मानसरोवर २  (1946) 
द्वारा प्रेमचंद

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गृह-नीति

जब माँ बेटे से बहु की शिकायतो का दफ्तर खोल देती है और यह सिलसिला किसी तरह खत्म होते नजर नहीं आता, तो बेटा उकता जाता है और दिन भर की थकान के कारण कुछ झुंझलाकर माँ से कहता है तो आखिर तुम मुझे क्या करने को कहती हो अम्माँ ? मेरा काम स्त्री को शिक्षा देना तो नहीं है। यह तो तुम्हारा काम है ! तुम उसे डाँटो, मारो, जो सज़ा चाहे दो। मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की और क्या बात हो सकती है कि तुम्हारे प्रयत्न से वह आदमी वन जाय । मुझसे मत कहो कि उसे सलीका नहीं है, तमीज नहीं है, बे-अदव है। उसे डाँटकर सिखाओ।

माँ---वाह, मुंह से बात निकालने नहीं देती, डॉ तो मुझे ही नोच खाय । उसके सामने आबरू बचाती फिरती हूँ कि किसीके मुंह पर मुझे कोई अनुचित शब्द न कह बैठे।

बेटा-तो फिर इसमें मेरी क्या खता है, मैं तो उसे सिखा नहीं देता कि तुमसे बे-अदबी करे!

मां-तो और कौन सिखाता है ?

बेटा-तुम तो अधेर करती हो अम्मां!

मां-अधेर नहीं करती, सत्य कहती हूँ। तुम्हारी ही शह पाकर उसका दिमाग चढ गया है। जब वह तुम्हारे पास आकर टिसवे वहाने लगती है, तो कभी तुमने उसे डाँटा, कभी समझाया कि तुझे अम्माँ का अदव करना चाहिए ? तुम तो खुद उसके गुलाम हो गये हो। वह भी समझती है, मेरा पति कमाता है, फिर मैं क्यों न रानी बनूं, क्यों किसीसे दबूं। मर्द जब तक शह न दे, औरत का इतना गुर्दा हो ही नहीं सकता।

बेटा-तो क्या मैं उससे कह दूं कि मैं कुछ नहीं कमाता, बिलकुल निखट्टू हूँ? [ २४३ ]
क्या तुम समझती हो, तब वह मुझे ज़लील न समझेगी ? हरएक पुरुष चाहता कि उसकी स्त्री उसे कमाऊ, योग्य, तेजस्वी समझे और सामान्यतः वह जितना है, उससे बढकर अपने को दिखाता है । मैंने कभी नादानी नहीं की, कभी स्त्री के सामने डींग नहीं मारी , लेकिन स्त्रो की दृष्टि में अपना सम्मान खोना तो कोई भी न चाहेगा।

माँ-तुम कान लगाकर और ध्यान देकर और मीठी मुसकिराहट के साथ उसकी बाते सुनोगे, तो वह क्यों न शेर होगी । तुम खुद चाहते हो कि स्त्री के हाथों मेरा अपमान कराओ। मालूम नहीं, मेरे किन पापों का तुम मुझे यह दड दे रहे हो। 'किन अरमानों से, कैसे-कैसे कष्ट झेलकर मैंने तुम्हें पाला । खुद नहीं पहना, तुम्हें पहनाया , खुद नहीं खाया, तुम्हे खिलाया। मेरे लिए तुम उस मरनेवाले की निशानी थे और मेरी सारी अभिलाषाओ के केन्द्र । तुम्हारी शिक्षा पर मैंने अपने हज़ारों के आभूषण होम कर दिये ! विधवा के पास दूसरों कौन-सी निधि थी। इसका तुम मुझे -यह पुरस्कार दे रहे हो !

बेटा-मेरी समझ में नहीं आता कि आप मुझसे चाहती क्या हैं । आपके उप- कारों को मैं कब मेट सकता हूँ। आपने मुझे केवल शिक्षा नहीं दिलाई, मुझे जीवन- दान दिया, मेरी सृष्टि की । अपने गहने ही नहीं होम किये, अपना रक्त तक पिलाया, अगर मैं सौ बार अवतार लू, तो भी इसका बदला नहीं चुका सकता । मैं अपनी जान में आपकी इच्छा के विरुद्ध कोई काम नहीं करता, यथासाध्य आपकी सेवा में कोई बात उठा नहीं रखता, जो कुछ पाता हूँ, लाकर आपके हाथों पर रख देता हूँ; और आप मुझसे क्या चाहती हैं, और मैं कर ही क्या सकता हूँ? ईश्वर ने हमें और आपको और सारे संसार को पैदा किया। उसका हम उसे क्या बदला दे सकते हैं ? उसका नाम भी तो नहीं लेते। उसका यश भी तो नहीं गाते। इससे क्या उसके उपकारों का भार कुछ कम हो जाता है ? मां के बलिदानों का प्रतिशोध कोई बेटा नहीं कर सकता, चाहे वह भू-मण्डल का स्वामी ही क्यों न हो । ज्यादा-से-ज्यादा मैं आपकी दिलजोई ही तो कर सकता हूँ, और मुझे याद नहीं आता कि मैंने कभी -आपको असन्तुष्ट किया हो।

