मानसरोवर १
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ २९२ से – ३०४ तक

 
गिला

जीवन का बड़ा भाग इसो घर में गुजर गया, पर कभी आराम न नसीब हुआ। मेरे पति संसार को दृष्टि में पड़े सज्जन, बड़े शिष्ट, बड़े उदार, बड़े धौम्य होंगे, लेकिन जिस पर गुजरती है. वही जानता है। संसार को तो उन लोगों को प्रशसा करने में आनन्द आता है, जो अपने घर को भाड़ में झोंक रहे हों, गैरों के पीछे अपना सर्व- नाश किये डालते हौं। जो प्राणो घरवालों के लिए मरता है, उसकी प्रशसा संसारबाले नहीं करते। वह तो उनकी दृष्टि में स्वार्थी है, कृपण है, संकीर्ण हृदय है, आचार-प्रष्ट है। इसी तरह जो लोग बाहरवालों के लिए मरते हैं, उनको प्रशसा घरवाले पर्यों करने लगे। अब इन्हीं को देखो, सारे दिन मुझे जलाया करते हैं। मैं परदा तो नहीं करतो, लेकिल सोई-सुलफ के लिए बाजार जाना भुरा मालूम होता है । और, इनका यह हाल है, कि चील मॅगवाओ, तो ऐसी दुकान से लायेंगे, जहाँ कई ग्राहक भूलकर भी न जाता हो। ऐसी दुकानों पर न तो चीज़ अच्छी मिलतो है, न तौल ठीक होता है, न दाम हो उचित होते हैं। यह दोष न होते, तो वह दृशान पदनाम हो क्यों होतो; पर इन्हें ऐसी हो गई-पौती दुकानों से चीजें लाने का मरत है। बार-बार कह दिया, साइव, किसी चलती हुई दूकान से पौदे लाया करो। वहाँ माल अधिक खपता है। इसलिए ताजा माल आता रहता है, पर इनकी तो टुपूजियों से बनती है, और वे इन्हें उलटे छूरे से मुंहते हैं । गेहूं लायेंगे, तो सारे बाजार से खराब, धुना हुआ; चावल ऐसा मोटा कि बैल भी न पूछे, दाल में कराई और करद भरे हुए। मनों लकडी जला डालो, क्या मजाल कि गले। घी लायेंगे, तो आधौआध तेल, या सोलह आने कोकोजेम और दर असली घी से एक छटाँक कम ! तेल लायेंगे तो मिला- वट, बाले में डालो, तो चिकट आय; पर दाम दे पायेंगे शुद्ध प्रविले के तेल का । किसी चलती हुई, नामो दुकान पर जाते तो इन्हें जैसे डर लगता है। शायद ऊँची दुकान और फीके पकवान के कायल है। मेरा अनुभव तो यह है, कि नोची दुकान पर ही सड़े पकवान मिलते हैं।

एक दिन की बात हो, तो बस्ति कर ली जाय। रोज-रोज का टंटा नहीं सहा

जाता । मैं पूछती हूँ, आखिर आप टुटपूँजियों की दुकान पर जाते ही क्यों हैं ? क्या उनके पालन-पोषण का ठेका तुम्ही ने लिया है ? आप फरमाते हैं, मुझे देखकर सब-के-सब बुलाने लगते हैं। वाह क्या कहना है । कितनी दूर की बात कही है जरा इन्हें बुला लिया और खुशामद के दो-चार शब्द सुना दिये, थोड़ो-खो स्तुति कर दी, बस सापका मिजाज आसमान पर जा पहुंचा। फिर इन्हें सुधि नहीं रहती कि यह कूड़ा-करकट बोध रहा है या क्या । पूछती हूँ, तुम उस रास्ते से जाते ही क्यों हो ? क्यों किसी दूसरे रास्ते से नहीं जाते ? ऐसे उठाईगोरों को मुह हो क्यों लगाते हो ? इसका कोई जवाब नहीं । एक चुप सौ बाधाओं को हरती है।

