मानसरोवर १
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ २६६ से – २७२ तक

 
आखिरी हीला

यद्यपि मेरी स्मरण शक्ति पृथ्वी के इतिहास की सारी स्मरणीय तारीने भूल गई, वह तारीखें जिन्हें रातों को जागकर और मस्तिष्क को खपाकर याद किया था मगर विवाह की तिथि समतल भूमि में एक स्तम्भ की भाँति अटल है। न भूलता हूँ, न भूल सकता हूँ। उससे पहले और पीछे की सारी घटनाएं दिल से मिट गई, उनका निशान तक बाक्री नहीं । वह सारी अनेकता एक एकता में मिश्रित हो गई है और वह मेरे विवाह की तिथि है। चाहता हूँ, उसे भूल जाऊ , मगर जिस तिथि का नित्य प्रति सुमिरन किया जाता हो, वह कैसे भूल जाय । नित्यप्रति सुमिरन क्यों करता हूँ, यह उस विपत्ति-मारे से पूछिए जिसे भगवद्भजन के सिवा जीवन के उद्धार का कोई आधार न रहा हो।

लेकिन क्या मैं वैवाहिक जीवन से इसलिए भागता हूँ कि मुझमें रसिकता का अभाव है और मैं कोमल वर्ग की मोहनी शक्ति से निलित हूँ और अनासक्ति का पद प्राप्त कर चुका हूँ ? क्या मैं नहीं चाहता कि जब मैं सैर करने निकलूं, तो हृदयेश्वरी भी मेरे साथ विराजमान हो। बिलास-वस्तुओं की दूकानों पर उनके साथ जाकर थोड़ी देर के लिए रसमय भाग्रह का आनन्द उठाऊँ । मैं उस गर्व और मानन्द और महत्त्व का अनुमान कर सकता हूँ, जो मेरे अन्य भाइयों की भांति मेरे हृदय में भी आन्दो- लित होगा, लेकिन मेरे भाग्य में वह खुशियां-वह रंगरेलियां नहीं है।

क्योंकि चित्र का दूसरा पक्ष भी तो देखता हूँ ! एक पक्ष जितना ही मोहक और भाकर्षक है, दूसरा उतना ही हृदय विदारक और भयकर । शाम हुई और आप कर. नसीम बच्चे को गोद में लिये तेल या धनवाले की दुकान पर खड़े हैं। अंधेरा हुआ और भाप आटे की पोटली बगल में दबाये गलियों में यो कदम बढ़ाये हुए निकल जाते हैं, मानों चोरी की है। सूर्य निकला और बालकों को गोद में लिये होमियोपैथ डाक्टर की दुकान में टूटो कुर्सी पर भारद हैं। किसी सोंचेवाले को रसीली आवाज सुन- कर बालक ने गगनभेदी विलाप आरम्भ किया और आपके प्राण सूखे। ऐसे बापों को भी देखा है, जो दफ्तर से लौटते हुए पैसे-दो पैसे को मूंगफली या रेवड़ियां लेकर

लज्जास्पद शीघ्रता के साथ मुंह में रखते चले जाते हैं कि घर पहुँचते-पहुंचते बालकों के आक्रमण से पहले हो यह पदार्थ समाप्त हो जाय । कितना निराशाजनक होता है यह दृश्य जन्म देखता हूँ कि मेले में बच्चा किसो खिलौने की दुकान के सामने मचल रहा है और पिता महोदय ऋषियों को-सी विद्वत्ता के साथ उनको क्षणभंगुरता का राग अलाप रहे हैं।

चित्र का पहला रुख तो मेरे लिए एक मदन स्वप्न है, दूसरा रुख एक भयकर सत्य । इस सत्य के सामने मेरी सारी रसिकता अन्तर्धान हो जाती है। मेरी सारी मौलिकता, सारी रचना-शीलता इसी दाम्पत्य के फन्दों से बचने में प्रयुक्त हुई है। जानता हूँ जिजाल के नीचे जाना है, मगर जाल जितना हो रंगीन और ग्राहक है, दाना उतना ही धातक और विषैला। इस जाल में पक्षियों को तरूपते और फड़फड़ाते देखता हूँ और फिर डाली पर जा बैठता हूँ।