मां-तुम मेरी दिलजोई करते हो ? तुम्हारे घर में मैं इस तरह रहती हूँ जैसे कोई लौंडी । तुम्हारी बीबी कभी मेरी बात भी नहीं पूछती। मैं भी कभी बहू थी । खत को घंटे भर सास की देह दबाकर, उनके सिर में तेल डालकर, उन्हें दूध पिला-
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कर तब बिस्तर पर जाती थी। तुम्हारी स्त्री नौ बजे अपनी किताबें लेकर अपनी सह- नची में जा बैठती है, दोनों खिड़कियाँ खोल लेती है और मजे से हवा खाती है । मैं मरूं या जीऊँ, उससे मतलब नहीं , इसी लिए मैंने तुम्हे पाला था ?

बेटा-तुमने मुझे पाला था, तो यह सारी सेवा मुझसे लेनी चाहिए थी ; मगर तुमने मुझसे कभी नहीं कहा। मेरे अन्य मित्र भी हैं। उनमें भी मैं किसीको माँ की देह में मुक्कियाँ लगाते नहीं देखता ! आप मेरे कर्तव्य का भार मेरी स्त्री पर क्यों डालती हैं। यों अगर वह आपकी सेवा करे, तो मुझसे ज़्यादा प्रसन्न और कोई न होगा। मेरी आँखों मे उसकी इज्जत दूनी हो जायगो । शायद उससे और ज्यादा प्रेम करने लगूं, लेकिन अगर वह आपकी सेवा नहीं करती, तो आपको उसमे अप्रसन्न होने का कोई कारण नहीं है। शायद उसकी जगह मैं होता, तो मैं भी ऐसा ही करता। सास मुझे अपनी लड़की की तरह प्यार करती, तो मैं भी उसके तलुए सह- लाता , इसलिए नहीं कि वह मेरे पति की माँ होती , बल्कि इसलिए कि वह मुझसे मातृवत् स्नेह करती ; मगर मुझे खुद यह बुरा लगता है कि बहू सास के पाँच दबाये। कुछ दिन पहले स्त्रियां पति के पाँव दवाती थीं। आज भी उस प्रथा का लोप नहीं हुआ है , लेकिन मेरी पत्नी मेरे पाँव दबाये, तो मुझे ग्लानि होगी । मैं उससे कोई ऐसी खिदमत नहीं लेना चाहता, जो मैं उसको भी न कर सकूँ । यह रस्म उस ज़माने को यादगार है, जब स्त्री पति को लौंडो समझी जाती थी। अब पत्नी और पति दोनों बराबर हैं । कम-से-कम मैं ऐसा ही समझता हूँ।

माँ-वही तो मैं कहती हूँ कि तुम्ही ने उसे ऐसी-ऐसी बातें पढाकर शेर कर दिया है । तुम्हीं मुझसे बैर साध रहे हो। ऐसी निर्लज्ज, ऐसी बदज़वान, ऐसी टर्री, फूहड़ छोकड़ी संसार में न होगी। घर मे अक्सर महल्ले की बहनें मिलने आती रहती हैं। यह राजा की बेटी न जाने किन गॅवारों में पली है कि किसीका भो आदर- सत्कार नहीं करती। कमरे से निकलती तक नहीं। कभी कभी जब वह खुद उसके कमरे में चली जाती हैं, तो भी यह गधी चारपाई से नही उठती। प्रणाम तक नहीं करती, चरण छूना तो दूर की बात है।

बेटा-वह देवियाँ तुमसे मिलने आती होंगी। तुम्हारे और उनके में बीच न- जाने क्या बातें होती हों; अगर तुम्हारी बहू बीच मे आ कूदे, तो मैं उसे बदतमीज कहूँगा। कम-से-कम मैं तो कभी पसन्द न करूंगा कि जब मैं अपने मित्रों से बातें
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कर रहा हूँ, तो तुम या तुम्हारी बहू वहाँ जाकर खड़ी हो जाय । स्त्रो भी अपनी सहेलियो के साथ बैठी हो, तो मैं वहाँ बिना बुलाये न जाऊँगा। यह तो आजकल का शिष्टाचार है।

माँ-तुम तो हर बात में उसीका पच्छ करते हो बेटा, न-जाने उसने कौन-सी जड़ी सुंधा दी है तुम्हे। यह कौन कहता है कि वह हम लोगो के बीच में आ कूदे , लेकिन बड़ों का उसे कुछ तो आदर-सत्कार करना ही चाहिए ।

बेटा-किस तरह?

