मानसरोवर २  (1946) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ३०२ ]




शुद्रा

मां और बेटी एक झोपड़ी में गांव के उस सिरे पर रहती थीं। बेटी बाग से पत्तियां बटोर लाती, मां झाड़ झोकती। यही उनको जीविका थी। सेर-दो-सेर अनाज मिल जाता था, खाकर पड़ रहती थीं। माता विधवा थी, बेटी क्वारी, घर मे और कोई आदमी न था। माँ का नाम गगा था, बेटी का गौरा ।

गजा को कई साल से यह चिन्ता लगी हुई थी कि कहीं गौरा की सगाई हो जाय, लेकिन कहीं बात पक्की न होती थी। अपने पति के मर जाने के बाद गङ्गा ने कोई दूसरा घर न किया था, न कोई दूसरा धन्धा करती थी, इससे लोगों को संदेह हो गया था कि आखिर इसका गुज़र कैसे होता है ? और लोग तो छाती फाड़ कर काम करते हैं, फिर भी पेट-भर अन्न मयस्सर नहीं होता। यह स्त्री कोई धंधा नहीं करती, फिर भी मां-बेटी आराम से रहती हैं, किसीके सामने हाथ नहीं फैलाती । इसमे कुछ-न-कुछ रहस्य है। धीरे-धीरे यह सन्देह और भी दृढ हो गया, और वह अब तक जीवित था । बिरादरी में कोई गौरा से सगाई करने पर राज़ी न होता था। शूद्रो की विरादरी बहुत छोटी होती है। दस-पांच कोस से अधिक उसका क्षेत्र नहीं होता। इसलिए एक दूसरे के गुण-दोष किसीसे छिपे नहीं रहते, न उन पर परदा हो डाला जा सकता है।

इस भ्रान्ति को शान्त करने के लिए माँ ने बेटी के साथ कई तीर्थ यात्राएं की। उड़ीसा तक हो आई, लेकिन सन्देह न मिटा । गौरा युवती थी, सुन्दरी थी, पर उसे किसी ने कुएँ पर या खेतो में हँसते-बोलते नहीं देखा। उसकी निगाह कभी ऊपर उठती ही न थी। लेकिन यह बातें भी सदेह को और पुष्ट करती थीं। अवश्य कोई- न-कोई रहस्य है। कोई युवती इतनी सती नहीं हो सकती। कुछ गुप-चुप की बात अवश्य है।

यों ही दिन गुज़रते जाते थे। बुढिया दिन-दिन चिन्ता से धुल रही थी। उधर

सुन्दरी की मुख-छनि दिन-दिन निखरती जाती थी । कली खिलकर फूल हो रही थी। [ ३०३ ]

( २ )

एक दिन एक परदेशी गांव से होकर निकला। दस-बारह कोस से आ रहा था। नौकरी की खोज में कलकत्ते जा रहा था। रात हो गई। किसी कहार का घर पूछता हुआ गंगा के घर आया। गङ्गा ने उसका खूब आदर-सत्कार किया, उसके लिए गेहूँ का आटा लाई, घर से बरतन निकालकर दिये। कहार ने पकाया, खाया, लेटा, बातें होने लगीं। सगाई की चर्चा छिड़ गई। कहार जवान था, गौरा पर निगाह पड़ी, उसका रंग-ढंग देखा, उसको सलज्ज छवि आँखों में खुब गई। सगाई करने पर राजी हो गया। लौटकर घर चला गया, दो-चार गहने अपनी बहन के यहाँ से लाया ; गांव के बजाज से कपड़े लिए और दो-चार भाई-बन्दों के साथ सगाई करने आ पहुँचा । सगाई हो गई, यहीं रहने लगा। गङ्गा बेटी और दामाद को आँखों से दूर न कर सकती थी।

किन्तु दस ही पांच दिनों में मँगरू के कानों में इधर-उधर की बातें पड़ने लगी, बिरादरी ही के नहीं, अन्य जातिवाले भी उसके कान भरने लगे। ये बातें सुन-सुनकर मॅगरू पछताता था कि नाहक यहाँ फंँसा । पर गौरा को छोड़ने का खयाल करके उसका दिल काँप उठता था।

एक महीने के बाद मॅगरू अपनी बहन के गहने लौटाने गया। खाना खाने के समय उसका बहनोई उसके साथ भोजन करने बैठा। मॅगरू को कुछ संदेह हुआ, बहनोई से बोला तुम क्यों नहीं आते ?

बहनोई ने कहा- तुम खा लो, मैं फिर खा लूंगा।

मॅगरू---बात क्या है ? तुम खाने क्यों नहीं उठते ?

बहनोई--जब तक पंचाइत न होगी, मैं तुम्हारे साथ कैसे खा सकता हूँ। तुम्हारे लिए बिरादरी तो न छोड़ दूंगा। किसीसे पूछा न गूछा जाकर एक हरजाई से सगाई कर ली।

मँगरू चौके पर से उठ आया, मिर्जई पहनी और ससुराल चला आया। बहन खड़ी रोती रह गई।

उसी रात को वह किसी से कुछ कहे-सुने वगैर, गौरा को छोड़कर कहीं चला गया। गौरा नींद में मग्न थी। उसे क्या खबर थी कि वह रत्न जो मैंने इतनी तपस्या

के बाद पाया है, मुझे सदा के लिए छोड़े चला जा रहा है। [ ३०४ ]

( ३ )

कई साल बीत गये । मॅगरू का कुछ पता न चला। कोई पत्र तक न आया, पर गौरा वहुत प्रसन्न थी। वह मांग में सेंदुर डालती, रंग-बिरंगे के कपड़े पहनती और अधरों पर मिस्सी के धड़े जमाती । मॅगरू भजनों की एक पुरानी किताब छोड़ गया था । उसे कभी-कभी पढती और गाती । मॅगरू ने उसे हिन्दी सिखा दी थी। टटोल-- टटोलकर भजन पढ़ लेती थी।

पहले वह अकेली बैठी रहती थी। गांव की और स्त्रियों के साथ बोलते चालते उसे शर्म आती थी। उसके पास वह वस्तु न थी, जिस पर दूसरी स्त्रियां गर्व करती थीं । सभी अपने अपने पति को चरचा करती । गौरा के पति कहाँ था ? वह किसकी बातें करती ? अब उसके भी पति था। अब वह अन्य स्त्रियों के साथ इस विषय पर बातचीत करने की अधिकारिणी थी। वह भी मॅगरू की चर्चा करती, मॅगरू कितना स्नेहशील है, कितना सज्जन, कितना वीर । पति-चर्चा से उसे कभी तृप्ति ही न होती थी।

स्त्रियों पूछती-मॅगरू तुम्हे छोड़कर क्यों चले गये ?

गौरा कहती-क्या करते ? मर्द कभी ससुराल में रहता है, देश-परदेश में निकलकर चार पैसे कमाना ही तो मर्दो का काम है, नहीं तो मानमरजाद का निर्वाह कैसे हो?