लेकिन इधर कुछ दिनों से श्रीमती जी ने अविश्रान्त रूप से आग्रह करना शुरू किया है कि मुझे बुला लो। पहले जब छुट्टियों में जाता था, तो मेरा केवल 'कहाँ चलोगी' कह देना उनकी चित्त-शान्ति के लिए काफी होता था, फिर मैंने 'ममट है' कहकर उन्हें तसल्ली देनी शुरू की। इसके बाद गृहस्थ-जीवन की असुविधाओं से डराया ; किन्तु अब कुछ दिनों से उनका अविश्वास बढ़ता जाता है। अब मैंने छुट्टियों में भी उनके आग्रह के भय से घर जाना बन्द कर दिया है, कि कहीं वह मेरे साथ न चल खड़ी हो और नाना प्रकार के बहानों से उन्हें भाशकित करता रहता हूँ।

मेरा पहला बहाना पत्र-सम्पादकों के जीवन की कठिनाइयों के विषय में था। कभी बारह बजे रात को सोना नसीब होता है, कभी रतजगा करना पड़ आता है। पारे दिन गली गली ठोकरें खानी पड़ती हैं । इस पर तुर्रा यह है कि हमेशा सिर पर नंगी तलवार लटकती रहती है। न जाने का गिरफ्तार हो जाऊँ, कव समानत तलब हो जाय। खुफिया पुलौस की एक फौज हमेशा पीछे पड़ी रहती है। कभी बाधार में निकल जाता है, तो लोग उँगलियाँ उठाकर कहते हैं-वह जा रहा है अखबारवाला। मानो संसार में जितनी दैविक, आधिदैविक, भौतिक, आधिभौतिक बाधाएँ हैं, उनका उत्तरदायी मैं हूँ। मानों मेरा मस्तिष्क झूठी खबरें गढ़ने का कार्या- लम है। सारा दिन अफसरों को सलामी और पुलीस की खुशामद में गुजर जाता है। कानिस्टेबिलों को देखा और प्राण-पीड़ा होने लगी। मेरी तो यह हालत और हुक्काम

हैं कि मेरी सूरत से कांपते हैं। एक दिन दुर्भाग्यवश एक अँगरेज के बँगळे हो तरफ़ जा निकला। साहब ने पूछा -क्या काम करता है ? मैंने गर्व के साथ कहा --- पत्र का सम्पादक हूँ। साहब तुरन्त अन्दर घुस गये और कपाट मुद्रित कर लिये। फिर मैंने मेम साइन और बाबा लोगों को खिड़कियों से होकते देखा ;मानों कोई भयकर जन्तु है। एक थार रेलगाड़ी में सफर कर रहा था, साथ और भी कई मित्र थे इसलिए अपने पद का सम्मान निभाने के लिए सेकेण्ड क्लास का टिकट लेना पड़ा। गाड़ी में बैठा तो एक साहब ने मेरे सूटकेश पर मेरा नाम और पेशा देखते हो तुरत अपना सन्दूक खोला और रिवाल्वर निकालकर मेरे सामने उसमें गोलियों भरी जिसमें मुझे मालूम हो जाय कि वह मुझसे सचेत हैं। मैंने देवीजी से अपनी आर्थिक कठि- नाइयो को कमो चर्चा नहीं की ; क्योंकि मैं रमणियों के सामने यह ज़िक करना अपनी मर्यादा के विरुद्ध समझता हूँ। हालांकि मैं वह चर्चा करता, तो देवीजो की दया का अवश्य पात्र बन जाता।

मुझे विश्वास था कि श्रीमतीजी फिर यहां आने का नाम न लेंगी। मगर यह मेरा भ्रम था। उनके आग्रह पूर्ववत् होते रहे।