माँ-जाकर अंचल से उनके चरण छुए, प्रणाम करे, पान खिलाये, पहा झले । इन्हीं बातो से बहू का आदर होता है। लोग उसकी प्रशंसा करते हैं। नहीं सब-की- सव यही कहती होगी कि बहू को घमंड हो गया है, किसीसे सीधे मुंह बात तक नहीं करती।

बेटा--(विचार करके) हां, यह अवश्य उसका देष है। मैं उसे समझा दूंगा।

माँ - (प्रसन्न होकर) तुमसे सच कहती हूँ बेटा, चारपाई से उठती तक नहीं, सब औरतें थुड़ी-थुड़ी करती हैं , मगर उसे तो शर्म जैसे छू ही नहीं गई, और मैं हूँ कि मारे शर्म के मरी जाती हूँ।

बेटा---यही मेरी समझ में नहीं आता, तुम हर बात में अपने को उसके कामों का ज़िम्मेदार क्यों समझ लेती हो। मुझ पर दफ्तर में न जाने कितनी घुड़कियाँ पड़ती हैं, रोज ही तो जवाब-तलब होता है , लेकिन तुम्हे मेरे साथ सहानुभूति होती है ? क्या तुम समझती हो, अफसरों को मुझसे कोई वैर है, जो अनायास ही मेरे पीछे पड़े रहते हैं, या उन्हे उन्माद हो गया है, जो अकारण ही मुझे काटने दौड़ते है ? नहीं, इसका कारण यही है कि मैं अपने काम मे चौकस नहीं हूँ। गल्तियाँ करता हूँ, सुस्ती करता हूँ, लापरवाही करता हूँ। जहाँ अफसर सामने से टला कि लगे समाचार-पत्र पढने या ताश खेलने । क्या उस वक्त हमे यह खयाल नहीं रहता कि काम पड़ा हुआ है और यह ताश खेलने का अवसर नहीं है । लेकिन कौन परवाह करता है। सोचते हैं, साहव डाँट ही तो बतायेंगे, सिर झुकाकर सुन लेंगे, बाधा टल जायगी। पर तुम मुझे दोषी समझकर भी मेरा पक्ष लेती हो और तुम्हारा बस चले,' तो हमारे बड़े बाबू को मुझसे जवाब-तलब करने के अभियोग में कालेपानी भेज दो। [ २४६ ]माँ-(खिलकर) मेरे लड़के को कोई सजा देगा, तो क्या में पान-फूल से उसको पूजा करूँगी?

बेटा-हरेक बेटा अपनी माता से इसी तरह की कृपा की आशा रखता है और सभी माताएँ अपने लड़को के ऐवो पर पर्दा डालती हैं। फिर बहुओं की ओर से क्यों उनका हृदय इतना कठोर हो जाता है, यह मेरी समझ में नहीं आता। तुम्हारी बहू पर जब दूसरी स्त्रियाँ चोट करें, तो तुम्हारे मातृस्नेह का यह धर्म है कि तुम उसकी तरफ से क्षमा मांगो, कोई बहाना कर दो, उनकी नजरों में उसे उठाने की चेष्टा करो। इस तिरस्कार मे तुम क्यो उनसे सहयोग करती हो ? तुम्हे क्यों उसके अपमान मे मज़ा आता है। मैं भी तो हरेक ब्राह्मण या बड़े-बूढे का आदर-सत्कार नहीं करता। मैं किसी ऐसे व्यक्ति के सामने सिर झुका हो नहीं सकता, जिससे मुझे हार्दिक श्रद्धा न हो। केवल सफेद बाल और सिकुड़ी हुई खाल और पोफ्ला मुंह और झुको हुई कमर किसीको आदर का पात्र नहीं बना देतो, और न जनेज या तिलक या पण्डित और शर्मा की उपाधि ही भक्ति की वस्तु है। मैं लकोर-पोट सम्मान को नैतिक अपराध समझता हूँ। मैं तो उसीका सम्मान करूँगा, जो मनसा-वाचा-कर्मणा हर पहलू से सम्मान के योग्य है। जिसे मैं जानता हूँ कि मक्कारी और साथ-साधन और निन्दा के सिवा और कुछ नहीं करता, जिसे मैं जानता हूँ कि रिशवत और सूद तया खुशामद की कमाई खाता है, अगर वह ब्रह्मा की आयु लेकर भी मेरे सामने आये, तो मैं उसे सलाम न करूं। इसे तुम मेरा अहङ्कार कह सकतो हो , लेकिन मैं मजबूर हूँ, जब तक मेरा दिल न झुके, मेरा सिर भी न झुकेगा। मुमकिन है, तुम्हारी बहू के मन में भी उन देवियों की ओर से अश्रद्धा के भाव हो। उनमे से दो-चार को मैं भी जानता हूँ। हैं वह सब बड़े घर की ; लेकिन सबके दिल छोटे, विचार छोटे। कोई निन्दा की पुतली है, तो कोई खुशामद में यकता, कोई गाली गलौज मे अनुपम । सभी रुढियों को गुलाम, ईर्ष्या-द्वेष से जलनेवाली । एक भी ऐसी नहीं, जिसने अपने घर को नरक का नमूना न बना रखा हो , पर तुम्हारी बहू ऐसौ औरतो के आगे सिर नहीं झुकाती, तो मैं उसे दोषी नहीं समझता।