जब कोई पूछता, चिट्ठी-पत्री क्यों नहीं भेजते ? तो हँसकर कहती-अपना पता ठिकाना बताते डरते हैं। जानते हैं न कि गौरा आकर सिर पर सवार हो जायगी। सच कहती हूँ, उनका पता-ठिकाना मालूम हो जाय तो यहाँ मुझसे एक दिन भी न रहा जाय । वह बहुत अच्छा करते हैं कि मेरे पास चिट्ठी-पत्री नहीं भेजते । बेचारे पर- देश मे कहां पर गिरस्ती सँभालते फिरेंगे।

एक दिन किसी सहेली ने कहा-हम न मानेंगे, तुझसे ज़रूर मॅगरू से झगड़ा हो गया, नहीं तो विना कुछ कहे-सुने क्यों चले जाते।

गौरा ने हँसकर कहा-बहन, अपने देवत्ता से भी कोई झगड़ा करता है। वह मेरे मालिक हैं, भला मैं उनसे झगा करूँगी ? जिस दिन झगड़े की नौबत आयेगी

कहीं डूब मरूंगी। मुझसे कहके जाने पाते ? मैं उनके पैरों से लिपट न जातो ? [ ३०५ ]

( ४ )

एक दिन कलकत्ते से एक आदमी आकर गंगा के घर ठहरा । पास ही के किसी गाँव में अपना घर बताया । कलकत्ते में वह मॅगरू के पड़ोस ही में रहता था। मैंगरू ने उससे गौरा को अपने साथ लाने को कहा था। दो साड़ियाँ और राह-खर्च के लिए रुपए भी भेजे थे। गौरा फूली न समाई । बूढे ब्राह्मण के साथ चलने को तैयार हो गई। चलते वक्त वह गाँव को सब औरतों से गले मिली । गंगा उसे स्टेशन तक पहुँचाने गई । सब कहते थे, बिचारी लड़की के भाग जाग गये, नहीं तो यहाँ कुढ-कुढ- कर मर जाती।

रास्ते-भर गौरा सोचती जाती थी-न-जाने वह कैसे हो गये होंगे । मूछे अच्छी तरह निकल आई होगी। परदेश में आदमी सुख से रहता है । देह भर आई होगी । बाबू साहब हो गये होंगे । मैं पहले दो-तीन दिन उनसे बोलूंगी हो नहीं। फिर पूछूँगी तुम मुझे छोड़कर क्यों चले गये ? अगर किसीने मेरे बारे में कुछ बुरा-भला कहा ही था, तो तुमने उसका विश्वास क्यों कर लिया ? तुम अपनी आँखो से न देखकर दूसरों के कहने पर क्यों गये ? मैं भली हूँ या बुरी हूँ, हूँ तो तुम्हारी, तुमने मुझे इतने दिनो रुलाया क्यो ? तुम्हारे बारे में अगर इसी तरह कोई मुझसे कहता तो क्या मैं तुमको छोड़ देती ? जव तुमने मेरी बाह पकड़ ली तो तुम मेरे हो गये। फिर तुममे लाख ऐब हों मेरी बला से, चाहे तुम तुर्क ही क्यों न हो जाओ, मैं तुम्हें छोड़ नहीं सकती, तुम क्यों मुझे छोड़कर भागे ? क्या समझते थे भागना सहज है ? आखिर झक मारकर बुलाया कि नहीं ? कैसे न बुलाते ? मैंने तो तुम्हारे ऊपर दया की कि चली आई, नहीं कह देतो कि मैं ऐसे निर्दयी के पास नहीं जाती, तो तुम आप दौड़े आते। तप करने से तो देवता भी मिल जाते हैं, आकर सामने खड़े हो जाते हैं , तुम कैसे न आते ! वह बार-बार उद्विग्न हो-होकर बूढ़े ब्राह्मण से पूछती, अब कितनी दूर है। धरती के ओर पर रहते हैं क्या ? और भी कितनी ही बातें वह पूछना चाहती थी, लेकिन संकोच-वश न पूछ सकैती थी। मन- ही-मन अनुमान करके अपने को संतुष्ट कर लेती थी। उनका मकान बड़ा-सा होगा, शहर मे लोग पक्के घरों मे रहते हैं। जब उनका साहब इतना मानता है तो नौकर भी होगा। मैं नौकर को भगा दूंगी। मैं दिन-भर पड़े-पड़े क्या किया करूँगी ?

बीच-बीच में उसे घर की याद भी आ जाती थी ! बिचारी अम्माँ रोती होंगी। [ ३०६ ]
अब उन्हें घर का सारा काम आप ही करना पड़ेगा। न जाने बकरियो को चराने ले. जाती हैं या नहीं । बिचारी दिन-भर मे में करती होंगी । मैं अपनी बकरियों के लिए: महीने-महीने रुपए भेजूंगी । जब कलकत्ते से लौटूँगी तब सबके लिए साड़ियाँ लाऊँगी। तब मैं इस तरह थोड़े ही लौटूँगी । मेरे साथ बहुत-सा असबाव होगा। सबके लिए कोई न कोई सौगात लाऊँगी। तब तक तो बहुत सी बकरियों हो जायेगी।

यही सुख-स्वप्न देखते देखते गौरा ने सारा रास्ता काट दिया ? पगली क्या जानती थी कि मेरे मन कुछ और है, कर्ता के मन कुछ और। क्या जानती थी कि बूढे ब्राह्मणों के भेष में भी पिशाच होते हैं । मन की मिठाई खाने मे मगन थी।

( ५ )

तीसरे दिन गाड़ी कलकत्ते पहुँची । गौरा की छाती धड-धड़ करने लगी। वह यहीं कहीं खड़े होंगे । अब आते ही होंगे। यह सोचकर उसने घूंघट निकाल लिया और सँभल बैठी। मगर मॅगरू वहाँ न दिखाई दिया। बूढा ब्राह्मण बोला-मॅगरू तो यहाँ नहीं दिखाई देता, मैं चारों ओर छान आया । शायद किसी काम में लग गया होगा, आने की छुट्टी न मिली होगी, मालूम भी तो न था कि हम लोग किस गाड़ी से आ रहे हैं। उनकी राह क्यों देखें, चलो, डेरे पर चलें।

दोनों गाड़ी पर बैठकर चले । गौरा कभी ताँगे पर न सवार हुई थी। उसे गर्व, हो रहा था। कि कितने ही बाबू लोग पैदल जा रहे हैं, मैं तांगे पर बैठी हूँ।

एक क्षण में गाड़ी मॅगरू के डेरे पर पहुंच गई । एक विशाल भवन था, अहाता साफ-सुथरा, सायवान मे फूलो के गमले रखे हुए थे। ऊपर चढने लगी। विस्मय, आनन्द और आशा से उसे अपनी सुधि ही न थी । सीढियों पर चढ़ते-चढते पैर दुखने लगे, यह सारा महल उनका है ! किराया बहुत देना पड़ता होगा। रुपये को तो वह कुछ समझते ही नहीं। उसका हृदय धड़क रहा था कि कहीं मॅगरू ऊपर से उतरते आ न रहे हों । सीढ़ी पर भेंट हो गई तो मैं क्या करूँगी। भगवान् करे वह पड़े. सोते हों, तब मैं जगाऊँ और वह मुझे देखते ही हड़बड़ाकर उठ बैठे। आखिर सीढियों का अन्त हुआ । ऊपर एक कमरे मे गौरा को ले जाकर ब्राह्मण देवता ने विठा दिया। यही मॅगरू का डेरा था। मगर मँगरू यहाँ भी नदारद ! कोठरी में केवल एक खाट- पड़ी हुई थी। एक किनारे दो-चार वरतन रखे हुए थे। यही उनकी कोठरी है। तो
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मकान किसी दूसरे का है, उन्होंने यह कोठरी केराये पर ली होगी। देखती हूँ चूल्हा ठढा पड़ा हुआ है, मालूम होता है रात को बाजार में पूरियाँ खाकर सो रहे होंगे। यही उनके सोने की खाट है । एक किनारे घड़ा रखा हुआ था । गौरा का मारे प्यास के ताल सूख रहा था । घड़े से पानी उँडे़लकर पिया । एक किनारे एक झाडू रखा हुआ था। गौरा रास्ते की थकी थी, पर प्रेमोल्लास में थकन कहाँ ? उसने कोठरी में झाड़ू लगाया, बरतनो को धो-धोकर एक जगह रखा । कोठरी को एक-एक वस्तु यहां तक कि उसकी फर्श और दीवारों में उसे आत्मीयता की झलक दिखाई देती थी। उस घर में भी, जहाँ उसने अपने जीवन के २५ वर्ष काटे थे, उसे अधिकार का ऐसा गौरव- युक्त आनन्द न प्राप्त हुआ था।

