मेघदूत का हिन्दी-गद्य में भावार्थ-बोधक अनुवाद/२
अतएव, शिवजी अपनी इस सेवा का तुझे अवश्यही फल देंगे! देख, चूकना मत। इस बात को याद रखना।
शिवजी की शुश्रूषा करने और उन्हें रिझाने के लिए महाकाल के मन्दिर में नर्तकी नारियाँ भी रहती हैं। उनमें से कुछ तो शिवजी को अपना नाच दिखाती हैं और कुछ उन पर रत्न-सचित डॉडीवाले चमर ढारती हैं। जिस समय वे नाचती हैं उस समय फ़र्श पर ज़ोर से उनके पैर पड़ने के कारण उनकी कटि-किङ्किणिया बड़ाही श्रुतिसुखद शब्द करती हैं। चमर वे ऐसे लीला-ललाम ढंँग से ढारती हैं कि देखते ही बनता है। चमर चलाते चलाते वे थक जाती हैं, पर उनके हाथ फिर भी अपनी लीला दिखाते ही जाते हैं। उन नर्तकियों के नखक्षतों पर जब तेरे वर्षा बिन्दु पड़ेंगे तब शीतलता पहुँचने के कारण उनको बहुत आराम मिलेगा और वे काले-काले भैरों की पंक्ति के सदृश अपने दीर्थ कटाक्षों से तुझे देखेंगी। वे मनही मन कहेंगी---"यह दयालु मेघ हमारे क्षतों को ठंढा करने के लिए अच्छा आ गया।"इस प्रकार वे अपनी हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करेंगी।
महाकाल के मन्दिर के चारों तरफ़, लम्बी भुजाओं के समान ऊँचे ऊँचे तरुओंवाले उद्यान के ऊपर, जब तू, सायङ्काल, मण्डल बाँध कर छा जायगा और तेरे उस नील मण्डल पर, नवीन जवा-पुष्प के सदृश सायङ्कालीन अरुणता का प्रतिबिम्ब पड़ेगा, तब बड़ा ही अलौकिक दृश्य दिखाई देगा। उस समय तू रुधिर टपकते हुए नये गज-धर्म की समता को पहुँच जायगा। ताण्डव-नृत्य के समय शिवजी को ऐसा ही चर्म ओढ़ने की इच्छा होती है। सो तेरी बदौलत उनकी यह इच्छा भी पूर्ण हो जायगी और रुधिर पकने के कारण वैसे गजचर्म्म से उमा को जो उद्वंग होता है, वह भी न होगा। अतएव पार्वतीजी टकटकी लगाकर तुझे पीतिवर्ग नेत्रों से प्रसन्नतापूर्वक देखेंगी। मित्र मेघ! देख, तेरे लिए यह कितना अलभ्य लाभ होगा।
उज्जयिनी में स्त्रियाँ अपने प्रेमियों से मिलने के लिए बहुधा उनके निर्द्दिष्ट स्थानों को रात के समय जाया करती हैं। सावन-भादों में और तो क्या, राजमार्गों तक में अन्धकार छाया रहता है। तुझसे आकाश व्याप्त हो जाने पर तो वह अँधेरा और भी घना हो जायगा—यहाँ तक घना कि वह सूई से छिद्र जाने योग्य हो जायगा। अतएव, इतनी कृपा करना कि कसौटी पर सुवर्ण की रेखा के समान बिजली चमका कर उन अभिसारिकाओं को राह अवश्य दिखा देना, तेरे इस कार्य्य से अन्धकार को घना कर देने के अपराध का मार्जन हो जायगा। अकारण ही किसी को किसी से कष्ट पहुँच जाय तो उसका प्रतिकार करना ही सज्जनों का कर्तव्य है। हाँ, एक बात और है रात को कहीं पानी बरसाने और गरजने न लगना। ऐसा करने से वे डर जायँगी, क्योंकि वे स्वभाव ही से भीरु हैं। फिर किसी को व्यर्थ सताना भी तो न चाहिए। अन्धकार की वृद्धि करके गरजने और बरसने से तेरे अपराध की मात्रा और भी अधिक हो जायगी।
रात अधिक बीत जाने पर वहीं किसी ऊँचे से महल की छत के ऊपर ठहर जाना। परन्तु महन्त ऐसा ढूँढ़ना जिस पर कबूतर आनन्द से सो रहे हों और इतनी भी खटक न होती हो कि वे
जाग पड़ें। थके-माँदे के लिए एकान्त स्थान ही अच्छा होता है।
