मानसरोवर १
प्रेमचंद

बनारस: सरस्वती प्रेस, पृष्ठ १० से – २६ तक

 

अलग्योझा

भोला महतो ने पहली स्त्री के मर जाने के बाद दूसरी सगाई की, तो उसके लड़के रग्घू के लिए बुरे दिन आ गये। रग्घू की उम्र उस समय केवल दस वर्ष की थी। चैन से गाँव में गुल्ली-डंडा खेलता फिरता था। माँ के आते ही चक्की में जुतना पड़ा। पन्ना रूपवती स्त्री थी और रूप और गर्व में चोली-दामन का नाता है। वह अपने हाथों से कोई मोटा काम न करती। गोबर रग्घू निकालता, बैलों को सानी रग्घू देता। रग्घू ही जूठे बरतन माँजता। भोला की आँखें कुछ ऐसी फिरीं कि उसे अब रग्धू में सब बुराइयाँ-ही-बुराइयाँ नज़र आतीं। पन्ना की बातों को वह प्राचीन मर्यादानुसार आँखें बन्द करके मान लेता था। रग्घू की शिकायत की ज़रा भी परवाह न करता। नतीजा यह हुआ कि रग्घू ने शिकायत करना ही छोड़ दिया। किसके सामने रोये? बाप ही नहीं, सारा गाँव उसका दुश्मन था। बड़ा जिद्दी लड़की है, पन्ना को तो कुछ समझता ही नहीं; बिचारी उसका दुलार करती है, खिलाती-पिलाती है। यह उसी का फल है। दूसरी औरत होती, तो निबाह न होता। वह तो कहो, पन्ना इतनी सीधी-सादी है कि निबाह होता जाता है। सबल की शिकायतें सब सुनते हैं, निबल की फरियाद भी कोई नहीं सुनता। रग्घू का हृदय माँ की ओर से दिन-दिन फटता जाता था। यहाँ तक कि आठ साल गुज़र गये और एक दिन भोला के नाम भी मृत्यु का सन्देश आ पहुँचा।

पन्ना के चार लड़के थे—तीन बेटे और एक बेटी। इतना बड़ा खर्च और कमानेवाला कोई नहीं। रग्घू अब क्यों बात पूछने लगा। यह मानी हुई बात थी। अपनी स्त्री लायेगा और अलग रहेगा। स्त्री आकर और भी आग लगायेगी। पन्ना को चारों ओर अँधेरा ही दिखाई देता था, पर कुछ भी हो, वह रग्घू की आसरैत बनकर घर में न रहेगी। जिस घर में उसने राज किया, उसमें अब लौंडी न बनेगी। जिस लौंडे को अपना गुलाम समझा, उसका मुँह न ताकेगी। वह सुन्दर थी, अवस्था अभी कुछ ऐसी ज़्यादा न थी। जवानी अपनी पूरी बहार पर थी। क्या वह कोई दूसरा घर नहीं कर सकती? यही न होगा, लोग हँसेंगे। बला से! उसकी बिरादरी
मैं क्या ऐसा होता नहीं। ब्राह्मण-ठाकुर थोड़े ही थी कि नाछ कृट जायगा। यह तो उन्हीं ऊँची जातों में होता है कि घर चाहे जो कुछ करो, बाहर परदा ढका रहे। चह तो संसार को दिखाकर दसर) घर कर सकती है। फिर वह रग्घू की वैल इनकर क्यों रहे है।

भोला ॐ सरे एक महीना गुज़र चुका था। सध्या हो गई थी। पन्ना इसी चिंता में पड़ी हुई थी कि सहसा उसे ख़याल आया, लढ़के घर में नहीं हैं। यह वेल के लौटने की बेला है, कहीं कोई लड़का उनके नोचे न आ जाये। अब द्वार पर कौन है, जो उनकी देख-भाल करे। अधू को तो मेरे लड़के फूटी ऑखों नहीं भाते। भी हँसकर नहीं बोलता। घर से बाहर निकली, तो देखा, रग्घु सामने झोपड़े में बैठा रूख कौ अँडैरिय बना रहा है, तीनों लड़के उसे घेरे खड़े हैं और छोटी लड़की उसकी गर्दन में हाथ डाले उसकी पीठ पर सवार होने की चेष्टा कर रही है। पन्ना को अपनी अखिों पर विश्वास न आया। आज तो यह नई बात हैं। शायद दुनिया को दिखात है कि मैं अपने भाइयों को कितना चाहता हूँ और मन में छुरी रखी हुई है। घात मिले तो जान ही ले ले। झाला साँप है, छाला साँप। कठो स्वर में बोलो--तुम सुखके-सन वहाँ क्या करते हो ? घर में अको, साँझ की बेला है, गौरू आते होंगे।

रग्घू ने विनीत क्षेत्रों से देखकर कहा-मैं तो हूँ ही काकी, डर किस बात का है।

बड़ा लड़का बैदार बोला -- काकी, रग्घू दादा ने हमारे लिए दी गाड़ियाँ बना दी हैं। यह देख, एक पर हम और खुन्नू वैटेंगे, दूसरी पर लछमन और झुनियाँ। दादा दोनों गाड़ियाँ खींचेंगे। यह कहकर वह एक कोने से दो छोटी-छोटी गाड़ियां निकाल लाया, चार-चार पहिए लगे थे, बैठने के लिए तख्ते और रोक के लिए दोनों तरफ बाजू थे।

पन्ना ने आश्चर्य से पूछा -- ये गाड़ियों किसने बनाई ?