मगर उसे कोठरी में बैठे बैठे उसे सन्ध्या हो गई और मॅगरू का कहीं पता नहीं। अब छुट्टी मिली होगी। सांझ को सब जगह छुट्टी होती है । अब वह आ रहे होंगे। मगर बूढे बाबा ने उनसे कह तो दिया ही होगा, क्या वह अपने साहब से थोड़ी देर की छुट्टी न ले सकते थे ? कोई बात होगी, तभी तो नहीं आये।

अँधेरा हो गया । कोठरी मे दीपक न था। गौरा द्वार पर खड़ी पति की वाट देख रही थी। जीने पर बहुत-से आदमियों के चढने उतरने की आहट मिलती थी। बार-बार गौरा को मालूम होता था कि वह आ रहे हैं, पर इधर कोई न आता था ।

९ बजे बुढे बाबा आये । गौरा ने समझा मँगरू है। झपटकर कोठरी के बाहर निकल आई। देखा तो ब्राह्मण ! बोली-वह कहां रह गये ?

बूढा-उनकी तो यहाँ से बदली हो गई। दफ्तर में गया था तो मालूम हुआ कि वह कल अपने साहब के साथ यहां से कोई आठ दिन की राह पर चले गये। उन्होने साहब से बहुत हाथ-पैर जोड़े कि मुझे १० दिन की मुहलत दे दीजिए, लेकिन साहब एक न मानी । मॅगरू यहां लोगों से कह गये हैं कि घर के लोग आये तो -मेरे पास भेज देना । अपना पता दे गये हैं। कल मैं तुम्हें यहां से जहाज़ पर बैठा दूंगा। उस जहाज़ पर हमारे देश के और भी बहुत-से आदमी होंगे, इसलिए मार्ग में कोई कष्ट न होगा।

गौरा ने पूछा- कै दिन में जहाज़ पहुंँचेगा ?

बूढा-आठ-दस दिन से कम न लगेंगे, मगर घबराने की कोई बात नहीं । तुम्हें

किसी बात की तकलीफ न होगी। [ ३०८ ]

( ६ )

अब तक गौरा को अपने गांव लौटने की आशा थी। कभी-न-कभी वह अपने पति को वहाँ अवश्य खींच ले जायगी। लेकिन जहाज़ पर बैठकर उसे ऐसा मालूम हुआ कि अब फिर माता को न देखूँगी, फिर गाँव के दर्शन न होंगे, देश से सदा के लिऐ नाता टूट रहा है । वह देर तक घाट पर खड़ी रोती रही, जहाज और समुद्र देखकर उसे भय हो रहा था। हृदय दहला जाता था।

शाम को जहाज़ खुला। उस समय गौरा का हृदय एक अलक्ष्य भय से चंचल हो उठा। थोड़ी देर के लिए नैराश्य ने उस पर अपना आतङ्क जमा लिया। न-जाने किस देश जा रही हूँ, उनसे वहाँ भेंट होगी या नहीं। उन्हे कहाँ खोजती फिरूँगी, कोई पता-ठिकाना भी तो नहीं मालूम । बार-बार पछताती थी कि एक दिन पहिले क्यों न चली आई । कलकत्ते में भेंट हो जाती तो मैं उन्हे वहाँ कभी न जाने देती।

जहाज पर और भी कितने ही मुसाफिर थे, कुछ स्त्रियां भी थीं। उनमें बराबर गाली-गलौज होती रहती थी, इसलिए गौरा को उनसे बातें करने की इच्छा न होती थी। केवल एक स्त्री उदास दिखाई देती थी। रंग-ढंग से वह किसी भले घर की स्त्री मालूम होती थी । गौरा ने उससे पूछा- तुम कहाँ जातो हो बहन ?

उस स्त्री की बड़ी-बड़ी आँखें सजल हो गई । बोली, कहाँ बताऊँ बहिन, कहाँ जा रही हूँ । जहाँ भाग्य लिये जाता है, वहीं जा रही हूँ। तुम कहाँ जातो हो ?

गौरा-मैं तो अपने मालिक के पास जा रही हूँ। जहां यह जहाज रुकेगा, वहीं वह नौकर हैं। मैं कल आ जाती तो उनसे कलकत्ते में भेंट हो जाती। आने मे देर हो गई। क्या जानती थी कि वह इतनी दूर चले जायेंगे, नहीं क्यों देर करती।

स्त्री---अरे बहन, कहीं तुम्हें भी तो कोई बहकाकर नहीं लाया है ? तुम घर से किसके साथ आई हो ?

गौरा-मेरे मालिक ने तो कलकत्ता से आदमी भेजकर मुझे बुलाया था।

स्त्री-वह आदमी तुम्हारा जान-पहचान का था ?

गौरा-नहीं, उसी तरफ का एक बूढा ब्राह्मण था।

स्त्री-वह लम्बा-सा, दुबला-पतला लकलक बुड्ढा, जिसकी एक आँख में फूली पड़ी हुई है ? [ ३०९ ]गौरा-हा, हाँ वही, क्या तुम उसे जानती हो ?

स्त्री--उसी दुष्ट ने तो मेरा सर्वनाश किया है। ईश्वर करे, उसकी सातों पुस्त नरक भोगें, उसका निवंश हो जाय, कोई पानी देनेवाला न रहे, कोढी होकर मरे । मैं अपना वृत्तान्त सुनाऊँ तो तुम समझोगी झूठी है। किसी को विश्वास न आयेगा । क्या कहूँ, बस यही समझ लो कि इसके कारन मैं न घर की रह गई, न घाट की। किसीको मुंह नहीं दिखा सकती। मगर जान तो बड़ी प्यारी होती है। मिरिच के देश जा रही हूँ कि वहाँ मेहनत मजूरी करके जीवन के दिन काहूँ।

गौरा के प्राण नहों मे समा गये। मालूम हुआ जहाज़ अथाह जल में डूबा जा रहा है । समझ गई कि बूढे ब्राह्मण ने दगा की । अपने गांव में सुना करती थी कि गरीब लोग मिरिच में भरती होने के लिए जाया करते हैं। मगर जो वहाँ जाता है, फिर नहीं लौटता । हा भगवान् , तुमने मुझे किस पाप का यह दण्ड दिया ? बोली- यह सब क्यों लोगों को इस तरह छलकर मिरिच भेजते हैं ?

स्त्री-रुपये के लोभ से, और किस लिए । सुनती हूँ आदमी पीछे इन सभों को । कुछ रुपये मिलते हैं।

गौरा-तो बहन वहां हमें क्या करना पड़ेगा ?

स्त्री--मजूरी।

गौरा सोचने लगी अब क्या करूं। वह आशा-नौका, जिस पर बैठी हुई वह चली जा रही थी, टूट गई थी, और अब समुद्र को लहरों के सिवा उसकी रक्षा करनेवाला कोई न था। जिस आधार पर उसने अपना जीवन-भवन बनाया था, वह जलमग्न हो गया। अब उसके लिए जल के सिवा और कहाँ आश्रय है। उसको अपनी माता की, अपने घर की, अपने गांव की सहेलियों की याद आई और ऐसी घोर मर्म-वेदना होने लगी, मानो कोई सर्प अन्तस्तल में बैठा हुआ बार-बार डस रहा हो । भगवान् ! अगर मुझे यही यातना देनी थी, तो तुमने मुझे जन्म ही क्यों दिया था। तुम्हे दुखिया पर दया नहीं आती ! जो पिसे हुए हैं, उन्हीं को पीसते हो । करुण स्वर से बोली-तो अब क्या करना होगा बहन ?