एक बार एक गहना बनवाने को दिया। मैं तो महाशय को जानती थी । इनसे कुछ पुङगा व्यर्थ सममता । अपने पहचान के एक सोनार को बुला रही थी। सयोग से आप भी विराजमान थे। बोले --- यह सम्प्रदाय विश्वास के योग्य नहो, धोखा खाओगी। मैं एक सुनार को जानता हूँ, मेरे साथ का पढ़ा हुआ है, परसों साथ-साथ खेले हैं, वह मेरे साथ चालबाजी नहीं कर सकता। मैंने भी समझा, अब इनका भित्र है और वह भी बचपन का, तो कहाँ तक दोस्ती का हक न निभायेगा। सोने का एक आभूषण और सौ रुपये इनके हवाले किये । इन भलेमानस ने बह आभूषण और रुपये न जाने किस बेईमान को दे दिये कि बरसों के मझट के बाद जब चीज़ बनकर आई, तो आठ आने ताबा और इतनी भहो कि देखकर घिन लगती थो । बरसों की अभिलाषा धूल में मिल गई। रे।-पीटकर वठ रहो । ऐसे-ऐसे वफादार तो इनके मित्र हैं, जिन्हें मित्र की गरदन पर छुरी फेरने में भी सोच नहीं। इनकी दोस्तो भी उन्हीं लोगों से है, जो ज़माने भा के नट्ट, गिरहट्ट, लंगोटो में फ्राय खेलनेवाले, फाकेमस्त हैं, जिनका उद्यम ही इन-जैसे आँख के अन्धों से दोस्तो गांठना है । नित्य हो एक-न-एक -महाशय उधार मांगने के लिए सिर पर सवार रहते हैं और बिना लिये गला नहीं छोड़ते । मगर ऐसा कभो न हुआ कि किसी ने रुपये चुकाये हों। आदमो एक बार -खोकर सोखता है, दो बार खोकर सीखता है, किन्तु यह भलेमानस हमार बार खोकर भी नही सीखते। जब कहती हूं, रुपये तो दे आये, अब मांग क्यों नहीं लाते ? क्या “मर गये तुम्हारे वह दोस्त ? तो वस बगले झांककर रह जाते हैं। अपने मित्रों को -सुखा जवाब नहीं दिया जाता। खर, सूखा जवाब न दो। मैं भी नहीं कहती कि दोस्तों से बेमुरौवती रो ; मगर चिकनी-चुपड़ी बातें तो बना सकते हो, बहाने तो

कर सकते हो। किसी मित्र ने रुपये मांगे और आप के सिर पर बोभा पड़ा बेचारे कैसे इनकार करें ! आखिर लोग जान जायेंगे कि नहीं कि यह महाशय भी खुक्खल ही है। इनकी हविस यह है कि दुनिया इन्हें सम्पन्न समझती रहे, चाहे मेरे गहने हो क्यो न गिरों रखने पड़ें सच कहती हूँ, कभी-कभी तो एक एक पैसे की तगो हो जाती है और इन भले साक्ष्मी को रुपये जैसे घर में काटते हैं। जब तक रुपये के चारे-न्यारे न कर लें इन्हें चैन नहीं। इनके करतूत कहा तक गाऊँ । मेरी तो नाक में दम आ गया। एक न-एक मेहमान रोज यमरान की भांति सिर पर सवार रहते है। न जाने कहाँ के बेफिक्रे इनके मित्र हैं। कोई कहाँ से मार मरता है, कोई यही से। घर क्या है, अहिजों का अड्डा है। बरा-सा तो घर, मुश्किल से दो प्लग, ओढना- बिछौना भी फालतू नहीं ; मगर आप हैं कि मित्रों को निमन्त्रण देने को तैयार ! भाप तो अतिथि के साथ लेटेंगे, इसलिए इन्हें चारपाई भी चाहिए, ओढ़ना-बिछौना भी गहिए, नहीं तो घर का परदा खुल जाय। जाता है मेरे और बच्चों के सिर । गरमियों में तो खैर कोई मुजायका नहीं, लेकिन जाओं में तो ईश्वर ही याद आते हैं। गरमियों में भी खुली छत पर तो मेहमानों का अधिकार हो जाता है, अब मैं बचों को लिये पिजड़े में पड़ी फड़फाया करूँ। इन्हें इतनी समझ भी नहीं, कि जब घर की यह दशा है तो क्यों ऐसों को मेहमान बनायें, जिनके पास कपड़े लत्त तक नहीं। ईश्वर को दया से इनके सभी मित्र इसी श्रेणी के हैं। एक भी ऐसा माई का लाल नहीं, जो समय पहने पर धेले से भी इनको मदद कर सके । दो एक बार महाशय को इसका अनुभव-- अत्यन्त कटु अनुभद-हो चुका है, मगर इस जल भात ने से आँखें खोलने की कसम खा ली है। ऐसे ही दरिद्र भट्टाचायौ से इनकी पटती है। शहर में इतने लक्ष्मी के पुत्र है , पर आपका किसी से परिचय नहीं। उनके पास माते इनकी आत्मा दुखतो है। दोस्ती गोटेंगे ऐसों से, जिनके घर में खाने का ठिकाना नहीं।

