैर छोटे और सुन्दर थे। जब वह उसके साथ उठकर खड़ी हो जाती तो लोग उसे एकटक देखते रह जाते थे। उसकी भुजाओं और देह का पूर्व भाग सदा खुला रहता था।
वैशाली में बड़ी भारी वेचनी फैल गई। अश्वारोही दल के दल नगर के तोरण से होकर नगर से बाहर निकल रहे थे। प्रतिहार लोग और किसीको ना बाहर निकलने देते थे और न भीतर घुसने देते थे। तोरण के इधर-उधर बहुत से नागरिक सेना का यह अकस्मात् प्रस्थान देख रहे थे। एक पुरुष ने पूछा- क्यों भाई, जानते हो, यह सेना कहां जा रही है ? उसने कहा---न, यह कोई नहीं जानता। अश्वारोही दल निकल गया। पीछे कई सेना-नायक धीरे- धीरे परामर्श करते चले गए।
क्षण भर में सम्वाद फैल गया। मगध के प्रतापी सम्राट शिशुनागवशी बिम्बसार ने वैशाली पर चढ़ाई की। गंगा के दक्षिण छोर पर दुर्जय मागध सेना दृष्टि के उस छोर से इस छोर तक फैली हुई थी। इस सेना मे १० हजार हाथी, ५० हजार अश्वारोही और पांच लाख पैदल थे।
वैशाली के लिच्छविगण तन्म का प्रताप भी साधारण न था । गंगा के उत्तर कोण पर देखते-देखते सैन्य-समूह एकत्रित हो गया। लिच्छवियों के पास ८ हजार हाथी, १ लाख अश्वारोही और ६ लाख पैदल थे।
तीन दिन तक दोनों दल आमने-सामने डटे रहे। तीसरे दिन लिच्छवि लोगों ने देखा, उस पार डेरों की संख्या कम हो गई है। निपुण सैनिक सहस्रों घाट से पार पाने की तैयारी कर रहे हैं, यह समझने में देर न लगी। दोपहर होते-होते मगध सेना गंगा पार करने लगी। लिच्छवि-सेना चुपचाप खड़ी रही। ज्यो ही कुछ सेना ने भूमि पर पैर रखा त्यों ही वैशाली की सेना जय-जयकार करते बढ़ चली, मानो सहस्र उल्कापात हुए हों । मेघ-संघर्षण की तरह घोर गर्जना करके दोनों सेनाएं भिड़ गई। मागध सेना की गति रुक गई। वाण, बर्खे और तलवारों की प्रलय मच गई। उस दिन, दिन भर संग्राम रहा । सूर्यास्त देख, दोनों सेनाएं पीछे को फिरीं ।
२ मास से नगर का घेरा जारी है । बीच-बीच में युद्ध हो जाता है । कोई पक्ष निर्बल नहीं होता। नगर की तीन दिशाएं मागध-शिविर से घिरी हैं। बीच मे जो सबसे बड़ा डेरा है, उसके ऊपर सोने का गरुड़ध्वज अस्त होते सूर्य की किरणों से अग्नि की तरह दमक रहा है। उसके आगे एक स्वर्ण-पीठ पर गौर वर्ण सम्राट् विराजमान है। निकट एक-दो विश्वासी पार्श्वद है । सम्राट अति सुन्दर, बलिष्ठ और गम्भीरमूर्ति हैं। नेत्रों में तेज और स्नेह, दृष्टि में वीरत्व और औदार्य तथा प्रतिभा में अदम्य तेज प्रकट हो रहा है । सम्राट् आधे लेटे हुए कुछ मन्त्रणा कर रहे है । एक कणिक नीचे बैठा उनके आदेशानुसार लिखता जाता है। एक दण्डधर ने आगे बढ़कर पुकारकर कहा-महानायक युवराज भट्टारकपादीय गोपालदेव तोरण पर उपस्थित हैं । सम्राट् ने चौंककर उधर देखा और भीतर बुलाने का संकेत किया। साथ ही कणिक और मन्त्री को विदा किया ।
गोपालदेव ने तलवार म्यान से खींच शीश से लगाई और फिर विनम्र निवे- दन किया-महाराजाधिराज की आज्ञानुसार सब व्यवस्था ठीक है । देवश्री पधा- रने का कष्ट करें । सम्राट् के नेत्रों मे उत्फुल्लता उत्पन्न हुई। वे उठकर वस्त्र पहनने के लिए पट-मण्डप में घुस गए।
वैशाली के राजपथ जनशून्य थे, दो प्रहर रात्रि जा चुकी थी, युद्ध के आतंक ने नगर के उल्लास को मूर्छित कर दिया था । कहीं-कहीं प्रहरी खड़े उस अन्ध- कारमयी रात्रि में भयानक भूत-से प्रतीत होते थे। धीरे-धीरे दो मनुष्य-मूर्तिया अन्धकार का भेदन करती हुई वैशाली के गुप्त द्वार के निकट पहुंची। एक ने द्वार पर आघात किया, भीतर प्रश्न हुआ-संकेत ?