स्त्री-यह तो वहां पहुंचकर मालूम होगा। अगर मजूरी ही करनी पड़े तो कोई बात नहीं, लेकिन अगर किसी ने कुदृष्टि से देखा तो मैंने निश्चय कर लिया है कि या तो उसी के प्राण ले लूंगी या अपने ही प्राण दे दूंगी ! [ ३१० ]यह कहते-कहते उसे अपना वृत्तान्त सुनाने को वह उत्कट इच्छा हुई, जो दुखियों को हुआ करती है। बोली--मैं बड़े घर की बेटी और उससे भी बड़े घर की बहू हूँ पर अभागिनी । विवाह के तीसरे ही साल पतिदेव को देहान्त हो गया। चित्त की कुछ ऐसी दशा हो गई कि नित्य मालूम होता, वह मुझे बुला रहे हैं। पहले तो आँख झपकते ही उनकी मूर्ति सामने आ जाती थी, लेकिन फिर तो यह दशा हो गई कि जाग्रत दशा मे भी रह रहकर उनके दर्शन होने लगे। बस यही जान पड़ता कि वह साक्षात् खड़े बुला रहे हैं। किसी से शर्म के मारे कहती न थी, पर मन में यह शङ्का होती थी कि जब उनका देहावसान हो गया है तो वह मुझे दिखाई कैसे देते हैं ? मैं इसे भ्रान्ति समझकर चित्त को शान्त न कर सकती थी। मन कहता था जो वस्तु प्रत्यक्ष दिखाई देती है, वह मिल क्यों नहीं सकती। केवल वह ज्ञान चाहिए। साधु- महात्माओं के सिवा ज्ञान और कौन दे सकता है ? मेरा तो अब भी विश्वास है कि अभी ऐसी क्रियाएँ हैं, जिनसे हम मरे हुए प्राणियों से बात-चीत कर सकते हैं, उनको स्थूल रूप में देख सकते हैं। महात्माओं की खोज में रहने लगी। मेरे यहाँ अकसर साधु-सन्त आते थे, उनसे एकान्त में इस विषय में बातें किया करती थी, पर वे लोग सदुपदेश देकर मुझे टाल देते थे। मुझे सदुपदेशों की ज़रूरत न थी। मैं वैधव्य-धर्म खूब जानती थी। मैं तो वह ज्ञान चाहती थी जो जीवन और मरण के बीच का परदा उठा दे। तीन साल तक मैं इसी खेल में लगी रही। दो महीने होते हैं, वही बूढा ब्राह्मण सन्यासी बना हुआ मेरे यहाँ जा पहुंचा। मैंने इससे भी वही भिक्षा मांगी। इस धूर्त ने कुछ ऐसा मायाजाल फैलाया कि मैं आँखें रहते हुए भी फंस गई । अब सोचती हूँ तो अपने ऊपर आश्चर्य होता है कि मुझे उसकी बातों पर इतना विश्वास क्यों हुआ। मैं पति-दर्शन के लिए सब कुछ झेलने को, सब कुछ करने को तैयार थी, इसने मुझे रात को अपने पास बुलाया। मैं घरवालों से पड़ोसिन के घर जाने का यहाना करके इसके पास गई। एक पीपल से इसकी धूई जल रहो थी। उस विमल चादनी मे यह धूर्त जटाधारी ज्ञान और योग का देवता-सा मालूम होता था। मैं आकर धूई के पास खड़ी हो गई। उस समय यदि बाबाजी मुझे आग में कूद पड़ने की आज्ञा देते तो मैं तुरन्त कूद पङती । इसने मुझे बड़े प्रेम से बैठाया और मेरे सिर पर हाथ रखकर न जाने क्या कर दिय कि मैं बेसुध हो गई ; फिर मुझे कुछ नहीं: मालूम कि मैं कहाँ गई, क्या हुआ । जव मुरो होश आया तो मैं रेल पर सवार थी।

२१ [ ३११ ]
जी में आया चिल्लाऊँ, पर यह सोचकर कि अब अगर गाड़ी रुक भी गई, और मैं उतर भी पड़ी तो घर में घुसने न पाऊँगी, मैं चुपचाप बैठी रह गई। मैं परमात्मा की दृष्टि में निर्दोष थी, पर संसार की दृष्टि में तो कलकित हो चुकी थी। रात को किसी युवती का घर से निकल जाना कलक्ति करने के लिए काफी था। जब मुझे मालूम हो गया कि सब मुझे मिर्च के टापू में भेज रहे है तो मैंने जरा भी आपत्ति नहीं की। मेरे लिए अब सारा संसार एक-सा है। जिसका संसार में कोई न हो, उसके लिए देश-परदेश दोनो बराबर हैं । हाँ, यह पक्का निश्चय कर चुकी हूँ कि भरते दम तक अपने सत की रक्षा करूंगी। विधि के हाथ में मृत्यु से बढकर कोई यातना नहीं । विधवा के लिए मृत्यु का क्या भय । उसका तो जीना और मरना दोनों बराबर है। बल्कि मर जाने से जीवन की विपत्तियों का तो अन्त हो जायगा ।

गौरा ने सोचा, इस स्त्री में कितना धैर्य और साहस है। फिर मैं क्यों इतनी कातर और निराश हो रही हूँ। जब जीवन की अभिलाषाओं का अन्त हो गया तो जीवन के अन्त का क्या डर । बोली-बहन, हम और तुम एक ही जगह रहेगी। मुझे तो अब तुम्हारा ही भरोसा है।

स्त्री ने कहा- भगवान का भरोसा रखो और मरने से मत डरो।

सघन अन्धकार छाया हुआ था । उपर काला आकाश था, नीचे काला जल औरा आकाश की ओर ताक रही थी। उसको सगिनी जल की ओर। उसके सामने आकाश के कुसुम थे, इसके आगे अनन्त, अखण्ड, अपार अन्धकार था !

जहाज़ से उतरते ही एक आदमी ने यात्रियों के नाम लिखने शुरू किये। इसका पहनाव तो अग्रेजी था, पर वह बातचीत से हिन्दुस्तानी मालूम होता था। गौरा सिर झुकाये अपनी सगिनी के पीछे खड़ी थी। उस आदमी की आवाज़ सुनकर वह चौंक पड़ी। उसने दबी आँखों से उसकी ओर देखा। उसके समस्त शरीर में सनसनी-सी दौड़ गई । क्या स्वप्न तो नहीं देख रही हूँ ? आँखों पर विश्वास न आया , फिर उस पर निगाह डाली । उसकी छाती वेग से धड़कने लगी। पैर थर-थर कांपने लगे। ऐसा मालूम होने लगा मानो चारो ओर जल-ही-जल है, और मैं उसमें बही जा रही हूँ। उसने अपनी सगिनी का हाथ पकड़ लिया, नहीं तो ज़मीन पर गिर पड़ती। उसके सम्मुख वही पुरुष खड़ा था, उसका प्राणाधार था और जिससे इस जीवन में भेंट होने की उसे लेशमात्र भी आशा न थी । यह मॅगरू था, इसमें जरा भी सन्देह न था। हाँ
[ ३१२ ]उसकी सूरत बदल गई थी । यौवन-काल का वह कान्तिमय साहस, सदय छवि नाम को भी न थी। बाल खिचड़ी हो गये थे, गाल पिचके हुए, लाल आँखों से कुवासना और कठोरता झलक रही थी। पर था वह मॅगरू । गौरा के जी में प्रबल इच्छा हुई कि स्वामी के पैरों से लिपट जाऊँ, चिल्लाने को जी चाहा, पर संकोच ने मन को रोका । बूढे ब्राह्मण ने बहुत ठीक कहा था। स्वामी ने अवश्य मुझे बुलाया था और मेरे आने से पहले यहां चले आये। उसने अपनी सगिनी के कान मे कहा-बहन, तुम उस ब्राह्मण को व्यर्थ हो बुरा कह रही थीं । यहो तो वह हैं जो यात्रियों के नाम लिख रहे हैं।

स्त्री-सच, खूब पहचानती हो ?