एक बार हमारा कहार छोड़कर चला गया और कई दिन कोई दूसरा कहार न मिला। किसी चतुर और कुशल कहार की तालाश में थी; किन्तु आपको जल्द-से- जल्द कोई आदमी रख लेने की धुन सवार हो गई। घर के सारे काम पूर्ववत् चक रहे थे; पर आपको मालूम हो रहा था कि गाड़ी रुकी हुई है। मे। जूठे घरतन माणना और अपना साग-भाजी के लिए बाजार जाना इनके लिए असह्य हो उठा। एक दिन जाने कह' से एक बांगडू को पकड़ लाये। उसको सूरत कहें देती थी कि कोई जांगलू है ; मगर आपने उसका ऐसा बखान किया कि क्या कहूँ। बड़ा होशियार है, बड़ा आज्ञाकारी, परले सिर का मेहनती, गज़ब का सलीकेदार और बहुत हो ईमान- दार। खैर, मैंने उसे रख लिया। मैं बार-बार क्यों इनकी बातों में आ जातो हूँ, इसका मुझे स्वयं आश्चर्य है । यह यादमी केवल रूप से आदमी था। भादमियत के और कोई लक्षण उसमें न थे। किसी काम की तमीज़ नहीं। बेईमान न था; पर गधा अव्वल दरजे का। बेईमान होता, तो कम-से-कम इतनो तस्कीन तो होती कि खुद खा जाता है । अभागा दूकानदारों के हाथों लुट जाता था। दस तक की गिनती उसे न आती थी। एक रुपया देकर बाजार भेजू, तो संध्या तक हिसाब न समझा सके। क्रोध पी-पीकर रह जाती थी। रक्क खौलने लगता था कि दुष्ट के कान उखाः यूँ; मगर इन महाशय को उसे कभी कुछ कहते नहीं देखा, डाँटना तो दूर की बात है । आप नहा-धोकर धोती छौट रहे हैं और वह दूर बैठा तमाशा देख रहा है । मैं तो बचा का खून पी जाती, लेकिन इन्हें जरा सी ग्रम नहीं। जब मेरे डारने पर धोती छोटने जाता भी, तो आप उसे समीप न आने देते। बस, उसके दोर्षों को गुण बनाकर दिखाया करते थे और इस प्रयास में सफल न होते, तो उन दोषों पर परदा डाल देते थे। मूर्ख को मार लगाने की तमीज़ न थी। मरदाना कमरा हो तो सारे पर में ढङ्ग का एक कमरा है । उसमें झाडू लगाता, तो इधर की चीज़ उधर, ऊपर के नीचे; मानों स्मरे में भूकम्प आ गया हो! और गर्द का यह हाल, कि सांस लेना कठिन ; पर आप शान्तिपूर्वक कमरे में बैठे हैं, जैसे कोई बात ही नहीं। एक दिन मैंने उसे खूब डांटा --- कल से ठीक-ठीक झाडू न लगाई तो कान पकड़कर निकाल दूंगी । सवेरे सोकर उठी, तो देखती हूँ, कमरे में माडू लगी हुई है और हरेक चीज़ करीने से रखी हुई है । गर्द-गुबार का नाम नहीं। मैं चकित होकर देखने लगी, तो आप हँसकर बोले --- देखती क्या हो; आज घूरे ने बड़े सवेरे उठकर झाडू लगाई है। मैंने सममा दिया। तुम ढङ्ग तो बताती नहीं, उलटे डाँटने लगती हो।

मैंने समझा, खैर, दुष्ट ने कम-से-कम एक काम तो सलीके से किया। अब रोज कमरा साफ सुथरा मिलता। पूरे मेरी दृष्टि में विश्वासपात्र बनने लगा। सयोग की बात ! एक दिन मैं घरा मामूल से सवेरे उठ बैठो और कमरे में भाई तो क्या देखती हूँ कि घूरे द्वार पर खड़ा है और आप तन-मन से कमरे में झाड़ू लगा रहे

हैं। मेरी आँखों में खून उतर आया। उनके हाथ से झाडू छोनकर धूरे के सिर पर जमा दी। हरामखोर को उसो दम निकाल बाहर किया । आप फरमाने लगे उसका अहोना तो चुका दो। वाह री समझ ! एक तो काम न करे, उस पर आँखें दिखाये। उस पर पूगे मजूरी भी चुका दूं। मैंने एक कौड़ो भी न दो। एक कुरता दिया था, यह भी छीन लिया। इस पर जड़ भरत महोदय मुझसे कई दिन रूठे रहे । घर छोड़कर भागे जाते थे। बड़ी मुश्किलों से रुके । ऐसे-ऐसे भाँद भी ससार में बड़े हुए हैं। मैं न होतो, तो शायद इन्हें अब तक किसी ने बाजार में बेच लिया होता।

एक दिन मेहतर ने उतारे कपड़ों का सवाल किया । इस बेकारी के प्रमाने में फालतू कपड़े तो शायद पुलीसवालों या रइसों के घर में हों, मेरे घर में तो जरूरी कपड़े भी काफी नहीं। आपका वस्त्रालय एक बकची में भा जायगा, जो डाक के पार- साल से कहीं भेजा जा सकता है। फिर इस साल जाड़ों के कपड़े बनवाने की नौबत न आई । पैसे नज़र नहीं आते, कपड़े कहाँ से बनें । मैंने मेहतर को साफ जवाब दे दिया । कड़ाके का जादा पड़ रहा था, इसका अनुभव मुझे कम न था । परीयों पर क्या बीत रही है, इसका भी मुझे ज्ञान था , लेकिन मेरे या आपके पास खेद के सिवा इसका और क्या इलाज है। जब तक समान का यह संगठन रहेगा, ऐसो शिकायतें पैदा होतो हे गी। अब एक-एक अमौर और रईस के पास एक-एक मालगाड़ी कपड़ों से भरी हुई है, तो फिर निर्धनों को क्यों न नग्नता का कष्ट उठाना पड़े। खैर, मैंने तो मेहतर को जवाब दे दिया। आपने क्या किया कि अपना कोट उठादर उसकी भेंट कर दिया । मेरी देह में आग लग गई। मैं इतनी दानशील नहीं हूँ कि दूसरों को खिलाकर आप सो पहूँ, देवता के पास यही एक कोट था। आपको इसको जरा भो चिन्ता न हुई कि पहनेंगे क्या ? यश के लोभ ने जैसे -शुद्धि हो हर ली । मेहतर ने सलाम किया, दुआएँ दो और अपनी राह लो। आप कई दिन सी से ठिठुरते रहे। प्रात काल घूपने जाया करते थे, वह बन्द हो गया। ईश्वर ने उन्हें हृदय भी एक विचित्र प्रकार का दिया है। फटे-पुराने कपड़े पहनते आपको जरा भी सकोच नहीं होता। मैं तो मारे लाश के गड़ जाता है। पर आपको -सारा भी फिक्र नहीं । कोई हंसता है, तो इसे, आपको बला से । अन्त में जब मुझसे न देखा गया, तो एक बोट बनवा दिया। जो तो जलसा था कि खूब सर्दी खाने दूं।
पर डरी कि कहीं वोमार पड़ मायँ तो और बुरा हो, आखिर काम तो इन्हीं को करना है।