मनुष्य-मूर्ति ने कहा-अभिनय !
हल्की चीत्कार करके द्वार खुल गया। दोनों मूर्तियां भीतर घुसकर राजपथ छोड़, अन्धेरी गलियों में अट्टालिकाओं की परछाई में छिपती-छिपती आगे बढ़ने लगी। एक स्थान पर प्रहरी ने बाधा देकर पूछा-कौन ? एक व्यक्ति ने कहा-आगे बढ़कर देखो । प्रहरी निकट आया। हठात् दूसरे व्यक्ति ने उसका सिर धड़ से जुदा कर दिया। दोनों फिर आगे बढ़े। अम्बपालिका के द्वार पर अन्ततः उनकी यात्रा समाप्त हुई। द्वार पर एक प्रतिहार मानो उनकी प्रतीक्षा कर रहा था। संकेत करते ही उसने द्वार खोल दिया और आगन्तुकगण को भीतर लेकर द्वार बन्द कर लिया।
आज इस विशाल राजमहल सदृश भवन में सन्नाटा था। न रंग-बिरंगी रोशनी, न फव्वारे, न दास-दासी गणों की दौड़-धूप । दोनों व्यक्ति चुपचाप प्रति- हार के साथ जा रहे थे। सातवें अलिन्द को पार करने पर देखा, एक और मूर्ति एक खम्भे के सहारे खडी है। उसने आगे बढ़कर कहा-इधर से पधारिए श्रीमान् ! प्रतिहार वहीं रुक गया । नवीन व्यक्ति स्त्री थी और वह सर्वाग काले वस्त्र से ढापे हुए थी। दोनों भागन्तुक कई प्राङ्गण और अलिन्द पार करते हुए कुछ सीढ़िया उतरकर एक छोटे से द्वार पर पहुंचे जो चांदी का था और जिसपर अतिशय मनोहर जाली का काम हो रहा था और उसी जाली में से छन-छनकर रंगीन प्रकाश बाहर पड़ रहा था।
द्वार खोलते ही देखा : एक बहुत बड़ा कम भिन्न-भिन्न प्रकार की सुख-साम- त्रियों से परिपूर्ण था। यद्यपि उतना बड़ा नहीं, जहां नागरिक जनों का प्राय स्वागत होता था, परन्तु सजावट की दृष्टि से इस कक्ष के सम्मुख उसकी गणना नहीं हो सकती थी। यह समस्त भवन श्वेत और काले पत्थरों से बना था। और सर्वत्र ही सुनहरी पच्चीकारी का काम हो रहा था। उसमें बड़े-बड़े बिल्लौर के अठपहलू अमूल्य खम्भे लगे थे, जिनमें मनुष्य का हूबहू प्रतिबिम्बि सहस्रों की संख्याओं में दीखता था। बड़े-बड़े और भिन्न-भिन्न भावपूर्ण चित्र टंगे थे। सहस्र दीप-गुच्छों में सुगन्धित तेल जल रहा था। समस्त कक्ष भीनी सुगन्ध से महक रहा था । धरती पर एक महामूल्यवान् रंगीन विछावन था जिसपर पैर पड़ते ही हाथ भर धंस जाता था। बीचोंबीच एक विचित्र प्राकृति की सोलह- पहलू सोने की चौकी पड़ी थी, जिसपर मोर पंख के खम्भों पर मोतियों की झालर लगा एक चन्दोवा तन रहा था। और पीछे रंगीन रेशम के परदे लटक रहे थे, जिसमें ताजे पुष्पों का श्रृंगार बड़ी सुघड़ाई से किया गया था। निकट ही एक छोटी सी रत्न-जटित तिपाई पर मद्य-पात्र और पन्ने का एक बड़ा सा पात्र धरा हुआ था।
हठात् सामने का परदा उठा और उसमे से वह रूप-राशि प्रकट हुई जिसके बिना अलिन्द शून्य हो रहा था। उसे देखते ही आगन्तुकगण में से एक तो धीरे- धीरे पीछे हटकर कक्ष से बाहर हो गया, दूसरा व्यक्ति स्तम्भित-सा खड़ा रहा । अम्बपालिका आगे बढ़ी। वह बहुत महीन श्वेत रेशम की पोशाक पहने हुए थी। वह इतनी बारीक थी कि उसके पार-पार साफ़ दीख पड़ता था। उसमें से छनकर उसके सुनहरे शरीर की रंगत अपूर्व छटा दिखा रही थी। पर यह रग कमर तक ही था। वह चोली या कोई दूसरा वस्त्र नहीं पहने थी। इसलिए उसकी कमर के ऊपर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग साफ दीख पड़ते थे।