ऐसे स्थान में सुख से सोने को मिलता है। तब तक चमकते चम-
कते तेरी प्रियतमा सौदामिनी भी थक जायगी। इस कारण भी तुझे
उज्जयिनी में एक रात अवश्य ही ठहरना पड़ेगा । प्रातःकाल होने पर
फिर चल देना और यथासम्भव शीघ्र ही अवशिष्ट मार्ग का प्राक्र-
मण करना । जिसने अपने मित्र का कोई कार्य कर देने के लिए बीड़ा
उठाया है उसे उसकी पूर्ति होने तक कल कहाँ ? उसे अधिक
सुस्ताने के लिए समय ही नहीं।
प्रातःकाल प्रणयी पुरुप वर आवेंगे और अपनी खण्डिता पतनियों के आँसू पोछ कर उनका दुःख दूर करेंगे। उधर भगवान मरीचि- माली भी कमलिनियों के मुख-कमल से ओस के अश्रुओं का परिमा- र्जन करने के लिए लौटेंगे । अतएव, उनकी किरणों के मार्ग को हरगिज़ न रोकना । रोकने से एक तो वे तुझ पर अप्रसन्न होंगे, दूसरे खण्डिताओं तथा कमलिनियों का दुःख दूर होने में भी बाधा पहुँचेगी। समझ गया ?
उज्जयिनी छोड़ने पर तुझ गम्भीरा नाम की नदी मिलेगी।
उसका जल प्रसन्नवा-पूर्ण मन के सदृश निर्मल है। खिले हुए
कुमुदरूप सुन्दर नयनां से वह तुझ पर चपल-मछली-रूप कटाक्षों
की प्रेरणा करेंगी। अतएव, जब तू उसके जलरूप स्वच्छ हृदय के
भीतर अपनी प्रतिबिम्ब-रूप आत्मा का प्रवेश कर देगा तब तुझे वहाँ
कुछ देर तक अवश्य ही रहना पड़ेगा। क्योंकि यह सम्भव
ही नहीं कि तू उसके कटाक्षों को सफल किये विना ही वहाँ से
चल दे। इतनी कठोरता दिखाना-इतना धैर्य धरना-तुझसे होही
न सकेगा। इन बातों के मित्रा और तरह में भी वह तुझे रिझानें
की चेष्टा करेंगी । तू देखेगा कि नीलाभ अन्न के बहाने उमने नोनी
साड़ी पहन रक्खी है । लहरों का उछाला हुआ उसका वह वारि-
वमन, तटरूपी कदि से कुछ खिमक कर, बंत की लटकी हुई डान
से लग रहा है। अतएव, वह हाथ में पकड़ मारकबा गया है।
उसे इस दशा में दम्ब तुझे ऐमा मालूम होगा जैसे घर से चलने
समय पति अपनी प्रवल्यत्पतिका पन्नी का वन हाथ से बीच
रहा है। इस कारण वह उसकी कमर से मरक गया है । मला
ऐसी विलामवती नदी का नोला नीला नीर लेकर, कुछ देर वहाँ
ठहरे बिना, तू कैसे प्रस्थान कर सकेगा' औरों की तो मैं नहीं
कहता. परन्तु ऐसा अवनर प्राप्त होने पर झटपट चन देना रसिकों
के लिए अवश्य ही असम्भव है।
गम्भीरा छोड़ने पर तुझे देवगिरि होकर जाना पड़ेगा। पहले
पहल तेरे वरनने पर पृथ्वो सं जो मुन्दर मुगन्धि निकलती है
उमस सुरभि-सम्पन्न होनेवाली. जगन्नी गृलर के फलों को परि-
पक्क करनेवाली,अपने झकारों की मधुर ध्वनि से कानों को मुम्ब
देनेवाली हाथियों की प्यारी वायु, उस समय, मार्ग में तेरी
अच्छी सेवा करेगी। इस कारण पूर्वोक गम्भीरा के नट पर प्राम
हुए तेरे परिश्रम का शीघ्र ही परिहार हो जायगा। देवगिरि में
कुमार कार्तिकेय का मन्दिर है । इन्द्र की सेनाओं की रक्षा के
लिए शशिमौलि शङ्कर ने आदित्य से भी अधिक तेजस्वी अपने
जिस तेज को अग्नि के मुख में डाला था उसी से कार्तिकेय की
उत्पत्ति है । देवताओं के सेनापति बन कर, वारकासुर का संहार
कर चुकने पर, उन्होंने देवगिरि ही में रहना पसन्द किया। तब से
वे वहीं रहते हैं । वहाँ पहुँच कर तू पुष्पमय हो जाना। फिर
आकाशगङ्गा के जल से धाये हुए फूलों की धारा बरसा कर सुर-
