मानसरोवर २  (1946) 
द्वारा प्रेमचंद

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लॉटरी

जल्दी से मालदार हो जाने की हवस किसे नहीं होती ? उन दिनों जब लाटरो के टिकट आये, तो मेरे दोस्त विक्रम के पिता, चाचा, अम्माँ और भाई सभी ने एक-एक टिकट खरीद लिया । कौन जाने, किसकी तकदीर जोर करे ? किसी के नाम आये, रुपया रहेगा, तो घर में ही।

मगर विक्रम को सब्र न हुआ। औरों के नाम रुपये आयेंगे, फिर उसे कौन पूछता है। बहुत होगा दस-पाँच हजार उसे दे देंगे। इतने रुपयों में उसका क्या होगा ? उसकी जिन्दगी में बड़े-बड़े मसूबे थे। पहले तो उसे सम्पूर्ण जगत् की यात्रा करनी थी, एक-एक कोने की। पीरू और ब्राजील और टिम्बकटू और होनोलुल, यह सब उसके प्रोग्रास मे थे । वह आँधी की तरह महीने दो महीने उड़कर लौट आनेवालों में न था । वह एक-एक स्थान में कई-कई दिन ठहरेकर वहां के रहन-सहन, रीति-रिवाज़ आदि का अध्ययन करना और संसार-यात्रा का एक वृहद् ग्रन्थ लिखना चाहता था। फिर उसे एक बहुत बड़ा पुस्तकालय बनवाना था, जिसमें दुनिया भर की उत्तम रचनाएँ जमा की जाये । पुस्तकालय के लिये वह दो लाख खर्च करने को तैयार था, और बॅगला और कार और फर्निचर तो मामूली बातें थीं। पिता या चचा के नाम रुपये आये, तो पांच हजार से ज्यादा का डौल नहीं ; अम्माँ के नाम आये, तो बीस हजार मिल जायेंगे, लेकिन भाई साहब के नाम आ गये, तो उसके हाथ धेला भी न लगेगा। वह आत्माभिमानी था। घरवालों से भी खैरात या पुरस्कार के रूप में कुछ लेने की बात उसे अपमान-सी लगती थी। कहा करता था-भाई, किसीके सामने हाथ फैलाने से तो किसी गड्ढे में डूब मरना अच्छा है । जब आदमी अपने लिए संसार में कोई स्थान न निकाल सके, तो यहाँ से प्रस्थान कर जाय !

वह बहुत बेकरार था। घर में लाटरी-टिकट के लिए उसे कौंन रुपये देगा और वह मांगे भी तो कैसे। उसने बहुत सोच-विचारकर कहा-क्यो न हम-तुम साझे में एक टिकट ले ले। [ २६८ ]तजवीज मुझे भी पसंद आई । मैं उन दिनों स्कूल-मास्टर था। बीस रुपये मिलते थे। उनमे बड़ी मुश्किल से गुज़र होती थी। दस रुपये का टिकट खरीदना मेरे लिए सुफेद हाथी खरीदना था। हाँ, एक महीना दूध और घी ओर जलपान और ऊपर के सारे खर्च तोड़कर पाँच रुपये की गुजाइश निकल सकती थी। फिर भी जी डरता था। कहीं से कोई बालाई रकम मिल जाय, तो कुछ हिम्मत वढे ।

विक्रम ने कहा -कहो तो अपनी अँगूठी बेच डालूँ ? कह दूंगा, उँगली से फिसल पड़ी।

अँगूठी दस रुपये से कम की न थी। उसमें पूरा टिकट आ सकता था ; अगर कुछ खर्च किये बिना ही टिकट मे आवा-साझा हुआ जाता है, तो क्या बुरा है।

सहसा विक्रम फिर चोला - लेकिन भई, तुम्हे नकद देने पड़ेंगे। मैं पाँच रुपये नकद लिए बगैर साझा न करूंगा।

अब मुझे औचित्य का ध्यान आ गया। बोला-नहीं दोस्त, यह बुरी बात है। चोरी खुल जायगो, तो शर्मिन्दा होना पड़ेगा, और तुम्हारे साथ मुझ पर भी डॉट पड़ेगी।

आखिर यह तय हुआ कि पुरानी किताबें किसी सेकेण्ड हैंड किताबों की दूकान पर बेच डाली जाये और उस रुपये से टिकट लिया जाय । किताबो से ज्यादा वेज़रूरत हमारे पास और कोई चीज़ न थी। हम दोनों साथ ही मैट्रिक पास हुए थे और यह देखकर कि जिन्होने डिग्रियाँ लों, और आँखें फोड़ों, और घर के रुपये बरबाद किये, वह भी जूतियां चटका रहे हैं, हमने वहीं हाट कर दिया। मैं स्कूल-मास्टर हो गया और विक्रम मटरगश्त करने लगा। हमारी पुरानी पुस्तके अब दीमको के सिवा हमारे किसी काम की न थीं। हमसे जितना चाटते बना चाटा, उनका सत्त निकाल लिया, अब चूहे चाटें या दीमक, हमें परवाह न थी। आज हम दोनो ने उन्हे कूड़ेखाने से निकाला और झाड़-पोछकर एक बड़ा-सा गट्ठरं बाँधा । मैं मास्टर था, किसी बुकसेलर को दुकान पर किताब बेचते हुए झेपता था । मुझे सभी पहचानते थे , इसलिए यह खिद- मत विक्रम के सुपुर्द हुई और वह आध घटे मे दस रुपये का एक नोट लिये उछलता कूदता आ पहुँचा । मैंने उसे इतना प्रसन्न कभी न देखा था। किताबें चालीस रुपये से कम की न थीं , पर यह दस रुपये उस वक्त हमे जैसे पडे हुए मिले। अब टिकट
[ २६९ ]में आधा-साझा होगा। दस लाख की रकम मिलेगी । पाँच लाख मेरे हिस्से मे आयेंगे, पाँच विक्रम के । हम अपने इसी में मगन थे।

मैंने संतोष का भाव दिखाकर कहा-पाँच लाख भी कुछ कम नहीं होते जी !