मां-अच्छा, अब चुप रहो बेटा, देख लेना तुम्हारी यह रानी एक दिन तुमसे चूल्हा न जलवाये और झाडू न लगवाये, तो सही। ओरतो को बहुत सिर चढाना

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अच्छा नहीं होता। इस निर्लज्जता की भी कोई हद है, कि बूढी सास तो खाना पकाये और जवान बहु वैठी उपन्यास पढती रहे ।

बेटा-बेशक यह बुरी बात है और मैं हर्गिज नहीं चाहता कि तुम खाना पकाओ और वह उपन्यास पढे, चाहे वह उपन्यास प्रेमचन्द हो के क्यों न हों, लेकिन यह भी तो देखना होगा कि उसने अपने घर कभी खाना नहीं पकाया । वहाँ रसोइया महाराज है। और जब चूल्हे के सामने जाने से उसके सिर में दर्द होने लगता है, तो उसे खाना पकाने के लिए मजबूर करना उस पर अत्याचार करना है । मैं तो समझता हूँ, ज्यों-ज्यों हमारे घर की दशा का उसे ज्ञान होगा, उसके व्यवहार में आप-ही-आप इसलाह होती जायगी। यह उसके घरवालों की गलती है, कि उन्होंने उसकी शादी किसी धनी घर में नहीं की। हमने भी यह शरारत की कि अपनी असली हालत उनसे छिपाई और यह प्रकट किया कि हम पुराने रईस हैं । मुँह से यह कह सकते हैं कि तू खाना पका, या बरतन मांज या झाडू लगा। हमने उन लोगों से छल किया है और उसका फल हमें चखना पड़ेगा। अब तो हमारी कुशल इसीमें है कि अपनी दुर्दशा को नम्रता, विनय और सहानुभूति से ढाँके, और उसे अपने दिल को यह तसल्ली देने का अवसर दे कि बला से धन नहीं मिला, घर के आदमी तो अच्छे मिले । अगर यह तसल्ली भी हमने उससे छीन ली, तो तुम्ही सोचो, उसको कितनी विदारक वेदना होगी । शायद वह हम लोगो की सूरत से घृणा करने लगे।

मां-उसके घरवालों को सौ दफे गरज़ थी, तब हमारे यहां व्याह किया । हम कुछ उनसे भीख माँगने गये थे ?

बेटा-उनको अगर लड़के की गरज़ थी, तो हमे धन और कन्या दोनों की गरज़ थी।

माँ-~- यहाँ के बड़े बड़े रईस हमसे नाता करने को मुँह फैलाए हुए थे।

बेटा--- इसीलिए कि हमने रईसों का स्वांग बना रखा है । घर की असली हालत खुल जाय, तो कोई बात भी न पूछे ।

माँ-तो तुम्हारे ससुरालवाले ऐसे कहाँ के रईस हैं। इधर जरा वकालत चल गई, तो रईस हो गये, नहीं तुम्हारे ससुर के बाप मेरे सामने चपरासगीरी करते थे। और लड़की का यह दिमाग्न कि खाना पकाने से सिर में दर्द होता है। अच्छे-अच्छे
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घरों की लड़कियां गरीबों के घर आती हैं और घर की हालत देखकर वैसा ही बर्ताव करती हैं। यह नहीं कि बैठी अपने भाग्य को कोसा करें । इस छोकरी ने हमारे घर को अपना समझा ही नहीं।

बेटा-जब तुम समझने भी दो। जिस घर में धुङ्गकियों, गालियो और कटु- ताओ के सिवा और कुछ न मिले, उसे अपना घर कौन समझे । घर तो वह है, जहाँ स्नेह और प्यार मिले। कोई लड़की डोली से उतरते ही सास को अपनी मां नहीं समभाती। माँ तभी समझेगी, जब सास पहले उसके साथ माँ का बर्ताव करे, बल्कि अपनी लड़की से ज्यादा प्रिय समझे।

माँ-- अच्छा, अब चुप रहो। जी न जलाओ । यह ज़माना ही ऐसा है कि लड़कों ने स्त्री का मुंह देखा और उसके गुलाम हुए। ये सब न-जाने कौन-सा मन्तर सीखकर आती हैं। यह वह बेटों के लच्छन है-कि पहर दिन चढे सोकर उठे । ऐसी कुलच्छनी बहू का तो मुँह न देखे।

बेटा--मैं भी तो देर में सोकर उठता हूँ, अम्मा । मुझे तो तुमने कभी नहीं कोसा।

माँ-तुम हर बात में उससे अपनी बरावरी करते हो ।

बेटा-जो उसके साथ घोर अन्याय है, क्योंकि जब तक वह इस घर को अपना नहीं समझती, तब तक उसको हैसियत मेहमान की है, और मेहमान की हम खातिर करते हैं, उसके ऐव नहीं देखते ।

मां--ईश्वर न करे किसीको ऐसी बहू मिले ।

बेटा-तो वह तुम्हारे घर में रह चुकी ।

मां-क्या संसार में औरतो की कमी है ?