सेनानी षडानन को स्नान कराना ! वहाँ तुझे उनका वाहन मोर
भी मिलेगा। अपने पुत्र का वाहन होने के कारण, उस पर पार्वती
का बड़ा प्रेम है। तार से जड़े हुए चँदोवेवाले उसके पंख यदि
गिर पड़ते हैं तो पार्वतीजी उन्हें तत्काल उठा कर बड़े स्नेह से,
अपने कानों पर, कमल-दल के सदृश, खाँस लंती हैं । कुमार-स्वामी
के मोर की आँखों के कोय यांना स्वभाव ही से शुभ्र है। परन्तु
पासही बैठे हुए शिवजी के भाल-चन्द्रमा की किरणों के याग से
उनकी शुभ्रता और भी अधिक हो जाती है। पार्वतीनन्दन और
स्वयं पार्वती के प्यार उस मोर की भी कुछ सेवा करना । पर्वत
की गुफाओं के भीतर तक चली जानेवाली घार गर्जना करके देर
तक उसे खब नचाना।
शरजन्मा षडानन की आराधना करके तू आगे बढ़ना । देवगिरि छोड़ने पर मार्ग में शायद तुझे मस्त्रीक सिद्ध लोग मिलेंगे। वीणा उनके साथ होगी। वे कार्तिकेय को वीणा-वादन सुनाने के लिए प्रति दिन आया करते हैं । यदि कहीं तू उन्हें दिखाई दिया तो वे तेरी राह छोड़ कर हट जायँगे! वे कहेंगे कि यदि यह पानी बरसाने लगेगा तो हमारी वीणायें भीग जायँगी। फिर हम इसका क्या कर लेंगे। अतएव, आवो इसके रास्ते ही न जायँ ।
कुछ दूर जाने पर तुझे चर्मरावती ( चम्बल) नदी मिलेगी।
सुनते हैं, उसकी उत्पत्ति राजा रन्तिदेव के गो-मेध यज्ञों में बाल
म्भन की गई गायों में है। उनके मधिर में हो वह उत्पन्न हुई है।
वह पृथ्वी पर, नदी के रूप में, उन राजा की मूर्जिमती कीर्ति के
समान है। उसके पास पहुँच कर उम्मका यथेष्ट सम्मान करना।
उनका पाट है तो खूब चौड़ा । पर, आकाचारी देवताओं को दुर
में वह पतला जान पड़ता है । उन्हें उनकी पतली पतली धारा,
पृथ्वी के कण्ठ में पड़ी हुई मानियों की मात्रा के महश, दिखाई
देती है। विष्णु के वर्ग का चार, श्याम शर्गरधारी न जत्र उम नदी
का जल पीने के लिए उस पर झूकेगा तब उन व्योमचारो देवताओ
को न ऐमा मालूम होगा जैसे मतियां की उम माला के बीचों-
बीच एक बड़ासा नीन्नम लगा हुआ है।
चर्मरावती का उतर कर तू सी गगाजा रन्तिदव को राजधानी 'दशपुर को जाना । वहा को वनिनायें बड़ी चञ्चन्ह हैं । भौहे मरोड़ने और कुटिल-कटाक्ष-पात करने में उनकी प्रवीगवा मर्वत्र प्रसिद्ध है। वे तुझे बड़े कौतूहल से दब्वेगी । जिम समय वे सब पलके उठा उठा कर काली काली पुतलीवाल अपने बड़े बड़े शुभ्र नेत्र तेरी तरफ़ कर देंगी उस समय ऐसी शाभा होगी माना फेके हुए कुन्द के सित सुमनों की ओर भार की पाति जा रही है। तू उनको दर्शन दिये बिना न रहना । वे तेरे दर्शनों को सर्वधा पात्र हैं:
आगे तुझे ब्रह्मावर्त मिलेगा । उस पर अपनी छाया डालता
हुआ तू कुरुक्षेत्र को जाना। यह वही कुरुक्षेत्र है जहा महाभारत-
युद्ध में लाखों क्षत्रियों का नाश हुआ था और जहां अर्जुन ने अपने
गाण्डीव नामक धनुष से राजाओं के मुखों पर उस तरह असंख्य
पैने बाणों की वर्षा की थी जिस तरह कि तू कमलों पर वारि-धारा को
वर्षा करता है । इसी कुरुक्षेत्र के पाम ही सरस्वती नदी बहती है ।
तुझसे श्रीकृष्ण के बड़े भाई हलधर का परिचय कराने की ज़रूरत
नहीं। तू उन्हें अच्छी तरह जानता ही होगा । कौरवों और पाण्डवों.