तब मैंने दूसरा बहाना सोचा। पहले बीमारियों के अड़े हैं। हर एक खाने-पीने की चोल में विष को शका। दूध में विष, घी में विष, फलो में विष, शाक-भाजी में विष, हवा में विष, पानी में विष यहाँ मनुष्य का जीवन पानी की लकीर है। जिसे आज देखो वह छल गायब। पच्छे-खासे बैठे हैं, हृदय की गति बन्द हो गई। घर से सर को निकले, मोटर से टकराकर सुरपुर की राह ली। अगर शाम को साङ्गो- पाङ्ग घर आ जाय, तो उसे भाग्यवान् समझो । मच्छर की आवाज कान में आई, दिल भैग, माखी नजर आई भार हाथ-पांव मुले । चूहा बिल से निकला और जान निकल गई। जिधर देखिए, यमराज को अमलदारी है। अगर मोटर और ट्राम से बचकर आ गये, तो मच्छर और मक्खा के शिकार हुए। बस, यही समम लो कि मौत हर दम सिर पर सेलता रहती है। रात-भर मच्छरों से लहता हूँ, दिन-भर मक्खियों से। नन्ही-सी जान को किन-किन दुश्मनों से मचाऊँ । साँस भी मुश्किल से लेता हूँ कि फहीं क्षय के कीटाणु फेफड़े न पहुंच जायें।

देवीजी को फिर भी मुम पर विश्वान-न भाया। दूसरे पत्र में भी वही आरजू थी। लिखा था, तुम्हारे पत्र ने एक और चिन्ता बढ़ा दो। अब प्रतिदिन पत्र लिखा

करना, नहीं मैं एक न सुनूंगी और सीधे चली आऊँगी। मैंने दिल में कहा --- चलो, पत्ते छूटे।

मगर यह खटका लगा हुआ था कि न जाने कब उन्हें शहर आने को सनक सवार हो जाय । इसलिए मैंने तीसरा बहाना सोच निकाला। यहाँ मित्रों के मारे नाका-दम रहता है, आकर बैठ जाते हैं, तो उठने का नाम भी नहीं लेते, मानौ अपना घर बेच भाये है। अगर घर से टल जाओ, तो आकर बेधड़क कमरे में बैठ जाते. हैं और नौकर से जो चीज़ चाहते हैं, उधार मँगवा लेते हैं। देना मुझे पड़ता है। कुछ लोग तोहफ्तों पड़े रहते हैं, टलने का नाम ही नहीं लेते। रोज उनका सेवा- सत्कार करो, रात को थिएटर या सिनेमा दिखाओ, फिर सवेरे तक ताश मा शतरम खेली। अधिकाश तो ऐसे हैं, जो शराब के बगर जिन्दा ही नहीं रह सकते । अक्सर सो बीमार होकर आते हैं ; बल्कि अधिकतर बीमार ही भाते हैं। अब रोज डाक्टर को बुलाओ, सेवा शुश्रूषा करो, रात-भर सिरहाने बैठे पंसा मलते रहो, उस पर यह शिकायत भी सुनते रहो कि यहाँ कोई हमारी भात भी नहीं पूछता ! मेरी घड़ी महीनों से मेरी कलाई पर नहीं आई। दोस्तों के साथ जल्सों में शरीक हो रही है। अचान है, वह एक साल के पास है, कोट धूसरे साहब ले गये। जूते और एक बाबू ले उड़े। मैं वही रद्दी कोट और वही चमरौधा जूता पहनकर दत्तर आता हूँ। मित्रवृन्द ताड़ते रहते हैं कि कौन-सी नई वस्तु लाया। कोई चीज लाता हूँ, तो मारे डर के सन्दुक में बन्द कर देता हूँ। किसी की निगाह पढ़ जाय, तो कहीं-न-कही" न्योता खाने की धुन सवार हो जाय। पहली तारीख को वेतन मिलता है, तो चोरों की तरह दबे पांव घर आता हूँ कि कहीं कोई महाशय रुपयों को प्रतीक्षा में द्वार पर धरना अमाये न बैठे हो । मालूम नहीं, उनकी सारी आवश्यकताएँ पहली हो तारीख की बाट क्यों जौहती रहती हैं। एक दिन वेतन लेकर बारह बजे रात को लौटा। मगर देखा तो आधे दर्जन मित्र उस वक भी डटे हुए थे। माथा ठोक लिया। कितने होनहाने कर, उनके सामने एक नहीं चलती। मैं कहता हूँ, घर से पत्र आया है, माताजी बहुत बीमार है । जवाब देते हैं, मजी, बूढ़े इतनी अरद नहीं मरते। भरना ही होता, तो इतने दिन जीवित क्यों रहती। देख लेना, दो चार दिन में अच्छी हो बायगी, और भार मर भी जाय, तो वृद्ध जनों की मृत्यु का शोक ही क्या, वह तो और खुशी की बात है। कहता हूँ, कान का तकाजा हो रहा है। जवाब मिलता