विधाता ने उसे किस क्षण में गढ़ा था ! हमारी तो यह धारणा है कि कोई चित्रकार न तो वैसा चित्र ही अङ्कित कर सकता था और न कोई मूर्तिकार वैसी मूर्ति ही बना सकता था।
उस भुवन-मोहनी की वह छटा आगन्तुक के हृदय को छेदकर पार हो गई। गहरे काले रंग के बाल उसके उज्ज्वल और स्निग्ध कंधों पर लहरा रहे थे। स्फटिक के समान चिकने मस्तक पर मोतियों का गुथा हुआ आभूषण अपूर्व शोभा दिखा रहा था। उसकी काली और कटीली आंखें, तोते के समान नुकीली नाक, बिम्ब- फल जैसे अधर-ओष्ठ और अनार-दाने के समान उज्ज्वल दांत, गोरा और गोल चिबुक बिना ही श्रृंगार के अनुराग और आनन्द बखेर रहा था । अब से ढाई हजार वर्ष पूर्व की वह वैशाली की वेश्या ऐसी ही थी।
मोती की कोर लगी हुई सुन्दर ओढ़नी पीछे की ओर लटक रही थी और इसलिए उसका उन्मत्त कर देने वाला मुख साफ देखा जा सकता था। वह अपनी पतली कमर में एक ढीला सा बहुमूल्य रंगीन शाल लपेटे हुए थी। हंस के समान उज्ज्वल गर्दन में अंगूर के बराबर मोतियों की माला लटक रही थी और गोरी-गोरी गोल कलाइयों में नीलम की पहुंची पड़ी हुई थी।
उस मकड़ी के जाले के समान बारीक उज्ज्वल परिधान के नीचे, सुनहरे तारों की बुनावट का एक अद्भुत घांघरा था, जो उस प्रकाश में बिजली की तरह चमक रहा था । पैरों में छोटी-छोटी लाल रंग की उपानत् थीं, जो सुनहरी फीते से कस रही थीं।
उस समय कक्ष में गुलाबी रङ्ग का प्रकाश हो रहा था । उस प्रकाश में अम्बपालिका का मानो परदा चीरकर इस रूप-रंग में प्रकट होता आगन्तुक व्यक्ति को मूर्तिमती मदिरा का अवतरण-सा प्रतीत हुआ । वह अभी तक स्तब्ध खड़ा था। धीरे-धीरे अम्बपालिका आगे बढ़ी । उसके पीछे १६ दासियां एक ही रूप और रंग की, मानो पाषाण-प्रतिमाएं ही आगे बढ़ रही थीं।
अम्बपालिका धीरे-धीरे आगे बढ़कर आगन्तुक के निकट पाकर झुकी और फिर धुटने के बल बैठ, उसने कहा-परमेश्वर, परम वैष्णव, परम भट्टारक, महाराजाधिराज की जय हो ! इसके बाद उसने सम्राट के चरणों में प्रणाम करने को सिर झुका दिया । दासियां भी पृथ्वी पर झुक गई ।
आगन्तुक महाप्रतापी मगध सम्राट् बिम्बसार थे। उन्होंने हाथ बढ़ाकर अम्बपालिका को ऊपर उठाया। अम्बपालिका ने निवेदन किया-महाराजा धिराज पीठ पर विराजे । सम्राट ने ऊपर का परिच्छद उतार फेंका, वे पीठ पर विराजमान हुए।
अम्बपालिका ने नीचे धरती में बैठकर सम्राट का गन्ध, पुष्प आदि से सत्कार किया। इसके बाद उसने अपनी मद-भरी आंखें सम्राट पर डालकर कहा-महाराजाधिराज ने बड़ी अनुकम्पा की, बड़ा कष्ट किया।