महाशय अपने दिल में समझते होंगे, मैं कितना विनीत, कितना परोपकारी हूँ। शायद इन्हें इन बातों का गर्व हो । मैं इन्हें परोपकारी नहीं समझती, न विनीत ही समझती हूँ। यह जड़ता है, सीधी-सादी निरीहता । जिस मेहतर को आपने अपना कोट दिया, उसे मैंने कई बार रात को शराब के नशे में मस्त झूमते देखा है और आपको दिखा भी दिया है । तो फिर दूसरों को विवेक होनता को पुरौती हम क्यों करें ? अगर आप विनीत और परोपकारी होते, तो घरवालों के प्रति भी तो आपके में कुछ उदारता होती । या सारी उदारता बाहरवालो हो के लिए सुरक्षित है? घरवालों को उसका अल्पांच भी न मिलना चाहिए ? मेरी इतनी अवस्था बीत गई। पर इस भले आदमी ने कभी अपने हाथों से मुझे एक उपहार भी न दिया। बेशक मैं जो चीज़ बाजार से मंगवाऊँ, उसे लाने में इन्हें जरा भो आपत्ति नहीं, बिलकुल सज्र नहीं ; मगर रुपये मैं दे दूँ , यह शर्त है। इन्हें खुद कभी यह उमग नहीं होती। यह मैं मानती हूँ कि बेचारे अपने लिए भी कुछ नहीं लाते। मैं जो कुछ मंगवा द, उसी पर सतुष्ट हो जाते हैं, मगर आखिर आदमी कभी-कभी शौक को चीजें चाहता ही है। अन्य पुरुषों को देखतो हुँ, स्त्री के लिए तरह-तरह के गहने, भौति-भांति के कपड़े, शौक-स्गिार की वस्तुएं लाते रहते हैं। यहाँ सर व्यवहार का निषेध है। बच्चों के लिए भी मिठाइयां, खिलौने, बाजे शायद जीवन में एक बार भी न लाये हो। शपथ-सो खा ली है। इसलिए मैं तो इन्हें कृष्ण कहूँगी, अरसिक कहूँगी, हृदय-शुन्य कहूँगो, उदार नहीं कह सकती। दूसरों के साथ इनका जो सेवा-भाव है उसका कारण है, इनका यश-लोभ और व्यावहारिक अज्ञानता । आपके विनय का यह हाल है कि जिस दफ्तर में आप नौकर हैं, उसके किसी अधिकारी से आपका मेल. जोल नहीं। अफसरों को सलाम करना तो आपकी नीति के विरुद्ध है, नजर या डालो तो दूर की बात है। और तो और, कभी किसी अफसर के घर नहीं जाते। इसका खमियाजा आप न उठाएँ, तो कौन उठाये । औरों को रिआयती छुट्टयां मिलती हैं। आपका वेतन कटता है, औरों की तरकियां होती हैं, आपको कोई पूछता भी नहीं, हाजिरी में पांच मिनट को भी देर हो जाय, तो जवाब हो जाता है। बेचारे जो तोड़कर काम करते हैं, कोई बड़ा कठिन काम आ जाता है, तो इन्हीं के सिर मँढ़ा