विक्रम इतना संतोषी न था । बोला-~पाँच लाख क्या, हमारे लिए तो इस वक पाँच सौ भी बहुत है भाई , मगर ज़िन्दगी का प्रोग्राम तो बदलना पड़ गया। मेरी यात्रावाली स्कीम तो टल नहीं सकती। हाँ, पुस्कालय गायव हो गया।

मैंने आपत्ति की-आखिर यात्रा में तुम दो लाख से ज्यादा तो न खर्च करोगे ?

'जी नहीं, उसका बजट है साढे तीन लाख का । सात वर्ष का प्रोग्राम है। पचास हजार रुपये साल ही तो हुए?'

'चार हज़ार महीना कहो । मैं समझता हूँ, दो हज़ार मे तुम बड़े आराम से रह सकते हो।'

विक्रम ने गर्म होकर कहा- मैं शान से रहना चाहता हूँ , भिखारियों को तरह नहीं ।

'दो हज़ार में भी तुम शान से रह सकते हो।

'जब तक आप अपने हिस्से मे से दो लाख मुझे न देंगे, पुस्तकालय न बन सकेगा।'

'कोई जरूरी नहीं कि तुम्हारा पुस्कालय शहर मे बेजोड़ हो ।'

'मैं तो बेजोड़ ही वनवाऊँगा।'

'इसका तुम्हे अख्तियार है , लेकिन मेरे रुपयों में से तुम्हे कुछ न मिल सकेगा। मेरी जरूरतें देखो। तुम्हारे घर मे काफी जायदाद है । तुम्हारे सिर कोई बोझ नहीं, मेरे सिर तो सारी गृहस्थी का बोझ है। दो बहनो का विवाह है, दो भाइयो की शिक्षा है, नया मकान बनवाना है । मैंने तो निश्चय कर लिया है कि सब रुपये सीधे बैंक में जमा कर दूंगा। उनके सूद से काम चलाऊँगा। कुछ ऐसी शर्ते लगा दूंगा, कि मेरे बाद भी कोई इस रकम मे हाथ न लगा सके ।

विक्रम ने सहानुभूति के भाव से कहा- हाँ, ऐसी दशा में तुमसे कुछ मांगना अन्याय है। खैर, मैं ही तकलीफ उठा लूंगा , लेकिन बैंक के सूद का दर तो बहुत गिर गया है।

हमने कई बैंकों के सूद का दर देखा, स्थायी कोष का भी, सेविग वैक का भी। बेशक दर बहुत कम था ।दो ढाई रुपये सैकड़े व्याज पर जमा करना व्यर्थ है । क्यों न लेन देन का कारोबार शुरू किया जाय । विक्रम भी अभी यात्रा पर न जायगा। दोनों
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के साझे गे कोठो चलेगी। जब कुछ बन जमा हो जायगा, तब वह यात्रा करेगा। लेन-देन मे सूद भी अच्छा मिलेगा और अपना रोव दाब भी रहेगा। हाँ, जब तक अच्छी जमानत न हो, किसीको रुपया न देना चाहिए, चाहे असामी कितना ही मातबर क्यों न हो । और जमानत पर रुपये दे ही क्यों । जायदाद रेहन लिखाकर रुपये देंगे। फिर तो कोई खटका न रहेगा।

यह मज़िल भी तय हुई। अब यह प्रश्न उठा कि टिकट पर किसका नाम रहे । विक्रम ने अपना नाम रखने के लिए बड़ा आग्रह किया , अगर उसका नाम न रहा, तो वह टिकट ही न लेगा। मैंने कोई उपाय न देखकर मजूर कर लिया, और विना किसी लिखा-पढी के, जिससे आगे चलकर मुझे बड़ी परेशानी हुई।

( २ )

एक-एक करके इन्तजार के दिन करने लगे। भोर होते हो हमारी आँखें कैलेंडर पर जाती । मेरा मकान विक्रम के मकान से मिला हुआ था। स्कूल जाने के पहले और स्कूल से आने के बाद हम दोनों साथ बैठकर अपने-अपने मसूबे बाँधा करते और इस तरह सांय-सांय कि कोई सुन न ले। हम अपने टिकट खरीदने का रहस्य छिपाये रखना चाहते थे। यह रहस्य जब सत्य का रूप धारण कर लेगा, उस वक्त लोगों को कितना विस्मय होगा ! उस दृश्य का नाटकीय आनन्द हम नहीं छोड़ना चाहते थे।

एक दिन बातो बात में विवाह का ज़िक्र आ गया। विक्रम ने दार्शनिक गम्भी- रता से कहा --भई, शादी-वादी का जंजाल तो मैं नहीं पालना चाहता। व्यर्थ की चिंता और हाय-हाय । पत्नी की नाज़बरदारो मे ही बहुत-से रुपये उड़ जायेंगे।

मैंने इसका विरोध किया—हाँ, यह तो ठीक है, लेकिन जब तक जीवन के सुख-दु ख का कोई साथी न हो, जीवन का आनन्द हो क्या। मैं तो विवाहित जीवन से इतना विरक्त नहीं हूँ। हाँ, साथी ऐसा चाहता हूँ, जो अन्त तक साथ रहे और ऐसा साथी पत्नी के सिवा दूसरा नहीं हो सकता।