वेदार ने चिढ़कर कहा -- रग्घू दादा ने बनाई है, और किसने। भगत के घर से वसुला और रुखानी मग लाये और चटपट बना दी। खूब दौड़ती हैं काकी। बैठ खुन्नू, मैं खींचूँ।

'खुन्नू गाड़ी में बैठ गया। केदार खींचने लगा। वर-वर का शोर हुआ, मान गाड़ी भी इस खेल में लड़कों के साथ शरीक है।

लक्ष्मण ने दूसरी बाड़ी में बैठकर कहा-दादा, खींचो।

रग्धू ने झुनियाँ को भी गाड़ी में बैठा दिया और गाढ़ी खींचता हुआ दौ तीन लड़दे तालियाँ बजाने लगे। पन्ना चर्चित नेत्रों से यह दृश्य देख रही थी और सोच रही थी कि यह वृही रवधू है या धीर।

थोड़ी देर के बाद दोनों गाझियाँ लौंटों ; लड़के घर में जाकर इस यानयात्रा के अनुभव बयान करने लगे। कितने खुश थे सब सान हवाई जहाज़ पर बैठ आये हैं।

खुल्लू ने कहा---काकी, सब पेड़ दौड़ रहे थे।

लछमन---और बछियाँ कैसी भाग, सन-की-सेब दौड़ी।

केदार-झाडी, रचू दादा दोन गाड़ियाँ एक साथ च ले जाते हैं।

झुनिया सवते छोटो थी। उसकी व्यञ्जनशक्ति उछल-कूद और नेत्र तक परिमित थी---तालियाँ बजा-जाकर नाच रही थी।

खुन्नू---अब हमारे घर गाय सी आ जायगी झाझी। रग्घू दादा ने विरधारी से कहा है कि इसे एक य ल दो। गिरधारी चौला--कल लाऊँगा।

केदार---तीन से दे देती है काकी। खुब दूध पीयेंगे।

इतने में रग्घू भी अन्दर आ गया। पन्ना ने अवहेला की दृष्टि से देख यूछा--क्यों रग्घू, तुमने गिरधारी से कोई गाय माँग है ?

रग्घू ने क्षमा-प्रार्थना के भाव से कहा- हाँ, माँगी तो है, छल लावेगा।

पन्ना---रुपये जिसके घर से आयेंगे ? यह भी सोचा है ?

रग्घू---सब सोच लिया है की। मेरी यह मौहर नहीं हैं। इसके पच्चीस रुपये मिल रहे हैं, पांच रुपये वडिगा के मुजरा दे दें। वस याय अपनी हो जायगी।

पन्ना सन्नाटे में आ गई। अब उसका अविश्वास मन भी रग्घू के प्रेम और सज्जनता को अस्वीकार न कर सच"। लो---मोहर को क्यों में देते हैं ? गाय की अभी इन दो है। हाथ में पैसे हो जायें, तो हैं लेना सूना-सूना बोला अच्छा न लोया। इतने दिनों राय नहीं रही, तो क्या लड़के नहीं जिये ?

रग्घू दार्शनिक भार से चोली--बच्चे के खाने-पीने के यही दिन हैं काकी। इस उम्र में न वाया, तो फिर क्या वायै। मुहर पहनना मुझे अच्छा भी नहीं

मुलिया-दुनिया जो चाहे कहे ! दुनिया के हाथों बिकी नहीं हूँ। देख लेना, भाड़ लीपर हाथ झाला ही रहेगा। फिर तुम अपने भाइयों के लिए अरो, में क्यों मरूँ ?

रग्घू ने कुछ जवाब न दिया। उसे जिस बात का भय था, वह इतनी जल्द सिर पर आ पड़ी। अव अगर उसने बहुत तत्थोथो किया, तो साल-छः महीने और काम चलेगा बस, आगे यह डोंगा चलता नज़र नहीं आता। बकरे की मां कब तक खैर -मनायेगी।

एक दिन पन्ना ने महुए का सुखावन डाला। बरसात शुरू हो गई थी। वखार में अनाज गीला हो रहा था। लुलिया से बोल-बहू, ज़रा देखती रहना, मैं तालाब से नहीं आऊँ।

मुलिया ने लापरवाही से कहा -मुझे नोंद आ रही है, तुम बैठकर देखो। एक दिन न नहाओ तो क्या होगा।

पन्ना ने साड़ी उठाकर रख दी, नहाने न गई। मुलिया का चार खाली गया।

कई दिन के बाद एक शाम को पन्ना धान रोप कर लौटी, अंधेरा हो दाया था। दिन-भर की भूखी थी। आशा थी, बहू ने रोटी बना रखी होगी ; सगर देखा तो यहाँ चूल्हा ठढा पड़ा हुआ था, और बच्चे मारे भूख के तड़प रहे थे। मुलिया से आहिस्ते से पूछा--आज अभी चूल्हा नहीं जला ?

केदार ने कहा--आज दोपहर को भी चूल्हा नहीं जला काकी।भाभी ने कुछ बनाया ही नहीं।

पन्ना--तो तुम दोग ने खाया क्या ?

केदार--कुछ नहीं, रात को रोटियाँ थों, खुन्नू और लछमन ने खाई। मैंने सत्तू खा लिया।

पन्ना--और बहू है।

केदार--वह तो पड़ी सो रही हैं, कुछ नहीं लाया। ‘पन्ना ने उसी वक्त चूल्हा जलाया और खाना बनाने बैठ गई। आटा गूंधती थी और रोती थी। क्या न सोब है, दिन-भर खेत में जली, ए आई तो चुल्हे के सामने जलना पड़ा।

केदार का चौदहवाँ साल था। भाभी के रग-ढग देखेकर सारी स्थिति समझ रहा था। बोला--काकी, भाभी अब तुम्हारे साथ रहना नहीं चाहती।

पन्ना ने चौंककर पूछा---क्या, कुछ कहती थी ?