गौरा-बहन, क्या इसमें भी धोखा हो सकता है ?

स्त्री-तत्ब तो तुम्हारे भाग जग गये । मेरी भी सुध लेना।

गौरा-भला बहन, ऐसा भी हो सकता है कि यहां तुम्हें छोड़ दूं।

मॅगरु यात्रियों से बात-बात पर बिगड़ता था, बात-बात पर गालियां देता था। कई आदमियों को ठोकर मारे और कई को केवल अपने गाँव का ज़िला न बता सकने के कारण धक्का देकर गिरा दिया। गौरा मन हो-मन गड़ी जाती थी। साथ ही अपने स्वामी के अधिकार पर उसे गर्व भी हो रहा था। आखिर मैंगरू उसके सामने अकर खड़ा हो गया और कुचेष्टा-पूर्ण नेत्रों से देखकर बोला-तुम्हारा क्या नाम है ?

गौरा ने कहा --गौरा।

मॅगरु चौंक पड़ा, फिर बोला--घर कहाँ है ?

गौरा ने कहा-मदनपुर, जिला बनारस ।

यह कहते-कहते उसे हँसी आ गई। मगरू ने अनकी उसकी ओर ध्यान से देखा, तब लपककर उसका हाथ पकड़ लिया और बोला-गौरा ! तुम यहाँ कहाँ ? मुझे पहचानतो हो

गौरा रो रही थी, मुंह से बात न निकली।

मॅगरू फिर बोला-तुम यहाँ कैसे आई ?

गौरा खड़ी हो गई, आंसू पोछ डाले ओर मॅगरू की और देखकर बोलो-तुम्ही ने तो बुला भेजा था।

मैंगरू-मैंने ! मैं तो सात साल से यहाँ हूँ। [ ३१३ ]गौरा- तुमने उस बूढे ब्राह्मण से मुझे लाने को नहीं कहा था ?

मगरू-कह तो रहा हूँ मैं सात साल से यहाँ हूँ। और मरने पर ही यहाँ से जाऊँगा। भला तुम्हें क्यों बुलाता ।

गौरा को मॅगरू से इस निष्ठुरता की आशा न थी। उसने सोचा, अगर यह सत्य भी हो कि इन्होंने मुझे नहीं बुलाया, तो भी इन्हें मेरा यो अपमान न करना चाहिए था। क्या यह समझते हैं कि मैं इनकी रोटियों पर आई है। यह तो इतने ओछे स्वभाव के न थे । शायद दरजा पाकर इन्हे मद हो गया है। नारि-सुलभ अभिमान से गरदन उठाकर उसने कहा-तुम्हारी इच्छा हो तो अब से लौट जाऊँ। तुम्हारे ऊपर भार बनना नहीं चाहती।

मॅगरू कुछ लज्जित होकर बोला-अब तुम यहाँ से लौट नहीं सकती गौरा । यहाँ आकर विरला ही कोई लौटता है:

यह कहकर वह कुछ देर चिन्ता में मग्न खड़ा रहा, मानो संकट में पड़ा हुआ हो कि क्या करना चाहिए। उसकी कठोर सुखाकृति पर दीनता का रंग झलक पड़ा। तब कातर स्वर से बोला-जब आ गई हो तो रहो। जैसी कुछ पड़ेगी, देखी जायगी।

गौरा-जहाज़ फिर कब लौटेगा ?

मॅगरू-तुम यहाँ से पाँच बरस के पहले नहीं जा सकती ।

गौरा-क्यों, क्या कुछ जबरदस्ती है।

मँगरू-हाँ, यहां का यही हुक्म है।

गौरा-तो फिर मैं अलग मजूरी करके अपना पेट पालूंँगी।

मँगरू ने सजल नेत्र होकर कहा-~-जबतक में जीता हूँ, तुम मुझसे अलग नहीं रह सकती।

गौरा-तुम्हारे ऊपर भार बनकर न रहूंगी।

मँगरू--मैं तुम्हे भार नहीं समझता गौरा, लेकिन यह जगह तुम-जैसी देवियों के रहने लायक नहीं है, नहीं तो अब तक मैंने तुम्हें कब का बुला लिया होता। वहीं बूढ़ा आदमी जिसने तुम्हे बहकाया, मुझे घर से आते समय पटने में मिल गया और झांसे देकर मुझे यहाँ भरती करा दिया। तबसे यहीं पड़ा हुआ हूँ। चलो, मेरे घर में रहो ; वहाँ बातें होंगी। यह दूसरी औरत कौन है ?

गौरा- यह मेरी सखी है, इन्हे भी वही बूढा बहका लाया है। [ ३१४ ]मगरू--यह तो किसी कोठी में जायेगी ? इन सब आदमियों को बांट होगी। जिसके हिस्से में जितने आदमी आयेंगे, उतने हर एक कोठी में भेजे जायेंगे।

गौरा-यह तो मेरे साथ रहना चाहती हैं ।

मॅगरू-अच्छो बात है, उन्हे भी लेतो चलो।

यात्रियों के नाम तो लिखे ही जा चुके थे । मँगरू ने उन्हे एक चपरासी को सौपकर दोनों औरतों के साथ घर की राह ली। दोनों ओर सघन वृक्षों की कतारें थीं । जहाँ तक निगाह जाती थी, ऊख-ही ऊख दिखाई देती थी। समुद्र की ओर से शीतल, निर्मल वायु के झोंके आ रहे थे। अत्यन्त सुरम्ब दृश्य था। पर मॅगरू की निगाह उस ओर न थी। वह भूमि की ओर ताकता, सिर झुकाये, सन्दिग्ध चाल से चला जा रहा था । मानो मन-ही-मन कोई समस्या हल कर रहा है।

थोड़ी ही दूर गये थे कि सामने से दो आदमी आते हुए दिखाई दिये। समीप आकर दोनों रुक गये और एक ने हँसकर कहा-मॅगरू, इनमें से एक हमारी है।

दूसरा वोला-और दूसरी मेरी।

मॅगरू का चेहरा तमतमा उठा था । भीषण क्रोध से कांपता हुआ वोला- यह दोनों मेरे घर की औरते हैं। समझ गये ?