विक्रम ज़रूरत से ज्यादा तुनुकमिज़ाजी से बोला- खेर, अपना-अपना दृष्टिकोण है। आपको बीबी मुबारक और कुत्तों को तरह उसके पीछे-पीछे चलना और बच्चों को संसार को सबसे बढ़ी विभूति और ईश्वर की सबसे बड़ी दया समझना मुबारक । बन्दा तो आज़ाद रहेगा, अपने मजे से चाहा और जब चाहा उड़ गये और जव चाहा घर
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आ गये यह नहीं कि हर वक्त एक चौकीदार आपके सिर पर सवार हो । जरा-सी देर हुई घर आने में और फौरन् जवाब तलब हुआ, कहाँ थे अब तक ? आप कहीं बाहर निकले और फौरन् सवाल हुआ, कहाँ जाते हो और जो कहीं दुर्भाग्य से पत्नीजी भी साथ हो गई, तब तो डूब मरने के सिवा 'आपके, लिए कोई मार्ग ही नहीं रह ना भैया, मुझे आपसे जरा भी सहानुभूति नहीं। बच्चे को ज़रा-सा जुकाम हुआ और आप बेतहाशा दौड़े चले जा रहे है होमियोपैथिक डाक्टर के पास । उम्र खिसकी और लौंडे मनाने लगे कि कब आप प्रस्थान करें और वह गुलछर्रे उड़ायें। मौका मिला तो आपको ज़हर खिला दिया और मशहूर किया कि आपको कालरा हो गया था। मैं इस जंजाल में नहीं पड़ता।

कुन्ती आ गई। विक्रम की छोटी बहन थी, कोई ग्यारह साल की। छठे मे पढती थी और बराबर फेल होती थी। बड़ी चिबिल्ली, बड़ी शोख । इतने धमाके से द्वार खोले कि हम दोनों चौंककर उठ खड़े हुए।

विक्रम ने बिगड़कर कहा-तू बड़ी शैतान है कुन्ती, किसने तुझे बुलाया यहाँ ?

कुन्ती ने खुफिया पुलिस की तरह कमरे में नजर दौड़ाकर कहा- तुम लोग हरदम यहाँ किवाड़ बन्द किये बैठे क्या बातें किया करते हो ? जब देखो, यहीं बैठे हो । न कहीं घूमने जाते हो, न तमाशा देखने, कोई जादू-मन्तर जगाते होगे ?

विक्रम ने उसकी गरदन पकड़कर हिलाते हुए कहा- हाँ, एक मन्तर जगा रहे हैं, जिसमें तुझे ऐसा दूल्हा मिले, जो रोज गिनकर पांच हण्टर जमाये सड़ासड़ !

कुन्ती उसकी पीठ पर बैठकर बोली- मैं ऐसे दूल्हे से ब्याह करूँगी, जो मेरे सामने खड़ा पूँछ हिलाता रहेगा। मैं मिठाई के दोने फेंक दूंगी और वह चाटेगा। ज़रा भी चों-चपड़ करेगा, तो कान गर्म कर दूंगी। अम्माँ के लाटरी के रुपये मिलेंगे, तो पचास हजार मुझे दे देंगी। बस, चैन करूंगी। मैं दोनो वक्त ठाकुरजी से अम्मा के लिए प्रार्थना करती हूँ। अम्माँ कहती है, क्वारी लड़कियो को दुआ कभी निष्फल नहीं होती। मेरा मन तो कहता है, अम्मा को ज़रूर रुपये मिलेंगे।

मुझे याद आया, एक बार मैं अपने ननिहाल देहात मे गया था, तो सूखा पड़ा हुआ था । भादो का महीना आ गया था , मगर पानी की बूंद नहीं। तब लोगों ने चन्दा करके गांव की सब क्वारी लड़क्यिों की दावत की थी। उसके तीसरे ही दिन मूसलाधार वर्षा हुई थी। अवश्य ही क्वारियों की दुआ मे असर होता है । [ २७२ ]मैंने विक्रम को अर्थपूर्ण आँखों से देखा, विक्रम ने मुझे । आँखों ही में हमने सलाह कर ली और निश्चया भी कर लिया। विक्रम ने कुन्ती से कहा- अच्छा, तुझसे एक बात कहें, किसी से कहेगी तो नहीं ? नहीं, तू तो बड़ी अच्छी लड़की है, किसी से न कहेगी ! अबकी तुझे खूब पढ़ाउँगा और पास करा दूंगा। बात यह है कि हम दोनों ने भी लाटरी का टिकट लिया है। हम लोगों के लिए भी ईश्वर से प्रार्थना क्यिा कर , अगर हमें रुपये मिले, तो तेरे लिए अच्छे-अच्छे गहने बनवा देगे । सच!

कुन्ती को विश्वास न आया । हमने कस्में खाई । वह नखरे करने लगी। जब हमने उसे सिर से पाँव तक सोने और हीरे मढ देने की प्रतिज्ञा की, तब वह हमारे लिए दुआ करने पर राजी हुई।

लेकिन उसके पेट मे मनों मिठाई पच सकती थी, वह जरा-सी बात न पची। सीधे अन्दर भागी और एक क्षण मे सारे घर में यह खबर फैल गई। अब जिसे देखिए, विक्रम को डाँट रहा है, अम्माँ भी, चचा भी, पिता भी, केवल विक्रम की शुभ-कामना से या और किसी भाव से, कौन जाने-बैठे-बैठे तुम्हे हिमाकत ही सुझती है। रुपये लेकर पानी मे फेक दिये। घर मे इतने आदमियो ने तो टिकट लिया ही था, तुम्हे लेने की क्या जरूरत थी, क्या तुम्हें उसमे से कुछ न मिलते ? और तुम भी मास्टर साहब, बिलकुल घोघा हो। लड़के को अच्छी बातें क्या सिखा- ओगे, और उसे चौपट किये डालते हो ।