सम्राट् ने किंचित् मोहक स्वर में कहा-अम्बपाली ! यदि मैं यह कहूं कि केवल विनोद के लिए आया हूं तो यह यथार्थ बात नहीं। मैं तुम्हारे रूप-गुण की प्रशंसा सुनकर स्थिर नहीं रह सका, और इस कठिन युद्ध में व्यस्त रहने पर भी तुम्हें देखने के लिए शत्रुपुरी में घुस पाया, परन्तु तुम्हारा प्रबन्ध धन्य है।
अम्बपालिका-(लज्जित-सी होकर ज़रा मुस्करकर) मैं पहले ही सुन चुको हूं कि देव स्त्रियों की चाटुकारी में बड़े प्रवीण है ।
सम्राट-चाटुकारी नही, अम्बपालिके ! तुम वास्तव में रूप और गुण में अद्वितीय हो।
अम्बपालिका-श्रीमान्, मैं कृतार्थ हुई ! इसके बाद वह अपने मुक्ता-विनि- न्दित दांतों की छटा दिखाते हुए सम्राट् की सेवा में खड़ी हुई। सम्राट ने प्याला ले और उसे खीचकर बगल में बैठा लिया। सङ्केत पाते ही दासियों ने क्षण- भर में गायन-वाद्य का सरंजाम जुटा दिया। कक्ष सङ्गीत-लहरी में डूब गया और उस गम्भीर निस्तब्ध रात्रि में मगध के प्रतापी सम्राट् उस एक वेश्या पर अपने साम्राज्य को भूल बैठे !
एक वर्ष बीत गया। प्रतापी लिच्छवि-राज मगध साम्राज्य के आगे मस्तक नत करने को बाध्य हुए। अब वैशाली में वह उमंग न थी। अम्बपालिका का द्वार सदैव वन्द रहता था। द्वार पर कड़ा पहरा था। कोई व्यक्ति न उसे देख सकता था, न उससे मिल सकता था। उसके वहुत से युवक मित्र उस युद्ध मे निहत हुए थे। पर जो बच रहे थे वे अम्बपाली के इस परिवर्तन पर आश्चर्यान्वित थे । वे किसी भी तरह उसका साक्षात् न कर सकते थे । दूर-दूर तक यह बात फैल गई थी।
अम्बपालिका के सहस्त्रावधि वेतन-भोगी दास-दासी, सैनिक और अनुचरों मे से भी केवल दो व्यक्ति थे जो अम्बपाली को देख सकते और उससे बात कर सकते थे । एक प्रधान परिचारिक यूथिका, दूसरा एक वृद्ध दण्डधर जिसे भीतर-वाहर सर्वत्र आने की स्वतन्त्रता थी। सम्राट का आगमन केवल इन्ही दोनों को मालूम था और ये दोनों ही यह रहस्य भी जानते थे कि अम्बपालिका को सम्राट् से गर्भ है।
यथासमय पुत्र प्रसव हुआ । यह रहस्य भी केवल इन्हीं दो व्यक्तियों पर ही प्रकट हुआ है और वह पुत्र उसी दण्डधर ने गुप्त रूप से राजधानी में जाकर मगध-सम्राट् की गोद में डालकर, अम्बपालिका का अनुरोध सुनाकर कहा- महाराजाधिराज की सेवा से मेरी स्वामिनी ने निवेदन किया है कि उनकी तुच्छ भेंट-स्वरूप मगध के भावी सम्राट आपके चरणों में समर्पित हैं । सम्राट् ने शिशु को सिंहासन पर डालकर वुद्ध दण्डधर से उत्फुल्ल नयन से कहा- मगध के भावी सम्राट को झटपट अभिवादन करो। दण्डधर ने कोश से तलवार निकाल, मस्तक पर लगाई और तीन बार जयघोष करके तलवार शिशु के चरणों में रख दी। सम्राट् ने तलवार उठाकर वृद्ध की कमर में बांधते-बांटते कहा-अपनी स्वामिनी को मेरी यह तुच्छ भेंट देना। यह कहकर उन्होंने एक वस्तु वृद्ध के हाथ में चुपचाप दे दी। वह वस्तु क्या थी, यह ज्ञात होने का कोई उपाय नहीं।
