माधवराव सप्रे की कहानियाँ
सप्रेजी के अन्य प्रकाशित ग्रन्थ
माधवराव सप्रे : इतिहास-चिन्तन
माधवराव सप्रे के निबन्ध
सप्रे-निबन्धावली
सम्पादक
देबीप्रसाद वर्मा
हिन्दुस्तानी एकेडेमी
हिन्दुस्तानी एकेडेमी,
इलाहाबाद
प्रथम संस्करण : १९८२
११०० प्रतियाँ
मूल्य : २० रुपये
मुद्रक :
स्टैण्डर्ड प्रेस,
<––प्रकाशकीय वक्तव्य
हिन्दुस्तानी एकेडेमी ने हिन्दी के अनेक गौरव-ग्रंथों का प्रकाशन उस समय से आरम्भ किया जब इस क्षेत्र में कार्य करने वाली अनेक संस्थाएँ सक्रिय नहीं थीं। जो साहित्य प्रकाशित किया गया, वह विविधात्मक है और साहित्य की प्रायः सभी विधाओं से सम्बद्ध है। वस्तुतः यह श्रद्धेय पण्डित श्रीनारायण चतुर्वेदी की कृपा से सम्भव हो पा रहा है जिन्होंने श्री देबीप्रसाद वर्मा से पाण्डुलिपि प्राप्त करके हिन्दुस्तानी एकेडेमी को उसके प्रकाशन की प्रेरणा दी तथा 'स्पष्टीकरण के दो शब्द' लिखकर कृतार्थ किया। वर्माजी ने भी पूरे उत्तरदायित्व के साथ सप्रेजी की कहानियों का ऐतिहासिक महत्त्व निर्दिष्ट करते हुए अपनी बात कही है। डॉ॰ भालचन्द्र राव तेलंग ने 'अन्तर्भाष्य-समीक्षा' लिखकर वर्माजी द्वारा किये गये संग्रह के महत्त्व को और अधिक रेखांकित किया है तथा प्रत्येक कहानी की मूल संवेदना को भी अलग-अलग प्रस्तुत किया है।
स्वर्गीय पण्डित माधवराव सप्रे (१८७१-१९३१ ई॰) उन हिन्दी-सेवियों में थे जो लोकमान्य तिलक की प्रेरणा से हिन्दी में आये थे। उनकी मातृभाषा मराठी थी, फिर भी राष्ट्रीय दृष्टिकोण अपना कर उन्होंने हिन्दी की असाधारण सेवा की। वस्तुतः उस काल में एक राष्ट्रीय मण्डल स्थापित था जो लोकमान्य तिलक के क्रांतिकारी विचारों से अनुप्रेरित होकर देश के स्वातंत्र्य-संग्राम में सक्रिय था। गीता-विषयक 'कर्मयोग-रहस्य' जैसा अद्वितीय ग्रंथ लिखकर उन्होंने एक आस्तिक भाव के साथ इस देश को जो प्रेरणा दी, वह गांधीजी के माध्यम से और भी लोकव्याप्त हो गई। सप्रेजी ने मूल मराठी से इसे हिन्दी में अनूदित किया और 'गीता-रहस्य' नाम से इसकी प्रसिद्धि हुई। महाराष्ट्र के गणेशोत्सवों के द्वारा जन-संगठन और स्वातंत्र्य-संघर्ष को जिन लोगों ने बल दिया, उनमें सप्रेजी भी थे। तिलक द्वारा सम्मादित सुविख्यात मराठी पत्र 'केशरी' का जो हिन्दी संस्करण नागपुर से निकाला गया, उसके सम्पादक पण्डित माधवराव सप्रे ही थे। 'एक भारतीय आत्मा' पण्डित माखनलाल चतुर्वेदी ने सप्रेजी से प्रेरणा लेकर 'कर्मवीर' निकाला जिसने निर्भीक वाणी और राष्ट्र-प्रेम का अद्वितीय कीर्तिमान स्थापित किया। सप्रेजी से प्रेरणा लेनेवालों में अन्य हिन्दी-सेवी पण्डित जगन्नाथप्रसाद शुक्ल, लक्ष्मीधर वाजपेयी तथा अम्बिकाप्रसाद वाजपेयी भी कम उल्लेखनीय नहीं हैं। निश्चय ही सप्रेजी का व्यक्तित्व और कृतित्व अत्यन्त प्रभावी था। हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने देहरादून अधिवेशन में सप्रेजी को सभापति का गौरवपूर्ण पद प्रदान किया। 'छत्तीसगढ़-मित्र', 'हिन्दी केशरी' और 'हिन्दी ग्रंथमाला' के संचालन, सम्पादन तथा प्रकाशन से जो ख्याति उन्हें मिल चुकी थी, यह उसी का प्रतिफल था। इस संग्रह में प्रकाशित सभी कहानियाँ १९००-१९०१ ई० के बीच 'छत्तीसगढ़मित्र' में लगभग सवा वर्ष के अन्तराल में प्रकाशित हुई थीं। ये छह कहानियाँ हिन्दी कहानी के उद्भव की सीमा पर स्थित हैं। इनमें काव्यात्मकता, आदर्शवाद और यथार्थ की मिली-जुली विचित्र स्थिति दिखाई देती है। 'एक टोकरी भर मिट्टी' कहानी सबसे अधिक ध्यान आकृष्ट करती है क्योंकि वह हिन्दी की तथाकथित प्रथम कहानी 'इन्दुमती' के समकक्ष दिखाई देती है। 'सारिका' में श्री कमलेश्वर द्वारा उसके प्रकाशन तथा बाद में श्री देबीप्रसाद वर्मा और डॉ॰ बच्चन सिंह आदि के द्वारा वाद-विवाद की स्थिति उत्पन्न हो जाने से वह और भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है। सप्रेजी की कहानियों में बहुत कुछ ऐसा है जो हिन्दी कहानी के स्वरूप-विकास की नितान्त प्रारम्भिक स्थिति का द्योतन करता है। अवश्य ही उससे हिन्दी के इतिहास-लेखकों तथा अनुचिन्तकों को प्रचलित मान्यताओं पर पुनर्विचार करने की प्रेरणा मिलेगी। यह आवश्क नहीं है कि किसी एक ही कहानी को हिन्दी की प्रथम कहानी का श्रेय दे दिया जाय, अनेक कहानियाँ प्राथमिकता के इस श्रेय की भागीदार हो सकती हैं। निःसन्देह सप्रेजी की कहानियाँ ऐसी ही हैं। हिन्दी-जगत् में इनके प्रकाशन का स्वागत होगा––इसका मुझे पूर्ण विश्वास है।
जगदीश गुप्त
सचिव
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