दोनों, को अपना भाई जान कर वे महाभारत के नरनाशी युद्ध मे
नहीं शरीक हुए। उन्होंने कहा-हमारे लिए जैसे पाण्डव है वैसे ही
कौरव भी हैं। हम क्यों एक का पक्ष लेकर दूसरे को मारने की चेष्टा
करें। इसी से समर-विमुख होकर वे पूर्वोक्त सरस्वती नदी के तट पर
चले गये । वहीं वे कुछ काल तक रहे । वहाँ उन्होंने एक काम
किया। उन्हें मदिरा से बड़ा प्रेम था । उसे वे पहले अपनी प्रिय-
तमा पत्नी रेवती को पिला लेते थे तब स्वयं पोते थे। पीते समय
मदिरा भरे हुए प्याले में रेवतीजी के लोल लोचनों की छाया पड़ती
थी। पत्नी के नेत्रों का प्रतिबिम्ब पड़ने के कारण बलदेवजी की
प्रीति उस मदिरा पर और भी अधिक हो जाती थी। परन्तु सर
स्वती के तट पर उन्होंने अपनी उस प्यारी मदिरा का एक-दम ही
परित्याग कर दिया। उसके बदले वे सरस्वती के पावन पय का ही
सेवन करते रहे। उसके सामने उन्होंने सुरा को असार समझा।
इस घटना से सरस्वती के सलिल की महिमा का तू अच्छी तरह
अनुमान कर सकेगा। अतएव, भाई मेघ ! तू पुण्यसलिला सरस्वती
का अवश्य ही अवगाहन करना । उसके जल के आचमन से तेरा
अन्तःकरण सर्वथा शुद्ध हा जायगा; तेरा शरीर-मात्र ही काला
रह जायगा । सो शरीर की कालिमा कालिमा नहीं; हृदय में
कालिमा न होना चाहिए
कुरुश्रेत्र से कनखल के लिए प्रस्थान करना । वहीं शैलराज
हिमालय से जद्दतनया गड़ा उतरी है। राजा मगर को सन्तति के
लिए, स्वर्ग पर चढ़ने में, उमनं मोदी का काम दिया है। उसी की
कृपा से सगर के साठ हजार सुत म्बर्ग पहुँचे हैं। इस गङ्गा को
शिवजी ने अपने जटा-जूटों में ठहरा रक्या है : यह वात पार्वतीजी
को पसन्द नहीं , वे गङ्गाजी को अपनी सौत ममझती हैं। इसी से
उन्होंने एक बार भीहें टेट्टी करके गङ्गाजा पर कुटिल कटाक्ष
किया था। इस पर गङ्गाजी ने उनकी स्वब खबर ली थी। उन्हेंने
वहुत मा फेन बहा कर उसके बहानं पार्वतीजी की हसी सी की
थी। यही नहीं उन्होंने अपने तरहरूपी हाथों से शिवजी के
भाल-चन्द्रमा का पकड़ कर उनकी जटाओं को झकझोर भी डाला
था। इस घटना द्वारा उन्होंने मानां शिवजी में यह कहा था
कि इसे मना नहीं करते ! देखिए, यह मेरे माथ कैसी कुटिला
कर रही हैं।
आकाश में अपने शरीर के अगले भाग को कब लम्बा करके जब सू गङ्गाजी का जल पीने के लिए मुर-गज के ममान मुक्केगा तब सुरसरि के स्फटिक-तुल्य स्वच्छ और शुभ्र जन्न पर तेरी काली काली छाया पड़ेगी। उस समय बड़ा ही अनुपम दृश्य दिग्बाई देगा। मालूम होगा कि प्रयाग छोड़ कर कनाल ही में गङ्गा- यमुना का मङ्गम हा गया !