भगवान् बुद्ध वैशाली में पधारे हैं और अम्बपालिका की बाड़ी में ठहरे हैं । आज हठात् अम्बपालिका के महल में हलचल मच रही है । सभी दान-दासी, प्रतिहार, द्वारपाल दौड़-धूप कर रहे है। हाथी, घोड़े, पालकी, रथ सज रहे हैं। सवार शास्त्र-सज्जित हो रहे हैं । अम्बपालिका भगवान् बुद्ध के दर्शनार्थ बाड़ी में जा रही है। एक वर्ष बाद आज वह फिर सर्व-साधारण के सम्मुख निकल रही है। समस्त वैशाली में यह समाचार फैल गया है। लोग झुण्ड के झुण्ड उसे देखने राजमार्ग पर डट गए है । अम्बपालिका एक श्वेत हाथी पर सवार होकर धीरे-धीरे आगे बढ़ रही है । दासियों का पैदल झुण्ड उसके पीछे है, उसके पीछे अश्वारोही दल है और उसके बाद हाथियों पर भगवान की पूजा सामग्री । सबके पीछे बहुत से वाहन, कर्मचारी और पौरगण ।
अम्बपालिका एक साधारण पीत-वर्ण परिधान धारण किए अधोमुख बैठी है। एक भी आभूषण उसके शरीर पर नहीं है । बाड़ी से कुछ दूर ही उसने सवारी रोकने की आज्ञा दी। वह पैदल भगवान् के निवास तक पहुंची, पीछे १०० दासियों के हाथ में पूजन-सामग्री थी।
तथागत बुद्ध की अवस्था ८० को पार कर गई थी। एक गौरवर्ण, दीर्घ- काय, श्वेतकेश, कृश, किन्तु बलिष्ठ महापुरुष पद्मासन से शान्त मुद्रा में एक सघन वृक्ष की छाया में बैठे थे। सहस्रावधि शिष्यगण दूर तक मुण्डितशिर और पीत वस्त्र धारण किए स्तब्ध-से श्रीमुख के प्रत्येक शब्द को हृत्पटल पर लिख रहे थे। आनंद नामक शिष्य ने निवेदन किया-प्रभु ! अम्बपालिका दर्शनार्थ आई है। तथागत ने किंचित् हास्य से अपने करुण नेत्र ऊपर उठाए । अम्बपालिका धरती में लोटकर कहने लगी-प्रभो ! त्राहि माम् ! त्राहि माम् !
भगवान् ने कहा-कल्याण ! कल्याण ! आनन्द ने कहा-उठो अम्ब- पाली ! महाप्रभु प्रसन्न है । अम्बपाली ने यथाविधि भगवान् का अर्घ्यदान, पाद्य मधुपर्क से पूजन किया और चरण-रज नेत्रों में लगाई, फिर हाथ बांध सम्मुख खड़ी हो गई।
भगवान् ने हंसकर कहा-अब और क्या चाहिए अम्बपाली ?
'प्रभो ! भगवन् ! इस अपदार्थ का आतिथ्य स्वीकार हो, इन चरण-कमलों को देवदुर्लभ रज-कण किङ्करी की कुटिया को प्रदान हो ।'
प्रभु ने करुण स्वर में कहा—तथास्तु ! भिक्षुगण सहस्र कण्ठ से जयोल्लास में चिल्ला उठे। परन्तु यह क्या ? उस नाद को विदीर्ण करता हुआ एक और नाद उठा। भगवान् ने पूछा-आनंद ! यह क्या है ? 'प्रभो ! लिच्छविराजवर्ग और अमात्यवर्ग श्रीपाद-पद्म के दर्शनार्थ आ रहा है !' प्रभु हंस पड़े। अम्ब- पालिका हट गई। प्रतापी लिच्छविराजागण, राजकुमार, अमात्यवर्ग और अन्तःपुर ने एकसाथ ही भगवान् के चरणों में महान् मस्तक झुका दिए । भगवान् ने कहा-कल्याण ! कल्याण !!
महाराज ने पद-धूलि मुकुट पर लगाकर कहा-महाप्रभु ! यह तुच्छ राज- धानी इन चरणों के पधारने से कृतकृत्य हुई । परन्तु प्रभो ! यह वेश्या की बाड़ी है, श्रीचरणों के योग्य नहीं। प्रभु के लिए राजप्रासाद प्रस्तुत है और राजवंश प्रभु-पद-सेवा को बहुत उत्सुक है। भगवान् ने हंसकर कहा-तथागत के लिए वेश्या और राजा में क्या अन्तर है ? तथागत समदृष्टि है।
'प्रभो ! तब कल का आतिथ्य राज-परिवार को प्रदान कर कृतार्थ करें।'
'वह तो मैं अम्बपाली का स्वीकार कर चुका !'