इन दोनों ने ज़ोर से कहकहा मारा और एक ने गौरा के समोप आकर उसका हाथ पकड़ने की चेष्टा करके कहा- यह मेरी है। चाहे तुम्हारे घर की हो, चाहे बाहर की । वचा हमें चकमा देते हो।

मॅगरू-कासिम, इन्हे मत छेड़ो, नहीं तो अच्छा न होगा । मैने कह दिया, मेरे घर की औरतें हैं।

मँगरू की आंखों से अग्नि-ज्वाला-सी निकल रही थी । वह दोनों उस के मुख का भाव देखकर कुछ सहम गये और समझ लेने की धमकी देकर आगे वढे । किन्तु मैंगरू के अधिकार-क्षेत्र से बाहर पहुँचते ही एक ने पीछे से ललकारकर कहा-देखें, कहाँ लेके जाते हो।

मंगरू ने उधर ध्यान न दिया। जरा कदम बढाकर चलने लगा, जैसे संध्या के एकान्त में हम कनिस्तान के पास से गुजरते हैं, हमे पग-पग पर यह शंका होती है कि कोई शब्द कान मे न पड़ जाय, कोई सामने आकर खड़ा न हो जाय, कोई जमीन के नीचे से कफन ओढे उठ न खड़ा हो। [ ३१५ ]गौरा ने कहा-यह दोनो बड़े सोहदे थे।

मँगरू-और मैं किसलिए कह रहा था कि यह जगह तुम्-जैसी स्त्रियों के रहने लायक नहीं है।

सहसा दाहिनी तरफ से एक अग्रेज घोड़ा दौड़ाता हुआ आ पहुँचा और मँगरू से बोला- वेल जमादार, यह दोनों औरतें हमारी कोठी में रहेगा। हमारे कोठी में कोई औरत नहीं है।

मँगरू ने दोनों औरतों को अपने पीछे कर लिया और सामने खड़ा होकर बोला- साहब, यह दोनों हमारे घर की औरते हैं।

साहब ~ओ हो ! तुम झूठा आदमी। हमारे कोठी में कोई औरत नहीं और तुम दो ले जायगा। ऐसा नहीं हो सकता । (गौरा की ओर इशारा करके ) इसको हमारे कोठी पर पहुंचा दो।

मँगरू ने सिर से पैर तक कांपते हुए कहा-~-ऐसा नहीं हो सकता ।

मगर साहब आगे बढ गया था, उसके कान मे बात न पहुंची। उसने हुक्म दे दिया था और उसकी तामील करना जमादार का काम था ।

शेष मार्ग निर्विन समाप्त हुआ । आगे मजूरों के रहने के मिट्टी के घर थे। द्वारों पर स्त्री, पुरुष जहां-तहाँ बैठे हुए थे। सभी इन दोनों स्त्रियों की ओर घूरते थे और आपस में इशारे करके हँसते थे। गौरा ने देखा उनमें छोटे-बड़े का लिहाज़ नहीं है, न किसीकी आँख में शर्म है।

एक भदैसल औरत ने हाथ पर चिलम पीते हुए अपनी पड़ेसिन से कहा-चार दिन की चांदनी, फिर अन्धेरा' पाख ।

दूसरी अपनी चोटी Dथती हुई वोली-कलोर हैं न !

( ८ )

मॅगरू दिन-भर द्वार पर बैठा रहा, मानो कोई किसान अपने मटर के खेत की रखवाली कर रहा हो। कोठरी मे दोनों स्त्रियाँ बैठी अपने नसीबों को रो रही थीं। इतनी ही देर में दोनों को यहां की दशा का परिचय हो गया था। दोनो भूखी-प्यासी बैठो थीं। यहाँ का रंग देखकर भूख-प्यास सब भाग गई थी।

रात के दस बजे होगे कि एक सिपाही ने आकर मैंगरू से कहा- चलो, तुम्हें जण्ट साहव बुला रहे हैं। [ ३१६ ]मॅगरू ने बैठे-बैठे कहा-देखो नब्बी, तुम भी हमारे देश के आदमी हो । कोई मौका पड़े तो हमारी मदद करोगे न ? जाकर साहब से कह दो, मॅगरू कहीं गया है। बहुत होगा जुरबाना कर देंगे।

नब्बी-न भैया, गुस्से मे भरा बैठा है, पिये हुए है, कहीं मार चले तो वस.. यहाँ चमड़ा इतना मज़बूत नहीं है।

मॅगरू-अच्छा तो जाकर कह दो, नहीं आता।

नब्बी -मुझे क्या, जाकर कह दूंगा, पर तुम्हारो खैरियत नहीं है।

मैंगरू ने जरा देर सोचकर लकड़ी उठाई और नब्बी के साथ साहब के बंगले चला । यह वही साहब थे, जिनसे आज मॅगरू से भेंट हुई थी । मॅगरू जानता था कि साहब से विगाड़ करके यहां एक क्षण भी निर्वाह नहीं हो सकता । जाकर साहब के सामने खड़ा हो गया । साहब ने दूर ही से डाटा, वह औरत कहाँ है ? तुम उसे अपने घर में क्यों रखा है?

मॅगरू-हजूर वह मेरी ब्याहता औरत है।

साहब-अच्छा, वह दूसरा कौन है ?

मँगरू-वह मेरी सगी बहन है हुजूर ।

साहब--हम कुछ नही जानता। तुमको लाना पड़ेगा। दो में से कोई, दो में से कोई।

मगरू पैरों पर गिर पड़ा और रो-रोकर अपनी सारो रामकहानी सुना गया। पर साहब ज़रा भी न पसीजे । अन्त में वह बोला- हुजूर, वह दूसरी औरतों की तरह नहीं हैं। अगर यहाँ आ भी गई, तो प्राण दे देगी।

साहब ने हँसकर कहा--ओ ! जान देना इतना आसान नहीं है।

नब्बी--मॅगरू अपनी दांव रोते क्यों हो? तुम हमारे घर में नहीं घुसे थे ? अब भी जव घात पाते हो जा पहुंचते हो, अब रोते क्यों हो ?

एजेण्ट-ओ, यह बदमाश है । अभी जाकर लाओ, नहीं तो हम तुमको हण्टरों से पीटेगा।

मॅगरू-हजूर जितना चाहें पीट लें। मगर मुझसे वह काम करने को न कहें, जो मैं जीते-जी नहीं कर सकता।

एजेण्ट-हम एक सौ हण्टर मारेगा। [ ३१७ ]मगरू-हजूर एक हजार हण्टर मार लें, लेकिन मेरे घर की औरत से न बोले।

एजेण्ट नशे में चूर था। हण्टर लेकर मैंगरू पर पिल पड़ा और लगा सड़ासड़ जमाने । दस-बारह कोडे तो मॅगरू ने धैर्य के साथ सहे, फिर हाय-हाय करने लगा। देह की साल फट गई थी और मास पर जब चाबुक पड़ता था तो बहुत ज़ब्त करने पर भी कण्ठ से आर्त्त-ध्वनि निकल आती थी और अभी एक सौ में कुल पन्द्रह चावुक पड़े थे।

रात के दस बज गये थे। चारों और सन्नाटा छाया था और उस नौरव अंधकार में मँगरू का करुण-विलाप किसी पक्षी की भांति आकाश में मंडला रहा था। वृक्षों के समूह भी हत्-बुद्धि-से खडे मौन रोदन की मूर्ति बने हुए थे। यह पाषाणहृदय,लम्पट विवेक-शून्य जमादार इस समय एक अपरिचित स्त्री के सतीत्व की रक्षा करने के लिए अपने प्राण तक देने पर तैयार था, केवल इस नाते कि यह उसके पत्नी की सगिनी थी। वह समस्त संसार को नज़रों में गिरना गवारा कर सकता था, पर अपनी पत्नी की भक्ति पर अखण्ड राज्य करना चाहता था। इसमें अणुमात्र की कमी भी उसके लिए असह्य थी। उरा अलौकिक भक्ति के सामने उसके जीवन का क्या मूल्य था?