विक्रम तो लाडला बेटा था । उसे और क्या कहते। कहीं रूठकर एक-दो जून खाना न खाय, तो आफत ही आ जाय । मुझपर सारा गुस्सा उतरा । इसकी सोहबत में लड़का विगढ़ा जाता है।

‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे' वाली कहावत मेरी आँखो के सामने थी। मुझे अपने बचपन की एक घटना याद आई। होली का दिन था। शराब की एक बोतल मॅगवाई थी। मेरे मामू साहब उन दिनों आये हुए थे। मैंने चुपके से कोठरी में जाकर ग्लास में एक चूट शराब डाली और पी गया। अभी गला जल ही रहा था और आँखें लाल ही थी, कि मामू साहब कोठरी मे आ गये और मुझे मानो सेंध मे गिरफ्तार कर लिया और इतना विगडे-इतना विगड़े कि मेरा कलेजा सूखकर छुहारा हो गया । अम्मा ने भी डाटा, पिताजी ने भी डांटा, मुझे आँसुओं से उनकी कोधाग्नि शान्त करनी पड़ी , और दोपहर ही को मामू साहब नशे से पागल होकर गाने लगे, [ २७३ ]
फिर रोये, फिर अम्मां को गालिया दी, दादा को मना करने पर मारने दौड़े और आखिर में कै करके जमीन पर बेसुध पड़े नजर आये।

( ३ )

विक्रम के पिता बड़े ठाकुर साहब, और ताऊ छोटे ठाकुर साहब दोनो जड़वादी थे, पूजा-पाठ की हँसी उड़ानेवाले, पूरे नास्तिक ; मगर अव दोनों बड़े निष्ठावान् और ईश्वर-भक्त हो गये थे। बढ़े ठाकुर साहब तो प्रात काल गंगा-स्नान करने जाते और मन्दिरों के चक्कर लगाते हुए दोपहर को सारी देह मे चन्दन लपेटे घर लौटते । छोटे ठाकुर साहब घर पर ही गर्म पानी से स्नान करते और गटिया से ग्रस्त होने पर भी राम-नाम लिखना शुरू कर देते। धूप निकल आने पर पार्क की ओर निकल जाते और चींटियों को आटा खिलाते। शाम होते ही भाई अपने ठाकुर द्वारे में जा बैठते और आधी रात तक भागवत् की कथा तन्मय होकर सुनते । विक्रम के -बड़े भाई प्रकाश को साधु-महात्माओं पर अधिक विश्वास था। वह मठों और साधुओं के अखाड़ों और कुटियों की खाक छानते, और माताजी को तो भोर से आधी रात तक स्नान, पूजा और व्रत के सिवा दूसरा काम ही न था। इस उम्र मे भी उन्हे सिंगार का शौक था , पर आजकल पूरी तपस्विनी बनी हुई थी। लोग नाहक लालसा को बुरा कहते हैं। मैं तो समझता हूँ, हममें जो यह भक्ति और निष्ठा और धर्म-प्रेम है, वह केवल हमारी लालसा, हमारी हवस के कारण। हमारा धर्म हमारे स्वार्थ के बल पर टिका हुआ है। हवस मनुष्य के मन और बुद्धि का इतना संस्कार कर सकती है, -यह मेरे लिए बिलकुल नया अनुभव था। हम दोनों भी ज्योतिषियों और पण्डितों प्रश्न करके अपने को कभी दुखी कर लिया करते थे।

ज्यों-ज्यों लाटरी का दिन समीप आता जाता था, हमारे चित्त की शान्ति उड़ती जाती थी। हमेशा उसी ओर मन टॅगा रहता। मुझे आप-ही-आप अकारण सदेह होने - लगा, कि कहीं विक्रम मुझे हिस्सा देने से इनकार कर दे, तो मैं क्या करूँ । साफ इनकार कर जाय कि तुमने टिकट मे साझा किया ही नहीं। न कोई तहरीर है, न कोई दूसरा सबूत । सब कुछ विक्रम की नीयत पर है। उसकी नीयत जरा भी डांवाडोल हुई और मेरा काम तमाम। कहीं फरियाद नहीं कर सकता, मुंह तक नहीं खोल सकता । अब अगर कुछ कहूँ भी तो कोई लाभ नहीं। अगर उसकी नीयत में फितूर
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आ गया है, तब तो वह अभी से इनकार कर देगा ; अगर नहीं आया है, तो इस सन्देह से उसे मर्मान्तक वेदना होगी। आदमो ऐसा तो नहीं है, मगर भई, दौलत पाकर ईमान सलामत रखना कठिन है। अभी तो रुपये नहीं मिले हैं। इस वक्त ईमानदार बनने में क्या खर्च होता है। परीक्षा का समय तो तब आयेगा, जब दस लाख रुपये हाथ में होंगे। मैंने अपने अन्त करण को टटोला-अगर टिकट मेरे नाम का होता और मुझे दस लाख मिल जाते, तो क्या मैं आधे रुपये विना कान-पूंछ हिलाये विक्रम के हवाले कर देता ? कौन कह सकता है , मगर अधिक सम्भव यही था कि मैं हीले हवाले करता, कहता- तुमने मुझे पाँच रुपये उधार दिये थे। उसके दस ले लो, सौ ले लो, और क्या करोगे , मगर नहीं, मुझसे इतनी बद-दियानती न होती।

दूसरे दिन हम दोनों अखबार देख रहे थे कि सहसा विक्रम ने कहा-कहीं हमारा टिकट निकल आये, तो मुझे अफसोस होगा, कि नाहक तुमसे साझा किया !