राजा निरूतर हुए। वे फिर प्रणाम कर लौटे । कुछ श्वेत वस्त्र धारण किए थे, कुछ लाल और कुछ आभूषण पहने थे।
अम्बपालिका रथ में बैठकर लौटी। उसने आज्ञा दी-मेरा रथ लिच्छवि महाराजाओं के बराबर हांको । उनके पहिए के बराबर मेरा पहिया और उनके धुरे के बराबर मेरा धुरा रहे, तथा उनके घोड़े के बराबर मेरा घोड़ा।
लिच्छवियो ले देखकर क्रोध-मिश्रित आश्चर्य से पूछा-अम्बपालिके, यह क्या बात है ? तु हम लोगों के बराबर अपना रथ हांक रही है ?
उसने उत्तर दिया-मेरे प्रभु! मैने तथागत और उनके शिष्यवर्ग को भोजन का निमन्त्रण दिया है और वह उन्होंने स्वीकार किया है ।
उन्होंने कहा-है अम्बपाली ! हमसे एक लाख स्वर्ण-मुद्रा ले और यह भोजन हमे कराने दे।
'मेरे प्रभु, यह सम्भव ही नहीं है !'
'तब १०० ग्राम ले और यह निमन्त्रण हमें बेच दे।'
'नहीं स्वामी ! कदापि नहीं।'
'आधा राज्य ले और यह निमन्त्रण हमें दे दे।'
'मेरे प्रभु ! आप एक तुच्छ भूखण्ड के स्वामी हैं, पर यदि समस्त भूमण्डल के चक्रवर्ती भी होते और अपना समस्त साम्राज्य मुझे देते तो भी मैं ऐसी कीर्ति की जेवनार को नहीं बेच सकती थी।'
लिच्छवि राजाओं ने तब अपना हाथ पटककर कहा- हाय ! अम्बपालिका ने हमें पराजित कर दिया, अम्बपालिका हमसे बढ़ गई । अम्बपालिके ! तब तुम स्वच्छन्दता से हमसे मागे रथ हांको । अम्बपालिका ने रथ बढ़ाया। गर्द का एक तूफान पीछे रह गया।
दस सहस्त्र भिक्षुओं के साथ भगवान् बुद्ध ने अम्बपालिका के प्रासाद को आलो- कित किया । वैशाली के राज-मार्ग में नगर के प्राण आ जूझे थे। महापुरुष बुद्ध और उनके वीतरागी भिक्षु भूमि पर दृष्टि दिए पैदल धीरे-धीरे आगे बड़ रहे थे। नगर के श्रेष्टिगण दुकानों से उठ-उठकर मार्ग की भूमि को भगवान् के चरण रखने से पूर्व अपने उत्तरीय से झाड़ रहे थे। कोई नागरिक भीड़ से निकलकर पथ पर अपने बहुमूल्य शाल बिछा रहे थे । महाप्रभु बिना कुछ कहे एकरस धीरे- धीरे आगे बढ़ रहे थे। वह महान् संन्यासी, प्रवल वीतरागी महाप्राण वृद्धपुरुष श्रेष्ठ जय-जयकार की प्रचण्ड घोषणा से भी जरा भी विचलित नही हो रहा था। उसकी दृष्टि मानो पृथ्वी में पाताल तक घुस गई थी। पौर स्त्रियां झरोखों से खील और पुष्प वर्षा कर रही थी। अम्बपालिका का तोरण आते ही चार दण्डधरों ने दौड़कर पथ पर कौशेय बिछा दिया। द्वार में प्रवेश करने पर सर्वत्र कौशेय विछा था । अनगिनत कर्मचारी भिक्षुगण के सम्मानार्थ दौड़ पड़े। पीत- वसनधारी मुण्डित भिक्षु नक्षत्रों की तरह उस विशाल प्राङ्गण में, महाजनसमूह में चमक रहे थे।
अतिथि-शाला में भगवान् के पहुंचते ही अम्बपालिका ने २०० दासियों के साथ स्वयं आकर तथागत के चरणों में सिर झुकाया और वहां से वह अपने अञ्चल से पथ की धूल झाड़ती हुई प्रभु को भीतरी अलिन्द तक ले गई। इस समय प्रभु के साथ केवल आनन्द चल रहे थे।
प्राङ्गण के मध्य में एक चन्दन की चौकी पर शुद्ध प्रासन बिछा था। अम्बपालिका के अनुरोध पर प्रभू वहां विराजमान हुए। अम्बपालिका ने अर्ध्य-पाद्य दान करके भोजन प्रस्तुत करने की आज्ञा मांगी। आज्ञा मिलते ही अम्बपालिका स्वयं स्वर्ण-थाल में भोजन ले आई। अनेक प्रकार के चावल और रोटिया थीं। अम्बपालिका सेवा में करबद्ध खड़ी रही। भगवान् ने मौन होकर भोजन किया और तृप्त होकर कहा- बस ।
अम्बपालिका के नेत्रों से अश्रुधारा बहीं। प्रभु ज्यों ही शुद्ध होकर आसन पर विराजे, अम्बपालिका ने पृथ्वी में गिरकर प्रणाम किया।
भगवान् ने कहा-अम्बपालिका, अब और तेरी क्या इच्छा है ?