केदार---कहती कुछ नहीं थी ; मगर है उसके मन में यही बात है फिर तुम क्यों नहीं उसे छोड़ देती है जैसे चाहे रहे, हमारा भी भगवान् है।

पन्ना ने दाँतों से की दवाकर कहा-चुप, मेरे सामने ऐसी बात भूलकर भी से कहा। रग्घू तुम्हारा भाई नहीं, तुम्हारा बाप हैं। मुलिया से कभी बोलोगे, तो समझ लेना, ज़हर खा लूँगी।

( ४ )

दशहरे का त्योहार आया। इसे गाँव से कोस-सर पर एक पुरवे में मेला लगता था। गाँव के सब लड़के मेला देखने चले। पन्ना भी लड़कों के साथ चलने को तैयार हुई। मगर पैसे कहाँ से आयें ? कुञ्जो तो मुलिया के पास थी।

रग्घू ने आकर मुलिया से कहा---लड़के मेले जा रहे हैं, सबों को दो-दो आने पैसे दे दे।

मुलिया ने त्योरियाँ चढ़ाकर कहा---पैसे घर में नहीं हैं।

रग्घू--अभी तो तेलहन बिका था, क्या इतनी जल्दी रुपये उठ गये ? मुलिया--हो, उठ गये।

रग्घू---कहाँ लठ गये ? ज़रा सुनँ, आज त्योहार के दिन लड़के मेला देखने न जायेंगे ?

मुलिया---अपनी काकी से कहो, पैसे निकाले, गाड़कर क्या करेंगी।

खूँटी पर कुञ्जो लटक रही थी। रग्घू ने कुञ्जो उतारी और चाहा कि सन्दूक खोले कि मुलिया ने उसका हाथ पकड़ लिया और बोली-कुञ्जो मुझे दे दो, नहीं तो ठीक न होगा। खाने-पहनने को भी चाहिए, कागज़-किताब को भी चाहिए, उस पर मेला देखने को भी चाहिए। हमारी कमाई इसलिए नहीं है कि दूसरे खायें और मूँछों पर ताव दें।

पन्ना ने रग्घू से कहा---भइया, पैसे क्या होंगे। लड़के मेला देखने न जायेंगे।

रग्धू ने झिड़कर कहा---मेला देखने क्यों न जायँगे है सारा गाँव जा रहा है। हमारे ही लड़के ने जायेंगे ?

यह कहकर रग्घू ने अपना हाथ छुड़ा लिया और पैसे निकालकर लड़कों को दे दिये ; मगर कुञ्जो जब मुलिया को देने लगा, तब उसने उसे आँगन में फेंक दिया और मुंह लपेटकर लेट गई। लड़के मेला देखने न गये।

इसके बाद दो दिन गुज़र गये मुलिया ने कुछ नहीं खाया, और पन्ना भी भूखी रही। रग्घू कभी इसे मानता, कभी उसे ; पर न यह उठती, न वह। आखिर रग्घू ने हैरान होकर मुलिया से पूछा----कुछ मुंह से तो कह, तू चाहती क्या है ?

मुलिया ने धरती को सम्बोधित करके कहा---मैं कुछ नहीं चाहती, मुझे मेरे घर पहुँचा दो।

रग्घू---अच्छा उठ, बना-खा। पहुँचा दूंगा।

मुलिया ने रग्घू की और आंखें उठाई। रग्घू उसकी सूरत देखकर डर गया। वह माधुर्य, वह मोहकता, वह लावण्य गायब हो गया था। दाँत निकल आये थे, आँखें फट गई थी और नथुने फड़क रहे थे। अँगारे की-सी लाल आँखों से देखकर बोला--अच्छा, तो काकी ने यह सलाह दी है, यह मन्त्र पढ़ाया है ? तो यहाँ ऐसी ची नहीं हूँ। तुम दोनों की छाती पर मूंग दलूंगी। हो किस फेर में।

रग्घू---अच्छा, तो मूंग ही दल लेना। कुछ खा-पी लेगो, तभी तो मूंग दल सकेगी।

मुलिया---अब तो तभी मुँह में पानी डालूंगी, जब घर अलग हो जायगा। बहुत झेल चुकी, अब नहीं झेला जाता है।

रग्घु सन्नाटे में आ गया, एक मिनट तक तो उसके मुंह से आवाज़ ही न निकली। अलग होने की उसने स्वप्न में भी कल्पना न की थी। उसने गाँव में दो-चार परिवारों को अलग होते देखा था। वह खूब जानता था, रोटी के साथ लोगों के हृदय भी अलग हो जाते हैं। अपने हमेशा के लिए वैर हो जाते हैं। फिर उनमें वहीं नाता रह जाता है, जो गाँव के और आदमियों में। रग्घू ने मन में ठान लिया था कि इस विपत्ति को घर में न आने दें गा ; मगर होनहार के सामने उसकी एक न चली। आइ। मेरे मुँह में कालिख लगेगी। दुनिया यही कहेगी कि बाप के मर जाने पर दस साल भी एक में निबाह न हो सका। फिर किससे अलग हो जाऊँ जिनकी गोद में खिलाया, जिनको बच्चों की तरह पाला, जिनके लिए तरह तरह के कुछ

झेले, उन्हीं से अलग हो जाऊँ : अपने प्यारो को घर से निकाल बाहर करू। उसका गला फंस गया। काँपते हुए स्वर में बोला---तू क्या चाहता है कि मैं अपने भाइयों से अलग हो जाऊँ ? भला सोच तो, कहीं मुंह दिखाने लायक रहूँगा।

मुलिया---तो मेरा इन लोगों के साथ निबाह न होगा।

रग्घू---तो तू अलग हो जा। मुझे अपने साथ क्यों घसीटती है।

मुलिया तो मुझे क्या तुम्हारे घर में मिठाई मिलती है, मेरे लिए क्या ससार में जगह नहीं है ?