बेटा-औरतों की कमी तो नहीं ; मगर देवियों को कमी ज़रूर है।

मां-नौज ऐसी औरत । सोने लगती है, तो बच्चा चाहे रोते-रोते बेदम हो जाय, मिनकती तक नहीं । फूल सा बचा लेकर मैके गई थी, तीन महीने में लौटी, तो बच्चा आधा भी नहीं है।

बेटा-तो क्या मैं यह मान लूँ कि तुम्हें उसके लड़के से जितना प्रेम है, उतना उसे नहीं है ? यह तो प्रकृति के नियम के विरुद्ध है। और मान लो, वह निरमोहिन ही है, तो यह उसका दोष है। तुम क्यों उसकी जिम्मेदारी अपने सिर लेती हो ? [ २४९ ]
उसे पूरी स्वतन्त्रता है, जैसे चाहे अपने बच्चे को पाले । अगर वह तुमसे कोई सलाह पूछे, तो प्रसन्न-मुख से दे दो, न पूछे तो समझ लो, उसे तुम्हारी मदद की ज़रूरत नहीं है। सभी माताएँ अपने बच्चे को प्यार करती हैं और वह अपवाद नहीं हो सकती।

माँ-तो मैं सब कुछ देखू और मुंह न खोलूँ। घर में आग लगते देखूँ और चुपचाप मुँह मे कालिख लगाये खड़ी रहूँ?

बेटा-तुम इस घर को जल्द छोड़नेवाली हो, उसे बहुत दिन रहना है। घर की हानि लाभ को जितनी चिन्ता उसे हो सकती है, तुम्हे नहीं हो सकती। फिर मैं कर ही क्या सकता हूँ? ज्यादा-से-ज्यादा उसे डाँट बता सकता हूँ; लेकिन वह डाँट की परवाह न करे और तुर्की-वतुर्की जवाब दे, तो मेरे पास ऐसा कौन-सा साधन है, जिससे मैं उसे ताड़ना दे सकूँ ?

मां-तुम दो दिन न बोलो, तो देवता सीधे हो जायें, सामने नाक रगड़े ।

बेटा-मुझे इसका विश्वास नहीं है। मैं उससे न बोलूंगा, वह भी मुझसे न बोलेगी। ज्यादा पीछे पडूंगा, तो अपने घर चली जायगी !

मां-ईश्वर वह दिन लाये । मैं तुम्हारे लिए नयी बहू लाऊँ।

बेटा-सम्भव है, वह इसकी भी चाची हो ।

[ सहसा वह आकर खड़ी हो जाती है। माँ और बेटा दोनों स्तम्भित हो जाते है, मानो कोई बम-गोला आ गिरा हो। रूपवती, नाजुक मिज़ाज, गर्वीली रमणी है, जो मानो शासन करने के लिए ही बनी है। कपोल तमतमाये हुए हैं ; पर अधरों पर विष-भरी मुस्कान है और आँखो में व्यंग्य-मिला परिहास ।]

मां-(अपनी झेप छिपाकर ) तुम्हें कौन बुलाने गया था ?

वहू- क्यो, यहाँ जो तमाशा हो रहा है, उसका आनन्द मैं न उठाऊँ ?

बेटा-मां-बेटे के बीच में तुम्हे दखल देने का कोई हक नहीं।

(बहू की मुद्रा सहसा कठोर हो जाती है।)

