मेरी आत्मकहानी/८ आपत्तियों का पहाड़

मेरी आत्मकहानी
श्यामसुंदर दास

इलाहाबाद: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १३१ से – १४० तक

 

(८)

आपत्तियों का पहाड़

अब कुछ मेरी कथा भी सुनिए। मैं पहले लिख चुका हूँ कि १८९९ के मार्च मास में मेरी नियुक्ति सेंट्रल हिंद स्कूल में हुई। पहले मैं साधारण अध्यापक था, फिर सेकेंड मास्टर हुआ और आगे चलकर असिस्टंट हेड मास्टर बनाया गया। प्रबंध का सब काम मेरे अधीन था। इसमें मुझे कठिनाइयाँ मेलनी पड़ती १६२ मेरी आत्मकहानी थीं। स्कूल-कमेटी में प्रधानता साहवंश और वसुवंश की थी। स्कूल में उस समय एक मुकर्जी महाशय थे। ये वसुवंश मे प्राइवेट ट्यूटर थे। वहाँ जाकर वे विशेषकर धन अध्यापकों की निंदा किया करते थे जो बंगाली नहीं थे। स्कूल के बंगाली अध्यापको में एक दल धीरे-धीरे उन लोगों का बना जो बंगालियों का पक्ष समर्थन और अवंगालियों का विरोध करता था। इसके केंद्र उस समय पं० कालीप्रसन्न चक्रवर्ती थे। ये गणित के अध्यापक थे, पर अत्यंत सीधे थे। प्रारंम में बाबू हरिदास मुकर्जी नामक एक भीमकाय और डरावनी आकृति के अध्यापक इनके साथ शास में बैठते थे, जिसमें लड़के उत्पात न मचा सकें। जिस समय और बंगाली अध्यापक "मास्टर महाशय" कहकर इनके पास दौड़ते और कान में कुछ फुसफुसाते उस समय मुझे बड़ी चिढ़ होती, पर मैं कुछ कर सकने में असमर्थ था। अंत में मैंने एक उपाय निकाला। गर्मियो की छुट्टी में स्कूल का टाइमटेवुल बनाना मेरा काम था। एक वर्ष मैने घोर परिश्रम कर ऐसा टाइमटेबुल बनाया जिसमें यथासंभव किसी दलविशेष के ने अध्यापकों को एक साथ किसी घटे में छुट्टी न मिले । इससे स्कूल में पड्यंत्र की रचना बंद हो गई। कालो बाबू की प्रकृति में अब बड़ा परिवर्तन हो गया है। वे शुद्ध साधु स्वभाव के सवन हैं। उन्हें न सिी से कुछ लेना, न कुछ देना है, अपने फाम से ही प्रयोजन है। यदि स्सिी घात में उनका मतभेद या विरोध भी होता है तो वे उसे मन में दया लेते है, खुलकर कुछ नहीं रहते । अवसर पड़ने पर धीरे से अपना मत प्रस्ट कर देते हैं। मेरी बालकहानी १३३ सन् १९०० मे मै एक महीने की छुट्टी लेकर हिंदी पुस्तको की खोज में वायू राधाकृष्णदास के साथ मथुरा और जयपुर गया। इस यात्रा से मैं सितवर के आरंभ में लौटा। उसके कुछ दिनो पीछे मेरे पिता को पक्षाघात हो गया। इस रोग का यह तीसरा आक्र- मण था। बहुत चेष्टा की गई पर कोई फल न हुआ+२२-सितंवर को उनका देहांत हो गया। अब मुझ पर आपत्तियों का पर्वत पड़ा। घर में माता, स्त्री, पाँच भाई, दो भौजाइयाँ और दो मेरे पुत्र थे। मुझे लेकर इन १२ प्राणियों के भरण-पोषण का भार मेरे अपर पड़ा। मेरी आय उस समय ४०), ४५) महीना थी। इससे क्या हो सकता था १ इतनी ही कुशल थी कि मेरे पिता का है हिस्सा तेजाव के कारखाने (कृष्ण कंपनी) में था जिससे हम लोगो को ५०) महीना मिलने लगा। इससे किसी प्रकार गृहस्थी का काम चलने लगा। मैने घर पर कुछ विद्याथियो के पढ़ाने का आयोजन भी किया जिससे ३०), ४०) मासिक मिल जाता था । यह क्रम कुछ दिनो तक चला। फिर छोटा भाई भी कुछ सहायता करने लगा। पिता की मृत्यु को अभी एक वर्ष भी न हुआ था कि मेरे एक सर्वधी ने मेरी मां से उस ऋण के विषय में कुछ कति की, जिसे मेरे पिता ने उनके पिता से