रग्धू---तेरी जैसी मर्जी, जहाँ चाहे रह। मैं अपने घरवालों से अलग नहीं हो सकता है जिस दिन इस घर मे दो चूल्हे जलेंगे, उस दिन मेरे कलेजे के दो टुकड़े हो जायेंगे। मैं यह चोट नहीं सह सकता। तुझे जो तकलीफ हो, वह मैं दूर कर सकता हूँ। साल-असबाव की मालकिन तू है हो अनाज-पानी तेरे हों हाथ है, अर्थ रह झ्या गया है ? अगर कुछ कम-धन्धा करना नहीं चाहती, मत कर। भगवान् ने मुझे समाई दी होती, तो मैं तुझे तिनका तक उठाने न देता। तेरे यह सुकुमार हाथ-पाँव मेहनत-मजूरी करने के लिए बनाये ही नहीं गये हैं, मगर क्या करूं, अपना कुछ बस ही नहीं है। फिर भी तेरा जी कोई काम करने को न चाहे, मत कर ; मगर मुझसे अलग होने को न कह, तेरे पैरों पढ़ता हूँ।

मुलिया ने सिर से अञ्चल खिसकाया और ज़रा समीप आकर बोली---मैं काम करने से नहीं डरती, न बैठे-बैठे खाना चाहती हैं, मगर मुझसे किसी की धौंस नहीं सही जाती। तुम्हारी ही काकी घर का काम-काज करती हैं, तो अपने लिए करती हैं, अपने बाल-बच्चों के लिए करती हैं।, मुझ पर कुछ एहसान नहीं करतीं। फिर मुझ पर धौस क्यों जमाती हैं हैं उन्हें अपने बच्चे प्यारे होंगे, मुझे तो तुम्हारा आसरा है। मैं अपनी आँखों से यह नहीं देख सकती कि सारा घर तो चैन करें, जरा-जरा-से वचे तो दूध पीयें, और जिसके वल-बूते पर गृहस्थी बनी हुई है, वह मट्ट को तरसे। कोई उसका पूछनेवाला न हो। ज़रा अपना में है तो देखो, कैसी सूरत निकल आई है। औरों के तो चार बरस में अपने पड़े तैयार हो जायेंगे। तुम तो दस साल में खाट पर पड़ जाओगे। वैठ जाओ, खड़े क्यों हों ? क्या मारकर भागोगे ? मैं तुम्हें ज़रदस्ती न बाँध लेंगी, या मालकिन का हुक्म नहीं है ? सच कहूँ, तुम बड़े झूठ-लेजी हो। मैं जानती, ऐसे निमेहिये से पाला पड़ेगा, तो इस घर में भूल से न आती।
आती भी तो मन न लगाती ; मगर अब तो मन तुमसे लग गया। घर भी जाऊँ, तो मन यहाँ ही रहेगा। और, तुम जो हो, मेरी बात नहीं पूछते।

मुलिया की ये रसीली बाते रग्घू पर कोई असर न डाल सकीं। वह उसी रुखाई से बोला-- मुलिया, मुझसे यह न होगी। अलग होने का ध्यान करते ही मेरा मन न जाने कैसा हो जाता है श। यह चोट मुझसे न सही जायगी। मुलिया ने परिहास करके कहा---तो चूड़ियाँ पहनकर अन्दर बैठौ न। लाओ मैं मूंछें लगा हूँ। मैं तो समझती थी कि तुममें भी कुछ कल-भल है। अब देखती हैं, तो निरे मिट्टी के लोंदे हो।

पन्ना दालान में खड़ी दोनों की बातचीत सुन रही थी। अब उससे न रह गया। सामने आकर रग्घू से बोली ---जब वह अलग होने पर तुली हुई है, फिर तुम क्यों उसे जबरदस्ती मिलाये रखना चाहते हो ? तुम उसे लेकर रहो, हमारे भगवान् मालिक हैं। जव महतो मर गये थे, और कहीं पत्तों की भी छह न थी, जब उस वक्त भगवान् ने निबाह दिया, तो अब क्या डर। अब तो भगवान् की दया से तीनों लड़के सेयाने हो गये हैं। अब कोई चिन्ता नहीं।

रग्घू ने आँसू---भरी आँखों से पन्ना को देखकर कहा---काकी, तू भी पागल हो गई है क्या ? जानती नहीं, दो रोटियाँ होते ही दो मन' हो जाते हैं।

पन्ना---जब वह मानती ही नहीं, तब तुम क्या करोगे ? भगवान् की यही मरज़ो होगी, तो कोई क्या करेगा। परालब्ध में जितने दिन एक साथ रहना लिखी था, उतने दिन रहे, अब उसको यही मरज़ी है, तो यही सही। तुमने मेरे बाल-बच्चों के लिए जो कुछ किया, वह मैं भूल नहीं सकती। तुमने इनके सिर हाथ न रखा होता, तो आज इनकी न जाने क्या गति होती, न जाने किसके द्वार पर ठोकरें खाते होते, न जाने कहाँ-कहाँ भीख माँगते फिरते। तुम्हारा जस मरते दम तक गाऊँ गी ; अगर मैरी खाल तुम्हारे जूते बनाने के काम आये, तो खुशौ से दे दें। चाहे तुमसे अलग हो जाऊँ ; पर जिस घड़ी पुकारेंगे, कुत्ते की तरह दौड़ी आऊँगी। यह भूलकर भी न सोचना कि तुमसे अलग होकर मैं तुम्हारा चुरा चेहूँगी। जिस दिन तुम्हारा अनभल मेरे मन में आयेगा, उसी दिन विष खाकर मर जाऊँगी। भगवान् करे, तुम दृध नहीव, पूतों फलों। मरते दम तक यही असीस मेरे रोएँ-रोएँ से निकलती रहेगी। और, अगर लड़के भी अपने बाप के हैं, तो मरते दम तक तुम्हारा पोस मानेंगे ।

यह कहकर पन्ना रोती हुई वहाँ से चली गई। रग्घू वहीं मूर्ति की तरह खड़ी रहा। आसमान की और टकटकी लगी थी और अखि से आँसू बह रहे थे।