× × × ×

ब्राह्मणी तो ज़मीन पर ही सो गई थी, पर गौरा बैठो पति की बाट जोह रही थी। अभी तक वह उससे कोई बात न कह सकी थी। सात वर्षों की विपत्ति कथा कहने और सुनने के लिए बहुत समय की ज़रूरत थी, और रात के सिथा वह समय फिर कब मिल सकता था। उसे ब्राह्मणी पर कुछ क्रोध-सा आ रहा था कि यह क्यों मेरे गले का हार हुई। इसके कारण तो वह घर में नहीं आ रहे हैं।

यकायक वह किसीका रोना सुनकर चौंक पड़ी। भगवान् , इतनी रात गये कौन दुख का मारा रो रहा है। अवश्य कोई कहीं भर गया है। वह उठकर द्वार पर आई और यह अनुमान करके कि मॅगरू यहाँ बैठा हुआ है, बोली-~वह कौन रो रहा है । जरा देखो तो। लेकिन जब कोई जवाब न मिला तो वह स्वयं कान लगाकर सुनने लगी । सहसा उसका कलेजा धक्-से हो गया। यह तो उन्हीं की आवाज है। अब आवाज साफ
[ ३१८ ]सुनाई दे रही थी । मॅगरू की आवाज़ थी । वह द्वार के बाहर निकल आई। उसके सामने एक गोली के टप्पे पर एजेण्ट का बंगला था। उसी तरफ से आवाज़ आ रही- थी। कोई उन्हे मार रहा है। आदमी मार पड़ने ही पर इस तरह रोता है । मालूम होता है, वही साहब उन्हें मार रहा है। वह वहाँ खड़ी न रह सकी, पूरी शक्ति से उस बॅगले की और दौड़ी, रास्ता साफ था । एक क्षण में वह फाटक पर पहुंच गई। फाटक बन्द था। उसने जोर से फाटक पर धक्का दिया, लेकिन वह फाटक न खुला और कई बार ज़ोर-जोर से पुकारने पर भी कोई बाहर न निकला तो वह फाटक के जंगलों पर पैर रख के भीतर कूद पड़ी और उस पार जाते ही उसने एक रोमाचकारी दृश्य देखा । मॅगरू नगेवदन बरामदे मे लदा था और एक अंग्रेज उसे हण्टरों से मार रहा था। गौरा की आँखो के सामने अंधेरा छा गया। वह एक छलांग मे साह्य के सामने जाकर खड़ी हो गई और मॅगस्त को अपने अक्षय-प्रेम-सवल हाथों से ढककर बोली- सरकार, दया करो, इनके बदले मुझे जितना चाही मार लणे, पर इनको छोड़ दो।

एजेण्ट ने हाथ रोक लिया ओर उन्मत्त को भौति गौरा की ओर कई कदम आकर वोला-हम इसको छोड़ दे तो तुम यहाँ मेरे पास रहेगा।

मँगरु के नथने फड़कने लगे। यह पासर, नीच अब मेरी पत्नी से इस तरह की बात कर रहा है । अब तक वह जिस अमूल्य रत्न की रक्षा के लिए इतनी यातनाएँ सह रहा था, वही वस्तु साहब को हाथ मे चली जा रही है, यह असह्य था। उसने चाहा कि लपककर साहब की गरदन पर चढ़ बैठूँ, जो कुछ होना है हो जाय, यह अपमान सहने के बाद जीकर हो क्या कसँगा? लेकिन नब्बी ने उसे तुरन्त पकड़ लिया और कई आदमियों को बुलाकर उसके हाथ-पांच बांध दिये। मॅगरू भूमि पर छटपटाने लगा।।

गौरा रोती हुई साहब के पैरों पर गिर पड़ी और बोली-हजूर, इन्हें छोड़ दें, मुक पर दया करें।

एजेण्ट-~तुम हमारे पास रहेगा?

गौरा ने खून का चूंट पीकर कहा-हाँ रहूँगी।

( ९ )

बाहर मॅगरू बरामदे में पड़ा कराह रहा था। उसकी देह में सूजन थी और घावों
[ ३१९ ]
में जलन, सारे अंग जकड़ गये थे। हिलने की भी शक्ति न थी। हवा घावों में शर के समान चुभती भी, लेकिन यह सारी व्यथा वह सह सकता था। असह्य यह था कि साहब गोरा के साथ इसी घर मे विहार कर रहा है और मैं कुछ नहीं कर सकता। उसे अपनी पीड़ा भूल-सी गई थी, कान लगाये सुन रहा था कि उनकी बातों की भनक कान में पड़ जाय, देखू क्या वातें हो रही है। गौरा अवश्य चिल्लाकर भागेगी और साहव उसके पीछे दौड़ेगा। अगर मुझसे उठा जाता तो उस वक्त बचा को खोदकर गाड़ ही देता । लेकिन बड़ी देर हो गई, न तो गौरा चिल्लाई, न बॅगले से निकलकर भागी। वह उस सजे-सजाये कमरे में साहब के साथ बैठी सोच रही थी क्या इसमें तनिक भी दया नहीं है ? मंगरू का पीला-क्रन्दन सुन-सुनकर उसके हृदय के टुकड़े हुए जाते थे। क्या इसके अपने भाई-बद, मां-बहन नहीं हैं ? माता यहाँ होती तो उसे इतना अत्याचार न करने देती। मेरी अम्माँ लड़कों पर कितना बिगड़ती थीं, जब वह किसीको पेड़ पर देले चलाते देखती थीं । पेड़ में भी प्राण होते हैं। क्या इसकी माता इसे एक आदमी के प्राण लेते देखकर भी इसे मना न करतो । साहब शराब पी रहा था और गौरा गोश्त काटने का छुरा हाथ में लिये खेल रही थी।

सहसा गौरा की निगाह एक चित्र की ओर गई। उसमें एक माता बैठी हुई थी। गौरा ने पूछा---साहब, यह किसकी तसवीर है। साहब ने शराब का ग्लास मेज़ पर रखकर कहा...और वह हमारे खुदा की माँ मरियम है।

गौरा-बड़ी अच्छी तसवीर है । क्यों साहब, तुम्हारी माँ जीती हैं न!

साहब-वह मर गया। हम जब यहाँ आया तो वह बीमार हो गया। हम उसको देख भी नहीं सका।

साहब के मुख-मण्डल पर करुणा की झलक दिखाई दी।

गौरा बोली-तब तो उन्हे बड़ा दुख हुआ होगा तुम्हें अपनी माता का भी प्यार नहीं था। वह रो-रोकर मर गई और तुम देखने भी न गये। तभी तुम्हारा दिल इतना कड़ा है।

साहब-नहीं, नहीं , हम अपनी मामा को बहुत चाहता था। वैसा दुनिया में न होगा। हमारा बाप हमको बहुत छोटा-सा छोड़कर मर गया था। मां ने कोयले की खान में मजूरी करके हमको पाला ।

गौरा-तव तो वह देवी थीं। इतनी गरीबो का दुःख सहकर भी तुम्हे दूसरे
[ ३२० ]
पर तरस नहीं आती। क्या वह दया की देवी तुम्हारी बेदरदी देखकर दुखी न होती होंगी । उनकी कोई तसवीर तुम्हारे पास है ?

साहब -ओ, हमारे पास उनके कई फोटो हैं। देखो, वह उन्हींको तसवीर है, वह दीवाल पर!