लिया था। माता मेरे सामने आकर रो पड़ी। मुझे बड़ा दुःख हुआ, पर जिसका कुछ वेना है वह यदि कुछ कटु वाक्य कह बैठे सो उसको सह लेने के अतिरिक्त और उपाय ही क्या था। उस समय मेरी आयु २५ वर्ष की थी। शरीर में शक्ति और उत्साह हुआ था, साथ ही में १३४ मेरी आत्मकहानी अपमान नहीं सह सकता था। जोश में आकर मैने माता के सामने प्रतिमा कर दी कि जब तक मैं यह ऋण न चुका लूंगा तब तक पिता का वार्षिक श्राद्ध न करूँगा। प्रतिज्ञा तो कर ली पर अब यह सोच हुश्रा कि सीन-चार हजार रुपया कहाँ से आवेगा जिससे यह शृण चुके। बहुत आगा-पीछा करने के अनंतर मैं अपने एक सदार मित्र के पास बाहर गया। उनसे मैंने सव व्यवस्था ठीक-ठीक कह दी और पांच हजार का ऋण मांगा। उन्होंने उसी समय इजार हजार रुपये के पांच नोट निकालकर मेरे सामने रख दिए । मैंने एक रसीद निख दी। यह ऋण मैंने धीरे-धीरे चुका दिया, पर उन्होंने एक पैसा भी व्याज न लिया। साथ ही अपना नाम प्रकट न करने को मुमसे प्रतिक्षा करा ली । मैंने काशी लौटकर उस शृण को चुकाया और तब पिता का वार्षिक प्राव किया। मेरे चाचा और पिता की रोटी पारंम में एक ही में थी। पर मेरे पितामह लाला नानकचंद की मृत्यु के पीछे दोनों का चूल्हा अलग-अलग हो गया। पिता की मृत्यु के उपरांत चाचा ने एक मकान खरीदा और वे यथा-समय उसमें चले गए। चलवे समय उन्होंने हम लोगों में से किसी से बात भी न की, ले जाकर अपने साथ रखना बो दूर रहा। वे क्यो अपने बड़े भाई को सतति का बोम अपने ऊपर उठाने लगे थे, यद्यपि ईश्वर ने उन्हें यह शक्ति दी यी कि वे ऐसा सहज में कर सकते थे। ऐसा सुनने में आया कि उन्हें अपने गुजराती गुरु फी स्त्री से पचास हजार रुपये मिले थे। यह कहाँ तक सत्य है, मैं नहीं कह सकता। अस्तु. जिस दिन - , मेरी पालकहानी १३५ पिता पर पक्षायात का आक्रमण होनेवाला था उसकी पहली रात को उन्होंने मेरी माता से कहा था कि तुम किसी बात की चिंता मत करो। तुम्हारा बड़ा लड़का सबका पालन-पोपण करेगा। मैं उसके नाम अपना तेजावसान का हिस्सा लिख दूंगा। पर वे अपनी इन्चा पूरी न कर सके। यदि वे यह कर जाते तो मुझे वे सब आपत्तियां न मेलनी पड़ती जो आगे चलकर मेलनी पड़ी। इम समय की आर्थिक कठिनाइयो को दूर करने के लिये मुझे भौति-मति के उद्योग करने पड़े । सन् १९०२ मे मुझे पंडित श्रीघर पाठक ने, जो उस समय इरीगेशन कमिशन के दफ्तर के सुपरिटेट थे, १४०) मासिक पर उस दफ्तर में रिपोर्ट छपवाने का काम करने के लिये बुलाया। मैंने हिंदू कालेज से १ वर्ष की छुट्टी ली और शिमले गया, पर वहाँ मैं दो-तीन महीने ही रह सका। पहली बात खो यह थी कि पाठक जी का रहन-सहन और खान-पान मेरी प्रकृति और रुचि के अनुकूल न था। दूसरे मेरे ताल मे एक फोड़ा हो गया था जिससे मुझे वडा भय हुआ। डाक्टर को दिखाने पर उन्होंने उसे छेद दिया, पर वह फिर भर गया। ऐसा कई घेर हुआ और मैं घबड़ा गया। अंत में मैं वहाँ की नौकरी छोड़कर काशी लौट आया और कई महीनों तक घर-उधर टकर मारता फिरा । जीवन निर्वाह का कोई उपाय नहीं लगा। इस अवस्था में मुझे सरस्वती का संपादन स्वत: छोड़ना पड़ा। किसी तरह रो-पीटकर काम चलता रहा। हिंदू कालेज में मेरे पुन. आने का मिस्टर बैनबरी ने बड़ा विरोध किया पर अंत में घावू गोविंददास की कृपा से मैं वहाँ बुला लिया