पन्ना की बातें सुनकर मुलिया समझ गई कि अब अपने पौ बारह हैं। चटपट उठी, घर में झाड़ू लगाया, चूल्हा जलाया और कुएं से पानी लाने चली। उसकी टेक पूरी हो गई थी।

गाँव में स्त्रियों के दो दल होते हैं -एक बहुओं का, दूसरा साँसों का। बहुएँ सलाह और सहानुभूति के लिए अपने दल में जाती हैं, सासें अपने दल में। दोनों की पंचायतें अलग होती हैं। मुलिया को कुएँ पर दो-तीन बहुएँ मिल गई। एक ने पूछा-~-आज तो तुम्हारी बुढ़िया बहुत रो-धो रही थी।

मुलिया ने विजय के गर्व से कहा-इतने दिनों से घर की मालकिन बनी हुई हैं, राज पाट छोड़ते किसे अच्छा लगता है। बहन, मैं उनका बुरा नहीं चाहती; लेकिन एक आदमी की कमाई में कहाँ तक बरकत होगी। मेरे भी तो यह खाने-पीने, पहनने-ओढ़ने के दिन हैं। अभी उनके पीछे मरो, फिर बाल-बच्चे हो जायें, उनके पीछे मरो। सारी जिन्दगी रोते ही कट जाय।

एक बहू---बुढ़िया यही चाहती हैं कि यह सब जन्म-भर लौंडो बनी रहें। मौटाझोटा खायँ और पड़ी रहें।

दूसरी बहू ---किस भरोसे पर कोई मरे। अपने लड़के तो बात नहीं पूछते, पराये लड़की का क्या भरोसा है कल इनके हाथ-पैर हो जायेंगे, फिर कौन पूछता है। अपनीस्थपनी मेहरियों का मुंह देखेंगे । पहले ही से फटकार देना अच्छा है। फिर तो कोई कलंक न होगा । मुलिया पानी लेकर गईं, खाना बनाया और रग्घू से बोली---जी, न्हा आओ, रौटी तैयार है।

रग्घू ने मानें सुना ही नही। सिर पर हाथ रखकर द्वार की तरफ़ जाता रहा है।

मुलिया---क्या कहती हैं, कुछ सुनाई देता है? रोटी तैयार हैं, जाओं न्हा आओ।

रग्घू---सुन तो रहा हैं, क्या बहरा हैं ? रौटो तैयार है तो जाकर खा ले। मुझे भूख नहीं है।

मुलिया ने फिर कुछ नहीं कहा। जानकर चूल्हा बुझा दिया, रोटियाँ उठाकर छीके पर रख दी और मुंह ढककर लेट रही। ज़रा देर में पन्ना आकर बोली-खाना तो तैयार है, न्हा-धोकर खा लो। वह भी तो भूखी होगी।

रग्घू ने झुंझलाकर कहा काळी, तू घर में रहने देगी कि मुंह में कालिख लगाकर कहीं निकल जाऊँ। खाना तो खाना ही है, आल न खाऊँगा, कल खाऊँगा, लेकिन अभी मुझसे न खाया जायगा। केदार क्या अभी मदरसे से नहीं आया ?

पन्ना---अभी तो नहीं आया, आता ही होगा।

पन्ना समझ गई कि जब तक वह खाना बनाकर लड़कों को न खिलायेगी और खुद न खायी, रग्घू न खायगा। इतना ही नहीं, उसे रचू से लड़ाई करनी पड़ेगी, उसे जली-कटी सुनानी पड़ेगी, उसे यह दिखाना पड़ेगा कि मैं हो उससे अलग होना चाहती हैं, नहीं तो वह इसी चिन्ता में घुल-घुल प्राण दे देगा। यह सोचकर उसले अलग चूल्हा जलाया और खाना बनाने लगी। इतने में केदार और खुन्नू मदर्स से आ गये। पन्ना ने कहा- आओ बेटा, खा लो, रोटी तैयार है।

केदार ने पूछा--भइया को भी बुला लूं ना ?

पन्ना तुम आकर खा लो उनकी रोटी बहू ने अलग बनाई है।

खुन्नू–--जाकर भइया से पूछ न आऊं ?

पन्ना---जब उनका जी चाहेगा, खायँगे। तू बैठकर खा, तुम्हें इन बातों से क्या मतल। जिसका जी चाहेगा खायगा, जिसका जी ने चाहेगा, न खाया। जब वह और उसकी बीवी अलग रहने पर तुले हैं, तो कौन मनाये ?

केदार---तो क्यों अम्माँजी, क्या हम अलग घर में रहेंगे ? पन्ना-उनका जी चाहे, एक घर में रहे, जी चाहे, अनि में दीवार डाल लें।

खुन्नू ने दरवाजे पर आकर झोका, सामने फूस की झोपड़ी थी, वहीं खाट पर पड़ा रघु नारियल पी रहा था।

खुन्नू–--भइया तो अभी नारियल लिये बैठे हैं।

पन्ना---जब जी चाहेगा, खायेंगे।

केदार--- भइया ने भाभी की डाँटा नहीं है। मुलिया अपनी कोठरी में पड़ी सुन रही थी। बाहर आकर बोलो---भइया ने तो नहीं डाँटा, अव्वा तुम आकर डॉटौ।

केदार के चेहरे का रस उड़ गया। फिर जबान न खोली। तोनों लड़कों ने खाना खाया, और बाहर निकले। लू चलने लगी थी। आम के बास में गाँव के लड़के-लड़कियाँ हवा से गिरे हुए आम चुन रहे थे। केदार ने कहा--आज हम भो आम चुनने चलें, खूब आम गिर रहे हैं।

खुन्नू--- दादा जो बठे हैं ?