जाता है । इन्हें जरा भी आपत्ति नहीं । दफ्तर में इन्हे 'पिस्सू'-'पिरसू आदि उपा धियां मिली हुई हैं , मगर पडाव कितना ही कड़ा मारें, इनके भाग्य में वही सूखो घास लिखी है। यह विनय नहीं है। स्वाधीन-मनोवृत्ति भी नहीं है, मैं तो इसे समय- चातुरी का अभाव कहती हूँ, व्यावहारिक ज्ञान को क्षति कहतो हूँ । आखिर कोई अफसर आपसे क्यों प्रसन्न हो ? इसलिए कि भाप बड़े मेहनती है? दुनिया का काम मुरौवत और रवादारी से चलता है। अगर हम किसी से खिंवे रहें, तो कोई कारण नहीं कि वह भी हमसे न खिचा रहे । फिर जन्म मन में क्षेाम होता है, तो वह दसतरो हारों में भी प्रकट हो ही जाता है। जो मातहत अफसर को प्रसन्न रखने सौ चेष्टा करता है, जिसको जात से अफसर का कोई व्यक्तिगत पार होता है, जिस पर वह विश्वास कर सकता है, उसका लिहाज वह स्वभावत. करता है। ऐसे चिरागियों से क्यों किसी को सहानुभूति होने लगी। अफसर भी तो मनुष्य है। उसके हृदय में जो सम्मान और विशिष्टता की कामना है, यह कहाँ पूरी हो । प्रजा अधीनस्थ कर्मचारी ही उससे फिरंट रहें, तो क्या उसके अफसर से सलाम करने आयेंगे? आपने जहाँ नौकरी की, वहीं से निकाले गये। कभी किसी दफ्तर में दो तीन साल से क्यादा न टिके । या तो अफघर से लड़ गये, या कार्याधिक्य के कारण छोड़ बैठे।

आपको कुटुम्ब सेवा का दावा है। आपके कई भाई-भतीजे होते है, वह कभी इनकी बात भी नहीं पूछते, आप बराबर उनका मुंह ताकते रहते हैं। इनके एक भाई पाइन आजकल तहसीलदार हैं । घर की मिल्कियत सन्हीं की निगरानी में है। वह ठाट से रहते हैं। मोटर रस को है, कई नौकर चार हैं ; मगर यहां भूले से भो पत्र नहीं लिखते। एक बार हमें रुपये की बड़ी तगो हुई। मैंने कहा-अपने भ्राताजी से क्यों नहीं मांग लेते ? कहने लगे --- उन्हें क्यो चिन्ता में डाल् । उन्हें भी तो अपना खर्च है । कौन-सी ऐसी पचत हो गती होगी। जब मैंने बहुत मजबूर किया, तो भापने पत्र लिखा। मालूम नहीं', पत्र में क्या लिखा पत्र लिखा या मुन्ने चकमा दे दिया; पर रुपये न आने थे, न आये। कई दिनों के बाद मैंने पूछा --- कुछ जवाब आया श्रीमान् के भाई साहब के दरबार से ? आपने रुष्ट होकर कहा --- अभी केवल एक सप्ताह तो खत पहुंचे हुए, अभी क्या जवाब आ सकता है ? एक सलाह और गुजरा; मगर जवाम नदारद । अब आपका यह हाल है कि मुझे कुछ बातचीत करने का अवसर ही नही देते। इतने प्रमन्न-चित्त नज़र आते है कि क्या