बहू-अच्छा, आप ज़बान वन्द रखिए। जो पति अपनी स्त्री को निन्दा सुनता रहे, वह पति बनने के योग्य नहीं। वह पतिधर्म का क, ख, ग भी नहीं जानता ! मुझसे अगर कोई तुम्हारी बुराई करता, चाहे वह मेरी प्यारी मां ही क्यो न होती, तो मैं उसकी जवान पकड़ लेती। तुम मेरे घर जाते हो, तो वहाँ तो जिसे देखती
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हूँ, तुम्हारी प्रशंसा ही करता है। छोटे-से बड़े तक गुलामों को तरह दौड़ते फिरते हैं। अगर उनके बस में हो, तो तुम्हारे लिए स्वर्ग के तारे तोड़ लावे और उसका जवाब मुझे यहाँ यह मिलता है कि बात-बात पर ताने-मेहने, तिरस्कार, बहिष्कार । मेरे घर तो तुमसे कोई नहीं कहता कि तुम देर मे क्यों उठे, तुमने अमुक महोदय को सलाम क्यों नहीं किया, अमुक के चरणो पर सिर क्यों नहीं पटका। मेरे बाबूजी कभी गवारा न करेंगे कि तुम उनकी देह पर मुक्कियाँ लगाओ, या उनकी धोती धोओ या उन्हे खाना पकाकर खिलाओ। मेरे साथ यहां यह बर्ताव क्यों ? मैं यहा लौंडी बनकर नहीं आई हूँ, तुम्हारी जीवन-सगिनी बनकर आई हूँ। मगर जीवन-सगिनी का यह अर्थ तो नहीं कि तुम मेरे ऊपर सवार होकर मुझे चलाओ। यह मेरा काम कि जिस जिस तरह चाहूँ तुम्हारे साथ अपने कर्तव्य का पालन करूँ। उसको प्रेरणा मेरी आत्मा- से होनी चाहिए, ताड़ना या तिरस्कार से नहीं। अगर कोई मुझे कुछ सिखाना चाहता है, तो माँ की तरह प्रेम से सिखाये, मैं सीखूँगी , लेकिन कोई ज़बरदस्ती, मेरी छाती पर चढकर, अमृत भी मेरे कण्ठ में ठूँसना चाहे, तो मैं ओठ बन्द कर लूंगी। मैं अब कब की इस घर को अपना समझ चुकी होती, अपनी सेवा और कर्तव्य का निश्चय कर चुकी होती , मगर यहाँ तो हर घड़ी, हर पल, मेरी देह मे सुई चुभाकर मुझे याद दिलाया जाता है कि तू इस घर को लौडी है, तेरा इस घर से कोई नाता नहीं, तू सिर्फ गुलामी करने के लिए यहाँ लाई गई है, और मेरा रक्त खौलकर रह जाता है , अगर यही हाल रहा, तो एक दिन तुम दोनो मेरी जान लेकर रहोगे।

माँ - सुन रहे हो अपनी चहेती रानी की बातें । वह यहाँ लौंडी बनकर नहीं, रानी बनकर आई है । हम दोनों उसकी टहल करने के लिए है, उसका काम हमारे ऊपर शासन करना है, उसे कोई कुछ काम करने को न कहे, मैं खुद मरा करूँ। और तुम उसकी बातें कान लगाकर सुनते हो। तुम्हारा मुँह कभी नहीं खुलता कि उसे डांटो या समझाओ। थरथर कांपते रहते हो।

बेटा-अच्छा अम्मां, ठण्डे दिल से सोचो। मैं इसकी बातें न सुनूँ, तो कौन सुने ? क्या तुम इसके साथ इतनी हमदर्दी भी नहीं देखना चाहती ? आखिर बाबूजी जीवित थे, तब वह तुम्हारी बातें सुनते थे या नहीं ? तुम्हे प्यार करते थे या नहीं ? फिर मैं अपनी बीबी की बातें सुनता हूँ तो, कोन-सी नयी बात करता हूँ, और तुम्हारे बुरा मानने की कौन बात है ? [ २५१ ]माँ-हाय बेटा, तुम अपनी स्त्री के सामने मेरा अपमान कर रहे हो। इसी दिन के लिए मैंने तुम्हें पाल-पोसकर बड़ा किया था ? क्यों मेरी छाती नहीं फट जाती ? [ वह आँसू पोंछती, आपे से बाहर, कमरे से निकल जाती है । स्त्री-पुरुष दोनों कौतुक-भरी आँखों से उसे देखते हैं, जो बहुत जल्द हमदर्दी में बदल जाती है।]

पति--मां का हृदय •••••

स्त्री-मां का हृदय नहीं, स्त्री का हृदय ••••

पति-अर्थात् ?

स्त्री-जो अन्त तक पुरुष का सहारा चाहता है, स्नेह चाहता है, और उस पर किसी दूसरी स्त्री का असर देखकर ईर्ष्या से जल उठता है ?

पति-क्या पगली की-सी बातें करती हो ?

स्त्री - यथार्थ कहती हूँ।

पति-तुम्हारा दृष्टिकोण बिलकुल गलत है और इसका तजरबा तुम्हें तब होगा, जब तुम खुद सास होगी।

स्त्री-मुझे सास बनना ही नहीं है । लड़का अपने हाथ-पाँव का हो जाय, व्याह करे और अपना घर संभाले। मुझे बहू से क्या सरोकार ।

पति-तुम्हे यह अरमान बिलकुल नहीं है कि तुम्हारा लड़का योग्य हो, तुम्हारी बहू लक्ष्मी हो, और दोनों का जीवन सुख से कटे ?

स्त्री-क्या मैं माँ नहीं हूँ?

पति-माँ और सास मे क्या कोई अन्तर है ?