है, आज-कल लगान तो बन्द हो हो रहा है। लगान देने की परत ही नहीं। अगर किसी संस्कार का बहाना करता हूँ, तो फरमाते हैं, तुम भी विचित्र जीव हो। कुप्रधाओं की लकीर पीटना तुम्हारी शान के खिलाफ है। अगर तुम उनका मूलोच्छेदन करोगे, तो वह लोग क्या आकाश से आगे? परत यह कि किसी तरह प्राण नहीं बचते ।

मैंने समझा था कि हमारा यह बहाना निशाने पर बैठेगा। ऐसे घर में कौन रमणी रहना पसन्द करेगी, जो मित्रों पर ही अर्पित हो गया हो। किन्तु मुझे फिर श्रम हुआ । उत्तर में फिर वही आग्रह था।

तब मैंने चौथा होय सोचा। यहाँ के मकान हैं कि चिधियों के पिंजरे, न हवा, न रोशनी । वह दुर्गन्ध उस्तो है कि खोपड़ी भन्ना जाती है। कितने ही के तो इसी दुर्गन्ध के कारण विशूचिका, टाइफाइड, यक्ष्मा आदि रोग हो जाते हैं। वर्षा हुई और मकान टपकने लगा। पानी चाहे घण्टे भर बरसे, मकान रात-भर बरसता रहता है। ऐसे बहुत धम घर होंगे, जिनमें प्रेत-माधाएं न हों। लोगों को डरावने स्वप्न दिखाई देते हैं। कितनों हो को उन्माद रोग हो जाता है । आज नये घर में आये, कल ही उसे बदलने की चिन्ता सवार हो गई। कोई ठेला असबाब से लदा हुआ जा रहा है, 'जिधर देखिए, ठेले-ही ठेळे नजर आते हैं। चोरियां तो इस कसरत से होती हैं कि भार कोई रात कुशल से बीत जाय, तो देवतामों को मनौती को जाती है। माधो रात हुई और चोर चोर ! लेना लेना की आवाजें आने लगों ! लोग दरवाओं पर मोटे- मोटे लफड़ो के फ? या जूते या चिमटे लिये खड़े रहते हैं। फिर भी चोर इतने कुशल हैं आँख बचाकर अन्दर पहुँच ही जाते हैं । एक मेरे बेतकल्लुफ दोस्त हैं, स्नेहवश मेरे पास बहुत देर तक बैठे रहते हैं। रात अंधेरे में बर्तन खड़के, तो मैंने बिजली की बत्ती जलाई । देखा तो बहो महाशय मर्तन समेट रहे हैं। मेरो भावाज सुनकर जोर से कहकहा मारा और केले, मैं तुम्हे चकमा देना चाहता था। मैंने दिल में समझ लिया, मगर निकल जाते, तो वर्तन आपके थे, जब जाग पड़ा तो चकमा हो गया। घर में आये कैसे थे, यह रहस्य है । कदाचित् रात को ताश खेलकर चले, तो बाहर जाने के बदले नीचे अंधेरी कोठरी में छिप गये। एक दिन एक महाशय मुमसे पत्र लिखवाने आये, कमरे में कलम-दावात न था। अपर के कमरे से लाने गया। लौटकर आया तो देखा, आप गायब हैं और उनके साथ फाउन्टेन भी गाया है । सारांश यह कि नगर-जीवन नरक जीवन से कम दुःखदायी नहीं है। मगर पत्नीजी पर नागरिक जीवन का ऐसा जादू चढ़ा हुआ है । कि मेरा कोई बहाना उन पर असर नहीं करता। इस पत्र के जवाब में उन्होंने लिखा --- मुमसे बहाने करते हो, मैं हर्गिका न मानूंगी, तुम आकर मुझे ले जाओ।