कहूँ । बाहर से आते हैं तो खुश- खुश ! कोई-न-कोई शिगूफा लिये हुए। मेरी खुशामद भी खूब हो रही है, मेरे मैकेवालों को प्रशसा भी हो रही है, मेरे गृह-प्रबन्ध का बखान भी असाधारण रीति से किया जा रहा है। मैं इन महाशय की चाल समझ रही थी। यह सारी दिलजोई केवल इसलिए थी कि श्रीमान् के भाई साहय के विषय में कुछ पूछ न बैहूँ । सारे राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, आचारिक प्रश्नों को मुझसे व्याख्या को जाती थी, इतने विस्तार और गवेषणा के साथ कि विशेषज्ञ भी लोहा मान जाय । केवल इसलिए कि मुझे वह असम उठाने का अवसर न मिले ; लेकिन मैं भला कंत्र चूकनेवाली थी। जब पूरे दो सप्ताह गुजर गये और बोमे के रुपये भेजने को मिति, मौत की तरह सिर पर सवार हो गई, तो मैंने पूछा --- क्या हुआ, तुम्हारे भाई साहब ने श्रीमुख से कुछ फरमाया या अभी तक पत्र नहीं पहुँचा ? माखिर घर की जायदाद में हमारा भी कुछ हिस्सा है या नहीं। या हम किसी काँडो-दासी की सन्तान है ? पांच सौ रुपये साल का नफा तो दस साल पहले था। अब तो एक हजार से कम न होगा; पर हमें कभी एक मंमी कौड़ी भी नहीं मिली। मोटे हिसाब से हमें दो हजार मिलना चाहिए। दो हज़ार न हो, एक हजार हो, पाँच सौ हो, ढाई सौ हो, कुछ न हो, तो बीमा के प्रीमियम- भर को तो हो। तहसीलदार साहम की आमदनी हमारी भामदनी की चौगुनी है, रिश्वते भी लेते हैं, तो फिर हमारे रुपये क्यों नहीं देते ? भाप हे-हें हाँ हाँ करने लगे। कहने लगे --- वह बारे घर की मरम्मत करवाते हैं, बन्धु-बन्धियों का स्वागत-सत्कार करते हैं, नातेदारियों में भेंट-भौट भेजते हैं। और कहाँ से लायें मो हमारे पास भेजें ? वाह री बुद्धि ! मानो जायदाद इसी लिए होती है कि उसको कमाई सौ में खर्च हो जाय। इस भले आदमी को बहाने गढ़ने भी नहीं आते। मुमसे पूछते, मैं एक नहीं, हज़ार बता देती, एक-से-एक बढ़कर --- कह देते, घर में भाग लग गई, सब कुछ स्वाहा हो गया, या बोरी हो गई, तिनका तक न बचा, या दस हजार का भनाज भरा था, उसमें घाटा रहा, या किसी से फौजदारी हो गई, उसमें दिवाला पिट गया। आपको सूची भी तो लचर-सी बात ! तकदीर ठोककर बैठ रही। पड़ोस की एक महिला से रुपये कर्ज लिये, तग जाकर काम चलो। फिर भी आप भाई-भतीजो की तारीफ के पुल बांधते हैं, तो मेरे शरीर में आग लग जाती है। ऐसे कौरवों से ईश्वर बचाये। ईश्वर को दया से आपके दो बच्चे हैं, दो बच्चियां भी हैं। ईश्वर की दया कहुँ, या कोप कहूँ । सब-के-सब इतने उधमी हो गये हैं कि खुदा को पनाह ; मगर क्या मजाल है कि यह भोंद किसी को कड़ी आँखों से भी देखें रात के आठ बज गये हैं, युवराज अभी घूमकर नहीं आये । मैं घबरा रही हूँ, आप निश्चिन्त बैठे अख. बार पढ़ रहे हैं । मलाई हुई बातो हूँ और अखबार छोनकर कहतो हूँ, जाकर जरा देखते क्यों नहीं, लौंडा कहाँ रह गया ? न जाने तुम्हारा हृदय कितना कठोर है। ईश्वर ने तुम्हें सन्तान हो न जाने क्यों दे दो । पिता का पुत्र के साथ कुछ तो धर्म है ! तप आप भी गर्म हो जाते है। अभी तक नहीं आया ? बड़ा शैतान है। आज बचा आते हैं, तो कान उखास लेता हूँ। मारे हटरों के खाल उधेडकर रख दंगा। यो दिकर तैश के साथ आप उसे खोजने निकलते हैं। संयोग को पात, आप उपर जाते हैं, इधर लडका आ जाता है। मैं पूछती हूँ, तू किधर से आ गया ? वह तुझे हूँढ़ने गये हुए हैं। देखना, आज कैसो मरम्मत होती है। यह आदत हो छूट जायगी। दाँत पौस रहे थे। आते हो होंगे । छड़ी भो उनके हाथ में है। तुम इतने अपने मन के हो गये हो कि धात नहीं सुनते ! आज आटे दाल का भाव मालम होगा। लड़का सहम जाता है और लम्प जलाकर पढ़ने बैठ जाता है। महाशयको दो-ढाई घण्टे के बाद लौटते हैं, हैरान और परेशान और बदहवास । घर में पाँव रखते हो पूछते हैं --- आया कि नहीं ?

मैं उनका क्रोध उत्तेजित करने के विचार से कहती हूँ --- आकर बैठा तो है, जाकर पूछते क्यों नहीं ? पूछकर हार गई, कहाँ गया था, कुछ बोलता ही नहीं।

आप गरजकर कहते है --- मन्नू, यहाँ आओ।

लड़का थरथर कांपता हुआ मार थांगन में खडा हो जाता है। दोनों बच्चियों घर में छिप जाती हैं कि कोई बड़ा भयंकर काण्ड होनेवाला है। छोटा बच्चा खिड़की से चूहे की तरह झांक रहा है। भाप क्रोध से बौखलाये हुए हैं। हाध में छहो है हो, मैं भी वह क्रोधोन्मत्त आकृति देखकर पछताने लगती हूँ, कि कहाँ से इनसे शिकायत की । आर लडके के पास जावे हैं, मगर छड़ी जमाने के बदले आहिस्ते से उस के कन्धे पर हाथ रखकर बनावटो क्रोध से कहते हैं-तुम कहाँ गये थे जो ? मना किया जाता है, मानवे नहीं हो । खबरदार, जो अब कभी इतनी देर को होगी । आदमी शाम को अपने घर चला आता है या मटरगश्त करता है?
मैं समझ रही हूँ कि यह भूमिका है। विषय भन आयेगा। भूमिका तो धुरो नहीं; लेकिन यहाँ तो भूमिका पर ही इति हो जाती है । बस, आपका क्रोध शान्त हो गया। बिलकुल जैसे क्वार की घटा-घेर-घार हुमा, काले बादल आये, गड़गवाहट' हुई और गिरी क्या, चार बूंदें। लड़का अपने कमरे में चला जाता है, और शायद सुशी से नाचने लगता है।

मैं पराभूत होकर कहती हूँ --- तुम तो जैसे डर गये । मला दो-चार तमाचे तो लगाये होते ! इसी तरह तो लड़के शेर हो जाते हैं।

आप फरमाते हैं --- तुमने सुना नहीं, मैंने कितने जोर से डाटा बचा की जान ही निकल गई होगी। देख लेना, जो फिर कभी देर में आये ।

'तुमने डाटा तो नहीं, हाँ, आसू पोछ दिये।'

'तुमने मेरी डट सुनौ नहीं ?