स्त्री-उतना ही जितना ज़मीन और आसमान में है। मां प्यार करती हैं, सास शासन करती है। कितनी ही दयालु, सहनशील सतगुणी स्त्री हो, सास बनते ही मानो ब्याई हुई गाय हो जाती है । जिसे पुत्र से जितना ही ज्यादा प्रेम है, वह बहू पर उतनी ही निर्दयता से शासन करती है। मुझे भी अपने ऊपर विश्वास नहीं है । अधिकार पाकर किसे मद नहीं हो जाता। मैंने तय कर लिया है, सास बनूंगी ही नहीं । औरत की गुलामी सासो के बल पर कायम है। जिस दिन सासें न रहेगी, औरत की गुलामी का अन्त हो जायगा ।

पति-मेरा खयाल है, तुम ज़रा भी सहज बुद्धि से काम लो, तो तुम अम्माँ पर ही शासन कर सकती हो । तुमने हमारी बातें कुछ सुनी ? [ २५२ ]स्त्री-विना सुने ही मैंने समझ लिया क्या बातें हो रही होगी। वही बहू का रोना..

पति-नहीं, नहीं । तुमने बिलकुल गलत समझा । अम्मा के मिजाज में आज मैंने विस्मयकारी अन्तर देखा, विलकुल अभूतपूर्व। आज वह जैसे अपनी कटुताओं पर लजित हो रही थीं। हां, प्रत्यक्ष रूप से नहीं, संकेत रूप से । अब तक वह तुमसे इसलिए नाराज रहती थीं कि तुम देर में उठती हो । अब शायद उन्हे यह चिन्ता हो रही है कि कहीं सबेरे उठने से तुम्हे ठण्ड न लग जाय । तुम्हारे लिए पानी गर्म करने को कह रही थीं।

स्त्री-(प्रसन्न होकर ) सच ।

पति-हाँ, मुझे तो सुनकर आश्चर्य हुआ ।

स्त्री-- तो अब मैं मुंह-अँधेर उठूंगी। ऐसी ठण्ड क्या लग जायगी, लेकिन तुम मुझे चकमा तो नहीं दे रहे हो ?

पति-अब इस बदगुमानी का क्या इलाज । आदमी को कभी-कभी अपने न्याय पर खेद तो होता ही है।

स्त्री-तुम्हारे मुंह में घी-शक्कर । अब मैं गजरदम उठूँगी। वह बेचारी मेरे लिए क्यों पानी गर्म करेंगी। मैं खुद गर्म कर लूंगी। आदमी करना चाहे तो क्या नहीं कर सकता

पति-~-मुझे उनकी बात सुन-सुनकर ऐसा लगता था, जैसे किसी देवो आदेश ने उनकी आत्मा को जगा दिया हो । तुम्हारे अल्हड़पन और चपलता पर कितना भन्नाती हैं। चाहती थीं कि घर में कोई बड़ी-बूढी आ जाय, तो तुम उसके चरण छुओ , लेकिन शायद अब उन्हे मालूम होने लगा है कि इस उम्र मे सभी थोड़े बहुत अल्हड़ होते हैं। शायद उन्हें अपनी जवानी याद आ रही है। कहती थी, यही तो शौक- सिगार, पहनने- ओढने, खाने-खेलने के दिन थे। बुद्धियों का तो दिन-भर तांता लगा रहता है, कोई कहाँ तक उनके चरण छुए और क्यों छुए। ऐसी कहाँ की धड़ी देवियाँ हैं।

स्त्री-मुझे तो हर्षोन्माद हुआ चाहता है।

पति-मुझे तो विश्वास ही न आता था। स्वप्न देखने का सन्देह हो रहा था ।

स्त्री-अव आई हैं राह पर ।

पति -कोई दैवी प्रेरणा समझो। [ २५३ ]स्त्री~-मैं कल से ठेठ बहू बन जाऊँगी। किसी को खबर भी न होगी कि कब अपना मेक-अप करती हूँ । सिनेमा के लिए भी रासाह में एक दिन काफी है। बूढियों के पांव छू लेने में ही क्या हरज है। वह देवियाँ न सही, चुडैले सही , मुझे आशी- र्वाद तो देगी, मेरा गुण तो गायेंगी।

पति-सिनेमा का तो उन्होंने नाम भी नहीं लिया।

स्त्री--तुमको जो इसका शौक है । अब तुम्हे भी न जाने दूंगी ।

पति-लेकिन सोचो, तुमने कितनी ऊँची शिक्षा पाई है, किस कुल की हो, इन खूसट बुढ़ियो के पांव पर सिर रखना तुम्हे विलकुल शोभा न देगा ।

स्त्री-तो क्या ऊँची शिक्षा के यह मानी हैं कि हम दूसरों को नीचा समझे ? बुड्ढे कितने ही मूर्ख हो , लेकिन दुनिया का तजरवा तो रखते हैं। कुल को प्रतिष्ठा भी नम्रता और सद्व्यहार से होती हे, हेकड़ी और रुखाई से नहीं ।

पति-मुझे तो यही ताज्जुब होता है कि इतनी जल्द इनकी काया पलट कैसे हो गई । अब इन्हे बहुओ का सास के पाँव दबाना या उनकी साड़ी धोना, या उनकी देह में मुक्कियाँ लगाना चुरा लगने लगा है। कहती थीं, बहू कोई लोडी थोड़े ही है कि बैठी सास का पांव दवाये।

स्त्री-मेरी कसम ?