वहाँ से तुझे गङ्गाजी के पिता हिमालय पर जाना पड़ेगा।
उस पर कमनुरी-भृग बहुत हैं । उत्तकी नाभियों से कस्तुरी गिर
करती है । इस कारण जिन गिन्नामों पर चे बैठने हैं वे भी
कस्तूरी की सुगिन्ध से सुरभित हो जाती हैं। हिमालय पर बर्फ़
बहुत गिरती है । इमसे उनके शिखर शुभ्र दिखाई देते हैं। उस
पर्वत पर पहुँच कर थकावट मिटाने के लिए जब नु बर्फ से ढकं
हए किसी शिखर के ऊपर बेट जायगा तब ऐसा मालूम होगा
जैसे शिवजी के शुभ्र बैल के सिर पर, सींगों से गीली भूमि खादने
के कारण, कीचड़ लग रही है।
हिमालय पर उपकार करने का मौका भी शायद तुझे मिल जायगा । जब हवा ज़ोर से चलती है तब उस पर्वत के ऊपर देव- दारु के वृक्ष आपस मे रगड़ खाने लगते हैं। इस रगड़ से कभी कभी आग उत्पन्न हो जाती है। उसकी चिनगारियों से जङ्गल ही नही जल जाता चमरी गायां की पूछी के बाल भी जल जाते हैं। यदि तेरे सामने भी कहीं ऐसी आग लगी हो तो अपनी वारि- धाराओं से हिमालय की दाह-व्यथा तुरन्त ही शान्त कर देना । चूकना मत । क्योंकि. आपत्ति में पड़े हुए पुरुषों की पीड़ा हर लेना ही मत्पुरुषों की सम्पत्ति का सच्चा फल है। सम्पत्तिमान होकर भी मनुष्य यदि विपत्ति-प्रस्तों के काम न आया तो उसकी सम्पत्ति ही फिर किस काम की ?
हिमालय पर शरभ नाम के बड़े वली पशु रहते हैं। उन्हें अपने
बन का बड़ा घमण्ट है। इस कारण जब तू घोर रव करंगा-जब तू
ज़ोर से गरजेगा-तब उनके कोप का ठिकाना न रहेगा। तेरी
ध्वनि उन्हें असह्य हो जायगी । वे कहेंगे-हमारे सामने गरजने-
वाला, हमसे भी अधिक बलो, यह कहाँ से आया। अतएव, घमण्ड
मे आकर वे कूद-फाँद मचाने लगेंगे और तुझे लाघ कर निकल
जाने की चेष्टा करेंगे। उनकी यह चेष्टा सफल ना होने हो कर
नहीं, क्योंकि तू लांघा जा ही नही नकता। हो इस चेस्ठा मंच
अपने हाथ-पैर अवश्य नाड़ लेग । जिम समय तुझ शरभ का यह
तमाशा दिखाई द उम ममय उन पर अालों की मात्र ही बनधार
वर्षा करके उन्हें उपहास का पात्र बनाये बिना न रहना , प्रारम्भ
ही में निपाल यत्न करवानों में में भला कोई भी गमा होगा
जिसकी हमो न हुई हो ।
हिमालय पर अर्द्धन्दुशेखर शङ्कर की चरणशिला -शिला के ऊपर उनके पैर का चिव-है। मिद्ध और माधु लांग उमक निन्य पूजा करते हैं । उनके दर्शन ने श्रद्धालु जनों के मारे पाप छूट जाते हैं और शरीगन्न हाने पर उन्हें सदा सर्वदा के लिए शिवजी के गणों की पदवी मिन्न जाता है अत्यन्त नम्र होकर, भान-भाव- पूर्वक, उस चरण-शिला की नू भी प्रदक्षिणा करना। इसमें तुझे भी उमी फल की प्राप्ति होगा जो सिद्धादिकों को होनी है। कहा पर तुझे एक और भी काम करना होगा : कहाँ बाम के वृक्ष बहुन हैं। उनके छेदों में जब वायु भरदी है तब उनसं मुरली-रव के सदृश मधुरध्वान निकलती है। इधर ता यह होता है उधर किनारया बई ही अनुराग से त्रिपुर-विजच-सम्बन्धी यशोगान करके शिवजी को रिझाती हैं। ऐसे मौके पर यदि तु हिमालय की गुफा में अपनी घार गर्जना भर देगा तो मृदङ्ग माबजने लगेगा। इस प्रकार शिवजी के सङ्गीत का सारा ठाठ बन जायगा। मुरली, नदङ्ग और गान तीनों का समा बँध जायगा;