'क्या कहना है, आपकी डांट का ! लोगों के कान बहरे हो गये । लाओ, तुम्हारा गला सहला दूं।'

आपने एक नया सिद्धान्त निकाला है कि दण्ड देने से लड़के खराब हो जाते हैं। आपके विचार से लड़कों को आजाद रहना चाहिए। उन पर किसी तरह का बन्धन, शासन या दवाव न होना चाहिए। आपके मत से शासन वालकों के मानसिक विकास में बाधक होता है। इसी का यह फल है कि लड़के दे-नवेल के ऊँट बने हुए हैं। कोई एक मिनट भी चिताब खोलकर नहीं बैठता। कभी गुल्ली-डण्डा है, कभी गोलिया, कभी कनकौवे । श्रीमान् भो लड़कों के साथ खेलते हैं। चालीस साल की उम्र और लड़कपन इतना। मेरे पिताजी के सामने मजाल थी कि कोई लड़का कनकौवा उना है, या गुल्लो-डण्डा खेल सके? खून पो जाते। प्रात:काल से लड़कों को लेकर बैठ जाते थे। स्कूल से ज्यों ही लड़के भाते, फिर ले बैठते थे । बम सन्ध्या समय आध घण्टे को छुट्टो देते थे। रात को फिर जोत देते । यह नहीं कि आप तो अखबार पढ़ा करें और लड़के गली-गली भटकते फिरें। कभी-कभी आप मींग कटाकर बछड़े मन जाते हैं। लड़कों के साथ ताश खेलने बैठा करते हैं। ऐसे बाप का भला लड़कों पर क्या रोब हो सकता है ? पिताजी के सामने मेरे भाई सोधे ताक नहीं सकते थे। उनको आवाज़ सुनते ही तहलका मच जाता था। उन्होंने घर में कदम रखा और शान्ति का आभास हुआ। उनके सम्मुख जाते लड़कों के प्राण सूखते थे। उसी शासन की यह

बरकत है कि सभी लड़के अच्छे-अच्छे पदों पर पहुँच स्वास्थ्य किसी का अच्छा नहीं है। तो पिताजी ही का स्वास्थ्य कौन बना अच्छा था! बेचारे हमेशा किसी-न-किसी औषधि का सेवन करते रहते थे। और क्या कहूँ , एक दिन तो हद ही हो गई । श्रीमान् जी लड़कों को कनकौवा वड़ाने को शिक्षा दे रहे -यो घुमाओ, पों गोता दो, यो खोंचो, यो ढल दो। ऐसा तन-मन से सिबारहे थे, मानों गुरु मन्त्र दे रहे हों। उस दिन मैंने इनको ऐसी खापर लो कि याद करते होंगे--तुम कौन होते हो मेरे बच्चों को बिगाड़नेवाले ! तुम्हे घर से कोई मतलब नहीं है, न हो; लेकिन आप मेरे बच्चों को खराब न कीजिए। बुरी बुरी आदतें न सिखाइए। आप उन्हें सुधार नहीं सकते, तो कम-से-कम निगाडिए मत। लगे गले माकने । मैं चाहती हूँ. एक बार यह भी गरम पड़ें, तो अपना बाडोरूप दिखाऊँ । पर यह इतना जल्द दक्ष जाते हैं कि मैं हार जातो हूँ। पिताजी किसी लड़के को मेले-तमाशे न जाते थे। लड़का सिर पटककर मर जाय; मगर जरा भी न पसीजते थे और इन महात्माजी का यह हाल है कि एक-एक से पूछकर मेले ले जाते हैं-चलो, चलो, वहाँ वो बहार है, .खूप आतशबाजियां छूटेंगी, गुब्बारे उड़ेंगे, विलायतो चरखियाँ भी हैं । उन पर मजे से बैठना । और तो और, आप लड़कों को हाको खेलने से भी नहीं रोकते । यह अग्रेजो खेल भो कितने जानलेवा होते हैं, क्रिकेट, फुटवाल, हाको, एक से एक घातक । गेंद ला जाय तो जान लेकर हो छोड़े, पर आपको इन सभी खेलों से प्रेम है । कोई लड़का मैच में जोतकर आ जाता है, तो ऐसे फूल उठते हैं, मानो शिला फ़तह कर आया हो। मापको इसकी परा भी परवा नहीं कि चोट- चपेट खा गई, तो क्या होगा। हाथ-पांच टूट गये, तो बेवारों को जिन्दगी कैसे पार लगेगी !

पिछले साल कन्या का विवाह था। स्थापछो जिद थी कि दहेज के नाम ज्ञानी कौसो भी न देंगे, चाहे कन्या आजीवन क्यारो बैठो रहे । यहाँ भी आपका आदर्श- वाद आ कूदा । समाज के नेताओं का छल-प्रपश्च आये दिन देखते रहते हैं, फिर भी आपकी आँखें नहीं खुलती । जब तक समाज की यह व्यवस्था कायम है, और युक्तों कन्या का अविवाहित रहना निन्दास्पद है, तब तक यह प्रथा मिटने की नहीं दो-चार, ऐसे व्यक्ति भले ही निकल आयें, जो दहेज के लिए हाथ न फैलायें, लेकिन इसका परिस्थिति पर कोई असर नहीं पड़ता और कुप्रथा ज्यों-की-ज्यों बनी हुई है। पैसों