लछमन --- मैं न जाऊँगा, दादा घुड़केंगे।

केदार--- वह तो अब अलग हो गये।

लछमन---तो अब हमको कोई मारेगा, तब भी दाद न बोलेंगे ?

केदार ---वाह, तब क्यों न बोलेंगे ?

रग्घू ने तीनों लड़कों को दरवाजे पर खड़े देखा ; पर कुछ बोला नहीं। पहले तो वह घर के बाहर निकलते ही उन्हें डाँट बैठता था पर आज वह मूर्ति के समान निश्चल बैठा रहा। अध लड़ को कुछ साहस हुआ : कुछ दूर और आगे बढ़े। रग्घू अब भो न बोळा, कैसे बोले वह सोच रहा था, काकी ने लड़कों को खिलापिला दिया, मुझसे पूछा तक नहीं। बच्चा उसकी आँखों पर-भौ परदा पड़ गया है। अगर मैंने लड़की को पुछारा और वह न आये तो ? मैं उनको मार-पीट तो न सकुँगा ! लू में सब मारे सारे फिरंगे। कहीं बोमर न पड़ जायँ उसका दिल मौसकर रह जाता था, लेकिन मुंह से कुछ कह न सकता था। लड़कों ने देखा कि यह बिलकुल नहीं बोलते, तौ निर्भय होकर चल पड़े।

सहसा मुलिया ने आकर कहा ---अब तो उठोगे कि अब भी नहीं ? जिनकै नाम पर फाक़ा कर रहे हो, उन्होंने मजे से लड़कों को खिलाया और आप खाया, अन आराम से सी हो हैं। ‘भोर पिया बात न पूछे, मोर सुहागिन नाँव।' एक बार भी तो मैं इ से न झुटा कि चलो भइया, खा लो।

रग्घू को इस समय सन्तक पीड़ा हो रही थी। सुलिया के इन कठोर शब्दों ने घाव पर नमक छिड़वा दिया। दुःखित नेत्रों से देखन्नर बोला--तेरी जो मर्जी थी, चही तो हुआ। अब जा ढोल बजा !

मुलिया---नहीं, तुम्हारे लिए था परोसे बैठी हैं।

रग्घू---मुझे चिढ़ा मत। तेरे पीछे मैं भी बदनाम हो रहा हूँ। जब तू किसी की होकर रहना नहीं चाहती, तो दूसरे को क्या गरज़ है, जो मेरी खुशामद करें। जाकर काकी से पूछ, लड़के आम चुनने गये हैं, उन्हें पकड़ लाऊँ ?

मुलिया अँगूठा दिखाकर बोली---यह जाता है। तुम्हें सौ बार गरज हो, जाकर पूछो।

इतने में पन्ना भी भीतर से निकल आई। रग्घू ने पूछा---लड़के बगीचे में चले गये काकी, तू चल रही है।

पन्ना---अब उनका कौन पुछत्तर है। बगीचे में जायँ, पेड़ पर चढ़े, पानी में डूबें। मैं अकेली क्या-क्या करू ?

रग्घू---जाकर पकड़ लाऊ।

पन्ना---जब तुम्हें अपने मन से नहीं जाना है, तो फिर मैं जाने को क्यों कहूँ ? तुम्हें रोकना होता, तो रोक न देते है तुम्हारे सामने ही तो गये होंगे ?

पन्ना की बात पूरी भी न हुई थी कि रग्घू ने नारियल कोने में रख दिया और चाय की तरफ़ चला।

( ६ )

रग्घू लड़कों को लेकर बस से लौटा, तो देखा, मुलिया अभी तक झोंपड़े में खड़ी है। बोली--- तू जाकर खा क्यों नहीं लेती। मुझे तो इस बेला भूख नहीं है।

मुलिया ठिकर बोली---हाँ, भूख क्यों लगेगी। भाइयों ने खाया, वह तुम्हारे पेट में पहुँच ही गया होगा।

रग्घू ने दांत पीसकर कहा---मुझे जला मत मुलिया, नहीं अच्छा न होगा। खाना वही भाग नहीं जाता। एक बेला ने खाऊंगा, तो मर न जाऊँगा। क्या तू समझती है, घर में आज कोई छोटी बात हो गई है ? तूने घर में चूल्हा नहीं जलाया, मेरे कलेजे में आग लगाई है। मुझे घमड था कि और चाहे कुछ हौ नाय, पर मेरे घर फुट का रोग न आने पावेगा। पर तूने मेरा घमंड चूर कर दिया। परालब्ध की बात है।

मुलिया तिनककर बोली--- सारा मोह छोह तुम्हीं की है कि और भी किसी को है ? मैं तो किसी को तुम्हारी तरह बिसूरते नहीं देखती।

रग्घू ने ठँडी साँस खीचकर कहा---मुलिया, घाव पर नौन न छिड़क। तेरेही

कारन मेरी पीठ में धूल लग रही है। मुझे इस गृहस्थी का मोह न होगा, तो किसे होगा ? मैंने ही तो इसे मर-मर जोड़ा है। जिनको गोद में खेलाया वहीं अब मेरै पट्टीदार होंगे। जिन बच्चों को मैं डाँटता था, उन्हें आज कड़ी आँखों से भी नहीं देख सकता। मैं उनके भले के लिए भी कोई बात करू, तो दुनिया यही कहेगी कि यह अपने भाइयों का लेटे लेता है। जा, मुझे छोड़ दें, अभी मुझसे कुछ न खाया जायगा।

मुलिया मैं कसम रखा दूँगी, नहीं, चुपके से चले चलो।

रग्घू---देख, अब भी कुछ नहीं बिगड़ा है। अपना हठ छोड़ दे।

मुलिया---हमारा ही लहू पिये, जो खाने न उठे।

रग्घू ने कान पर हाथ रखकर कहा-यह तूने क्या किया मुलिया ? मैं तो उठ ही रहा था। चले खा लें। नहाने-धोने कौन जाय, लेकिन इतना कहे देता हूँ कि चाहे चार की जगह छ रोटिया खा जाऊँ, चाहे तू मुझे घी के मटके ही में डुबा दे; पर यह दाग़ मेरे दिल से न मिटेगा।