धीर धीर हिमालय के सभी शिखरो को पार करने पर उसके
दृमरी तरफ़ तुझ क्रौञ्चरन्ध्र नामक घाटी मिलेगी। यह घाटी हंसो
के लिए दरवाजे का काम देती है। इसी से होकर हंस आते जाते
हैं। यह बड़ी प्रसिद्ध घाटी है। परशुरामजी के प्रवन्त-पराक्रम-
सम्वन्धी यश की यह सूचक है ! शिवजी से अस्त्र-विद्या सीख कर
जब परशुरामी कैलास से नीचे उतरं तव अपने बाणां से हिमालय
को काट कर उन्होंने यह घाटी बना दी और इसी की राह से
हिमालय पार करके वे सुखपूर्वक निकल आये । तू भी अपने शरीर
को लम्वा और तिरछा करकं इम घाटी से निकल जाना। निकलते
समय, बलि को छलनेवाले विष्णु के बढ़े हुए श्यामचरण के सदृश
नेरी शोभा होगी। उस समय ऐसा मालूम होगा जैसे वामनजी
का बढ़ा हुआ श्यामल पाँव वाटी से निकल रहा है।
क्रौञ्चरन्ध्र से निकल कर उत्तर दिशा में ऊपर की ओर जाना।
आगे ही तुझे कैलास-पर्बत मिलेगा। वह शुभ्र स्फटिक का है।
इस कारण सुर-सुन्दरियाँ उससे दर्पण का काम लेती हैं; उसमें उनके
प्रतिबिम्ब दिखाई देते हैं । यह वही कैलास है जिसे लङ्कुश रावण
ने अपनी बीसों भुजाओं का बल लगा कर जड़ से हिला दिया था।
कुमुद के महश उसके सफेद शिखर आममान के भीतर दूर तक चले
गये हैं। उन्हें देख कर ऐसा मालूम होता है जैसे त्रिपुरान्तक त्रिला-
चन का अट्टहास इकट्ठा होकर मभी दिशाओं में चमक रहा है। वह
पर्वत तो तत्काल काटे गये हाथी-दाँत के समान उजला है और तू
चिकन काजल के ममान काला । अतएव, जब तू उसके किनारे किसी
शिरवर पर बैठ जायगा तब अपूर्व ही शोभा होगी । तब तू गोरे गोरे
क्लराम जी के कन्धे पर पहुं हुए नीलाम्बर की उपमा को पहुँच जायगा
पार्वती को साथ लेकर शिवजी जब कैलाम के क्रीडा-शैल पर
टहलने निकलते हैं तब अपने एक हाथ से माप का कड़ा उनार
डालते हैं। उसी बिना कई के हाथ को अपने हाथ में धान कर
पार्वतीजी उनकं माथ घूमा करती है। यदि कहीं तुझ वे इसी तरह
टहलती हुई मिल जाये तो त एक काम करना । अपने अन्तर्गत
जल का स्तम्भन करके अपने शरीर को ज़रा कड़ा कर लेना। फिर
सीढ़ी के रूप में हो जाना! इससे तेरे ऊपर पैर रस्वती हुई पार्वतीजी
सुख ने ऊँची जगहों पर चढ़ती चली जायेंगी ! उन्हें न चढ़ने
में ही कुछ कष्ट होगा और न पैर रखने ही में ! पहाड़ों पर चलने
से पत्थरों के टुकड़े पैरों में चुभते हैं । पर तू चिकना है । इम
कारण तेरे शरीर पर वे बटाखट पैर रग्वनी चली जायेंगी; मन्चरों
के चुभ जाने का डर न रहेगा।