'प्रभु एक तुच्छ भिक्षा प्रदान हो ?'
तथागत ने गम्भीर होकर कहा-वह क्या है ?
'प्रभो ! आजा कीजिए, कोई भिक्षु अपना उत्तरीय प्रदान करे।' आनन्द ने उत्तरीय उतारकर अम्बपालिका को दे दिया । क्षण भर के लिए अम्बपालिका भीतर गई परन्तु दूसरे ही क्षण वह उसी वस्त्र से अंग लपेटे आ रही थी। उस वौद्ध भिक्षु के प्रदान किए एकमात्र वस्त्र को छोड़कर उसके पास न कोई और वस्त्र था न आभरण । उसके नेत्रों में अविरल अश्रुधारा बह रही थी। भगवान् विमूढ उसका व्यापार देख रहे थे । वह आकर भगवान् के सम्मुख फिर लोट गई।
भगवान् ने शुभ हस्त से उसे स्पर्श करके कहा-उठो, उठो ! हे कल्याणी! तुम्हारी इच्छा क्या है ?
‘महाप्रभु ! अपवित्र दासी की घृष्टता क्षमा हो। यह महानारी-शरीर कलंकित करके मैं जीवित रहने पर बाधित की गई, शुभ सङ्कल्प से मैं वंचित रही; प्रभो, यह समस्त सम्पदा कलुषित तपश्चर्या का संचय है। मैं कितनी व्याकुल, कितनी कुण्ठित, कितनी शून्यहृदया रहकर अब तक जीवित रही हूं, यह कैसे कहू । मेरे जीवन में दो ज्वलन्त दिन आए। प्रथम दिन के फलस्वरूप में आज मगध के भावी सम्राट् की राजमाता हूं, परन्तु भगवन् ! आज के महान् पुण्य-योग के फलस्वरूप अब मैं इससे भी उच्च पद प्राप्त करने की घृष्ट अभिलाषा करती हू। महाप्रभु प्रसन्न हों । जब भगवान् की चरण-रज से यह घर पवित्र हुआ, तब यहां विलाप और पाप कैसा? उसकी सामग्री ही क्यों, उसकी स्मृति ही क्यो?
'इसलिए भगवान के चरण-कमलों मे यह सारी सम्पदा-महल, अटारी, धन, कोष, हाथी, घोड़े, प्यादे, रथ, वस्त्र, भण्डार आदि सब समर्पित है। प्रभु ने भिक्षु का उत्तरीय मुझे भिक्षा में दिया है, मेरे शरीर की लज्जा-निवारण को यह बहुत है स्वामिन् ! आज से अम्बपाली भिक्षुणी हुई । अब यह इस भिक्षा में प्राप्त पवित्र वस्त्र को प्राण देकर भी सम्मानित करेगी। हे प्रभु ! आज्ञा हो ।'
इतना कहकर अविरल अश्रुधारा से भगवत्-चरणों को धोती हुई, अम्बपालिका बुद्ध की चरण-रज नेत्रों से लगाकर उठी, और धीरे-धीरे महल से बाहर चली। महावीतराग बुद्ध के नेत्र आप्यायित हुए। उन्होंने 'तथास्तु' कहा और खडे होकर उसका सिर स्पर्श करके कहा—कल्याण ! कल्याण !! सहस्र-सहस्र कण्ठ से 'जय अम्बपालिके, जय अम्बपालिके' का गगन-भेदी नाद उठा । सहस्रो नर-नारी पीछे चले । अम्बपालिका उसपीत परिधान को धारण किए, नीचा सिर किए, पैदल उसी राजमार्ग से भूमि पर दृष्टि दिए धीरे-धीरे नगर से बाहर जा रही थी और उसके पीछे समस्त नगर उमड़ा जा रहा था । खिड़कियों से पीर वधुएं पुष्प और खील-वर्षा कर रही थीं।
भगवान् ने कहा-हे आनन्द, यह स्थान बौद्ध भिक्षुत्रों का प्रथम विहार होगा। बौद्ध भिक्षु यहां रहकर सन्मार्ग का अन्वेषण करेंगे-यही तथागत की इच्छा है।