पति-हाँ जी, सच कहता हूँ। और तो और, अव वह तुम्हे खाना भी न पकाने देंगी। कहती थीं, जब बहू के सिर में दर्द होता है, तो क्यो उसे सताया जाय, कोई महाराज रख लो।

स्त्री-(फूली न समाकर ) मैं तो आकाश में उड़ी जा रही हूँ। ऐसी सास के तो चरण धो-धोकर पिये , मगर तुमने पूछा नहीं, अब तक तुम क्यों उसे मार-मार- कर हकीम बनाने पर तुली रहती थी।

पति-पूछा क्यो नहीं, भला मैं छोड़नेवाला था । बोली, मैं अच्छी हो गई थी, मैंने हमेशा खाना पकाया है, फिर यह क्यो न पकाये। लेकिन अब उनकी समझ मे आया है कि वह निर्धन बाप की बेटी थीं, तुम सम्पन्न कुल की कन्या हो ।

स्त्री-अम्माजी दिल की साफ है।

पति- लेकिन तुमको उनकी पुरानी आदतों का ध्यान तो रखना ही होगा ।

स्त्री-इसे मैं क्षमा के योग्य समझती हूँ। जिस जल-वायु मे हम पलते हैं, उसे
[ २५४ ]एकवारगी नहीं बदल सकते। जिन रुढ़ियों और परम्पराओं में उनका जीवन बीता है, उन्हें तुरन्त त्याग देना उनके लिए कठिन है। वह क्या, कोई भी नहीं छोड़ सकता। वह तो फिर भी बहुत उदार हैं। तुम अभी महाराज मत रखो। खामख्वाह जोरबार क्यो होगे, जब तरक्की हो जाय, तो महाराज रख लेना। अभी मैं पका लिया करूँगी। तीन-चार प्राणियों का खाना ही क्या। मेरी ज़ात से कुछ तो अम्मा को आराम मिले । मैं जानती हूँ सब कुछ , लेकिन कोई रोब जमाना चाहे, तो मुझसे बुरा कोई नहीं।

पति-मगर यह तो मुझे बुरा लगेगा, कि तुम रात को अम्माँ के पाँव दबाने बैठो।

स्त्री--बुरा लगने की कौन बात है, जब उन्हें मेरा इतना खयाल है, तो मुझे भी उनका लिहाज करना ही चाहिए। जिस दिन मैं उनके पाँव दवाने बैठूगी, वह मुझ पर प्राण देने लगेगी । आखिर बहू-बेटे का कुछ सुख उन्हे भी तो हो । बङो की सेवा करने मे हेठी नहीं होती। बुरा जब लगता है, जब वह शासन करते हैं, और अम्माँ मुझसे पांव दवायेंगी थोड़े ही । संत का यश मिलेगा !

पति--अब तो अम्माँ को तुम्हारी फजूलखर्ची भी बुरी नहीं लगती। कहती थी, रुपये-पैसे बहू के हाथ मे दे दिया करो।

स्त्री--चिढकर तो नहीं कहती थी ?

पति-नहीं-नहीं, प्रेम से कह रही थीं। उन्हें अब भय हो रहा है, कि उन के हाथ मे पैसे रहने से तुम्हे असुविधा होती होगी। तुम बार-बार उनसे माँगते लजाती भी होगी और डरती भी होगी और तुम्हे अपनी ज़रूरतों को रोकना पड़ता होगा।

स्त्री- ना भैया, मैं यह जजाल अभी अपने सिर न लूंगो। तुम्हारी थोड़ी-सी तो आमदनी है, कहीं जल्दी से खर्च हो जाय, तो महीना कटना मुश्किल हो जाय । थोड़े में निर्वाह करने की विद्या उन्हीं को आती है। मेरो ऐसो जरूरतें ही क्या है। मैं तो केवल अम्माजी को चिढाने के लिए उनसे बार-बार रुपये माँगती थी । मेरे पास तो खुद सौ-पचास रुपये पड़े रहते हैं। बाबूजी का पत्र आता है, तो उसमें दस-बीस के नोट जरूर होते है , लेकिन अब मुझे हाथ रोकना पड़ेगा । आखिर बाबूजी कब तक देते चले जायेंगे और यह कौन-सी अच्छी बात है, कि मैं हमेशा उनपर टैक्स लगाती रहूँ। [ २५५ ]पति -देख लेना, अम्माँ अब तुम्हे कितना प्यार करती हैं।

स्त्री-तुम भी देख लेना मैं उनकी कितनी सेवा करती हूँ।

पति --मगर शुरू तो उन्हों ने किया ?

स्त्री-केवल विचार में। व्यवहार मे आरम्भ मेरी ही ओर से होगा। भोजन पकाने का समय आ गया । चल्ती हूँ। आज कोई खास चीज़ तो न खाओगे ?

पति-तुम्हारे हाथो की रूखी रोटियाँ भी पकवान का मजा देंगी।

स्त्री -- अब तुम नटखटी करने लगे।





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