दहेज की बुराइयों पर लेकचर दे सकते हैं । लेकिन मिलते हुए दहेज को छोड़ देनेवाला मैंने आज तक न देखा। जब लड़कों की तरह लड़ड़ियों को शिक्षा और जीविका की सुविधाएं निकल आयेंगी, तो यह प्रथा भी विदा हो जायगी। उसके पहले सम्भव नहीं। मैंने जहाँ-जहाँ सन्देशा भेजा, दहेज का प्रश्न उठ खड़ा हुआ और आपने प्रत्येक अवसर पर टांग अढाई । जब इस तरह पूरा साले गुजर गया और कन्या का सत्रा लग गया, तो मैंने एक जगह बात पक्को कर ली। आपने भी स्वीकार कर लिया, क्योंकि घर-पक्ष ने लेन-देन का प्रश्न उठाया ही नहीं हालांकि अन्तःकरण में उन लोगों को पूरा विश्वास था कि अच्छी रक्कम मिलेगी और मैंने भी तय कर लिया था कि यथाशकि कोई बात उठा न रखूगी । विवाह के सकुशल होने में कोई सन्देह न था लेकिन इनम हाशय के आगे मेरी एक न दलतो थी --- यह प्रथा निन्य है, यह रस्म निरर्थक है, यहाँ रुपये को श्या प्रखरत : हाँ गीतों का क्या काम ? नाक में दम था। यह क्यो, वह क्यों, यह तो साफ दहेज है, तुमने मेरे मुँह में कालिख लगा दी, मेरी आवरू मिटा दो ! जरा सोचिए, इस परि- स्थिति को कि वरात द्वार पर पड़ी हुई है और यहाँ बात-बात पर शास्त्रार्थ हो रहा है। विवाह का मुहूर्त आधी रात के बाद था। प्रधानुसार मैंने व्रत रखा ; किन्तु आपकी टेक थी कि व्रत को कोई जरूरत नदी । जब लड़के के माता-पिता बत नहीं रखते, जब लड़का तक व्रत नहीं रखता, तो कन्या-पक्षवा ही व्रत क्यों रखें । म और सारा खानदान मना करती रही, लेकिन आपने नाश्ता किया, भोजन किया । खैर ! कन्या-दान का मुहूर्त आया। आप सदैव से इस प्रथा के विरोधी हैं । आप इसे निखिद समझते हैं। कन्या क्या दान को वस्तु है ? दान रुपये-पैसे, जगह-जमीन का हो सस्ता है। पशुदान भी होता है। लेकिन लड़की का दान ! एक लचर-सी बात है। कितना समझाती हूँ, पुरानी प्रथा है, वेदकाल से होती चलो आई है, शास्त्रों में इसकी व्यवस्था है, सम्बन्धी समझा रहे हैं, पण्डित समझा रहे हैं। पर आप है, कि कान पर जू नहीं रेंगती । हाथ जोड़ती हूँ, पैरों पड़ती हूँ, गिड़गिड़ाती हूँ लेकिन भाप मण्डप के नीचे न गये। और मजा यह है कि आपने हो तो यह अनर्थ किया और भाभी मुझसे रूठ गये। विवाह के पश्चात् महीनों बोल-चालान रहो । झक मारकर मुझी को मनाना पड़ा।

किन्तु सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि इन सारे दुर्गुणों के होते हुए भी मैं

इनसे एक दिन भी पृथक् नहीं रह सकती-एक क्षण का वियोग नहीं सह सकती। इन सारे दोषों पर भी मुझे इनसे प्रगाढ़ प्रेम है। इनमें वह कौन-सा गुण है, जिस पर मैं मुग्ध हूँ, मैं खुद नहीं मानती; पर इनमें कोई मात ऐसी है, जो मुझे इनको चेरी बनाये हुए है। वह जरा मामूल से देर में घर आते है, तो प्राण नहों में समा जाते हैं ! आज यषि विधाता इनके बदले मुझे कोई विद्या और बुद्धि का पुतशा, रूप और धन का देवता भी दे, तो मैं उसको ओर आँखें उठाकर न देखूँ । यह धर्म की बेढी नहीं है, कदापि नहीं। प्रथागत पतिव्रत भी नहीं, बल्कि हम दोनों को प्रकृति में कुछ ऐसी क्षमताएँ, कुछ व्यवस्थाएँ उत्पन्न हो गई है, मानों किसी मशीन के कल-पुरजे धिस-घिसाकर फिट हो गये हो, ओर एका पुरजे को जगह दूसरा पुरजा काम न दे सके, चाहे वह पहले से कितना ही सुडौल भोर नया और सुदृढ़ क्यों न हो । जाने हुए रास्ते है हम नि शक आँखें बन्द किये चले जाते हैं, उसके ऊँच-नीच, मोड़ और घुमान सम हमारी भाखों में समाये हुए हैं। अनजान रास्ते पर चलना कितना कष्ट-प्रद होगा। शायद आज मैं इनके दोषों को गुणों से बदलने पर भी तयार न हूँगी।