आनन्द ने सिर झुकाया । भिक्षु-मण्डल जय-नाद कर उठा। बुद्ध भगवान् धीरे-धीरे उठकर नगर के राजमार्ग से आते हुए अम्बपालिका की वाड़ी में आकर अपने आसन पर विराजमान हुए। कुछ दूर एक वृक्ष की जड़ में अम्ब- पालिका स्थिर वैठी थी। भगवान् को स्थित देख वह उठी और धीर भाव से प्रभु के सम्मुख आकर खड़ी हुई। भगवान् ने उसकी ओर देखा। अम्बपालिका ने विनयावनत होकर कहा-
बुद्धं सरणं गच्छामि
धम्म सरणं गच्छामि
संघं सरणं गच्छामि
तथागत स्थिर हुए। उन्होंने तत्काल पवित्र जल उसके मस्तक पर सिंचन
किया और पवित्र वाक्यों का उपदेश देकर कहा-भिक्षुओं ! महासाध्वी अम्ब-
पालिका भिक्षुणी का स्वागत करो।
फिर जयनाद से दिशाएं गूज उठी और अम्बपालिका तथागत तथा अन्य वृद्ध भिक्षुगण को प्रणाम कर वहां से चल दी और फिर वैशाली के पुरुष उसे
न देख सके !! प्रबुद्ध
अमिताभ बोधिसत्त्व गौतम बुद्ध की प्रभाव-सत्ता की समता विश्वमानवों में केवल ईना कर सकता है, वह भी आंशिक। तिसपर गवेपणाएं ऐसी है कि कहा जाता है---ईसा बौद्ध शिष्य है। गौतम बुद्ध ने ईसा से छह सौ वर्ष पूर्व भारत में जन्म लेकर जिस धर्म-चक्र का प्रवर्तन किया वह विश्व का सर्व-प्रथम सर्व-सभ्य विश्व-धर्म था। सारे संसार की सभ्य,अर्धसभ्य जातियों को उसने संयम,प्रेम,त्याग और अहिंसा का संदेश दिया और जिस काल सामन्तशाही तथा स्वेच्छा-जीवन ही रूढिवाद बना हुआ था, धर्म और जीवन को उसने व्यावहारिक और सरल रूप दिया। मनुष्य की जाति को उसने वह दिव्य चक्षु दिया जिससे वह ज्ञानावलोकन कर अपना और औरों का भला कर सके। प्रस्तुत कहानी में उसी दिव्यात्मा के जीवन-रेखाचित्र भाव-ध्वनि में अंकित है। यह कहानी अब से कोई चालीस साल पूर्व सन् १९१६ में लिखी गई थी। उन दिनों हिन्दी में बौद्ध साहित्य का अध्ययन विरल था और आचार्य के साहित्य-प्रागण में प्रवेश का भी प्रभात था। इस दृष्टि से कहानी में उदीयमान भावी महान् साहित्यकार के दर्शन होते हैं। कहानी में भाव-कल्पना और मानसिक घात-प्रतिधात का प्रभावशाली और गम्भीर प्रदर्शन है। तथा कथनोपकथन शैली में सतेज प्रवाह है जो मानों और विचारों के अद्भुत एकत्व का प्रकटीकरण करता है---कहानी में महाप्राण बुद्ध के अंतर्द्वन्द को साकार किया गय है।
वृद्ध महाराज शुद्धोदन विशेष प्रसन्नवदन दिखाई पड़ रहे थे। वे प्रासाद के री अलिन्द में एक स्फटिक मणि की पीठ पर बैठे थे। उन्होंने सम्मुख कुछ र खड़े हुए प्रतिहार को पुकारकर कहा--अरे! देख तो युवराज सिद्धार्थ मृगया से लौटे या नहीं?
प्रतिहार ने आगे बढ़ और धरती पर बल्लम टेककर कहा---परम परमेश्वर, वैष्णव, महाभट्टारकपादीय महाकुमार अभी-अभी मृगया से लौटे है, और युमण्डल में विश्राम कर रहे हैं।
'अच्छा-अच्छा, महानायक प्रबुद्धसेन और महामात्य विजयादित्य को यहा दो।'
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