गया। १३६ मेरी भात्मकहानी कुछ दिनों के अनंतर मिस्टर घरेखेल हेड मास्टर हुए। उनके समय में अच्छी तरह काम चलता रहा. पर वे हिंदू कालेज के वाइस- प्रिंसपल नियत हुए और उनके स्थान पर एक अन्य सज्जन हेड माटर बने । यद्यपि मैं कई वर्षों तक असिस्टेंट हेड मास्टर रह चुका था, पर मैं इस पद के योग्य न समझा गया । मेरी समझ में इसके दो मुख्य कारण थे-एक वो यह था कि इस संस्था में अधिकारी-पद पर विवासिफिस्ट की नियुक्ति ही हो सकती थी। सभी सांप्रदायिक संस्थाओं में ऐमा होता है। दूसरी बात यह थी कि इस सस्या का यह मुख्य उद्देश्य था कि इसके कार्यकर्ता या तो आनरेरी हो या बहुत कम वेतन पर काम करने को उद्यत थे। अधिक-से-अधिक वेतन १००) था। विवासफी की ओर मेरी प्रवृत्ति न थी और आनरेरी अथवा कम वेतन पर काम करना मेरे लिये असंभव था। जो कोई भी कारण हो, मेरी नियुक्ति नहीं हुई। नई व्यवस्था का पहला आक्रमण मुझ पर हुआ। कदाचिन् यह समझा गया कि इसका स्कूल में बड़ा प्रभाव है। अतएव इसे सबसे पहले ही प्याना चाहिए, तब स्कूल का प्रवन्ध ठीक चल सकेगा। यह बात सच है कि मैं उस समय कूल का ग़-धर्वा, विधाता सब कुछ था । आरंम में ही मेरे नियत कार्य के अतिरिक्त एक दूसरे अध्यापक का, जो उस हिन अनुपस्थित था, अधिक कार्य मुझको दिया गया। मैंने पहले यह कमी नहीं क्यिा था। मुझे बहुत बुरा लगा, पर काम करके घर चला आया। इस कार्रवाई से मैं बहुत व्यथित हुआ और मैने अपना मव रद्द किया कि मुझे अब त्याग-पत्र दे देना चाहिए, इसी में कल्याण 1 " मेरी भात्मकहानी है। संयोग से उसी दिन संध्या समय कारमाइकल लाइब्रेरी के पास कोठी से वगीचे जाते हुए बाबू गोविंददास मिल गए। मैंने उनसे सब बातें कह दी और त्याग-पत्र देने की अनुमति मांगी। उन्होंने मुझे कोमल शब्दों में फटकारा और कहा 'ठहरो, देखा जायगा। अस्तु, उनके उद्योग और मिस्टर आरेंडल के सहयोग से मैं स्कूल से कालेज में अंगरेजी का जूनियर प्रोफेसर बनाकर भेज दिया गया। वहाँ कोई २, २३ वर्ष तक मैंने कार्य किया। जिस दिन मैं पहले-पहल कालेज में पढ़ाने के लिये गया उस दिन मेरे विद्यार्थियों ने बड़े उल्लास के साथ मेरा स्वागत किया। यह सब होते हुए भी मेरी आर्थिक अवस्था शोचनीय थी। अनेक बार उद्योग करने पर मेरा वेतन १००) हो गया था, पर छोटे भाइयों की पढ़ाई तथा उनके विविध संस्कारों के करने मेजो व्यय उठाना पड़ता था वह बहुत बड़ा था। इस समय मैंने तीन भाइयो की चोटी, जनेऊ तथा एक का विवाह किया और अपने बड़े लड़के की चोटी उतरवाई तथा जनेऊ किया। यह सब वो आफ्ते थी हो, इधर सन् १९०८ मे मेरी स्नेहमयी माता का देहांत हो गया। उसके उपरांत तीसरे माई रामकृष्ण और मेरे तीसरे लड़के सोहनलाल को टायफाइड बुखार हो गया। रामकृष्ण का तो उस रोग से सन् १९०९ मे देहांत हो गया। सोहनलाल ४० दिन धीमार रहकर अच्छा हुआ। पर अभी आपचियो का अंत नहीं हुआ। इसी वर्ष मेरी एक भौजाई तथा उनके दो बच्चों का देहांत हुआ। मैं घबड़ा गया । शहर और घर मुझे काटने लगे। इस समय मेरे मित्र पंडित दुर्गाप्रसाद मिश्र ने, १३८ मेरी पालकहानी जो उन दिनो काशी ही में थे, मुझे बहुत द्वादस दिया । उन्होंने कहा कि तुम घबड़ाओ नहीं. मैं काश्मीर में तुम्हारी नौकरी का घंदोबस्त करता हूँ।