मुलिया--- दाग-साग सब मिट जायगा। पहले सबको ऐसा ही लगता है। देखते नहीं ही, उधर कैसी चैन की वसी बज रही है। वह तो मना ही रहो थीं कि किसी तरह यह सब अलग हो जायँ। अब वह पहले की-सी चाँदी तो नहीं है कि जो कुछ घर में आवे, सत्ब गायब। अब क्यों हमारे साथ रहने लगीं। रग्घू ने आहत स्वर में कहा-इसी बात की तो मुझे ग्रम है। काकी से मुझे ऐसी आसा न थी।

रग्घू खाने वैठा, तो कौर विष के घूट-सा लगता था। जान पड़ता था, रोटियाँ भूसी की हैं। दाल पानी-सी लगती थी। पानी भी कठ के नीचे न उतरता था। दूध की तरफ़ देखा तक नहीं। दो-चार ग्रास खाकर उठ आया, जैसे किसी प्रियजन के श्राद्ध का भोजन हो।

रात का भोजन भी उसने इसी तरह किया। भोजन क्या किया, कसम पूरो की। रात भर उसका चित्त उद्विग्न रहा। एक अज्ञात शक्क उसके मन पर छाई हुई थी, जैसे भोला महतो द्वार पर बैठा रो रहा हो। वह कई बार चौंककर उठा। ऐसा जान पहा, भोला उसकी ओर तिरस्कार की आँखों से देख रहा है।

वह दो जून भोजन करता था; पर जैसे शन्नु के घर। भोला को शोक-मग्न

मूर्ति आँखों से न उतरतो थी। रात को उसे नींद न आती। वह गाँव में निकलता, तो इस तरह मुँह चुराये, सिर झुकाये, मानों गो-हत्या की हो।

( ७ )

पाँच साल गुज़र गये। रग्घू अब दो लड़कों का जाप था। आँगन मैं दीवार खिंच गई को खेतों में मेड़े डाल दी गई थी, और बैल-बधिये बाँट लिये गये थे। केदार की उम्र अब सोलह साल की हो गई थी। उसने पढ़ना छोड़ दिया था और खेत का काम करता था। खुन्नू गाय चराता था। केवलं लछमन अब तक मदरसे जाता था। पन्ना और मुलिया दोनों एक दूसरे की सूरत से जलती थीं सुलिया के दोनों लड़के बहुधा पन्ना ही के पास रहते। वह उन्हें उबटन मलती, वही काजल लगात, वहीं गोद में लिये फिरती। अगर मुलिया के मुंह से झभी अनुग्रह का एक शब्द भी न निकलता। न पुन्ना ही इसकी इच्छुक थी। वह जो कुछ करतीं, निब्र्याज भाव से करती थी। उसके दो-दो लड़के अब कमाऊ हो गये थे। लड़की खाना पका लेती थी। वह खुद ऊपर का काम-काज कर लेता। इसके विरुद्ध अघू अपने घर का अकेला था, वह भी दुबल, अशक्त और जवानी में बूढ़ा। अभी आयु तीस बर्ष से अधिक न थो; लेकिन वाले खिचड़ो हो गये थे, कमर भी झुक चली थी। खाँसी ने जोर्ण कर रखा था। देखकर दया आती थी। और, खेती पसीने की वस्तु है। खेतों की जैसो सेवा होनी चाहिए, वह उससे न हो पातो फिर अच्छो फसल कहाँ से आतो। कुछ ऋण भी हो गया था। वह चिन्ता और भी मारे डालती थी। चाहिए तो यह था कि अब उसे कुछ आराम मिलता। इतने दिनों के निरन्तर परिश्रम के बाद सिर का बौक कुछ हल्का होता; लेकिन मुलिया को स्वार्थपरती और अदूरदर्शिता ने लहराती हुई खेती उजाड़ दी ; अगर सब एक साथ रहते, तो वह अब तक पेंशन पा जाता, मजे से द्वार पर बैठा हुआ नारियल पीता। भाई काम करता, वह सलाह देता। महतो बना फिरता। कहीं किसी के झगड़े चुकाता, कहीं साधु-सन्त की सेवा करता ; पर वह अवसर हाथ से निकल गया। अब तो चिन्ताभार दिन-दिन बढ़ता जाता था।

आखिर उसे धीमा-धीमा ज्वर रहने लगा हृदय-शूल, चिन्ता, अड़े परिश्रम और अभाव का यही पुरस्कार है। पहले कुछ परवाह न की। समझो आप हो-आप अच्छ। हो जायगा ; मगर कमजोरी बढ़ने लगो, तो दवा को फिक्र हुई। जिसने जो बता दिया, खा लिया। डाक्टरों और वैद्यों के पास जाने की सामर्थ्य कहाँ और सामथ्य

भी होतो, तो रुपये खर्च कर देने के सिवा और नतो जा ही क्या था। जीर्ण ज्वर की औषधि आम हैं और पुष्टिकारक भोजन। न वह वसन्तुमालती का सेवन कर सकता था और न आराम से बैठकर बलवर्धक भोजन कर सश्ता था, कमज़ोरी बढ़ती ही गई।

पन्ना को अवसर मिलता तो वह आकर उसे तमलो देती। लेकिन उसके लड़के अव रश्बू से बात भी न करते थे। दवा-दारु तो क्या करते, उसका और मजाक उड़ाते भैया समझते थे कि हम लोगों से अलग होकर सोने की ईंट रख लेंगे। भाभी भी समझती थी, सोने से लद जाऊँगी। अव देखें, कौन पूछता है। सिसकसिसकर त मरें, त कह देना बहुत ‘हाय ! हाय' भी अच्छी नहीं होती। आदमी उतना काम करे, जितना हो सके। यह नहीं कि रुपये के लिए जान ही दे दें।