वह सरल भाव से मुसकिराया , मगर यह थी उसके आत्मा की झलक जिसे वह विनोद की आड़ में छिपाना चाहता था।

मैंने चौककर कहा-सच । लेकिन इसी तरह मुझे भी तो अफसोस हो सकता है ?

'लेकिन टिकट तो मेरे नाम का है ?'

'इससे क्या ।'

'अच्छा, मान लो, मैं तुम्हारे साझे से इनकार कर जाऊ?'

मेरा खून सर्द हो गया । आँखों के सामने अंधेरा छा गया।

'मैं तुम्हें इतना बदनीयत नहीं समझता।'

'मगर है बहुत सम्भव । पाँच लाख ! सोचो, दिमाग चकरा जाता है।'

'तो भई, अभी से कुशल है, लिखा-पढो कर लो। यह संशय रहे ही क्यो ?'

विक्रम ने हँसकर कहा---तुम बड़े शको हो यार ! मैं तुम्हारी परीक्षा ले रहा था। भला, ऐसा कहीं हो सकता है। पांच लाख क्या, पांच करोड़ भी हों, तब भी ईश्वर चाहेगा, तो नीयत में खलल न आने दूंगा।

किन्तु मुझे उसके इन आश्वासनों पर बिलकुल विश्वास न आया। मन मे एक संशय पैठ गया। [ २७५ ]मैंने कहा-~~-यह तो मैं जानता हूँ, तुम्हारी नीयत कभी विचलित नहीं हो सकती, लेकिन लिखा-पढ़ी कर लेने में क्या हरज है ?

'फजूल है।'

'फजूल ही सही।'

'तो पक्के कागज़ पर लिखना पडेगा। दस लाख की कोर्ट-फीस ही साढे सात हजार हो जायगी। किस भ्रम मे हैं आप!'

मैंने सोचा, बला से, सादी लिखा-पढी के बल पर कोई कानूनी कारवाई न कर सकूँगा ? पर इन्हे लजित करने का, इन्हे ज़लील करने का, इन्हें सबके सामने बेईमान सिद्ध करने का अवसर तो मेरे हाथ आयेगा, और दुनिया मे बदनामी का भय न हो, तो आदमी न-जाने क्या करे। अपमान का भय कानून के भय से किसी तरह कम क्रियाशील नहीं होता । बोला---मुझे सादे कागज़ पर हो विश्वास आ जायगा।

विक्रम ने लापरवाही से कहा-जिस कागज़ का कोई कानूनी महत्त्व नहीं, उसे लिखकर क्यों समय नष्ट करें।

मुझे निश्चय हो गया, विक्रम की नीयत मे अभी से फितूर आ गया। नहीं तो सादा कागज लिखने मे क्या बाधा हो सकती है । बिगड़कर कहा---तुम्हारी नीयत तो अभी से खराब हो गई।

उसने निर्लज्जता से कहा--तो क्या तुम यह साबित करना चाहते हो, कि ऐसी - दशा में तुम्हारी नीयत न बदलती?

'मेरी नीयत इतनी कमजोर नहीं है।'

'रहने भी दो । बड़ी नीयतवाले ! अच्छे-अच्छों को देखा है।'

'तुम्हें इसी वक्त लेख-बद्ध होना पड़ेगा । मुझे तुम्हारे ऊपर विश्वास नहीं रहा।'

'अगर तुम्हे मेरे ऊपर विश्वास नहीं है, तो मैं भी नहीं लिखता।'

'तो क्या तुम समझते हो, तुम मेरे रुपये हजम कर जाओगे?'

'किसके रुपये और कैसे रुपये ।'

'मैं कहे देता हूँ विक्रम, हमारी दोस्ती का अन्त हो जायगा। बल्कि इससे कहीं भयकर परिणाम होण।'

हिंसा की एक ज्वाला-सी मेरे अन्दर दहक उठी। [ २७६ ]सहसा दीवानखाने में झड़प की आवाज सुनकर मेरा ध्यान उधर चला गया। यहां दोनो ठाकुर बैठा करते थे। उनमें ऐसी मैत्री थी, जो आदर्श भाइयों में हो सकती है। राम और लक्ष्मण में भी इतनी ही रही होगी। झड़प की तो बात ही क्या, मैंने उनमे कभी विवाद होते भी न सुना था। बडे ठाकुर जो कह दें, वह छोटे ठाकुर के लिए कानून था और छोटे ठाकुर की इच्छा देखकर ही बड़े ठाकुर कोई बात कहते थे। हम दोनों को आश्चर्य हुआ । दीवानखाने के द्वार पर जाकर खड़े हो गये। दोनो भाई अपनी-अपनी कुरसियो से उठकर खड़े हो गये थे, एक-एक कदम आगे भी बढ़ आये थे, आँखें लाल, मुख विकृत, त्यौरिया वढी हुई, मुट्ठियाँ बंधी हुई। मालूम होता था, वस हाथा-पाई हुआ ही चाहती है।

छोटे ठाकुर ने हमें देखकर पीछे हटते हुए कहा-सम्मिलित परिवार में जो कुछ भी और कहीं से भी और किसी के नाम भी आये, वह सबका है, बराबर ।

बड़े ठाकुर ने विक्रम को देखकर एक कदम आगे बढाया-

हरगिज नहीं , अगर मैं कोई जुर्म करूँ, तो मैं पकड़ा जाऊँगा, सम्मिलित परिवार नहीं । मुझे सजा मिलेगी, सम्मिलित परिवार को नहीं । यह वैयक्तिक प्रश्न है।

'इसका फैसला अदालत से होगा।'

'शौक से अदालत जाइए , अगर मेरे लड़के, मेरी बीवी, या मेरे नाम लाटरी निकली, तो आपका उससे कोई सम्बन्ध न होगा, उसी तरह जैसे आपके लाटरी निकले, तो मुझसे, मेरी बीवी से या मेरे लड़के से उससे कोई सम्बन्ध न होगा।'