आखिर मुझे पांचवा बहाना करना पड़ा । यह खोचेवालों के विषय में था। अभी विस्तर से उठने की नौबत नहीं आई कि कानों में विचित्र आवाजें आने लगीं। बाबुल के मीनार के निर्माण के समय ऐसी निरर्थक आवाजेंन आई होगी। यह खोचे- वालों को शब्द-क्रीड़ा है। उचित तो यह था, यह सोचेवाले ढोल मँजौरे के साथ लोगों को अपनी चीजों को और आकर्षित करते; मगर इन आँधी अश्लवालों को यह कहां सूझती है। ऐसे पैशाचिक स्वर निकालते हैं कि सुननेवालों के रोएँ खड़े हो जाते हैं। बच्चे माँ की गोद में चिमट जाते हैं। मैं भी रात को अक्सर चौंक पड़ता हूँ। एक दिन तो मेरे पड़ोस में एक दुर्घटना हो गई। ग्यारह बजे थे। कोई महिला बच्चे को दूध पिलाने उठी थी। एकाएक शो किसी खोचेवाले को मयका ध्वनि कानों में आई, तो चीख मारकर वितका उठी और फिर बेहोश हो गई। महानों की दवा- दारू के बाद अच्छी हुई। अब रात को कानों में कई डालकर सोती है। ऐसे काण्ड नित्य होते रहते हैं। मेरे हो मित्रों में ऐसे हैं, जो अपनी स्त्रियों को घर से नाये; मगर बेचारियां दूसरे ही दिन इन आवाजों से भयभीत होकर लौट गई।

श्रीमतीजी ने इसके जवाब में लिखा --- तुम समझते हो, मैं खोचेवालों की आवाज़ों से डर जाऊँगी। 'यहाँ गीदड़ों का हौवाना और उल्लुओं का चीखना सुन- कर तो डरती नहीं, खोचेवालों से क्या डरूँगी।

अन्त में मुझे एक ऐसा बहाना सूमा, जिसकी सफलता का मुझे पूरा विश्वास था। यद्यपि इसमें मेरी कुछ बदनामी थी। लेकिन बदनामी से मैं इतना नहीं करता जितना उस विपत्ति से।

फिर मैंने लिखा --- शहर वारीमजादियों के रहने की जगह नहीं। यहां की महरिया इतनी कटुभाषिणी है कि बातों का जवाब गालियों से देतो हैं और उनके बनाव-संचार का क्या पूछना भले घरों की स्त्रियाँ तो उनके ठाट देखकर हो शर्म से पानी-पानी हो जाती हैं। सिर से पांव तक सोने से लदी हुई, सामने से निकल जाती हैं, तो ऐसा मालूम होता है कि सुगन्धि को लपट निकल गई। गृहिणियाँ मे ठाट कहाँ से लायें सिन्हें तो और भी सैकड़ों चिन्ताएं हैं। इन महरियों को तो बनाव-

सिंगार के सिवा दूसरा काम ही नहीं। नित्य नई सज-धज, नित्य नई अदा, और चचल तो इस अजब की हैं, मानो अगों में रक को जगह पाराभर दिया हो। उनका चमकना और मटकना और मुस्काना देखकर गृहिणियाँ लजित हो जाती है और ऐसो दीदादिलेर हैं कि जबरदस्तो घरों में धुत पड़ती है। जिधर देखो उधर इनका मेला-सा लगा हुआ है। इनके मारे भले आदमियों का घर में बैठना मुश्किल है। कोई खत लिखाने के बहाने से आ जाती है, कोई खत पढ़ाने के बहाने से। असली थात यह है कि गृहदेवियों का रंग फीका करने में इन्हें मानन्द आता है। इसीलिए शरीफ़ज़ादियां बहुत कम शहरों में आती हैं।

मालूम नहीं इस पत्र में मुम्छसे क्या गलती हुई कि तीसरे दिन पनौजी एक बूढे कहार के साथ मेरा पता पूछती हुई अपने तीनों बच्चों को लिये एक असाध्य रोग को भांति आ डटी।

मैंने बदहवास होकर पूछा --- क्यों कुशल तो है ?

पत्नीजी ने चादर उतारते हुए कहा --- घर में कोई चुडैल मैठो तो नहीं है ? यहाँ किसी ने कदम रखा तो नाक काट लूँगी। हाँ, जो तुम्हारी सह न हो।

अच्छा तो अब रहस्य खुला। मैंने सिर पीट लिया। क्या जानता था, अपना तमाचा अपने ही मुँह पर पड़ेगा।