गौरा ने समीप जाकर तसवीर देखी और आकर करुण-स्वर में बोलो-सचमुच देवी थीं, जान पड़ता है दया की देवी हैं। वह तुम्हें कभी मारती थी कि नहीं ? मैं तो जानती हूँ वह कभी किसी पर न विगढ़ती रही होगी। बिलकुल दया की मूर्ति हैं।

साहब--ओ, मामा हमको कभी नहीं मारता था । वह बहुत गरीब था, पर अपनी कमाई में कुछ-न-कुछ जरूर खैरात करता था। किसी बे-बाप के चालक को देखकर उसकी आँखों में आंसू भर आता था। वह बहुत ही दयावान था ।

गौरा ने तिरस्कार के स्वर में कहा-और उसी देवी के पुत्र होकर तुम इतने निर्दयी हो । क्या वह होती तो तुम्हे किसी को इस तरह हत्यारों को भौति मारने देती ? वह सरग मे रो रही होंगी। सरग-नरक तो तुम्हारे यहां भी होगा। ऐसी देवी कैसे हो गये।

गौरा को ये बातें कहते हुए ज़रा भी भय न होता था । उसने अपने मन में एक दृढ़ सकल्प कर लिया था और अब उसे किसी प्रकार का भय न था । जान से हाथ धो लेने का निश्चय कर लेने के बाद भय को छाया भी नहीं रह जाती, किन्तु वह हृदय- शून्य अंग्रेज इन तिरस्कारों पर आग हो जाने के बदले और भी नम्र होता था। गौरा मानवी भावों से कितनी ही अनभिज्ञ हो, पर इतना जानती थी कि अपनी जननी के लिए प्रत्येक हृदय मे, चाहे वह साधु का हो या कसाई का, आदर और प्रेम का एक कोना सुरक्षित रहता है। ऐसा भी कोई अभागा प्राणी है, जिसे मातृ-स्नेह की स्मृति थोड़ी देर के लिए रुला न देती हो, उसके हृदय के कोमल भाव को जगा न देती हो ?

साहब की आँखें डबडबा गई थीं । सिर झुकाये बैठा रहा। गौरा ने फिर उसी ध्वनि में कहा-तुमने उनकी सारी तपस्या धूल में मिला दी। जिस देवी ने मर- मरकर तुम्हारा पालन किया, उसीको मरने के पीहे तुम इतना कष्ट दे रहे हो? क्या इसीलिए माता अपने पुत्र को अपना रक्त पिला-पिलाकर पालती है ? अगर वह बोल सकतीं तो क्या चुप बैठी रहती, तुम्हारे हाथ पकड़ सकती तो न पकड़ती ? मैं तो समझती हूँ, वह जीती होती तो इस वा विष खाकर मर जाती। [ ३२१ ]साहब अब जब्त न कर सके। नशे में क्रोध की भांति ग्लानि का वेगभी ही में उठ आता है। दोनों हाथों से मुँह छिपाकर साहब ने रोना शुरू किया,इतना रोया कि हिचकी बंध गई । माता के चित्र के सम्मुख जाकर वह कुछ देर खड़ा रहा, मानो माता से क्षमा मांग रहा हो। तब आकर आर्द्र-कण्ठ से हमारे मामा को अब कैसे शान्ति मिलेगा । हाय-हाय ! हमारे सबब से उसको में भी सुख नहीं मिला । हम कितना अभागा है!

गौरा-सभी जरा देर में तुम्हारा मन बदल जायगा और तुम फिर दूसरों यही अत्याचार करने लगोगे।

साहब --- नई, नई, अब हम मामा को कभी दुख नहीं देगा। हम अभी को अस्पताल भेजता है।

( १० )

रात ही को मँगरू अस्पताल पहुंचा दिया गया। एजेण्ट खुद उसको पहुंचा आया। गौरा भी उसके साथ थी । मैंगरू को ज्वर हो आया था, बेहोश पड़ा हुआ

मँगरू ने तीन दिन आखें न खोली और गौरा तीनों दिन उसके पास बैठो ,एक क्षण के लिए भी वहाँ से न हटी। एजेण्ट भी कई बार हाल-चाल पूछने जाता और हर मरतबा गौरा से क्षमा मांगता ।

चौथे दिन मॅगरू ने आँखें खोली तो देखा गौरा सामने बैठी हुई है । गौरा आखें खोलते देखकर पास आ खड़ी हुई और बोली-अव कैसा जी है ?

मॅगरू ने कहा---तुम यहाँ कब आई ?

गौरा-मैं तो तुम्हारे साथ ही यहाँ आई थी, तब से यहीं हूँ।

मॅगरू-साहब के बंगले मे क्या जगह नहीं है ?

गौरा-अगर बॅगले की चाह होती तो सात समुद्र पार तुम्हारे पास क्यों -

मॅगरू. आकर कौन-सा सुख दे दिया है। तुम्हें यही करना था तो मुझे क्यों न जाने दिया ?

गौरा ने झुंझलाकर कहा-तुम इस तरह की बातें मुझसे न करों । ऐसी से मेरी देह में आग लग जाती है।

मंगरू ने मुँह फेर लिया, मानो उसे गौरा की बात पर विश्वास नहीं आया

दिन-भर गौरा मॅगरू के पास बे दाना-पानी खड़ी रही । गोरा ने कई बार
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बुलाया, लेकिन वह चुप्पी साधे रह गया। यह सदेह-युक्त निरादर कोमलहृदय गौरा के लिए असह्य था। जिस पुरुष को वह देव-तुल्य समझती थी, उसके प्रेम से वंचित होकर वह कैसे जीवित रह सकती थी ? यही प्रेम उसके जीवन का आधार था। उसे खोकर अब वह अपना सर्वस्व खो चुकी थी।

आधी रात से अधिक बीत, चुकी थी। मॅगरू बेखबर सोया हुआ था। शायद वह कोई स्वप्न देख रहा था । गौरा ने उसके चरणों पर सिर रखा और अस्पताल से निकली। मॅगरू ने उसे परित्याग कर दिया था । वह भी उसका परित्याग करने जा रही थी।

अस्पताल के पूर्व दिशा मे एक फर्लाङ्ग पर एक छोटी-सी नदी बहती थी। गौरा उसके कगार पर खड़ी हो गई। अभी कई दिन पहले वह अपने गांव में आराम से पड़ी हुई थी। उसे क्या मालूम था कि जो वस्तु इतनी मुश्किल से मिल सकती है, वह इतनी आसानी से खोई भी जा सकती है। उसे अपनी मां को, अपने घर की, अपनी सहेलियों को, अपने बकरी के बच्चों की याद आई। वह सब कुछ छोडकर इसीलिए यहाँ आई थी ! पति के ये शब्द - 'क्या साहब के गले में जगह नहीं है' उनके मर्मस्थान मे वाणों के समान चुभे हुए थे। यह सब मेरे ही कारण तो हुआ ? मैं न रहूँगी तो वह फिर आराम से रहेंगे। सहसा उसे ब्राह्मणी की याद आ गई। उस दुखिया के दिन यहां कैसे कटेंगे । चलकर साहब से कह दूँ कि उसे या तो उसके घर भेज दें या किसी पाठशाला में काम दिला दें।

वह लौटा ही चाहती थी कि किसीने पुकारा--गौरा ! गौरा ॥

वह मॅगरू का करुण-कम्पित स्वर था। वह चुपचाप खड़ी हो गई। मंगरू ने फिर पुकारा-

गौरा । गौरा ! तुम कहाँ हो, मैं ईश्वर से कहता हूँ कि-

गौरा ने और कुछ न सुना। वह धम से नदी में कूद पड़ी। बिना अपने जीवन का अन्त किये वह स्वामी की विपत्ति का अन्त न कर सकती थी।

धमाके की आवाज़ सुनते ही मँगरू भी नदी में कूदा। वह अच्छा तैराक था। मगर कई बार गोते मारने पर भी गौरा का कहीं पता न चला ।

प्रात काल दोनों लाशें साथ-साथ नदी में तैर रही थीं। जीवन यात्रा में उन्हें यह चिर-सग कभी न मिला था । स्वर्ग-यात्रा मे दोनों साथ-साथ जा रहे थे।।

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