'अगर मैं जानता आपकी ऐसी नीयत है, तो मैं भी बीबी-बच्चो के नाम से टिकट ले सकता था।

'यह आपकी गलती है।

'इसीलिए कि मुझे विश्वास था, आप भाई हैं।'

'यह जुआ है, आपको समझ लेना चाहिए। जुए की हार-जीत का खानदान पर कोई असर नहीं पड़ सकता , अगर आप कल को दस-पाँच हजार रेस में हार आयें, तो खानदान उसका जिम्मेदार न होगा।'

'मगर भाई का हक दबाकर आप सुखी नहीं रह सकते।'

'आप न ब्रह्मा हैं, न ईश्वर, न कोई महात्मा । [ २७७ ]विक्रम की माता ने सुना कि दोनो भाइयो में ठनी हुई है और मल्लयुद्ध हुआ चाहता है, तो दौड़ी हुई बाहर आई और दोनों को समझाने लगी,

छोटे ठाकुर ने बिगड़कर कहा -आप मुझे क्या समझाती हैं, उन्हें समझाइए, जो चार-चार टिकट लिए बैठे हुए हैं। मेरे पास क्या है, एक टिकट । उसका क्या भरोसा। मेरी अपेक्षा जिन्हें रुपये मिलने का चौगुना चास है, उनकी नीयत बिगड़ जाय, तो लज्जा और दु.ख की बात है।

ठकुराइन ने देवर को दिलासा देते हुए कहा-अच्छा, मेरे रुपये में से आधे तुम्हारे । अब तो खुश हो ।

बड़े ठाकुर ने बीबी की जबान पकड़ी-क्यों आधे ले लेंगे ? मैं एक धेला भी न दूंगा। हम मुरौवत और सुहृदयता से काम लें, फिर भी इन्हे पांचवें हिस्से से ज़्यादा किसी तरह न मिलेगा। आधे का दावा किस नियम से हो सकता है, न बौद्धिक, न धार्मिक, न नैतिक ।

छोटे ठाकुर ने खिसियाकर कहा-सारी दुनियां का कानून आप ही तो जानते हैं!

'जानते ही हैं, तीस साल तक वकालत नहीं की है ?'

'यह वकालत निकल जायगी, जब सामने कलकत्ते का बैरिस्टर खड़ा कर दूंगा।'

'बैरिस्टर की ऐसी-तैसी, चाहे वह कलकत्ते का हो या लन्दन का।'

'मैं आधा लूंगा, उसी तरह जैसे घर की जायदाद मे मेरा आधा है।'

इतने में विक्रम के बड़े भाई साहब सिर और हाथ मे पट्टी बाँधे, लँगड़ाते हुए, कपड़ो पर ताज़ा खून के दारा लगाये, प्रसन्न-मुख आकर एक आराम-कुरसी पर गिर पड़े ! बड़े ठाकुर ने घबड़ाकर पूछा-यह तुम्हारी क्या हालत है जी । ऐ, यह चोट कैसे लगी है किसी से मार-पीट तो नहीं हो गई ?

प्रकाश ने कुरसी पर लेटकर एक वार कराहा, फिर मुसकिराकर बोले-जी, कोई बात नहीं, ऐसी कुछ बहुत चोट नहीं लगी।

कैसे कहते हो चोट नहीं लगी ? सारा हाथ और सिर सूज गया है। कपड़े खून से तर। यह मुआमला क्या है ? कोई मोटर दुर्घटना तो नहीं हो गई ?'

बहुत मामूली चोट है साहब, दो-चार दिन में अच्छी हो जायगी। घबराने की कोई बात नहीं।' [ २७८ ]प्रकाश के मुख पर आशा-पूर्ण, शान्त मुस्कान थी। क्रोध, लज्जा या प्रतिशोध की भावना का नाम भी न था। .

बड़े ठाकुर ने और व्यग्र होकर पूछा-लेकिन हुआ क्या, यह क्यों नहीं बतलाते ? किसीसे मार-पीट हुई हो, तो थाने में रपट करवा दूं।

प्रकाश ने हलके मन से कहा-मार-पीट किसीसे नहीं हुई साहब । बात यह है कि मैं ज़रा झक्कड़ बाबा के पास चला गया था। आप तो जानते हैं, वे आदमियो की सूरत से भागते हैं और पत्थर लेकर मारने दौड़ते हैं। जो डरकर भागा, वह गया। जो पत्थर की चोटें खाकर भी उनके पीछे लगा रहा, वह पारस हो गया । वह यहीं परीक्षा लेते हैं। आज मै वहाँ पहुँचा, तो एक पचास आदमी जमा थे, कोई मिठाई लिये, कोई बहुमूल्य भेट लिये, कोई कपड़ों के थान लिये । झाक्कड़ बाबा ध्याना- वस्था में बैठे हुए थे। एकाएक उन्होंने आँखें खोली और यह जन-समूह देखा, तो कई पत्थर चुनकर उनके पीछे दौड़े। फिर क्या था, भगदड़ मच गई। लोग गिरते- पड़ते भागे। हुर् हो गये । एक भी न टिका। अकेला मैं घण्टेघर की तरह वहीं डटा रहा। बस, उन्होंने पत्थर चला हो तो दिया। पहला निशाना सिर में लगा। उनका निशाना अचूक पड़ता है । खोपड़ी भन्ना गई । खून की धारा बह चली, लेकिन मै हिला नहीं । फिर बाबाजी ने दूसरा पत्थर फेंका। वह हाथ में लगा। मै गिर पड़ा और बेहोश हो गया । जब होश आया, तो वहां सन्नाटा था। बाबाजी भी गायब हो गये थे। अन्तर्ध्दान हो जाया करते हैं । किसे पुकारूँ, किससे सवारी लाने को कहूँ । मारे दर्द के हाथ फटा पड़ता था और सिर से अभी तक खून जारी था। किसी तरह उठा और सीधा डाक्टर के पास गया । उन्होंने देखकर कहा-हड्डी टूट गई है और पट्टी बाँध दी । गर्म पानी से सेकने को कहा है। शाम को फिर आयेगे , सगर चौट लगी तो लगी,अब लाटरी मेरे नाम आई वरी है। यह निश्चय है। ऐसा कभी हुआ ही नहीं कि झक्कड़ बाबा को मार खाकर कोई नामुराद रह गया हो। मैं तो सबसे पहले बाबा को कुटी बनवा दूंगा।