हाँ, एक बात में मैं तुझे सचेत कर देना चाहता हूँ। कैलास पर देवाङ्गनायें तुझे पकड़ कर अवश्य अपने घर ले जायँगी। वहां वे तुझे पिचकारी या जल छिड़कन की कन्त बनावेंगी, अथवा तुझससे वे फौवारे का काम लेंगी। यदि न उनकी इच्छा के अनु- मार जल का छिड़काव न करंगा तो वे अपने कानों में जड़े हुए होरी से तेरे शरीर को घिस घिस कर जबरदस्ती उसमें जल निका- लंगी। उनके इस खेल में यदि न थक कर पीने सीन हो जाथ और फिर भी तेरा छुटकारा न हो तो तु कर्ण-कटार गर्जन करके उन्हें डरा देना । तेरा कुलिश-कर्कश नाद सुन कर वे अवश्य ही तुझे छोड़ देंगी।
सुर-सुन्दरियों में झुटकारा पाकर मानम-सरोवर के उस
मलिल को, जो सोने के सुन्दर सरोरुह उत्पन्न करता है, पेट भर
पीना ! फिर अपनी वारि-बूँदरूपी वसन को ऐरावत के मुख पर
डाल कर-वारिदों को उपहार-सदृश देकर-उसे प्रसन्न करना,
तदनन्तर अपने जल-कणों से आई हुई वायु बहा कर कल्पवृक्षों के
पत्ररूपी परां का खूब हिलाना । यह सब करके स्फटिक के समान
शुभ्र और सुन्दर उम पर्वत पर अपनी काली काली लाया डालता
हुअा जहाँ जी चाहे वहाँ घूमना । वह पर्वत मेरा परम मित्र है।
अतएव वहाँ तेरी रोक-टोक करनेवाला कोई नहीं ! वह तुझे अपने
अपर यथेच्छ घूमने फिरने देगा।
मित्र मेव ! उसी कैलास-पर्वत के अङ्क में, गङ्गाजी के ठीक तट पर, मेरी निवास-भूमि अलका नाम की नगरी है। उसे नू देखते ही पहचान लेगा । कलाम की प्रान्तभूमि में जाह्नवी के किनार वसी हुई वह नगरी उस कामिनी के सदृश मालूम होती है, जो अपने कान्त की गोद में बैठी है और जिसकी सफेद साड़ी का छोर वायु से उड़ रहा है। शुभ्र जल के बड़े बड़े बूँद बरसानवाले कृष्ण-वर्ण-धागे तुझे वह अपने ऊँचे ऊँचे महलों के ऊपर इस तरह धारण कर लेगी जिस तरह कि बड़े बड़े मोती गुंथे हुए केश-कलाप को कामिनी अपने सिर पर धारण करती है। तुझे आया देख वह कृतार्थ हो जायगी और सिर आँखों पर तुझे स्थान देगी।
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लका अनेक बातों में तेरी समता करेगों । तुझमें कुछ ऐसी विशेषनायें हैं जो अलका के महलों में भी हैं : देख मै बताता हूँ। तुझमे बिजली है; अलका के महलों में भी विद्युल्लता सी ललित ललनायें हैं। तर माथ इन्द्रधनुष है; उसके महलों में भी नाना रङ्गों से रञ्जित विचित्र चित्रावली है। न मीटा-मीठा गम्भीर घोर किया करता है; उमकं महलों में भी मङ्गीत-सम्बन्धी मृदङ्ग बजा करते हैं । तेरे भीतर जल हैं: उसके महलों के फ़र्शी और आगनों में भी मणिया जड़ी हुई है। नू ऊँचा है; उसके महल भी अभ्रंकश बादलों को छूनवाले हैं : इसी से मैं कहता हूँ कि अनेक बातों में वह तरी बराबरी करेगी।
अलका में एक और भी बहुत दड़ी विशेषता है। वहां हर ऋतु के फूल हर समय प्राप्त होते है। वहाँ की खियाँ हाथ में नीला-कमल लिये रहती हैं; अलकों में कुन्द की कलिया खास रहती हैं;आननों में लोध के फूलों के पीलं पीले पराग का लेप लगायें रहती हैं; चोटियों में नवीन कुरबा गूंधे रहती हैं: कानों में सिरस के फुल रक्खे रहती है; और. मागों में,तेरी बदौलव प्राप्त होनेवाले, वर्षा-ऋतु में उत्पन्न,कदम्ध-कुसुम धारण किये रहती हैं। क्यों, हो गयं न सभी ऋतुओं के फूल ?