वे जम्मू गए और उद्योग में लगे। अंत में स्विघर सन् १९०९ में उन्होंने मुझे तार देकर जम्मू बुलाया। मैं नौकरी और घरवार छोडकर वहाँ चला गया। पर वह नौकरी मिलने में घड़ी कठिनाई हुई । किसी तरह उद्योग करके महाराज के स्टेट आफिस मे एक स्थान मिला। पडित दुर्गाप्रसाद बड़े शाह-वर्ष थे। उनके खर्च से मैं वंग आगया। इघर बनारस से चिट्टियाँ पाने लगी कि मेरी गृहस्थी दुखी है। उनको ठीक ठीक भोजन मिलना भी दुलम हो गया था। दो सबसे छोटे भाइयों की भी यही दुर्गति थी। वे बहुत मार खाते थे। कभी-कमी ये लोग चने सुनवार पेट भरते थे। इससे तंग आकर मैं अप्रैल में काशी पाया और अपनी स्त्री तीनों लड़कों क्या दो छोटे भाइयों को साथ लेकर काश्मीर चला गया। इस घटना का मुझ पर इतना प्रभाव पड़ा कि मुझे एक |विनका भर चीन भी घर से लेने की रुचि न हुई। कहां तक कहूँ, मुरादाबाद स्टेशन पर पानी पीने के लिये गिलाम स्वरीग और रावलपिटी में खाना पकाने के वर्णन मोल लिए। इस प्रकार गृहस्थी का नया आयोजन हुआ। श्रीनगर पहुँचने पर फिर कुछ सुख से रहने लगा पर वहां का वातावरण मेरे अनुकूल न था। वहाँ दल- बंदी और पस्यों का प्रावल्य था। किस दल में रहे, म्सिमें न रहे इस प्रश्न का हल करना कठिन था। यहाँ एक महाशय से मेंट हुई जिन्होंने मेरा १०००), तो मेरे भाई ने कुछ काश्मीरी माल "१३९ मेरी आत्मकहानी खरीदने के लिये मेजा था, ठग लिया। निदान किसी प्रकार दो वर्ष यहाँ विताए। लड़कों को लाहौर के दयानंद ऍग्लो वैदिक स्कूल में भरती कर दिया। उस समय बोडिंग हाउस के सुपरिटेंडेंट मेरे पुराने शिष्य जानकीप्रसाद सामंत थे। लड़को को उन्हीं के सुपुद किया। पर मेरे हितैपियो ने यहाँ भी मुझे चैन न लेने दिया। सबसे छोटे भाई को बहकाकर काशी बुलाने का वे उद्योग करते रहे। चुपचाप उसके पास रुपए भी भेजते रहे। इन्हीं की कृपा से सबसे छोटे भाई का जीवन नष्ट हो गया। वह उच्छृखल हो गया। न काशी मे उसका मन लगता था न मेरे साथ। उसका पढ़ना-लिखना छूट गया और बुरे लोगो के साथ में उसे आनद आने लगा। निदान १९१२ के अक्टूबर मास में मैं काशी पाया और यहां से त्यागपत्र भेज दिया। इसके उपरांत में कई महीने तक बीमार रहा। गुदास्थान में फोड़ा हो गया था। मेरे मित्र डाक्टर अमरनाथ वैनर्जी ने उसे चीरने की सम्मति की और उस काम के लिये मुझे श्लोरोफार्म सुंघाने का प्रबंध किया गया पर मैं बेहोश न हुआ। अंत में खैरातीलाल हकीम की दवाई से मैं अच्छा हुआ। यह काल घड़ी विपत्ति मे कटा। अंत में जुलाई सन् १९१३ मे मैं धायू गंगाप्रसाद वर्मा के निमंत्रण पर लखनऊ के कालीचरण हाई स्कूल का हेड मास्टर होकर वहाँ गया। काश्मीर जाने के पहले मेरे प्रस्ताव पर काशी-नागरी-प्रचारिणी समा ने हिंदी साहित्य सम्मेलन का प्रथम अधिवेशन करने का निश्चय किया। इस अधिवेशन में मैं जम्मू से काशी पाया था। सम्मेलन के एक दिन पूर्व मेरी छोटी मौजाई का प्रमव में देहांत हो गया। पर मैं सम्मेलन में सम्मिलित हुआ और उसके कार्यों में भाग लंबा रहा। सम्मेलन में मैंने देखा कि एक विरोधी दल प्रत्येक पात में मेरा विरोध तथा पेक्षा करने पर उद्यत था। मैं काश्मीर में रहता था। वहाँ से इस काम की देख-रेख करने और विरोध का सामना करने में असमर्थ था। अतएव मैंने प्रसन्नतापूर्वक सम्मेलन को प्रयाग भाने का समर्थन किया। यह अच्छा ही हुआ।