बड़े ठाकुर साहब के मुख पर सतोष की झलक दिखाई दी। फौरन् पलंग विछ गया । प्रकाश उस पर लेटे । ठकुराइन पखा झलने लगी, उनका मुख भी प्रसन्न था । इतनी चोट खाकर दस लाख पा जाना कोई बुरा सौदा न था ।

छोटे ठाकुर साहब के पेट में चूहे दौड़ रहे थे। ज्योंही बड़े ठाकुर भोजन करने

१९ [ २७९ ]गये, और छकुराइन भी प्रकाश के लिए भोजन का प्रबंध करने गई , त्योही छोटे ठाकुर ने प्रकाश से पूछा- क्या बहुत ज़ोर से पत्थर मारते हैं ? जोर से तो क्या मारते होंगे।

प्रकाश ने उनका आशय समझकर कहा-अरे साहब, पत्थर नहीं मारते, बमगोले मारते हैं। देव-सा तो डोल-डौल है, और बलवान् इतने हैं कि एक चूसे में शेरों का काम तमाम कर देते हैं । कोई ऐसा-वैसा आदमी हो, तो एक ही पत्थर में टे हो जाय। कितने ही तो मर गये; मगर आज तक झक्कड़ बाबा पर मुकदमा नहीं चला । और दो-चार पत्थर मारकर ही नहीं रह जाते, जब तक आप गिर न पड़ें और वेहोश न हो जायँ, वह मारते जायेंगे । सगर रहस्य यही है आप जितनी ज्यादा चोटे खायेंगे, उतने ही अपने उद्देश्य के निकट पहुंचेंगे।

प्रकाश ने ऐसा रोए खड़े कर देनेवाला चित्र खींचा कि छोटे ठाकुर साहब थर्रा उठे। पत्थर खाने की हिम्मत न पड़ी।

( ४ )

आखिर भाग्य के निपटारे का दिन आया-जुलाई को बीसवीं तारीख कत्ल को रात ! हम प्रातःकाल उठे, तो जैसे एक नशा चढ़ा हुआ था, आशा और भय के द्वन्द्व का। दोनों ठाकुरो ने घड़ी रात रहे गंगा-स्नान किया था और मन्दिर में बैठे पूज कर रहे थे। आज मेरे मन में श्रद्धा जागी । मदिर में जाकर मन-ही-मन ठाकुरजी की स्तुति करने लगा-अनाथों के नाथ, तुम्हारी कृपा-दृष्टि क्या हमारे ऊपर न होगी ? तुम्हें क्या मालूम नहीं, हमने कितनी मुश्किल से टिकट खरीदे हैं ! तुम तो अन्तर्यामी हो । संसार में हमसे ज्यादा तुम्हारी दया कौन deserve करता है ? विक्रम सूट-बूट पहने मन्दिर के द्वार पर आया, मुझे इशारे से बुलाकर इतना कहा- मैं डाक- खाने जाता हूँ, और हवा हो गया। जरा देर मे प्रकाश मिठाई के थाल लिए हुए घर में से निकले और मंदिर के द्वार पर खड़े होकर कगालों को बांटने लगे, जिनकी एक भीड़ जमा हो गई थी। और दोनों ठाकुर भगवान् के चरणों में लौ लगाए बैठे हुए थे, सिर झुकाये आखें बन्द, अनुराग में डूबे हुए ।

बड़े ठाकुर ने सिर उठाकर पुजारी की ओर देखा और बोले-भगवान तो बड़े भक्त-वत्सल हैं, क्यो पुजारीजी ? [ २८० ]पुजारी ने समर्थन किया-हाँ सरकार, भक्तों की रक्षा के लिए तो भगवान् क्षीरसागर से दौड़े और गज को ग्राह के मुंह से बचाया।

एक क्षण के बाद छोटे ठाकुर साहब ने सिर उठाया और पुजारीजी से बोले- क्यों पुजारीजी, भगवान तो सर्वशक्तिमान् हैं, अन्तर्यामी, सबके दिल का हाल जानते हैं ?

पुजारी ने समर्थन किया--हाँ सरकार, अन्तर्यामी न होते, तो सबके मन की चात कैसे जान जाते ? शवरी का प्रेम देखकर स्वय उसकी मनोकामना पूरी की।

पूजन समाप्त हुआ। आरती हुई। दो भाइयो ने आज ऊँचे स्वर से आरती गाई और बड़े ठाकुर ने दो रुपये थाल में डाले। छोटे ठाकुर ने चार रुपये डाले। बड़े ठाकुर ने एक बार कोप-दृष्टि से देखा और मुँह फेर लिया ।

सहसा बड़े ठाकुर ने पुजारी से पूछा- तुम्हारा मन क्या कहता है पुजारोजी ?

पुजारी बोला-~~-सरकार को फते है।

छोटे ठाकुर ने पूछा-और मेरी ?