पन्ना कहती---रग्घू बेचारे का कौन दोष है।

कैदार कहता---चल, मैं खूब समझता हूँ भैया की जगह मैं होता, तो डडे से बात करता। संजाल थी कि औरत यों ज़िद करती। वह सब भैया की चाल थी। सबै सधो-बदी बात थी।

आखिर एक दिन रग्घू का टिमटिमाता हुआ जीवन-दीपक बुझ गया। मौत ने सारी चिन्ताओं का अन्त कर दिया।

अन्त समय उसने केदार को बुलाया था ; पर केदार को ऊख में पानी देना था। डरा, कही दवा के लिए न भेज दें। बहाना बता दिया।

( ८ )

मुलिया का जीवन अन्धकारमय हो गया। जिस भूमि पर उसने मन्सू को दीवार खड़ी की थी, वह नीचे से खिसक गई थी। जिस खूटे के, बल पर वह उछल रही थी, वह उखड़ गया था। गाँववालों ने कहना शुरू किया, ईश्वर ने कसा तत्काल दड दिया बेचारी मारे लाज के अपने दोनों बच्चों को लिये रोया करतो गाँव में किसी की में ह दिखाने का साहस न होता। प्रत्येक प्राणी उससे यह कहता हुआ मालूम होता था 'मारे घमढे के वरती पर पाँव न रखती थी, आखिर सजा मिल गई कि नहीं ' अब इस घर मे कैसे निबाह होगा ? वह किसके सहारे रहेगी ? किसके बल पर खेती होगी। बेचार उघू वोमार था, दुर्वल था, पर जब तक जीता रहा, अपना काम करता रहा। मारे कमजोरी के कभी-कभी सिर पकड़कर पैठ जाती और ज़रा दम लेकर फिर हाथ चलाने लगता था। सारी खेती तहस-नहस हो रही थी,

है। माँ-बाप, भाई बन्द सब पराये हैं जय भैया-जैसे आदमी का मिजाज बदल वाया, तो फिर दूसरों की क्या गिनती। दो लड़के भगवान के दिये हैं. और क्या चाहिए। बिना ब्याह किये दो बेटे सिल गये, इससे बढ़कर और क्या होगा। जिसे अपना समझो, वह अपना है, जिसे र समझो, वह गैर है।

एक दिन पन्ना ने कहा-तेरा वंश कैसे चलेगा ? केदार -मेरा वश तो चल रहा है। दोनों लड़कों को अपना ही समझता हूँ। पन्ना-समझने ही पर है, तो तू मुलिया को भी अपनी मेहरिया समझता होगा।

केदार ने झेपते हुए कहा---तुम तो गाली देती हो अम्माँ !

पन्ना---पाली कैसी, तेरी भाभी ही तो है।

केदार मेरे-जैसे लट्ठ - गँवार को वह क्यों पूछने लगी।

पन्ना---तू चरने को कह, तो मै उससे पूछू कैदार नही मेरी अम्माँ, कहा रोने-गाने न लगे। पन्ना-तेरा सन हो, तो मैं बात-बातों मैं उसके मन की थाह लू है।

केदार---मैं नहीं जानता, जो चाहे कर।

पन्ना केदार के मन की बात समझ गईं। लड़के का दिल मुलिया पर आया हुआ है, पर सोच और भय के सारे कुछ नहीं कहता।

उसी दिन उसने मुलिया से कहा---क्या करूं वह सल की लालसा मन में ही रही जाती है। केदार का घर भी इसे जाता, तो मैं निश्चिन्त हो जाती।

मुलिया--- वह तो करने ही नहीं कहते।

पन्ना---कहता है ऐसी औरत मिले, जो घर में मेल से रहे, तो कर लें।

मुलिया--- ऐसी औरत कहाँ मिलेगी ? कहीं हूँ हो।

पन्ना---मैने तो ढूंढ लिया है।

मुलिया सच ! किस गाँव की है ?

पन्ना--- अभी न बताऊँगी, मुदा यह जानती हूँ कि उससे केदार की सगाई हो जाय, तो घर बन जाय और केदार की ज़िन्दगी भी सुफल हो जाय। न जाने लड़की मानेगी कि नहीं।

मुलिया---मानेगी क्यों नहीं अम्माँ, ऐसा सुन्दर, कमाऊ, सुशील वर और

कहाँ मिला जाता है। उस जनम का कोई साधु-महात्मा है, नहीं तो लड़ाई-झगड़े के डर से कौन बिन ब्याहा रहता है। कहाँ रहती है, मैं जाकर उसे मना लाऊ।

पन्ना तू चाहे, तो उसे मना ले। तेरे ही ऊपर है।

मुलिया--- मैं आज ही चली जाऊगी अम्माँ ! उसके पैरों पढ़कर मना लाऊँगी।

पन्ना बता दूँ ! वह तू ही है।

मुलिया लजाकर बोली --- तुम तो अम्माँजी, गाली देती हो।

पन्ना--- गाली केसी, देवर ही तो है।

मुलिया---- मुझ-जैसी बुढ़िया को वह क्यों पूछेगे।

पन्ना---वह तुझो पर दाँत लगाये बैठा है। तेरे सिवा कोई और उसे भाती हो नहीं। डर के मारे कहता नहीं ; पर उसके मन की बात मैं जानती हैं।

वैधव्य के शोक से मुरझाया हुआ मुलिया का पीत वदन कमल की भाँति अरुण हो उठा। दस वर्षों में जो कुछ खोया था, वह इसी एक क्षण में सोनों ब्याई के साथ, मिल गया। वही लावण्य, वही विकास, वही आकर्षण, वही लोच !