पुजारी ने उसी मुस्तैदी से कहा-आपकी भी फते है !

बड़े ठाकुर श्रद्धा से डूबे भजन गाते हुए मंदिर से निकले-

'प्रभुजी, मैं तो आयो सरन तिहारे, हाँ प्रभुजी ।'

एक मिनट में छोटे ठाकुर साहब भी मदिर से गाते हुए निकले -

अब पति राखो मोरे दयानिधि तोरी गति लखि ना परे ।

मैं भी पीछे निकला और जाकर मिठाई बांटने में प्रकाश बाबू को मदद करना चाहा, पर उन्होंने थाल हटाकर कहा-आप रहने दीजिये, मैं अभी बाँटे डालता हूँ। अब रह ही कितनी गई है।

मैं खिसियाकर डाक्खाने की तरफ़ चला कि विक्रम मुस्किराता हुआ साइकिल पर आ पहुँचा ! उसे देखते ही सभी जैसे पागल हो गये। दोनों ठाकुर सामने ही खड़े थे। दोनों बाज की तरह झपटे । प्रकाश के थाल में थोड़ी-सी मिठाई बच रही थी। उसने थाल जमीन पर पटका और दौड़ा। और मैंने तो उस उन्माद मे विक्रम की गोद में उठा लिया, मगर कोई उससे कुछ पूछता नहीं, सभी जय-जयकार की हाँक लगा रहे हैं।

बड़े ठाकुर ने आकाश की ओर देखा-- बोलो राजा रामचन्द्र की जय ! [ २८१ ]छोटे ठाकुर ने छलाँग मारी-बोलो हनुमानजी की जय !

प्रकाश तालियां बजाता हुआ चीखा-दुहाई झकड़ बाबा की !

विक्रम ने और ज़ोर से कहकहा मारा-फिर अलग खड़ा होकर बोला-जिसका नाम आया है, उससे एक लाख लूंगा। बोलो, है मजूर ?

बड़े ठाकुर ने उसका हाथ पकड़ा --पहले वता तो!

'ना ! यों नहीं बताता।'

छोटे ठाकुर बिगडे-महज़ बताने के लिए एक लाख ? शाबाश !

प्रकाश ने भी त्योरी चढाई-क्या डाकखाना हमने देखा नहीं है ?

'अच्छा, तो अपना-अपना नाम सुनने के लिए तैयार हो जाओ।'

सभी फौजी अटेंशन की दशा में निश्चल खड़े हो गये ।

'होश-हवाश ठीक रखना।'

सभी पूर्ण सचेत हो गये।

'अच्छा तो सुनिए कान खोलकर, इस शहर का सफाया है। इस शहर का ही नहीं, सम्पूर्ण भारत का सफाया है, अमेरिका के हब्शी का नाम आ गया ।

बड़े ठाकुर मल्लाये-~~-झूठ-झूठ, बिलकुल मूठ !

छोटे ठाकुर ने पैतरा बदला-~-कभी नहीं । तीन महीने की तपस्या यों ही रही ! वाह।

प्रकाश ने छाती ठोक्कर कहा-यहां सिर फुड़वाये और हाथ तुड़वाये बैठे हैं, दिलगी है।

इतने में और पचासों आदमी उधर से रोनी सुरत लिये निकले। ये बेचारे भी डाकखाने से अपनी किस्मत को रोते चले आ रहे थे। मार ले गया अमेरिका का हब्शी ! अभागा ! पिशाच ! दुष्ट !

अब कैसे किसी को विश्वास न आता । बड़े ठाकुर झलाये हुए मन्दिर में गये और पुजारी को डिसमिस कर दिया. इसी लिए तुम्हें इतने दिनों से पाल रखा है । हराम का माल खाते हो औ चैन करते हो ?

छोटे ठाकुर साहब की तो जैसे कमर टूट गई। दो-तीन बार सिर पीटा और वहीं बैठ गये; मगर प्रकाश के क्रोध का पारावार न था । उसने अपना मोटा सोटा लिया और झक्कड़ बाबा की मरम्मत करने चला । [ २८२ ]माताजी ने केवल इतना कहा-सभी ने बेईमानी की है। मैं कभी मानने की नहीं। हमारे देवता क्या करें। किसी के हाथ से थोड़े छीन लायेंगे।

रात को किसी ने खाना नहीं खाया। मैं भी उदास बैठा हुआ था कि विक्रम आकर वोला - चलो होटल से कुछ खा आये। घर में तो चूल्हा नहीं जला।

मैंने पूछा--तुम डाकखाने से आये, तो बहुत प्रसन्न क्यों थे ?

उसने कहा-जब मैंने डाकखाने के सामने हजारों की भीड़ देखी, तो मुझे अपने लोगों के गधेपन पर हंँसी आई। एक शहर में जब इतने आदमी हैं, तो सारे हिन्दुस्तान मे इसके हज़ार गुने से कम न होंगे और दुनिया मे तो लाख गुने से भी ज़्यादा हो जायेंगे। और मैंने आशा का जो एक पर्वत-सा खड़ा कर रखा था, वह जैसे एकबारगी इतना छोटा हुआ कि राई बन गया, और मुझे हॅसी आई। जैसे कोई दानी पुरुष छटाँक-भर अन्न हाथ में लेकर एक लाख आदमियों को नेवता दे बैठे- और यहाँ हमारे घर का एक-एक आदमी समझ रहा है कि..

मैं भी हँसा-हाँ, बात तो यथार्थ मे यही है, और हम दोनों लिखा-पढ़ी के लिए लड़े मरते थे, मगर सच बताना, तुम्हारी नीयत खराब हुई थी कि नहीं ?

विक्रम मुसकिराकर बोला-अब क्या करोगे पूछकर । पर्दा ढका रहने दो।


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